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अतिथि पूजन

अतिथि पूजन

अतिथि पूजन

अकृते वैश्वदेवेऽपि भिक्षौ च गृहमागते ।

उद्धत्य वैश्वदेवार्थं भिक्षां दत्त्वा विसर्जयेत् ||1||

पूर्व दशमें अध्याय में षट्कर्म कहे अब एकादश अध्याय में षट्कर्म अन्तर्गत अतिथि पूजन निरूपण करते हैं :- हारीतस्मृति में कहा है कि वैश्वदेव कर्म करने के पहिले यदि भिक्षु (अतिथि) गृह में आजावे तो प्रथम वैश्वदेव कर्म के लिए भोजन निकालकर तब भिक्षु को भिक्षा देकर विसर्जन करे ||1||

काष्ठभारसहस्रेण घृतकुम्भशतेन च |

अतिथिर्यस्य भग्नाशस्तस्य होमो निरर्थकः ||2||

पाराशर स्मृति में कहा है कि जिस गृहस्थी के घर से अतिथि सत्कार न पाकर निराश चला जाता है तिस गृहस्थी का काष्ठ के हजार भारों से और घृत के सौ घटों से करा हुआ अग्निहोत्र निष्फल ही हो जाता है ||2||

न पृच्छेद्रोत्रचरणे न स्वाध्यायं श्रुतं तथा ।

हृदये कल्पयेद्देवं सर्वदेवमयो हि सः ||3||

अतिथिपूजा के पुण्य का अभिलाषी गृहस्थी अतिथि का नाम गोत्र आचरण तथा स्वाध्याय (क्या पढ़े हो) यह न पूछे और अपने हृदय में अतिथि को सर्व देवताओं का स्वरूप विष्णु जानकर पूजा करे ||3||

द्वारावलोकन कुर्यादतिथिग्रहणाय च।

गोदोहकर्ममात्रं तु भाग्यात्प्राप्तोऽतिथिर्यदि ||4||

देववत्पूजयेद्भक्त्या यथाशक्त्यान्नपानतः ||5||

पद्मपुराण में कहा है कि गृहस्थ भोजन बनाकर अतिथिपूजन के लिए गृह के द्वार में खड़ा होकर इतने काल देखता रहे जितने काल में गौ दुही जाती है ! यदि भाग्य से अतिथि प्राप्त हो जाय तो श्रद्धा-भक्ति से यथाशक्ति अन्नपान आदि से देवता के समान अतिथि का पूजन करे || 4 || 5 ||

स्वागतेनाग्नयतृप्ता आसनेन शतक्रतुः ।

पितरः पादशौचेन अन्नाद्येन प्रजापतिः ।।6।।

महाभारत में कहा है कि अतिथि का प्रिय भाषण आदि से स्वागत करने से अग्नि देवता तृत होते हैं और अतिथि को आसन देने से देवराज इन्द्र तृप्त होते हैं। अतिथि के पाद प्रक्षालन से पितरदेवता तृप्त होते हैं और अतिथि को भोजन कराने से प्रजापति देव तृम होते हैं।।6।।

ब्रह्मचारी यतिश्चैव वानप्रस्थो व्रतस्थितः ।

गृहस्थं समुपासन्ति मध्यान्हातिक्रमे सदा ।।7।।

देवीभागवत् में कहा है कि ब्रह्मचारी, यति, वानप्रस्थी यह अपने-अपने व्रत को पालन करते हुए तीन आश्रमी मध्याह्न काल से पीछे सदा गृहस्थाश्रम की ही भिक्षा के ‘लिए उपासना करते हैं ||7||

श्रद्धया चान्नदानेन वाचा सूनूतया तथा ।

उपकुर्वन्ति धर्मस्था गृहाश्रमनिवासिनः ।।8।।

धर्म में स्थिति वाले गृहस्थाश्रमी श्रद्धा-भक्ति से तथा प्रिय सत्य भाषण से यथाशक्ति अन्नपान आदि के प्रदान से तीन आश्रमियों पर उपकार करते हैं। चार आश्रमियों का धर्मपूर्वक एकत्र होना ही कुम्भ पर्व है। शास्त्र की विधि से तीन आश्रमियों का धर्मपूर्वक एकत्र होना ही कुम्भ पर्व है। शास्र की विधि से तीन आश्रमियों का यथा शक्ति सत्कार कर गृहस्थी कुम्भ पर्व के फल को प्राप्त होता है ।।8।।

गृहश्रमात्परो धर्मो न दृष्टो न च वें श्रुतः ।

वसिष्ठादिभिराचार्यैर्ज्ञानिभिः समुपाश्रितः ||9||

देवी भागवत् में व्यासजी ने वन को जाते हुए शुकदेवजी से कहा है है पुत्र ! गृहस्थाश्रम से बढ़कर धर्म न तो शास्त्रों में देखा है और न ऋषियों से सुना है। यदि कहो कि ज्ञानी गृहस्थ को स्वीकार नहीं करते सो तो बात नहीं है क्योंकि आत्माब्रह्मस्वरूप अद्वैत ज्ञानी श्रीरामचन्द्रजी के आचार्य वसिष्ठादि ने भी गृहस्थाश्रम के धर्म को पालन किया है ||9||

गृहाश्रमः पुण्यतमः सर्वदा तीर्थवद्गृहम् ।

अस्मिन्गृहाश्रमे पुण्ये दानं देयं विशेषतः ।।10।।

पद्मपुराण में कहा है कि श्रेष्ठ पुरुषों से सेवित होने से अति पुण्यरूप गृहस्थाश्रम है सर्वदा तीर्थ के समान गृहस्थ को कहा है इस पुण्यरूप गृहस्थाश्रम में विशेषकर दान करना ही उचित है ।।10।।

देवानां पूजनं यत्र अतिथिनां तु भोजनम् ।

पथिकानां च शरणमतो धन्यतमो मतः ||11||

जिस गृहस्थाश्रम में प्रतिदिवस देवताओं का पूजन होता है अतिथियों को भोजन कराया जाता है और मार्ग चलने वाले पथिकों को विश्राम के लिए स्थान दिया जाता है। ऐसे पुण्या-चरण से गृहस्थाश्रम को अति धन्यवाद के योग्य माना है और ऐसे आचरण से हीन गृहस्थ को नरक गामी कहा है ।।11।।

निष्क्रान्ते मयि कल्याणि तथा संनिहितेऽनघे ।

नातिथिस्तेऽवमन्तव्यः प्रमाणं यद्यहं तव ।।12।।

महाभारत में कहा है कि अग्नि के पुत्र सुदर्शनराजा ओघवती राणी के साथ अपने हाथ के उपार्जित धन से अतिथि पूजन धर्म करके मृत्यु को जय करने के लिए अपनी रानी से कहते हैं हे कल्याणि ! मेरे दूर जाने पर तथा पास में रहने पर हे निष्पापे ! तुमने अतिथि का अपमान न करना यदि तुम्हारे को मैं पतिरूप से प्रमाणभूत माननीय हूँ तो यह मेरी आज्ञा तुमने पालन करनी ।।12।।

तमब्रवीदोघवती तथा मूर्ध्रिकृतांजलिः ।

न मे त्वद्वचनात्किंचिन्न कर्तव्यं कथंचन ||13||

तब ओघवती रानी ने धर्मपरायण राजा को हाथ जोड़कर तथा सिर नमाकर कहा हे प्राणनाथ ! आपके वचन से ऐसा कोई संसार में कार्य नहीं जो मैं न कर सकूं। आप पति की आज्ञा पालने के लिए मैं शीघ्र ही प्राण तक देने के लिए तैयार हूँ ।।13।।

प्राणा हि मम दाराश्च यच्चान्यद्विद्यते वसु ।

अतिथिभ्यो मया देयमिति मे व्रतमाहितम् ।।14।।

किसी दिन काष्ठ के लिए राजा के वन में चले जाने पर यमराज भिक्षु ब्राह्मण का रूप धारण कर राजा-रानी दोनों की परीक्षा के लिए प्रथम रानी के पास गये। रानी ने स्वागतकर भिक्षा की प्रार्थना करी तब यमरूप भिक्षु ने कहा हम तो तुम्हारे शरीर की भिक्षा लेंगे। तब रानी ने पति की आज्ञा को विचार कर ब्राह्मण भिक्षु को शरीर प्रदान कर दिया। ब्राह्मण ने को बुलाया। के द्वार को बन्दकर संकुल लगा दिया। इतने में राजा ने आकर रानी को बुलाया।

तब लज्जित हुई रानी के न बोलने पर राजा ने कहा हे प्रिये ! रोज हाथ जोड़कर स्वागत करती थी आज मुख से भी नहीं बोलती हो। तब ब्राह्मण भिक्षु ने कहा हे राजन् ! आज तुम्हारी रानी ने गृह के सहित भिक्षु को शरीर प्रदान कर दिया है। इस हेतु से नहीं बोलती है। यह आपको स्वीकार है वा नहीं सो आप कहें।

तब सुदर्शन राजा ने कहा हे विप्रवर अतिथि ! यावत् मेरी रानियां हैं, यावत् मेरा धन है यावत् मेरी विभूति है, प्राण पर्यन्त मेरा सर्वस्व अतिथियों के लिए प्रदेय है, यह मेरा व्रत धारण करा हुआ है। एक गृह के सहित एक रानी के ही शरीर प्रदान से मेरे को तोष नहीं है। अस्तु प्राण पर्यन्त सर्वस्व मेरे से लेकर आप मेरा व्रत पूर्ण करने की कृपा करें।

तब प्रसन्न होकर भिक्षुरूप यमराज ने कहा हे राजन् ! मैं यमराज हूँ आपकी परीक्षा के लिए भिक्षु का रूप धरकर आया था। आज आपने अतिथि पूजन धर्म द्वारा मेरे को जीत लिया है अब आप यमलोक में न जा सकेंगे। ऐसे सुदर्शन राजा ने अतिथिपूजन से मृत्यु को जीत लिया है ।।14।।

अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते ।

स दत्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ||15||

सक्तुप्रस्थेन यज्ञोऽयं संमितो नेति सर्वथा ।

सक्तुप्रस्थलवैस्तैर्हि तदाहं कांचनी कृतम् ।।16।।

महाभारत में कहा है कि जिस गृहस्थी के घर से अतिथि सत्कार न पाकर निराश चला जाता है उस गृहस्थी को अतिथि अपने पाप दे जाता है और गृही के पुण्य ले जाता है। ।।15।।

महाभारत में कहा है कि कुरुक्षेत्र निवासी एक ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्र की पत्नी के सहित चारों ही उञ्छ वृत्ति से जीवन करते थे। तीन दिनों में चारों ने उच्छवृत्ति से पाव-पाव भर दाने बीने। सब मिलाकर सत्तु बनाकर पाव-पाव भर सत्तु चारों ने बाँट लिया, तब ब्राह्मण ने अतिथि पूजन के लिए चौफेर देखा। तब विष्णु भगवान् भिक्षु का रूप धरकर आ गये। ब्राह्मण ने स्वागत कर प्रसन्नता से अपना पावभर सत्तु भिक्षु को दे दिया।

तब ब्राह्मणी ने विचारा कि अतिथि और पति के भूखे रहने पर स्त्री को भोजन करना उचित नहीं। ऐसा विचार कर पति से कहा हे प्राणनाथ ! यह पावभर सत्तु अतिथि को देकर तृप्त करें ब्राह्मण ने ऐसा ही किया। फिर भी अतिथि की क्षुधा शान्त न हुई तब पुत्र ने भी अपना सत्तु पिता को दे दिया तो पिता ने कहा हे पुत्र ! तुम तीन दिन के भूखे हो नवयुवक को भूख ज्यादा लगती है। तब पुत्र ने कहा हे तात ! माता-पिता और अतिथि के भूखे रहने पर जो पुत्र भोजन करता है सो राक्षस है ।

यह सुन ब्राह्मण ने प्रसन्न होकर पुत्र का भाग भी अतिथि को दे दिया, अतिथि हरिहर कर गये पर क्षुधा उनकी शान्त न हुई। यह देख पुत्र की पत्नी ने अपना सत्तु दे दिया तो ब्राह्मण कहने लगा हे पुत्रि ! तुम तीन दिन की भूखी हो । बाला स्त्री को भूख ज्यादा लगती है। तब पुत्र की पत्नी ने कहा भो पूज्यवर देव ! जो स्त्री पति देव, सासु और ससुर देव, अतिथिदेव के भूखे रहने पर भोजन करती है सो स्त्री राक्षसी है। ऐसा सुन ब्राह्मण ने प्रसन्न होकर उससे भी सत्तु लेकर दे दिया। अतिथि भिक्षु पुत्र-पत्नी का सत्तु खाने लगा।

इस प्रकार भिक्षुरूप विष्णु के सेरभर सत्तु खाकर पात्र धोकर पीने में कुछ जलबिन्दु भूमि में बिल में एक नकुल पर जा पड़ा तिससे नकुल स्वर्ण का हो गया। ऐसे अतिथिपूजन से प्रसन्न हुए भिक्षु विष्णु ने चतुर्भुज होकर ब्राह्मण से प्रसन्न होकर कहा हे विप्रवर। आप लोक इस मृत्युलोक में निवास करने योग्य नहीं हो। इस विमान में बैठकर वैकुण्ठ को चलो। तब चारों विष्णु भगवान् के साथ विमान में बैठकर बैकुण्ठ को चले गये। उधर अतिथि के उच्छिष्ठ जल के बिन्दु नकुल पर पड़ने से उसको सुवर्ण के चिह्न शरीर पर दिखाई दिये। इस पर उसको विचार हुआ कि धर्मात्मा पुरुषों के यज्ञ शेष प्रसाद से सुवर्ण रूप वाले हो जाते हैं।

तो युधिष्ठिर के यज्ञ जैसा न ‘भूतो न भविष्यति’ ऐसा महत्व ब्राह्मणों से सुनकर नकुल युधिष्ठिर के यज्ञ में जहाँ सर्व जातियों के लिए खानपान का भिन्न-भिन्न प्रबन्ध करा हुआ था तहाँ यह नकुल भी नकुलों में जाकर दूधपाक आदि खाकर शरीर में लगाकर देखा कि मैं सुवर्ण रूप हुआ हूँ या नहीं । तो जैसा था वैसा ही रहा।

तब उस नकुल ने उच्च स्वर से युधिष्ठिर आदि राजाओं से कहा हे नराधिपो ! यह जो आप लोगों का करोड़ों की संख्या में संपादित यज्ञ है सो उच्छ वृत्ति वाले कुरुक्षेत्र निवासी ब्राह्मण के सेरभर सत्तु के यज्ञ के समान नहीं है यह वार्ता में सर्वथा सत्य कहता हूँ। क्योंकि तिस यज्ञ में सेरभर सत्तुओं के लवमात्र के स्पर्श से मैं सुवर्ण रूप हो गया हूँ और आपके यज्ञ में कष्टसाध्य द्रव्य न होने से कोई भी सुवर्ण रूप नहीं हुआ है ||16||

कुशलं कृष्ण सर्वत्र कुत्र वासस्तवाधुना ।

कति दारा धनापत्यमेतद्विस्तरतो वद ||17||

यदि प्रसन्नो भगवंतस्तदा गच्छस्व मे गृहम् ।

शिरसा धार्य पादाम्बुं प्रयास्यामि पवित्रताम् ।।18।।

स्कन्दपुराण में कहा है कि द्वारका में दर्शन करने को आये हुए दुर्वासा ऋषि कृष्णचन्द्रजी से पूछते हैं कि हे कृष्ण ! आपके सर्व परिवार में कुशल है। बालक थे तो मथुरा में रहा करते थे अब आपका कहाँ वास है। कहाँ आपने विवाह करा है, कितने दारा पुत्र हैं, कितना धन है यह सब विस्तार से कहो । तब कुष्णचन्द्रजी ने कहा भो भगवन् । सोलह हजार एक सौ आठ तो खीयें हैं एक-एक स्त्री के दश दश पुत्र और एक-एक पुत्री है।

धन की तो कोई संख्या ही नहीं है। यदि आपकी प्रसन्नता से हमारे ऊपर पूर्ण कृपा है तो मेरे गृह में पधारने की कृपा करें, आपके चरणों के पवित्र जल को शिर पर धारण कर मैं पवित्रता को प्राप्त हो जाऊंगा।तब ऋषि ने कहा हे कृष्ण जो आपकी पहिले विवाह की स्त्री है उसके साथ तुम रथ में घोड़े की जगह में जुड़ करके, उस रथ में मेरे को बैठाकर अर्ध्य ले जा सकते हो। कृष्णचन्द्रजी रुक्मिणी के साथ रथ में युत करके तैसे ही ऋषी को घर में ले जाकर अर्ध्यपाद्य आदि से पूज कर दूधपाक भोजन कराया।

तब ऋषी ने कृष्णचन्द्रजी से कहा यह भोजनशेष दूधपाक सर्व शरीर के लगाओ। कृष्णचन्द्रजी ने तैसा ही लगाया। ऋषी ने कहा देखें आपका चरण। तब दुर्वासा ऋषि ने कृष्णचन्द्रजी के पैर की तली में दूधपाक न लगा देखकर कहा कि आपका यहाँ से ही मृत्यु होगा। कृष्णचन्द्र भक्तवत्सल परमानन्द ने ऋषिवाक्य को यथार्थ करने की ही लीला करी ।।17।।18।।

श्रुयते च कपोतेन शत्रुः शरणामागतः ।

पूजितश्च यथा न्यायं स्वैश्च मांसैर्निमन्त्रितः ||19||

महाभारत में और वाल्मीक रामायण में यह कथा है कि श्री रामचन्द्र परमानन्द शरण आये हुए विभीषण की रक्षा करते हुए सुग्रीव आदि से कहते हैं। एक कपोत पक्षी की कपोतनी को पक्षी घातक ने आकर जाल में फांद लिया। तब जाल में फंसी हुई कपोतनी ने कहा है पति । मैं तो अशक्त हूँ आप इस घातक के दोष न देखकर गृहस्थ धर्म को विचारकर वर्षा, वायु, भूख से पीड़ित का यथाशक्ति सत्कार करें।

पक्षीघातक अतिथि का सत्कार करने के लिए कपोत ने कहीं से अग्नि लाकर दी और कहा कि आप मेरे आश्रम में आकर भूखे न रहें मैं अग्नि में पड़ता हूँ आप मेरे को खाकर अपनी क्षुधा शान्त करें, ऐसा कहकर कपोत अग्नि में गिर पड़ा। इस प्रकार कपोत ने अपनी शरण में आये हुए शत्रु, पक्षी घातक को यथाविधि से निमन्त्रण देकर शरीर के मांस से पूजन करा है। ऐसा सुना जाता है तो हम राघव होकर शरणागत-विभीषण की कैसे रक्षा न करें ।।19।।

मानुष्यं जन्म संप्राप्य साधितं किं मयाधुना ।

परकायं च संपीड्य शरीरं पोषितं मया ||20||

शिवपुराण में कहा है कि इस प्रकार कपोत पक्षी के प्राण प्रदान को देखकर व्याघ ने विचार कि अहो ! दुर्लभ मनुष्य जन्म को प्राप्त होकर मुझ ने इस संसार में क्या सिद्ध करा । परदेह को पीड़ा करके इस पापकारी देह को ही पुष्ट करा, ऐसे मेरे मनुष्यपने को धिक्कार है ।।20।।

अहो देहप्रदानेन दर्शिताऽतिथिपूजना ।

तस्माद्धर्म चरिष्यामि धर्मो हि परमागतिः ।।21।।

अहोभाग्य कपोत ने देह के प्रदान से मुझ दुष्ट को अतिथिपूजन धर्म दिखाया है। इस कारण से मैं अब हिंसा न कर एक धर्म का ही आचरण करूंगा क्योंकि धर्म ही संसार में परम शुभ गति का देने वाला है। ऐसा विचार कर व्याघ ने अपने पापों की निवृत्ति के लिए शरीर की वन के दावानल में आहुति कर दी यह महाभारत में कहा है ||21||

तद्यस्यैव विद्वान् व्रात्यस्तृतीयां, रात्रिमतिथिगृहे वसति ||22||

ये दिवि पुण्यलोकास्तानेव तेनावरुन्द्धे ||23||

अथर्ववेद में कहा है कि जो संस्कारों से हीन व्रात्य संज्ञा को प्राप्त हुआ भी सो विद्वान् अतिथि जिस गृहस्थी के घर में तीन रात्रि भी वास करता है सो गृहस्थी अतिथि के तीन दिन के सत्कार से देवलोक में जो पुण्यलोक हैं तिन को प्राप्त होता है। यह अतिथिपूजन का संक्षेप से निरूपण कर दिया है ||22||23||

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