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5. आध्यात्मिकादि त्रिविध तापों का वर्णन

आध्यात्मिकादि त्रिविध तापों का वर्णन

आध्यात्मिकादि त्रिविध तापों का वर्णन

 आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक- तीनों तापको जानकर ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न होने पर पण्डितजन आत्यन्तिक प्रलय प्राप्त करते हैं ॥ आध्यात्मिक ताप शारीरिक और मानसिक दो प्रकारके होते हैं; उनमें शारीरिक तापके भी कितने ही भेद हैं।

शिरोरोग, प्रतिश्याय (पीनस), ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म, अर्श (बवासीर), शोथ (सूजन), श्वास (दमा), छर्दि तथा नेत्ररोग, अतिसार और कुष्ठ आदि शारीरिक कष्ट-भेदसे दैहिक तापके कितने ही भेद हैं। अब मानसिक तापको सुनो । काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ, मोह, विषाद, शोक, असूया (गुणोंमें दोषारोपण), अपमान, ईर्ष्या और मात्सर्य आदि भेदोंसे मानसिक तापके अनेक भेद हैं। ऐस ही नाना प्रकारके भेदोंसे युक्त तापको आध्यात्मिक कहते हैं । मनुष्योंको जो दुःख मृग, पक्षी, मनुष्य, पिशाच, सर्प, राक्षस और सरीसृप (बिच्छू) आदिसे प्राप्त होता है उसे आधिभौतिक कहते हैं । शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, जल और विद्युत् आदिसे प्राप्त हुए दुःखको श्रेष्ठ पुरुष आधिदैविक कहते हैं ।

 इनके अतिरिक्त गर्भ, जन्म, जरा, अज्ञान, मृत्यु और नरक से उत्पन्न हुए दुःख के भी सहस्त्रों प्रकारके भेद हैं । अत्यन्त मलपूर्ण गर्भाशय में उल्ब (गर्भकी झिल्ली) से लिपटा हुआ यह सुकुमार शरीर जीव, जिसकी पीठ और ग्रीवाकी अस्थियाँ कुण्डलाकार मुड़ी रहती हैं, माताके खाये हुए अत्यन्त तापप्रद खट्टे, कड़वे, चरपरे, गर्म और खारे पदार्थोंसे जिसकी वेदना बहुत बढ़ जाती है, जो मल-मूत्ररूप महापंकमें पड़ा- पड़ा सम्पूर्ण अंगोंमें अत्यन्त पीड़ित होनेपर भी अपने अंगोंको फैलाने या सिकोड़नेमें समर्थ नहीं होता और चेतनायुक्त होनेपर भी श्वास नहीं ले सकता, अपने सैकड़ों पूर्वजन्मोंका स्मरण कर कर्मोंसे बँधा हुआ अत्यन्त दुःखपूर्वक गर्भमें पड़ा रहता है ॥ 

उत्पन्न होनेके समय उसका मुख मल, मूत्र, रक्त और वीर्य आदिमें लिपटा रहता है और उसके सम्पूर्ण अस्थिबन्धन प्राजापत्य (गर्भको संकुचित करनेवाली) वायुसे अत्यन्त पीड़ित होते हैं ।  प्रबल प्रसूति-वायु उसका मुख नीचेको कर देती है और वह आतुर होकर बड़े क्लेशके साथ माताके गर्भाशयसे बाहर निकल पाता है । 

 उत्पन्न होनेके अनन्तर बाह्य वायुका स्पर्श होनेसे अत्यन्त मच्छित होकर वह जीव बेसुध हो जाता है । उस समय वह जीव दुर्गन्धयुक्त फोड़ेनेंसे गिरे हुए किसी कण्टक- विद्ध अथवा आरेसे चीरे हुए कीड़ेके समान पृथिवीपर गिरता है । उसे स्वयं खुजलाने अथवा करवट लेनेकी भी शक्ति नहीं रहती। वह स्नान तथा दुग्धपानादि आहार भी दूसरेहीकी इच्छासे प्राप्त करता है ।

अपवित्र (मल-मूत्रादिमें सने हुए) बिस्तरपर पड़ा रहता है, उस समय कीड़े और डाँस आदि उसे काटते हैं तथापि वह उन्हें दूर करनेमें भी समर्थ नहीं होता ।

इस प्रकार जन्मके समय और उसके अनन्तर बाल्यावस्थामें जीव आधिभौतिकादि अनेकों दुःख भोगता है ।  अज्ञानरूप अन्धकारसे आवृत होकर मूढहृदय पुरुष यह नहीं जानता कि ‘मैं कहाँसे आया हूँ? कौन हूँ? कहाँ जाऊँगा ? तथा मेरा स्वरूप क्या है ? ॥  मैं किस बन्धनसे बँधा हूँ? इस बन्धनका क्या कारण है? अथवा यह अकारण ही प्राप्त हुआ है? मुझे क्या करना चाहिये और क्या न करना चाहिये ? तथा क्या कहना चाहिये और क्या न कहना चाहिये ? ॥ 

धर्म क्या है ? अधर्म क्या है? किस अवस्थामें मुझे किस प्रकार रहना चाहिये ? क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है? अथवा क्या गुणमय और क्या दोषमय है?’ ॥  इस प्रकार पशुके समान विवेकशून्य शिश्नोदर- परायण पुरुष अज्ञानजनित महान् दुःख भोगते हैं ॥  अज्ञान तामसिक भाव (विकार) है, अतः अज्ञानी पुरुषोंकी (तामसिक) कर्मोंके आरम्भमें प्रवृत्ति होती है; इससे वैदिक कर्मोंका लोप हो जाता है ॥ मनीषिजनोंने कर्म-लोपका फल नरक बतलाया है; इसलियेअज्ञानी पुरुषोंको इहलोक और परलोक दोनों जगह अत्यन्त ही दुःख भोगना पड़ता है ॥

शरीरके जरा- जर्जरित हो जानेपर पुरुषके अंग-प्रत्यंग शिथिल हो जाते हैं, उसके दाँत पुराने होकर उखड़ जाते हैं और शरीर झुर्रियों तथा नस-नाड़ियोंसे आवृत हो जाता है॥  उसकी दृष्टि दूरस्थ विषयके ग्रहण करनेमें असमर्थ हो जाती है, नेत्रोंके तारे गोलकोंमें घुस जाते हैं, नासिकाके रन्ध्रोंमेंसे बहुत-से रोम बाहर निकल आते हैं और शरीर काँपने लगता है॥  उसकी समस्त हड्डियाँ दिखलायी देने लगती हैं, मेरुदण्ड झुक जाता है तथा जठराग्निके मन्द पड़ जानेसे उसके आहार और पुरुषार्थ कम हो जाते हैं॥

उस समय उसकी चलना-फिरना, उठना- बैठना और सोना आदि सभी चेष्टाएँ बड़ी कठिनतासे होती हैं, उसके श्रोत्र और नेत्रोंकी शक्ति मन्द पड़ जाती है तथा लार बहते रहनेसे उसका मुख मलिन हो जाता है ॥ अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ स्वाधीन न रहनेके कारण वह सब प्रकार मरणासन्न हो जाता है तथा [ स्मरणशक्तिके क्षीण हो जानेसे] वह उसी समय अनुभव किये हुए समस्त पदार्थोंको भी भूल जाता है ॥ 

उसे एक वाक्य उच्चारण करने में भी महान् परिश्रम होता है तथा श्वास और खाँसी आदिके महान् कष्टके कारण वह [ दिन-रात] जागता रहता है ॥ वृद्ध पुरुष औरोंकी सहायतासे ही उठता तथा औरोंके बिठानेसे ही बैठ सकता है, अतः वह अपने सेवक और स्त्री- पुत्रादिके लिये सदा अनादरका पात्र बना रहता है । उसका समस्त शौचाचार नष्ट हो जाता है तथा भोग और भोजनकी लालसा बढ़ जाती है; उसके परिजन भी उसकी हँसी उड़ाते हैं और बन्धुजन उससे उदासीन हो जाते हैं ॥ अपनी युवावस्थाकी चेष्टाओंको अन्य जन्ममें अनुभव की हुई-सी स्मरण करके वह अत्यन्त सन्तापवश दीर्घ निःश्वास छोड़ता रहता है ॥ 

इस प्रकार वृद्धावस्थामें ऐसे ही अनेकों दुःख अनुभव कर उसे मरणकालमें जो कष्ट भोगने पड़ते हैं वे भी सुनो ॥ कण्ठ और हाथ-पैर शिथिल पड़ जाते तथा शरीरमें अत्यन्त कम्प छा जाता है। बार-बार उसे ग्लानि होती और कभी कुछ चेतना भी आ जाती है ॥ उस समय वह अपने हिरण्य (सोना), धन-धान्य, पुत्र-स्त्री, भृत्य और गृह आदिके प्रति ‘इन सबका क्या होगा ?’ इस प्रकार अत्यन्त ममतासे व्याकुल हो जाता है ॥

उस समय मर्मभेदी क्रकच (आरे) तथा यमराजके विकराल बाणके समान महाभयंकर रोगोंसे उसके प्राण-बन्धन कटने लगते हैं ॥ उसकी आँखोंके तारे चढ़ जाते हैं, वह अत्यन्त पीड़ासे बारम्बार हाथ-पैर पटकता है तथा उसके तालु और ओंठ सूखने लगते हैं ॥ फिर क्रमशः दोष-समूहसे उसका कण्ठ रुक जाता है अतः वह ‘घरघर’ शब्द करने लगता है; तथा ऊर्ध्वश्वाससे पीड़ित और महान् तापसे व्याप्त होकर क्षुधा तृष्णासे व्याकुल हो उठता ॥

ऐसी अवस्थामें भी यमदूतोंसे पीड़ित होता हुआ वह बड़े क्लेशसे शरीर छोड़ता है और अत्यन्त कष्टसे कर्मफल भोगनेके लिये यातना देह प्राप्त करता है ॥ मरणकालमें मनुष्योंको ये और ऐसे ही अन्य भयानक कष्ट भोगने पड़ते हैं; अब, मरणोपरान्त उन्हें नरकमें जो यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं वह सुनो- ॥ 

प्रथम यम- किंकर अपने पाशोंमें बाँधते हैं; फिर उनके दण्ड- प्रहार सहने पड़ते हैं, तदनन्तर यमराजका दर्शन होता है और वहाँतक पहुँचनेमें बड़ा दुर्गम मार्ग  देखना पड़ता है ॥ 

 फिर तप्त बालुका, अग्नि-यन्त्र और शस्त्रादिसे महाभयंकर नरकोंमें जो यातनाएँ, भोगनी पड़ती हैं वे अत्यन्त असह्य होती हैं ॥ आरेसे चीरे जाने, मूसमें तपाये जाने, कुल्हाड़ीसे काटे जाने, भूमिमें गाड़े जाने, शूलीपर चढ़ाये जाने, सिंहके मुखमें डाले जाने, गिद्धोंके नोचने, हाथियोंसे दलित होने, तेलमें पकाये जाने, खारे दलदलमें फँसने, ऊपर ले जाकर नीचे गिराये जाने और क्षेपण-यन्त्रद्वारा दूर फेंके जानेसे नरकनिवासियोंको अपने पाप-कर्मोंके कारण जो-जो कष्ट उठाने पड़ते हैं उनकी गणना नहीं हो सकती ॥

 

केवल नरकमें ही दुःख हों, सो बात नहीं है, स्वर्गमें भी पतनका भय लगे रहनेसे कभी शान्ति नहीं मिलती ॥ [ नरक अथवा स्वर्ग-भोगके अनन्तर] बार-बार वह गर्भमें आता है और जन्म ग्रहण करता है। तथा फिर कभी गर्भमें ही नष्ट हो जाता है और कभी जन्म लेते ही मर जाता है ॥ जो उत्पन्न हुआ है वह जन्मते ही, बाल्यावस्थामें, युवावस्थामें, मध्यमवयमें अथवा जराग्रस्त होनेपर अवश्य मर जाता है ॥  जबतक जीता है तबतक नाना प्रकारके कष्टोंसे घिरा रहता है, जिस तरह कि कपासका बीज तन्तुओंके कारण सूत्रोंसे घिरा रहता है ॥  द्रव्यके उपार्जन, रक्षण और नाशमें तथा इष्ट-मित्रोंके विपत्तिग्रस्त होनेपर भी मनुष्योंको अनेकों दुःख उठाने पड़ते हैं ॥ 

 

 मनुष्योंको जो-जो वस्तुएँ प्रिय हैं, वे सभी दुःखरूपी वृक्षका बीज हो जाती हैं ॥ स्त्री, पुत्र, मित्र, अर्थ, गृह, क्षेत्र और धन आदिसे पुरुषोंको जैसा दुःख होता है वैसा सुख नहीं होता ॥ इस प्रकार सांसारिक दुःखरूप सूर्यके तापसे जिनका अन्तःकरण तप्त हो रहा है उन पुरुषोंको मोक्षरूपी वृक्षकी [घनी] छायाको छोड़कर और कहाँ सुख मिल सकता है ? ॥  अतः मेरे मतमें गर्भ, जन्म और जरा आदि स्थानोंमें प्रकट होनेवाले आध्यात्मिकादि त्रिविध दुःख समूहकी एकमात्र सनातन ओषधि भगवत्प्राप्ति ही है जिसका निरतिशय आनन्दरूप सुखकी प्राप्ति कराना ही प्रधान लक्षण है ॥  इसलिये पण्डितजनोंको भगवत्प्राप्तिका प्रयत्न करना चाहिये। कर्म और ज्ञान-ये दो ही उसकी प्राप्तिके कारण कहे गये हैं॥

 

 

ज्ञान दो प्रकारका है-शास्त्रजन्य तथा विवेकज। शब्दब्रह्मका ज्ञान शास्त्रजन्य है और परब्रह्मका बोध विवेकज ॥ अज्ञान घोर अन्धकारके समान है। उसको नष्ट करनेके लिये शास्त्रजन्य ज्ञान दीपकवत् और विवेकज ज्ञान सूर्यके समान है ॥ इस विषय में वेदार्थका स्मरणकर मनुजीने जो कुछ कहा है वह बतलाता हूँ, श्रवण करो ॥

ब्रह्म दो प्रकारका है- शब्दब्रह्म और परब्रह्म शब्दब्रह्म (शास्त्रजन्य ज्ञान) में निपुण हो जानेपर जिज्ञासु [विवेकज ज्ञानके द्वारा ] परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है ॥ अथर्ववेदकी श्रुति है कि विद्या दो प्रकारकी है-परा और अपरा परासे अक्षर ब्रह्मकी प्राप्ति होती है और अपरा ऋगादि वेदत्रयीरूपा है ॥ जो अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, पाणि-पादादिशून्य, व्यापक, सर्वगत, नित्य, भूतोंका आदिकारण, स्वयं कारणहीन तथा जिससे सम्पूर्ण व्याप्य और व्यापक प्रकट हुआ है और जिसे पण्डितजन [ज्ञाननेत्रोंसे] देखते हैं वह परमधाम ही ब्रह्म है, मुमुक्षुओंको उसीका ध्यान करना चाहिये और वही भगवान् विष्णुका वेदवचनोंसे प्रतिपादित अति सूक्ष्म परमपद है ।।  परमात्माका वह स्वरूप ही ‘भगवत्’ शब्दका वाच्य है और भगवत् शब्द ही उस आद्य एवं अक्षय स्वरूपका वाचक है ।।

। जिसका ऐसा स्वरूप बतलाया गया है उस परमात्माके तत्त्वका जिसके द्वारा वास्तविक ज्ञान होता है वही परमज्ञान (परा विद्या) है। त्रयीमय ज्ञान (कर्मकाण्ड) इससे पृथक् (अपरा विद्या) है ॥  वह ब्रह्म यद्यपि शब्दका विषय नहीं है तथापि आदरप्रदर्शनके लिये उसका’ भगवत्’ शब्दसे उपचारत: कथन किया जाता है ॥ समस्त कारणोंके कारण, महाविभूतिसंज्ञक परब्रह्मके लिये ही ‘भगवत्’ शब्दका प्रयोग हुआ है ॥ 

इस (‘भगवत्’ शब्द) में भकारके दो अर्थ हैं-पोषण करनेवाला और सबका आधार तथा गकारके अर्थ कर्म-फल प्राप्त करनेवाला, लय करनेवाला और रचयिता हैं ॥  सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- इन छः का नाम ‘भग’ है ॥  उस अखिल भूतात्मामें समस्त भूतगण निवास करते हैं और वह स्वयं भी समस्त भूतोंमें विराजमान है, इसलिये वह अव्यय (परमात्मा) ही वकारका अर्थ है ।। 

 इस प्रकार यह महान् ‘भगवान्’ शब्द परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेवका ही वाचक है, किसी औरका  नहीं ॥ पूज्य पदार्थोंको सूचित करनेके लक्षणसे युक्त इस ‘भगवान्’ शब्दका परमात्मामें मुख्य प्रयोग है तथा औरोंके लिये गौण ॥ क्योंकि जो समस्त प्राणियोंके उत्पत्ति और नाश, आना और जाना तथा विद्या और अविद्याको जानता है वही भगवान् कहलानेयोग्य है ॥ त्याग करनेयोग्य [त्रिविध] गुण [ और उनके क्लेश ] आदिको छोड़कर ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज आदि सद्गुण ही ‘भगवत्’ शब्दके वाच्य हैं ॥ 

उन परमात्मामें ही समस्त भूत बसते हैं और वे स्वयं भी सबके आत्मारूपसे सकल भूतोंमें विराजमान हैं, इसलिये उन्हें वासुदेव भी कहते हैं ॥  पूर्वकालमें खाण्डिक्य जनकके पूछनेपर केशिध्वजने उनसे भगवान् अनन्तके ‘वासुदेव’ नामकी यथार्थ व्याख्या इस प्रकार की थी ॥  ‘ प्रभु समस्त भूतोंमें व्याप्त हैं और सम्पूर्ण भूत भी उन्हींमें रहते हैं तथा वे ही संसारके रचयिता और रक्षक हैं; इसलिये वे ‘वासुदेव’ कहलाते हैं’॥ 

वे सर्वात्मा समस्त आवरणोंसे परे हैं। वे समस्त भूतोंकी प्रकृति, प्रकृतिके विकार तथा गुण और उनके कार्य आदि दोषोंसे विलक्षण हैं! पृथिवी और आकाशके बीचमें जो कुछ स्थित है उन्होंने वह सब व्याप्त किया है ॥  वे सम्पूर्ण कल्याण-गुणकि स्वरूप हैं, उन्होंने अपनी मायाशक्तिके। लेशमात्रसे ही सम्पूर्ण प्राणियोंको व्याप्त किया है और वे अपनी इच्छासे स्वमनोऽनुकूल महान् शरीर धारणकर समस्त संसारका कल्याण-साधन करते हैं ॥ 

वे तेज, बल, ऐश्वर्य, महाविज्ञान, वीर्य और शक्ति आदि गुणोंकी एकमात्र राशि हैं, प्रकृति आदिसे भी परे हैं और उन परावरेश्वरमें अविद्यादि सम्पूर्ण क्लेशोंका अत्यन्ताभाव है ॥ वे ईश्वर ही समष्टि और व्यष्टिरूप हैं, वे ही व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप हैं, वे ही सबके स्वामी, सबके साक्षी और सब कुछ जाननेवाले हैं तथा उन्हीं सर्वशक्तिमान्की परमेश्वर संज्ञा है॥  जिसके द्वारा वे निर्दोष, विशुद्ध, निर्मल और एकरूप परमात्मा देखे या जाने जाते हैं उसीका नाम ज्ञान (परा विद्या) है और जो इसके विपरीत है वही अज्ञान (अपरा विद्या) है ॥ 

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