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80. जातकर्म , नामकरण और विवाह – संस्कार की विधि

जातकर्म

जातकर्म और श्राद्ध

पुत्र के उत्पन्न होने पर पिता को चाहिये कि उसके जातकर्म आदि सकल क्रियाकाण्ड और आभ्युदयिक श्राद्ध करे ॥ पूर्वाभिमुख बिठाकर ब्राह्मणोंको भोजन करावे तथा द्विजातियोंके व्यवहारके अनुसार देव और पितृपक्षकी तृप्तिके लिये श्राद्ध करे ॥ प्रसन्नतापूर्वक दैवतीर्थ ( अँगुलियोंके मिलाकर बनाये अग्रभाग ) – द्वारा नान्दीमुख पितृगणको दही , जौ और बदरीफल हुए पिण्ड दे ॥ अथवा प्राजापत्यतीर्थ ( कनिष्ठिकाके मूल ) द्वारा सम्पूर्ण उपचारद्रव्योंका दान करे । इसी प्रकार [ कन्या अथवा पुत्रोंके विवाह आदि ] समस्त वृद्धिकालोंमें भी करे ॥

नामकरण संस्कार

 पुत्रोत्पत्ति के दसवें दिन पिता नामकरण संस्कार करे । पुरुषका नाम पुरुषवाचक होना चाहिये । उसके पूर्वमें देववाचक शब्द हो तथा पीछे शर्मा , वर्मा आदि होने चाहिये ॥ ब्राह्मणके नामके अन्तमें शर्मा , क्षत्रियके अन्तमें वर्मा तथा वैश्य और शूद्रोंके नामान्तमें क्रमशः गुप्त और दास शब्दोंका प्रयोग करना चाहिये ॥ नाम अर्थहीन , अविहित , अपशब्दयुक्त , अमांगलिक और निन्दनीय न होना चाहिये तथा उसके अक्षर समान होने चाहिये ॥ अति दीर्घ , अति लघु अथवा कठिन अक्षरोंसे युक्त नाम न रखे । जो सुखपूर्वक उच्चारण किया जा सके और जिसके पीछेके वर्ण लघु हों ऐसे नामका व्यवहार करे ।

उपनयन संस्कार और शिक्षा

 उपनयन संस्कार हो जानेपर गुरुगृह में रहकर विधिपूर्वक विद्याध्ययन करे ॥ हे भूपाल ! फिर विद्याध्ययन कर चुकनेपर गुरुको दक्षिणा देकर यदि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेकी इच्छा हो तो विवाह कर ले ॥ या दृढ़ संकल्पपूर्वक नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहणकर गुरु अथवा गुरुपुत्रोंकी सेवा – शुश्रूषा करता रहे ॥ अथवा अपनी इच्छानुसार वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण कर ले । हे राजन् ! पहले जैसा संकल्प किया हो वैसा ही करे ॥ [ यदि विवाह करना हो तो ] अपनेसे तृतीयांश अवस्थावाली कन्यासे विवाह करे तथा अधिक या अल्प केशवाली अथवा अति साँवली या पाण्डुवर्णा ( भूरे रंगकी ) स्त्रीसे सम्बन्ध न करे ॥ जिसके जन्मसे ही अधिक या न्यून अंग हों , जो अपवित्र , रोमयुक्त , अकुलीना अथवा रोगिणी हो उस स्त्रीसे पाणिग्रहण न करे ॥

विवाह की विधि

बुद्धिमान् पुरुष को उचित है कि जो दुष्ट स्वभाववाली हो , कटुभाषिणी हो , माता अथवा पिता के अनुसार अंगहीना हो , जिसके श्मश्रु ( मूँछोंके ) चिह्न हों , जो पुरुषके – से आकारवाली हो अथवा घघेर शब्द करनेवाले अति मन्द या कौएके समान ( कर्णकटु ) स्वरवाली हो तथा पक्ष्मशून्या या गोल नेत्रोंवाली हो उस स्त्रीसे विवाह न करे ॥ जिसकी जंघाओंपर रोम हों , जिसके गुल्फ ( टखने ) ऊँचे हों तथा हँसते समय जिसके कपोलोंमें गड्ढे पड़ते हों उस कन्यासे विवाह न करे ॥ जिसकी कान्ति अत्यन्त उदासीन न हो , नख पाण्डुवर्ण हों , नेत्र लाल हों तथा हाथ पैर कुछ भारी हों , बुद्धिमान् पुरुष उस कन्यासे सम्बन्ध न करे ॥

जो अति वामन ( नाटी ) अथवा अति दीर्घ ( लम्बी ) हो , जिसकी भृकुटियाँ जुड़ी हुई हों , जिसके दाँतों में अधिक अन्तर हो तथा जो दन्तुर ( आगेको दाँत निकले हुए ) मुखवाली हो उस स्त्रीसे कभी विवाह न करे ॥ हे राजन् ! मातृपक्षसे पाँचवीं पीढ़ीतक और पितृपक्षसे सातवीं पीढ़ीतक जिस कन्याका सम्बन्ध न हो , गृहस्थ पुरुषको नियमानुसार उसीसे विवाह करना चाहिये ॥ ब्राह्म , दैव , आर्ष , प्राजापत्य , आसुर , गान्धर्व , राक्षस और पैशाच ये आठ प्रकारके विवाह हैं ॥ इनमेंसे जिस विवाहको जिस वर्णके लिये महर्षियोंने धर्मानुकूल कहा है उसीके द्वारा दार- परिग्रह करे , अन्य विधियोंको छोड़ दे ॥

गृहस्थ धर्म का पालन

इस प्रकार सहधर्मिणीको प्राप्तकर उसके साथ गार्हस्थ्यधर्म का पालन करे , क्योंकि उसका पालन करनेपर वह महान् फल देनेवाला होता है ॥

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