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काम पुरूषार्थ

काम पुरूषार्थ

काम पुरूषार्थ

(मनुस्मृति. अ. 9- श्लो. 28)

अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा ।

दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितृणामात्मनश्च हि ।।1।।

(महाभा. पर्व 1-अ. 74- श्लो. 41-42 )

अर्धं भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतमः सखा ।

भार्या मूलं त्रिवर्गस्य भार्या मूलं तरिष्यतः ||2||

भार्यावन्तः क्रियावन्तः सभार्या गृहमेधिनः ।

भार्यावन्तः प्रमोदन्ते भार्यावन्तः श्रियान्विताः ||3||

धन सम्बन्धी सुख रूप द्वितीय अर्थ पुरुषार्थ से अनन्तर अब स्त्री-पुत्र आदि सम्बन्धी सुखरूप काम तृतीय पुरुषार्थ का कथन करते हैं।

मनुजी ने कहा है कि पुत्र की उत्पत्ति और गृहस्थ सम्बन्धी धर्म-कर्म सेवा, शुश्रूषा और रतिरूप सुख आदि यह सर्व सुपत्नी स्त्री के ही आधीन हैं तथा पितरों को पुत्र- उत्पत्ति द्वारा और अपने को गृहस्थ सम्बन्धी कर्म-धर्म द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति शुभ स्त्री के ही अधीन है ||1||

महाभारत में शकुन्तला ने दुष्यन्त राजा से कहा है कि हे राजन् ! भार्या पुरुष की अर्धाङ्गी है और भार्या ही संसार में पुरुष का अति श्रेष्ट सखा है और धर्म अर्थ काम रूप त्रिवर्ग का भार्या ही मूल कारण है। भार्या मूलक गृहस्थ सम्बन्धी कर्म धर्म करके पुरुष संसार कष्टों से तर जाता है ।।2।।

भार्या वाले पुरुष ही शास्त्रविहित क्रिया-कर्म के अधिकारी होते हैं। सभार्य पुरुष ही गृहस्थाश्रम में पवित्र गृहमेधी माने जाते हैं, भार्या वाले ही लोक में आनन्द और प्रमोद को पाते हैं और भार्या वाले ही संसार में लक्ष्मी करके शोभायुक्त होते हैं ।।3।।

(कूर्मपु. उत्तरार्ध. अ. 12- श्लो. 48 )

गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः ।

पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ||4||

(शिवपु संहिता. 7 उत्तरार्थ – अ. 11 – श्लो. 20)

या नारी भर्तुः शुश्रूषां विहाय व्रततत्परा ।

सा नारी नरकं याति नात्रकार्या विचारणा ||5||

कूर्मपुराण में कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों द्विजातियों का अग्निदेव ही गुरु है अस्तु द्विजातियों को प्रति दिवस अग्निहोत्र करके अग्निहोत्र देव पूजनीय है और चारों वर्णों का वेदशास्त्र अधीत ब्राह्मण गुरु है स्त्रियों का सर्व प्रकार से पति ही गुरु है और सर्व गृहस्थाश्रमियों का सदाचारी संग्रह आदि से रहित अभ्यागत ही पूजनीय गुरु है ||4||

शिव पुराण में कहा है कि जो नारी अपने पतिदेव की सेवा शुश्रूषा पूजा त्यागकर व्रत- उपवास आदि में तत्पर रहती है सो शास्त्रविधि का त्याग करने वाली नारी निश्चित ही नरक को प्राप्त होती है। इस प्रकार की स्त्री के नरक में जाने पर कोई संशय रूप विचार (शंका) करना योग्य नहीं है सो स्त्री अवश्य ही नरक को जाती है ||5||

(महाभा. पर्व. 3-अ. 233 – श्लो. 25)

क्षेत्राद्वनाद्वा ग्रामाद्वा भर्तारं गृहमागतम् ।

अभ्युत्थायाभिनन्दामि आसनेनोदकेन च ||6||

(मनुस्मृ अ. 9 – श्लो. 59 )

देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिया सम्यग् नियुक्तया ।

प्रजेप्सिता धिगन्तव्या संतानस्य परिक्षये ||7||

(महाभा. पर्व 13-अ. 8 – श्लो. 22 )

नारी तु पत्यभावे वै देवरं कुरुते पतिम्।

पृथ्वी ब्राह्मणालाभे क्षत्रियं कुरुते पतिम् ।।8।।

महाभारत में कहा है कि किसी काल में श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द की सुपत्नी रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ने हस्तिनापुर में धर्मविचार में कुशल पाण्डवों की सुपत्नी द्रौपदी से पूछा कि आपने पांच पतियों को किस मन्त्र से वश में करा है हम सोलह हजार एक सौ साठ स्त्रियों से भी एक पति वश में नहीं होता है। द्रौपदी ने कहा कि हे सत्यभामे ! जो स्त्री पति को मन्त्रों से वश में करना चाहती है सो पापात्मा है, स्त्री को सदा पति के वशवर्ती होना योग्य है। 

मैं तो इस प्रकार पतियों की सेवा में रहती हूँ कि पति को किसी क्षेत्रस्थान से गृह में आये हुए को अथवा वन में से गृह में आये हुए को या और किसी ग्राम में पति को गृह हमें आये हुए को स्वागतपूर्वक हाथ जोड़कर उठकर प्रसन्न करती हूँ और फिर आसन देकर जल से पाद प्रक्षालन आदि सेवा से प्रसन्न करने की इच्छा रखती हूँ और पति को ही गुरुदेव मानती हूँ ||6||

मनुजी ने कहा है कि संतति के अभाव होने पर पुत्र की इच्छावाली विधवा स्त्री पति के अनुज भ्राता देवर से, देवर न होने पर पति के यथायोग्य से गोत्र वाले से, पुत्र उत्पन्न करे और पुरुष को ऐसी स्त्री की प्रेरणा से एक पुत्र वा दो पुत्र को उत्पत्ति करने के लिए सो स्त्री सम्यक् अधिगन्तव्य है पुत्र के होने पर नहीं ।।7।।

महाभारत में कहा है कि स्त्री पति के अभाव होने पर यदि पुत्र की इच्छा वाली हो तो देवर को पति करे जैसे पृथ्वी ब्राह्मण पालक के अभाव होने पर क्षत्रिय को पति करती है ||8||

(देवीभा. अकंध. 1-अ. 20-श्लो. 69)

ऋतुकालेऽथ संप्राप्ते व्यासेन सह संगता ।

तथा चांबालिका रात्रौ गर्भ नारी दधार सा ||9||

(पाराशरस्मृ. अ. 4- श्लो. 30)

नष्टे मृते प्रव्रजिते क्कीबे च पतिते पतौ ।

पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ||10||

(पाराशरस्मृ. अ. 4- श्लो. 31 मनुस्मृ. अ. 9-श्लो. 28)

मृते भर्तरि या नारी ब्रह्मचर्यव्रते स्थिता ।

सा मृता लभते स्वर्ग यथा ते ब्रह्मचारिणः ।।11।।

देवी भागवत में कहा है कि ऋतु काल के प्राप्त होने पर अम्बिका और अम्बालिका विचित्रवीर्य और विचित्रांग की स्त्री व्यासजी के साथ संसर्ग से रात्रि में गर्भ को धारण करती गई ||9||

पाराशर स्मृति में कहा है कि पति के परदेस जाने पर 6 वर्ष तक पता न लगने पर, मृत्यु होने पर, यति हो जाने पर, नपुसंक होने पर और पतित हो जाने पर इन पांच प्रकार की गति से पतियों के अभाव होने पर स्त्रियों को अन्य पति करने का विधान करा है। यह लेख अतिपापाचरण को रोकने के लिये संसारी विषयसुखपरायण स्त्री-पुरुषों के लिये है। यदि दुर्जन तोषन्याय से इस लेखको धर्मजनक ही मानलें तो पराशर और मनुजी के इन वचनों से विरोध होता है ||10||

पाराशर और मनुजी कहते हैं कि जो स्त्री पति के मृत्यु होने पर ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित रहती है सो स्त्री स्वर्ग को प्राप्त होती है जैसे ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यव्रत को रखकर स्वर्ग को प्राप्त होते हैं यह कल्याणकारी शास्त्रों का मुख्य सिद्धान्त है ।।11।।

काम पुरुषार्थ का विवरण

  1. परिभाषा और महत्व:

    • काम: काम का अर्थ इच्छाएँ, वासनाएँ, और भौतिक सुख हैं। यह मनुष्य की उन आकांक्षाओं और अभिलाषाओं को संदर्भित करता है जो उसे आनंद और संतोष प्रदान करती हैं।
    • महत्व: काम पुरुषार्थ का महत्व इस बात में है कि यह जीवन के आनंद और संतोष का स्रोत है। यह मनुष्य को मानसिक और भावनात्मक संतुलन बनाए रखने में सहायता करता है।
  2. काम पुरुषार्थ के विभिन्न रूप:

    • प्रेम और विवाह: प्रेम और विवाह काम पुरुषार्थ के प्रमुख उदाहरण हैं। यह व्यक्ति की भावनात्मक और सामाजिक इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम है।
    • संगीत और कला: संगीत, कला, नृत्य, और अन्य रचनात्मक गतिविधियाँ व्यक्ति को आनंद और संतोष प्रदान करती हैं, जो काम पुरुषार्थ का एक रूप है।
    • सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ: सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने से व्यक्ति को मानसिक और भावनात्मक संतोष मिलता है।
  3. काम पुरुषार्थ का संतुलन:

    • धर्म के अधीन: काम पुरुषार्थ का पालन धर्म के अधीन रहकर करना चाहिए। धर्म के नियमों और मर्यादाओं का पालन करते हुए इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए।
    • अर्थ के साथ संतुलन: अर्थ (धन) की प्राप्ति के बाद काम (सुख) का आनंद लिया जा सकता है। धन का उपयोग इच्छाओं की पूर्ति और सुख प्राप्त करने के लिए किया जा सकता है, लेकिन इसे संतुलित और मर्यादित रूप में करना चाहिए।
  4. काम पुरुषार्थ और अन्य पुरुषार्थ:

    • धर्म: धर्म का पालन करते हुए काम पुरुषार्थ का आनंद लेना चाहिए। धर्म के मार्ग पर चलते हुए इच्छाओं और सुखों का अनुभव करना उचित माना गया है।
    • अर्थ: अर्थ का उद्देश्य केवल धन का संग्रह नहीं है, बल्कि इसका उपयोग जीवन में काम पुरुषार्थ को पूरा करने के लिए भी है। इससे व्यक्ति की इच्छाओं और सुखों की पूर्ति होती है।
    • मोक्ष: मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति के लिए काम को नियंत्रित और मर्यादित करना आवश्यक है। मोक्ष के मार्ग पर चलते हुए इच्छाओं को त्यागना पड़ता है।
  5. काम पुरुषार्थ का आदर्श:

    • मर्यादा और संतुलन: भारतीय दर्शन में काम पुरुषार्थ का पालन मर्यादा और संतुलन के साथ करने की सलाह दी गई है। अतिशय वासनाएँ और अनियंत्रित इच्छाएँ व्यक्ति को धर्म और मोक्ष से दूर ले जा सकती हैं।
    • समाज और परिवार का कल्याण: काम पुरुषार्थ का पालन करते समय समाज और परिवार के कल्याण को ध्यान में रखना चाहिए। व्यक्ति की इच्छाओं और सुखों की पूर्ति समाज और परिवार के हित में होनी चाहिए।

निष्कर्ष

काम पुरुषार्थ भारतीय दर्शन में मानव जीवन के एक महत्वपूर्ण उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यह इच्छाओं, अभिलाषाओं, और भौतिक सुखों का प्रतिनिधित्व करता है, जो जीवन में आनंद और संतोष प्रदान करते हैं। काम पुरुषार्थ का पालन संतुलित और मर्यादित रूप में धर्म और अर्थ के अधीन रहकर करना चाहिए। यह व्यक्ति को जीवन का संपूर्ण अनुभव प्रदान करने में सहायक होता है, जिससे वह एक पूर्ण और संतुलित जीवन जी सकता है। काम पुरुषार्थ हमें यह सिखाता है कि जीवन के भौतिक और भावनात्मक सुखों का आनंद लेना भी महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे संतुलित और नियंत्रित रूप में करना आवश्यक है।

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