महर्षि ऋभु और महात्मा निदाघ का संवाद
परिचय
ब्राह्मण बोले- हे राजशार्दूल पूर्वकालमें महर्षि ऋभुने महात्मा निदाघको उपदेश करते हुए जो कुछ कहा था वह सुनो ॥ हे भूपते परमेष्ठी श्रीब्रह्माजीका ऋभु नामक एक पुत्र था , वह स्वभावसे ही परमार्थतत्त्वको जाननेवाला था ॥ पूर्वकालमें महर्षि पुलस्त्यका पुत्र निदाघ उन ऋभुका शिष्य था । उसे उन्होंने अति प्रसन्न होकर सम्पूर्ण तत्त्वज्ञानका उपदेश दिया था ॥ हे नरेश्वर ! ऋभुने देखा कि सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान होते हुए भी निदाघकी अद्वैतमें निष्ठा नहीं है ॥
ऋभु का उपदेश
उस समय देविकानदीके तीरपर पुलस्त्यजीका बसाया हुआ वीरनगर नामक एक अति रमणीक और समृद्धि सम्पन्न नगर था ॥ रम्य उपवनोंसे सुशोभित उस पुरमें पूर्वकालमें ऋभुका शिष्य योगवेत्ता निदाघ रहता था ॥ महर्षि ऋभु अपने शिष्य निदाघको देखनेके लिये एक सहस्र दिव्यवर्ष बीतनेपर उस नगरमें गये ॥ जिस समय निदाघ बलिवैश्वदेवके अनन्तर अपने द्वारपर [ अतिथियोंकी ] प्रतीक्षा कर रहा था , वे उसके दृष्टिगोचर हुए और वह उन्हें द्वारपर पहुँच अर्घ्यदानपूर्वक अपने घरमें ले गया ॥
अन्न के बारे में विचार
उस द्विजश्रेष्ठने उनके हाथ – पैर धुलाये और फिर आसनपर बिठाकर आदरपूर्वक कहा – ‘ भोजन कीजिये ‘ ॥ ऋभु बोले- हे विप्रवर ! आपके यहाँ क्या – क्या अन्न भोजन करना होगा- यह बताइये , क्योंकि कुत्सित अन्नमें मेरी रुचि नहीं है ॥ निदाघने कहा- हे द्विजश्रेष्ठ ! मेरे घरमें सत्तू , जौकी लप्सी , कन्द – मूल – फलादि तथा पूए बने हैं । आपको इनमेंसे जो कुछ रुचे वही भोजन कीजिये ॥ ऋभु बोले- हे द्विज ! ये तो सभी कुत्सित अन्न हैं , मुझे तो तुम हलवा , खीर तथा मट्ठा और खाँड़से बने स्वादिष्ट भोजन कराओ ॥
तब निदाघने [ अपनी स्त्रीसे ] कहा – हे गृहदेवि ! हमारे घरमें जो अच्छी – से – अच्छी वस्तु हो उसीसे . लिये अति स्वादिष्ट भोजन बनाओ ॥ इनके ब्राह्मण ( जडभरत ) ने कहा- उसके ऐसा कहनेपर उसकी पत्नीने अपने पतिकी आज्ञासे उन विप्रवरके लिये अति स्वादिष्ट अन्न तैयार किया ॥ हे राजन् ! ऋभुके यथेच्छ भोजन कर चुकनेपर निदाघने अति विनीत होकर उन महामुनिसे कहा ॥ निदाघ बोले – हे द्विज ! कहिये भोजन करके आपका चित्त स्वस्थ हुआ न ? आप पूर्णतया तृप्त और सन्तुष्ट हो गये न ? हे विप्रवर ! कहिये आप कहाँ रहनेवाले हैं ? कहाँ जानेकी तैयारीमें हैं ? और कहाँसे पधारे हैं ?
ऋभु का परमार्थमय उपदेश
ऋभु बोले – हे ब्राह्मण ! जिसको क्षुधा लगती है उसीकी तृप्ति भी हुआ करती है । मुझको तो कभी क्षुधा ही नहीं लगी , फिर तृप्तिके विषयमें तुम क्या पूछते हो ? जठराग्निके द्वारा पार्थिव ( ठोस ) धातुओंके क्षीण हो जानेसे मनुष्यको क्षुधाकी प्रतीति होती है और जलके क्षीण होनेसे तृषाका अनुभव होता है। ये क्षुधा और तृषा तो देहके ही धर्म हैं , मेरे नहीं , अतः कभी क्षुधित न होनेके कारण मैं तो सर्वदा तृप्त ही हूँ ॥
स्वस्थता और तुष्टि भी मनहीमें होते हैं , अतः ये मनहीके धर्म हैं ; पुरुष ( आत्मा ) से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिये हे द्विज ! ये जिसके धर्म हैं उसीसे इनके विषयमें पूछो॥ और तुमने जो पूछा कि ‘ आप कहाँ रहनेवाले हैं ? कहाँ जा रहे हैं ? तथा कहाँसे आये हैं ‘ सो इन तीनोंके विषयमें मेरा मत सुनो – ॥
आत्मा सर्वगत है , क्योंकि यह आकाशके समान व्यापक है ; अत : ‘ कहाँसे आये हो , कहाँ रहते हो और कहाँ जाओगे ? ” यह कथन भी कैसे सार्थक हो सकता है ? मैं तो न कहीं जाता हूँ , न आता और न किसी एक स्थानपर रहता हूँ । [ तू , मैं और अन्य पुरुष भी देहादिके कारण जैसे पृथक् – पृथक् दिखायी देते हैं वास्तवमें वैसे नहीं हैं ] वस्तुत : तू तू नहीं है , अन्य अन्य नहीं है और मैं मैं नहीं हूँ ॥
वास्तवमें मधुर मधुर है भी नहीं ; देखो , मैंने तुमसे जो मधुर अन्नकी याचना की थी उससे भी मैं यही देखना चाहता था कि ‘ तुम क्या कहते हो । भोजन करनेवालेके लिये और अस्वादु स्वादु भी क्या है ? क्योंकि स्वादिष्ट पदार्थ ही जब समयान्तरसे अस्वादु हो जाता है तो वही उद्वेगजनक होने लगता है।
अन्न और तृप्ति का संबंध
इसी प्रकार कभी अरुचिकर पदार्थ रुचिकर हो जाते हैं और रुचिकर पदार्थोंसे मनुष्यको उद्वेग हो जाता है । ऐसा अन्न भला कौन – सा है जो आदि , मध्य और अन्त तीनों कालमें रुचिकर ही हो ? जिस प्रकार मिट्टीका घर मिट्टीसे लीपने – पोतनेसे दृढ़ होता है , उसी प्रकार यह पार्थिव देह पार्थिव अन्नके परमाणुओंसे पुष्ट हो जाता है ॥ जौ , गेहूँ , मूँग , घृत , तैल , दूध , दही , गुड़ और फल आदि सभी पदार्थ पार्थिव परमाणु ही तो हैं । [ इनमेंसे किसको स्वादु कहें और किसको अस्वादु ? ] ॥ अतः ऐसा जानकर तुम्हें इस स्वादु – अस्वादुका विचार करनेवाले चित्तको समदर्शी बनाना चाहिये , क्योंकि मोक्षका एकमात्र उपाय समता ही है ॥
अंतिम उपदेश और विदाई
ब्राह्मण बोले – हे राजन् ! उनके ऐसे परमार्थमय वचन सुनकर महाभाग निदाघने उन्हें प्रणाम करके कहा ॥ “ प्रभो ! आप प्रसन्न होइये ! कृपया बतलाइये , मेरे कल्याणकी कामनासे आये हुए आप कौन हैं ? हे द्विज ! आपके इन वचनोंको सुनकर मेरा सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया है ” ॥ ऋभु बोले- हे द्विज ! मैं तेरा गुरु ऋभु हूँ ; तुझको सदसद्विवेकिनी बुद्धि प्रदान करनेके लिये मैं यहाँ आया था । अब मैं जाता हूँ ; जो कुछ परमार्थ है वह मैंने तुझसे कह ही दिया है ॥
इस परमार्थतत्त्वका विचार करते हुए तू इस सम्पूर्ण जगत्को एक वासुदेव परमात्माहीका स्वरूप जान ; इसमें भेद – भाव बिलकुल नहीं है ॥ ब्राह्मण बोले- तदनन्तर निदाघने ‘ बहुत अच्छा ‘ कह उन्हें प्रणाम किया और फिर उससे परम भक्तिपूर्वक पूजित हो ऋभु स्वेच्छानुसार चले गये ॥