धर्म के लक्षण
चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः ||1||
पूर्व षष्ठे अध्याय में कहा है कि कृष्णचन्द्रजी अपने आत्म स्वरूप से प्रकट हुए सर्व के कल्याणकारी धर्म को स्थापन करने के लिए राम कृष्ण आदि नाना अवतारों को धारण करते हैं, तो अब इस अध्याय में धर्म क्या है और धर्म का लक्षण क्या है यह निरूपण करते हैं:
पूर्व मीमांसा में जैमिनि ने कहा है, वेद ने जो विधान करा हो और दुःख के सम्बन्ध से रहित सुख रूप जिसका फल हो उसका नाम धर्म है ||1||
तोऽभ्युदयनिः श्रेयस्सिद्धिः स धर्म : ||2||
वैशेषिक दर्शन में कणाद ऋषि ने कहा है कि जिससे स्वर्ग आदि संसारी सुख की प्राप्ति रूप सिद्धि होवे और अन्तः करण की शुद्धि द्वारा ज्ञानपूर्वक मोक्ष होवे उसका नाम धर्म है ||2||
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ||3||
नारद परिब्राजकोपनिषद् में कहा है कि कष्ट में धार्मिक धैर्य को न छोड़ना 1, कटु भाषण आदि से क्षमा को न त्यागना 2, इन्द्रियों का दमन करना 3, मन इन्द्रियों को वश में करना 4, चोरी न करना 5, जल मृत्तिका से बाह्य शुद्धि और विचार आहार आदि से अन्तर की शुद्धि करना 6, शास्त्र विद्या को प्राप्त करना 7, आत्म स्वरूप ब्रह्म के ज्ञान को प्राप्त करना 8, जैसा देखा और सुना हो वैसा ही सत्य भाषण करना 9, बलहीनों पर क्रोध न करना 10, यह दश धर्म के लक्षण हैं ।।3।।
वेदप्रणिहितो धर्माधर्मस्तद्विपर्ययः ।
वेदो नारायणः साक्षात्स्वयंभूरिति शुश्रुमः ||4||
भागवत में यमदूतों ने विष्णु पार्षदों से कहा है कि वेद से विधान करे का नाम धर्म है, वेद से निषेध करे हुए हिंसा आदि का नाम अधर्म है। वेद साक्षात् नारायण स्वयंभू रूप है, ऐसा हमने सुना है, अधर्मकारियों के शासक यमराज के हम दूत अधर्मकारी इस अजामिल को लेने आये हैं। पार्षदों ने कहा नारायण का नाम लेने वाले का कोई शासक नहीं है ।।4।।
धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः ।
यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः ||5||
धर्मेण पापमपनुदति धर्मे सर्व प्रतिष्ठितं ।
तस्माद्धर्म परमं वदन्ति ||6||
महाभारत में धर्म का लक्षण कहा है, धारण करने से धर्म कहा है, क्योंकि सर्व चराचर संसार को धर्म ही धारण करता है, जो शास्त्र के प्रमाणों से धारण करने के योग्य सिद्ध हो सो निश्चय ही धर्म जानना, ऐसा तो सर्व का अधिष्ठान पर ब्रह्म ही है।
वृहद् नारायणोपनिषद् में कहा है कि पुरुष धर्म करके हो पापों का नाश कर सकता है, क्योंकि धर्म में ही सर्व चराचर स्थित हुआ है, इस कारण से धर्म को सर्व शास्त्र परम उत्कृष्ट कहते हैं, ऐसा सर्व का अधिष्ठान परब्रह्म अद्वैत स्वरूप ही तिस आत्म स्वरूप अद्वैत ब्रह्म के साक्षात् बिना अज्ञान रूप सर्व पापों का नाश नहीं हो सकता, ऐसा श्रीकृष्णचन्द्रजी गीता में कहते हैं और सर्व शास्त्रों का भी वही सिद्धान्त है ||6||
धर्मादर्श च कामं च मोक्षं च त्रितयं लभेत् ।
तस्माद्धर्म समीहेत विद्वान् स बहुधा स्मृतः ||7||
पद्मपुराण में कहा है कि शास्रोक्त करे हुए धर्म से अर्थ काम मोक्ष यह तीन पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं, अतः विद्वान पुरुष तीन पुरुषार्थों की प्राप्ति के कारण धर्म को करने की इच्छा करे। सो धर्म अधिकारियों के भेद से नाना प्रकार का कहा है।।7।।
उर्ध्वबाहुर्विरम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे ।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेवते ||8||
महाभारत में वेदव्यासजी ने कहा है, मैं भुजा उठाकर उच्च शब्दों से धर्महीन पुरुषों को कहता हूँ धर्म करने से अर्थ काम मोक्ष यह तीन पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं। ऐसे कल्याणकारी धर्म को पुरुष क्यों नहीं करते ऐसा होने पर भी अज्ञान से बहिरे पुरुष नहीं सुनते हैं ।।8।।
पश्यन्निवाग्रतो मृत्युं यो धर्म न चरेन्नरः ।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ||9||
गरुड़पुराण में कहा है कि जो पुरुष माता-पिता आदि की मृत्यु को देखता हुआ और अपनी मृत्यु को भी जरा रूप से आगे खड़ी देखता हुआ धर्म को नहीं करता है उस पुरुष का जन्म अजा के गले में दूध आदि से हीन स्तन के समान व्यर्थ है ||9||
जन्मान्तरसहस्रेषु मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम् ।
यो हि नाचरते धर्मं भवेत्स नरवञ्चितः ||10||
ब्रह्मपुराण में कहा है कि असंख्यात लक्ष चौरासी योनियों में किसी पुण्य प्रभाव से दुर्लभ मनुष्य शरीर को पाकर जो पुरुष कल्याणकारी धर्म को नहीं करता है- सो पुरुष इस संसार में धर्म रूप धन के हाथ न आने पर वञ्चित ही रहा और उसकी दुर्लभ मनुष्य देह मृत्यु से ठगी गई ।।10।।
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ।।11।।
भागवत में कहा है कि इस संसार में चार पुरुषार्थों का साधन मनुष्य जन्म दुर्लभ है। सो भी क्षणभंगुर है स्थित रहने वाला नहीं। परम भक्त प्रह्लाद असुर बालकों को कहते हैं (जो अपनी आयु क्षण-क्षण में क्षीण होती नहीं जानते हैं) कि बुद्धिमान सोई है जो विष्णु स्मरण आदि भगवत् सम्बन्धी धर्मों को कौमार अवस्था में ही कर लेता है। क्योंकि क्षणभंगुर शरीर में धर्म करने को युवा आदि अवस्थाओं की आशा करने वाला मूर्ख है ||11||
एकोऽपि वेदविद्धर्मं यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः ।
स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतैः ।।12।।
मनुजी ने कहा है कि द्विजों में श्रेष्ठ वेदवित् एक पुरुष ने भी वेद शास्त्रों से निश्चय कर जो धर्म कहा है सोइ परम धर्म जानना और यदि दश हजार मूर्ख पुरुषों से भी कहा हुआ जो है सो धर्म नहीं माना जाता ||12||
सीदन्नपि हि धर्मेण न त्वधर्म समाचारेत् ।
धर्मो हि भगवान्देवो गतिः सर्वेषु जन्तुषु ।।13।।
पद्म पुराण में कहा है कि धर्म करने से पीड़ित हुआ भी अधर्म का आचरण न करे। जैसे हरिशचन्द्र राजा ने अपने सहित पुत्र स्त्री के बाजार में बिकने पर भी प्रतिज्ञा रूप धर्म को न छोड़ा, क्योंकि सर्व प्राणियों को भगवान् धर्म रूप देव ही शुभ गति देने वाला है ||13||
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ||14||
मनुजी ने कहा है कि मरे हुए प्राणी के शरीर को श्मशान भूमि में काष्ठ वा ढेले के समान त्याग कर बन्धु वर्ग विमुख होकर घर को चले जाते हैं। मरे हुए के साथ में केवल एक धर्म ही जाता है और कोई साथ नहीं जाता है ।।14।।
धर्मः कामदुधा धेनुः संतोषो नन्दनं वनम् ।
विद्या मोक्षकरी प्रोक्ता तृष्णा वैतरणी नदी ||15||
नारद पुराण में कहा है कि सर्वकामना पूर्ण करने वाला धर्म ही एक कामधेनु है। सुखकारी इन्द्रवन के समान संतोष ही एक नन्दन वन है। पुरुष को महाकष्टकारी तृष्णा ही वैतरणी नदी है। जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैत बोधक विद्या ही मोक्ष देने वाली कही है ।।15।।
कृते तु मानवा धर्मास्त्रेतायां गौतमाः स्मृताः ।
द्वापरे शंखलिखिताः कलौ पाराशराः स्मृताः ||16||
पाराशर स्मृति में कहा है कि सतयुग में मनुजी के कथन करे धर्म माने जाते थे, त्रेता युग में गौतमजी के कहे हुए धर्म माने जाते थे। द्वापर युग में शंख-लिखित दोनों के कहे हुए धर्म माने जाते थे और कलियुग में पाराशरजी के कहे हुए धर्म माने जाते हैं ।।16।।
मोक्षं गच्छन्ति तत्त्वज्ञा धार्मिकाः स्वर्गतिं नराः ।
पापिनो दुर्गतिं यान्ति संसरन्ति खगादयः ।।17।।
गरूड़ पुराण में कहा है कि जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैत तत्व के ज्ञाता मोक्ष को प्राप्त होते हैं। धर्मकर्ता पुरुष स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। पापकारी पुरुष नरकों को प्राप्त होते हैं और पक्षी कीट आदि इस संसार में ही मरते जन्मते रहते हैं ।।17।।
प्रश्नोपनिषद् में कहा है कि उदान वायु शाखा प्रतिशाखा मिलकर बहत्तर कोटि नाड़ियों में प्रधान एक सुषुन्ना नाड़ी द्वार से निकल कर धर्मी उपासक पुरुष को पुण्य उपासना के प्रभाव से स्वर्ग ब्रह्मलोक आदि में ले जाकर प्राप्त कराता है, अधर्मी पापियों को नरक में ले जाकर प्राप्त कराता है और पाप-पुण्य मिश्रित कर्म वालों को मनुष्य लोक मैं प्राप्त करता है।।18।।
धनेन किं यन्त्र ददाति नाश्नुते बलेन किं येन रिपुर्न बाधते तेन किं येन न धर्ममाचरेत किमात्मना यो न जितेन्द्रियो वशी ।।19।।
महाभारत में कहा है कि जिस प्राप्त धन से न तो दान करा, न अपने सम्बन्धियों को दिया और न आप खाया तिस धन के एकत्र करने से पुरुष ने क्या किया कि यहाँ धिक्कार और आगे के लिए नरक ही प्राप्त किया है। जिस बल से बाहर के हानिकारक चौरादि और अन्तर के हानिकारक महाशत्रु काम, क्रोध, मोह, लोभ, अज्ञान आदि का नाश न किया तो तिस बल से बलहीन प्राणियों को दुखाकर केवल नरक ही प्राप्त किया है।
उस शास्त्रश्रवण से क्या किया जिससे धर्म का आचरण न किया और उल्टा लोगों को वचन कर नरक ही प्राप्त करा है। मनुष्य देह पाकर यदि इन्द्रिय और मन को वश में नहीं किया तो फिर लक्ष चौरासी योनिचक्र को ही प्राप्त करा है जिसमें कोई शुभकारी कार्य नहीं होता है। ||19||
पापिनां यमरूपोऽस्मि नृणां निरयदायकः ।
तथा पुण्यवतां सौख्यं स्वर्गदो धर्ममूर्तिमान् ||20||
पद्म पुराण में यम ने कहा है कि हे अधर्मकारी प्राणियों पापियों को मैं नरक देने वाला भयकारी यम है। धर्मकारी पुरुषों को सुखरूप स्वर्ग देने वाला मैं सुखकारी सुन्दर मूर्तिवाला धर्मराज हूँ || 20||
अस्थिरेण शरीरेण योऽस्थिरैश्च धनादिभिः ।
संचिनोति स्थिरं धर्मं स एको बुद्धिमान्नरः ||21||
गरुड़ पुराण में यमराज नारकी प्राणियों को दण्ड देते हुए शिक्षा देते हैं। हे अधर्मकारी मन्द भाग्यों ! जो पुरुष इस अनित्य शरीर करके और अनित्य नाशवान् धन आदि करके नित्य अद्वैत ब्रह्म आत्मस्वरूप सर्व के अधिष्ठान रूप धर्म को ज्ञान के साधन संग्रह पूर्वक सम्पादन करता है वो पुरुष ही संसार में एक बुद्धिमान है ऐसा हम मानते हैं। और जो पुरुष ऐसे सर्व के धारक धर्म को प्राप्त नहीं करता है वो पुरुष मुझ यमराज के वशीभूत रहता है ।। 21।।
मनसा कर्मणा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा ।
पर पीडां न कुर्वन्ति न ते यान्ति यमालयम् ।।22।।
पद्म पुराण में कहा है कि जो पुरुष बाल युवा वृद्ध आदि सर्व अवस्थाओं में सर्वकाल में मन, वाणी, शरीर से दूसरे को पीड़ा नहीं करते हैं वे पुरुष यमलोक में कभी नहीं जाते हैं वे पुरुष स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि को प्राप्त होते हैं ।। 22।।
वेदाध्ययनसंपन्नः शास्त्रासक्तः सुमृष्टवाक्।
धर्माख्यानपरो नित्यं नरकं न स पश्यति || 23||
स्कन्दपुराण में कहा है कि जो पुरुष वेदों का अध्ययन करता है और शास्त्र विचार में प्रीतिमान् है, मधुर भाषण वाला है और नित्य ही धर्मात्मा पुरुष के धार्मिक आख्यान को सुनता पढ़ता हुआ नित्य ही धर्म परायण रहता है वो धर्मात्मा पुरुष कष्टकारी नरक को नेत्रों से भी नहीं देख सकता है।। 23।।
ये पापानि न कुर्वन्ति मनोवाक्कर्मबुद्धिभिः ।
ते तपन्ति महात्मानो न शरीरस्य शोषणम् ||24||
महाभारत में कहा है कि जो पुरुष मन वाणी शरीर बुद्धि से पापकर्मों को नहीं करते हैं वे पुरुष ही जानो संसार में तप करते हैं और जो पुरुष दूसरों को दुःख देते हुए अपने देह को शोषण करते हैं वो तप नहीं माना जाता है ||24||
स्वर्गागतानामिह जीव लोके चत्वारि चिह्नानि सदा वसन्ति ।
दानप्रसंगो मधुरा च वाणी देवार्चनं ब्राह्मणपूजनं च ||25||
गर्ग संहिता में कहा है कि स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आये हुए पुरुषों में से चार चिह्न सदावास करते हैं । (1) एक तो सदा दान धर्म प्रसंग की वार्ता करना (2) दूसरा मथुर सत्य भाषण करना (3) तीसरा सनातन पाँच देवों का अर्चन करना (4) चतुर्थ वेद शास अर्थात् ब्राह्मणों का सत्कार पूजन करना इन चार चिह्नों के कथन से सर्व देवी सम्पदा का ग्रहण है ||25||
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् ।
सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत् ||26||
भागवत में कहा है कि नेत्रों से देखकर शुद्ध जगह पाद रखना वस्त्रों से छानकर जलपान करना प्रिय सत्य शुद्ध भाषण करना। रागद्वेष से रहित शुद्ध मन होकर संसार में जीवन पूरा करते हुए विचरना चाहिये ||26||
सद्भावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषा द्विजाः ।
इतरे खाद्यपानेन मानदानेन पण्डिताः ||27||
जीवतो यस्य जीवन्ति विप्रा मित्राणि बान्धवाः ।
जीवनं तस्य सफलमात्मार्थे को न जीवति ||28||
गरुड़ पुराण में कहा है कि पुरुष के साधुभाव से देवता और श्रेष्ठ द्विज पुरुष सन्तुष्ट होते हैं। दान मान सत्कार से पण्डित लोग सन्तुष्ट होते हैं। दूसरे साधारण पुरुष चकाचक खाने पीने से सन्तुष्ट होते हैं ||28||
भागवत में कहा है कि उस पुरुष का ही संसार में शुभ जीवन है। जिसके जीवन से पालित हुए बन्धुजन, मित्रवर्ग और शास्त्र आधारित ब्राह्मण सुख से जीवन बिताते हैं, तिसका ही जीवन सफल है। और जो पुरुष अपने लिए ही पदार्थ सम्पादन कर जीवन पूरा करता है वो पुरुष जीवित नहीं माना जाता है ||28||
न हिंस्यात् सर्वभूतानि नानृतं वा वदेत्क्वचित् ।
नाहित नाप्रियं ब्रूयान स्तेन स्यात्कथंचन ||29||
कूर्म पुराण में कहा है कि जो पुरुष अपना कल्याण चाहता है वो सर्व प्राणधारियों में किसी को भी मन, वाणी, काया से हनन न करे। झूठ कभी न बोले और दुःखकारी कठोर अप्रिय भाषण न करे। और चोरी किसी वस्तु की भी न करें। ऐसा पुरुष अवश्य ही शुभ गति को प्राप्त होता है ||29||
धनं फलति दानेन जीवनं जीवरक्षणात् ।
रूपमारोग्यमैश्वर्यमहिंसाफलमश्नुते ||30||
वृहस्पति स्मृति में कहा है कि दान करने से धन फलीभूत होता है, जीवों की रक्षा करने से अधिक जीवन होता है। सुन्दर रूप, आरोग्यता, बहुत ऐश्वर्य होना यह सर्व प्राणी मात्र की हिंसा न करने का फल पुरूष भोगता है ||30||
अमावास्यां च संक्रान्त्यां पौर्णमास्यां तथैव च ।
हलस्य वाहनात्पापं गवामयुतहत्यया ||31||
पद्मपुराण में कहा है कि अमावस्या के दिन, संक्रान्ति के दिन और पूर्णमासी के दिन जो पुरुष बैलों को हल आदि में जोतता है उस पुरुष को दस हजार गौ की हत्या लगती है। इस कारण से इन तीन दिनों में बैलों को कहीं न जोतें ||31||
यमिच्छेन्नरकान्नेतुं सपुत्रपशुबान्धवम् ।
तं देवेष्वधिपं कुर्याद्गोषु च ब्राह्मणेषु च ।।32।।
पद्म पुराण में और वाल्मीकि रामायण में कहा है कि एक समय अयोध्या में एक कुत्ता श्रीरामचन्द्रजी के रथ के आगे पड़ गया और सारथी के शब्दों से न उठने पर रामचन्द्रजी ने कहा हे श्वान ! तुम्हारे को क्या दुःख है मार्ग क्यों नहीं छोड़ते हो ! तब श्वान ने कहा भो रामचन्द्र ! आप चराचर के पालक हो।
मेरे को एक ब्राह्मण ने बहुत मारा है। यदि मेरा अपराध हो तो मेरे को आप दण्ड दें, और यदि ब्राह्मण का अपराध हो तो आप ब्राह्मण को दण्ड दें तब श्री रामचन्द्रजी ने विचार कर निर्दोष श्वान को मारने से ब्राह्मण का अपराध जानकर वशिष्ठ आदि ऋषियों से पूछा कि ब्राह्मण को क्या दण्ड होना चाहिए ? तब ऋषियों ने कहा कि इस योगभ्रष्ट श्वान से ही पूछा जावे।
तब रामजी ने कहा है श्वान । दोष के भागी इस ब्राह्मण को क्या दण्ड दिया जाय। तब श्वान ने कहा कि इसको जहाँ साधु ब्राह्मणों को अन्न दिया जाता है उस मठ का स्वामी बना दो क्योंकि मैं भी पूर्व में ब्राह्मण शरीर में ऐसे ही मठ का स्वामी था। एक महात्मा का तिरस्कार होने से में कुत्ता हुआ हूँ, और यह ब्राह्मण तो बहुतसों का तिरस्कार करने पर न जाने क्या होगा।
जिस किसी को पुत्र-पशु-बान्धुवों सहित नरक में पहुँचाना हो उस पुरुष को देव- मन्दिर का पुजारी व स्वामी कर दें। अथवा गौशाला का व साधु-ब्राह्मणों-ब्रह्मचारियों के अत्र क्षेत्र का व मठ का स्वामी (मैनेजर) कर दें। क्योंकि बुद्धिमान तो ऐसे अधिकार लेते नहीं हैं और दूसरे लेकर कुछ न कुछ काट कर अथवा कहीं चूक हो जाने पर सीधे नरक को जाते हैं कहीं नहीं चूकते हैं ||32||
प्रजाभ्यः पुण्यपापानां राजा षष्ठांशमुद्धरेत् ।
शिष्याद्गुरुः खियाभर्ता पिता पुत्रात्तथैव च ||33||
पद्म पुराण में कहा है कि प्रजा से करे हुए पुण्य पापों का (छठा) हिस्सा राजा को मिलता है ऐसे ही शिष्य से गुरु, स्त्री से पति, पुत्र से पिता को छठा भाग पुण्य पाप का मिलता है ||33||
इ है वैकस्य नामुत्र अमुत्रैकस्य न इह ।
इहवाऽमुत्र चैकस्य नामुत्रैकस्य नो इह ।।34।।
महाभारत में कहा है कि किसी राजा ने अपने मंत्री से पूछा कि यहाँ का कौन सा है वहाँ का नहीं ? 11। वहाँ का कौन सा है यहाँ का नहीं ? 12। यहाँ-वहाँ का कौन सा है ? 13। यहाँ का वहाँ का कौन सा नहीं ? 14।
तब मंत्री ने गणिका, सकाम, तपस्वी, धर्मशील धनी और कृपण इन चारों को बुलाकर राजा से कहा, हे राजन् ! देखो प्रथम यह गणिका यहाँ के ही भोग भोगने वाली है परलोक में कुछ नहीं और दूसरा यह सकाम तपस्वी स्वर्ग कामना से तपकर वहाँ के भोग भोगने वाला है, यहाँ के नहीं। तीसरा यह धर्म-दानशील धनी वहाँ स्वर्गलोक के यहाँ मृत्युलोक के दोनों के भोग भोगने वाला है, और चौथा यह कृपण दान-धर्म-जप आदि से रहित होने से मृत्युलोक तथा स्वर्गलोक दोनों के सुख से हीन है ||34||
जगतां पतिरर्थित्वाद्विष्णुर्वामनतां गतः ।
अधिकः कोऽपरस्तस्माद्यो न यात्यतिलाघवम् ||35||
पद्म पुराण में कहा है कि विष्णु भगवान् सर्व जगतों के पति विभु बलि के पास जाकर अर्थी होने से याचना करने पर वामनता को प्राप्त हो गये। तिस विष्णु भगवान् से दूसरा कौन अधिक है जो याचना करने पर अति छोटे पने को प्राप्त न हो। यहाँ विष्णु भगवान् ने याचना करने में अति छोटा निर्माण होना दिखाया है ।।35।।
प्रातर्मूत्रपुरीषाभ्यां मद्याह्ने क्षुत्पिपासया ।
तृप्ता कामेन बाध्यन्ते निद्रया निशि जन्तवः ||36||
हा तात मात कान्तेति क्रन्दन्त्येवं सुदुःखतः ।
मण्डूक इव सर्पेण ग्रस्यते मृत्युना जगत् ||37||
ऐसे व्यापक विष्णु भगवान् को न जानकर पुरुष प्रातः काल को मलमूत्र की पीड़ा से, मध्याह्नकाल भूख प्यास की पीड़ा से, अन्न से तृप्त होने पर काम की पीड़ा से और रात्रि को निद्रा से पीड़ित हुए सर्वकाल को दुःख से व्यतीत करते हैं और जैसे सांप से ग्रसी हुई। मेंढ़की रुदन करती है तैसे ही कालरूपी सर्प से ग्रसे हुए हा तात ! हा मात ! हा प्यारी भार्या ! हा पुत्र ! ऐसे रोते हुए कोलाहल करते हैं, पर सर्व व्यापक विष्णु भगवान् का चिन्तन नहीं करते हैं, ऐसे मन्द भागों की मुक्ति कभी नहीं हो सकती ||36||37||
न कश्चित्कस्य चिन्मित्रं न कश्चित्कस्य चिद्रिपुः ।
कारणादेव जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ||38||
गरुड़ पुराण में कहा है कि जो अपना आत्मा रूप विष्णु सुखकारी को भूलकर संसार में बान्धने वालों को अपने बन्धु मानता है सो मूर्ख है। क्योंकि संसार में न कोई किसी का मित्र है न कोई किसी का शत्रु है। पुरुष के पुण्य और शुभ मैत्री आदि गुणों के कारण से सर्व प्राणी मित्र हो जाते हैं और पुरुष के पाप, कटु भाषण हिंसा आदि अशुभ गुणों से सर्व प्राणी शत्रु हो जाते हैं ||38||
इह लोके हि धनिनां स्वजनः स्वजनायते ।
स्वजनस्तु दरिद्राणां जीवतामपि नश्यति ||39||
महाभारत में कहा है कि इस संसार में धनी पुरुषों को अपने बन्धु न होने पर भी लोग अपने बन्धु मानते हैं, और दरिद्री पुरुषों को अपने बन्धु होने पर भी लोग अपने बन्धु नहीं मानते हैं, और उल्टा उन्हें नाश करना चाहते हैं ||39||
यावदर्जयति द्रव्यं बान्धवास्तावदेव हि ।
धर्माधर्मी सहैवास्तामिहामुत्र न चापरः ||40||
नारद पुराण में कहा है कि एक ब्राह्मण धन कमाता हुआ वृद्ध होकर अशक्त हो गया तब पुत्र – स्त्री आदि ने तिरस्कार कर निकाल दिया। तब ब्राह्मण ने विचार किया कि मुझ मन्द भाग्य ने उच्च वर्ण में जन्म पाकर परब्रह्म को न जानकर बन्धन रूप बन्धुओं के लिए जीवन नष्ट कर लिया है, अब तो परमात्मा की प्राप्ति के लिए यत्न करना ही योग्य है। ऐसा जानकर एकान्त देव मन्दिर में विष्णु भगवान् का चिन्तन करने लगा। एक दिन रात्रि को चोर आया और कहा कि पुजारी आपके पास जो धन हो सो दे दो।
ब्राह्मण ने कहा विष्णु चिन्तन करो धन को हम अच्छा नहीं मानते। तब चोर ने ब्राह्मण को नीचे गिराकर कहा मेरे बन्धु भूखे हैं, शीघ्र ही दे दो। ब्राह्मण ने कहा कि भाई सुनो, यह मैंने निश्चय कर लिया है। कि जब तक पुरुष द्रव्य उपार्जन करता है तब तक ही बान्धव उसको अच्छा मानते हैं और जब शरीर में द्रव्य उपार्जन करने की शक्ति नहीं होती तब फिर कोई साथी नहीं होता है। केवल धर्म-अधर्म दो ही इस लोक में तथा परलोक में पुरुष के साथ रहते हैं। मैंने भी तुम्हारी तरह बन्धुओं के लिए बहुत से अधर्म किये हैं।
अब विष्णु चिन्तन के अतिरिक्त किसी को अच्छा नहीं मानता हूँ तब उस विष्णुभक्त ब्राह्मण के दर्शन स्पर्श कथन से शुद्ध भाव होकर चोर ने कहा हे ब्राह्मण ! यह वार्ता में अपने बान्धवों से पूछ आऊँ । ब्राह्मण ने कहा पूछ आओ। चोर ने घर जाकर माता, पिता, भार्या आदि सर्व से पूछा कि मैं हिंसा- चोरी से धन लाकर सर्व को खिलाता हूँ। यदि मैं पकड़ा गया और मेरे को बीस वर्ष की कैद हुई तो पाँच-पाँच वर्ष की कैद आप ले सकोगे या नहीं ।
अथवा आगे अठारह नरकों में से आप पाँच-पाँच नरक लेवोगे या नहीं। यह सुन सबने कहा हम तो खाने वाले हैं। कैद. नरक तो तुमको ही भोगने पड़ेंगे। यह सुनते ही चोर ने सर्व को त्याग कर शीघ्र ही जाकर ब्राह्मण के चरणों में पड़कर कहा मेरी रक्षा करो। मेरा आप से बिना कोई रक्षक नहीं तब ब्राह्मण ने चोर को पापहारी हरिनाम में लगाकर कल्याण का पात्र कर दिया ||40||
को मोदते किमाश्चर्य कः पन्थाः का च वार्तिका । व
द मे चतुरः प्रश्नान् मृता जीवन्तु बान्धवाः ||41||
महाभारत में युधिष्ठिर का धर्मराज रूप यक्ष के साथ संवाद है। खाण्डव वन में प्यास से पीड़ित धर्मवीर युधिष्ठिर ने कहा हे भ्रात नकुल ! कहीं से जल लावो । तब नकुल ने जाकर तालाब में जल पीना और घट भरना चाहा। यक्ष ने कहा हमारे प्रश्नों के उत्तर न देकर तुम जल न पी सकोगे ऐसा सुनकर चौफेरे कुछ भी न देखने में आने पर नकुल ने जल पीना चाहा तो मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
ऐसे ही युधिष्ठिर के भेजे हुए सहदेव, अर्जुन, भीमसेन गिरते गये, तब सर्व भ्राताओं के न आने पर युधिष्ठिर ने स्वयं जाकर शूरवीर, अक्षत शरीर गतप्राण भूमिशायी देवताओं के समान भ्राताओं को देखकर विचारा कि देव घटना के बिना ऐसे धनुष धारियों को भूमिशायी करना पुरुषों की शक्ति नहीं तो भी अघटित घटना रूप ईश्वर की माया में कोई आश्चर्य नहीं, चलें जल पीवें।
यह सुन यक्ष ने कहा कि हे वीर पुरुष ! यदि मेरे प्रश्नों के उत्तर को न देकर जल पीवोगे तो आप भी गतप्राण हो। जायेंगे। तब युधिष्ठिर ने कहा हे देव ! आप पूछें मैं यथामति कहूँगा। तब यक्ष ने चार प्रश्न करे (1) इस संसार में कौन पुरुष सुख पाता है। (2) और आश्चर्यजनक क्या है ? (3) मार्ग कौनसा है (4) और वार्ता कौन सी है। इन मेरे चार प्रश्नों का उत्तर कहो तो तुम्हारे मरे हुए बान्धव जीवित हो जावेंगे ||41||
पंचमेऽहनि षष्ठेवा शाकं पचति स्वगृहे ।
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ||42||
अब युधिष्ठिर चार प्रश्नों के उत्तर अनुक्रम से कहते हैं। हे जल निवासी यक्ष ! जो पुरुष दो दिन भूखा रहकर भी तीसरे दिन दोपहर को अथवा सायंकाल को अन्न को न मिलने पर अपने ही घर में शाक बनाकर खाता है, दूसरे का जो ऋणी नहीं है और दूसरे के घर में वास नहीं करता है वह पुरुष संसार में सुख पाता है ||42||
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम् ।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ||43||
(2) संसार में प्रतिदिन प्राणीवर्ग धन, पुत्र, स्त्री आदि परिवार को छोड़कर मर-मर कर यमलोक को जाते हुओं को देखते हुए भी बुद्धि के बैरी शेष प्राणी अपने स्थिर रहने की इस संसार में इच्छा करते हैं। इससे परे और आश्चर्य क्या है। क्योंकि जरा रूप व्याघ्री के सफेद बाल रूप शिर पर पंजा रखने पर भी स्थिर जीने की आशा रखते हैं यही आश्चर्य ||43||
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ||44||
(3) तीसरे प्रश्न का उत्तर तर्कों की कहीं स्थिति नहीं क्योंकि एक पुरुष के तर्क को दूसरा दूषित कर देता है। और दूसरे के तर्क को तीसरा दूषित कर देता है। और श्रुतियां भी संसार की उत्पत्ति को भिन्न-भिन्न कहती हैं। ऋषि भी व्यासजी, जैमिनि, गौतम, कणाद आदि नाना हैं। मन्दमति पुरुष को किसी का भी प्रमाण निश्चित नहीं होता। जो महान् पुरुष सर्व के धारक धर्म के तत्व स्वरूप को सर्व प्राणियों की बुद्धि रूप गुफा में स्थित हुए प्रकाशमान् साक्षी को जिस पुण्य प्रभाव मार्ग से प्राप्त होता है सोई संसार में शुभ मार्ग है ||44||
चतुर्थ प्रश्न का उत्तर- हे वारिचर! इस महामोहमय अज्ञान स्वरूप संसार रूपी कड़ाहे में सूर्य रूपी अग्नि करके, दिन-रात्रि रूपी इन्धन से और मास, ऋतु, वर्ष आदि रूप कड़छी से हलाचला करके सर्व प्राणियों को काल भगवान् पका पका कर खाते हैं और कितनेक बालक रूप कच्चों की फक्की लगाकर हरिहर कर जाते हैं और कितनेक पचास वर्ष की आयु वाले आधे पके हुए पुरुषों को भी काल भगवान् हरिहर कर जाते हैं।
अस्मिन्महामोहमये कटाहे सूर्याग्निा रात्रिदिवेन्धनेन ।
मासर्तुदर्वी परिघट्टनेन भूतानि कालः पचतीति वार्ता ||45||
भूखे काल भगवान् पूरे सौ वर्ष तक तो कोई-कोई पुरुषों को ही पकाते हैं बाकी को पहिले ही खाकर हरिहर कर देते हैं। अस्तु । इस संसार में बुद्धिमानों को यही करने की वार्ता है कि ऐसे कड़ाहे में पकने से सोई बचता है जो निष्काम धर्म-कर्म-पूर्वक अन्तकरण की शुद्धि द्वारा जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैतज्ञान से अनर्थ की निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति रूप मोक्ष को सम्पादन करता है। इससे अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग ऐसा कड़ाहे में पकने से बचने का नहीं है ||45||
प्रियस्ते भीमसेनोऽयमर्जुनो व: परायणम् |
स कस्मान्नकुलो राजन् सापलं जीवमिच्छसि ||46||
इस प्रकार चार प्रश्नों के उत्तर सुनकर युधिष्ठिर से यक्ष ने प्रसन्न होकर कहा कि हे आप्तवक्ता बुद्धिमान युधिष्ठिर ! कहो आपके चार बान्धवों में से पहिले कौन सा जीवित होवे। तब युधिष्ठिर ने कहा कि हे देव । यदि आप प्रसन्न होकर मेरे बान्धवों को जीवन • प्रदान करते हो तो पहले मेरी माद्री माता के पुत्र नकुल जीवित होवे।
यह सुन यक्ष ने कहा हे युधिष्ठिर तुम्हारे भ्राता शूरवीर रणधीर इस भीमसेन को और शत्रुओं को जय करने वाले, भील रूप महादेव को अपने बाणों की वर्षा से संतोष करने वाले गाण्डीव धनुषधारी तुम्हारे सर्व पाण्डवों के पालक परम आश्रय अर्जुन को छोड़कर सपत्नी के पुत्र नकुल को पहिले जिवाने की इच्छा किस कारण से करते हो ? सहोदर भ्राताओं को पहिले जिवाना क्यों नहीं मांगते हो ||46||
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षिति रक्षितः ।
तस्माद् धर्मं न त्यजामि मा नो धर्मों हतोऽवधीत् ||47||
धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने कहा हे यक्ष ! जो पुरुष धर्म को नष्ट करता है उस पुरुष को धर्म नाश कर देता है और जो पुरुष धर्म की रक्षा करता है उसी पुरुष की धर्म भी रक्षा करता है।
अस्तु । तिस कारण से मैं धर्म को नहीं त्यागता हूँ। क्योंकि हमारे को धर्म त्यागा हुआ हनन न करे न त्यागा हुआ ही धर्म रक्षक होता है और मेरा नाम भी धर्म पुत्र है, मैं धर्म को ही सर्वदा याद रखता हूँ ।।47।।
यथा कुन्ती तथा माद्री विशेषो नास्ति मे तयो ।
मातृभ्यां सममिच्छामि नकुलो यक्ष जीवतु ||48||
क्योंकि जैसी मेरी कुन्ती माता है वैसी ही माद्री मेरी माता है। दोनों में मैं सम माता भाव रखता हूँ। किंचित् भी विलक्षणता नहीं। और जैसे मेरे युधिष्ठिर के जीने से कुन्ती संसार में पुत्रवती है तैसे ही नकुल के जीवित होने से माद्री को पुत्रवती करना चाहता हूँ। इस प्रकार दोनों माताओं को सम करने की इच्छा से नकुल को पहिले जिवाना चाहता हूँ ।।48।।
यस्य तेऽर्थाच्च कामाच्च आनृशंस्यं परं मतम् ।
तस्मात्ते भ्रातरः सर्वे जीवंतु भरतर्षभ ||49||
तब यक्ष ने युधिष्ठिर की धर्म में पूर्ण निष्ठा और सर्व में समबुद्धि देख प्रसन्न होकर कहा हे धर्मधन युधिष्ठिर जिस कारण से तुम्हारी धर्मात्मा की अर्थ के निमित्त से तथा काम के निमित्त से भ्राताओं के साथ विषमता न होकर समता ही परम धन मानी हुई है। तिस ही कारण से हे भरत कुल में श्रेष्ठ युधिष्ठिर आपके रणधीर, शूरवीर, धर्मकारी, धनुषधारी सब ही भ्राता जीवित हो जावें। इस प्रकार यक्ष के कहने से सब ही जीवित हो गये। और यक्ष से वर प्रदान लेकर विराटू नगर को चले गये ||49||
येन संतरते जन्तुरिह चैव परत्र वा |
तद्युष्माभिः परित्यक्तं सत्यं धर्मसमन्वितम् ||50||
पद्मपुराण में कहा है असुरों ने मिलकर प्रह्लाद से पूछा हे असुरराज ! हमारी (असुरों की) जय कभी नहीं होती है और अल्पबल वाले देवताओं की सर्वदा जय होती है इसमें क्या कारण है सो आप कहें। तब प्रह्लाद ने कहा हे असुरों ! जिस करके प्राणी इस लोक में तथा परलोक में सर्व दुःखों से पार होकर परम सुख को प्राप्त होते हैं वे धर्म के सहित प्रिय सत्य भाषण तुमने (असुरों ने) सर्व प्रकार से त्याग दिया है, इस कारण से तुम्हारी जय नहीं होती है ||50||
यत्र सत्यं च धर्मश्च तपः पुण्यं तथैव च ।
यत्र विष्णुषीकेशो जयस्तत्र प्रदृश्यते ||51||
पद्मपुराण में कहा है कि जिन प्राणियों में सत्य प्रिय भाषण, धर्मशीलता, चित्त की एकाग्रता तथा पुण्यशीलता है, और इन्द्रियों के प्रेरक सर्वव्यापी विष्णु अद्वय को अपना आत्मस्वरूप जानते हैं, उन्हीं प्राणियों की हे असुरों सदा जय देखी जाती है ||51||
तेषां सहायः संभूतो वासुदेवः यत्र सनातनः।
तस्माज्जयन्ति ते देवा सत्यधर्मसमन्विताः ||52||
क्योंकि तिन देवताओं का सहायक वासुदेव सनातन कृष्ण है। इसी कारण से सत्य धर्मपरायण देवताओं की जय होती है। धर्म, सत्यभाषण आदि दैवीसंपत्ति गुणों से रहित तुम मिथ्यावादी असुरों के वासुदेव कृष्ण सहायक नहीं है इसीसे तुम्हारी हार होती है ||52||
अश्वमेधसहस्त्रं च सत्येन तुलयातुलम् ।
अश्वमेधसहस्त्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते ||53||
महाभारत में कहा है कि किसी काल में ब्रह्माजी ने हजार अश्वमेध यज्ञों को सत्य के साथ तुला में रख करके तोला तब हजार अश्वमेध यज्ञों से सत्यभाषण वजन में अधिक हुआ। यह सत्यभाषण का महत्व है ऐसे सत्य से हीन असुरों की जय कैसे हो ||53||
अविष्णुः पूजयन्विष्णुं न पूजाफलभाग्भवेत् ।
विष्णुर्भूत्वा यजेद्विष्णुमयं विष्णुरहं स्थितः ||54||
योग वासिष्ठ में प्रह्लाद ने कहा है कि हे असुरों ! विष्णु व्यापक को मैं विष्णु हूँ ऐसे अद्वैत स्वरूप को न जान कर विष्णु को पूजता हुआ प्राणी पूजा के फल का भागी नहीं होता है। और मैं विष्णु हूँ ऐसा जानकर विष्णु की पूजा करें तथा जो विष्णु है सो मैं हूँ, ऐसी स्थिति करें तिस प्राणी की जय होती है ||54||
अथ तस्मिन्पुरे दैत्यास्ततः प्रभृति वैष्णवाः ।
सर्व एव भवन्भव्या राजा ह्याचार कारणम् ||55||
ऐसी प्रहलाद की शिक्षा से तिस पुर के सबही असुर उस दिन से वैष्णव हो गये। और सर्व तेजस्वी पराक्रमी विष्णु रूप होकर देवताओं को जय करते भये इस प्रकार प्रजा को आसुरी आचरण से हटाकर देव आचरण में स्थिर कराने में राजा ही कारण है ||55||
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ||56||
आदि राजा मनु भगवान् ने सत्य प्रिय भाषण को ही सनातन धर्म कहा है। सत्य हो प्रिय न हो। ऐसा भाषण न करें जैसे किसी का जमाई आने पर यह कहें कि तुम्हारी पुत्री का खसम आया है और यदि कोई कहे कि आपके मेहमान पधारे हैं।
तो, यह सत्य भी है और प्रिय भी है। इसी प्रकार किसी का पुत्र परदेश में मर गया हो और कोई आकर उसके पिता से कहे तुम्हारे पुत्र बहुत सा धन लावेंगे यह प्रिय तो है, पर सत्य नहीं यदि कहें कि आपके पुत्र काल वश हो गये, आप ईश्वर नेता को मानकर धैर्य करें। ऐसा कथन सत्य भी है, और प्रिय भी है। ऐसा सत्य प्रिय परिमित शुद्ध भाषण बुद्धिमान सर्वदा करे यह मनुजी का कथन है।156।।
अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता ।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः ||57||
भागवत में कहा है कि हिंसा न करनी, सत्य भाषण करना, चोरी न करना। काम, क्रोध, लोभ न करना । सर्व प्राणियों का प्रिय होना, सर्व प्राणियों के हित की इच्छा करनी, मन वाणी शरीर से किसी को दुःख न देकर सर्व को सुख देने की इच्छा करनी, यह सर्व वर्णों का धर्म कहा है। ऐसे वेदशास्त्र स्मृति पुराण के (विषय) विधान करे हुए कल्याणकारी धर्म को दुर्लभ पुण्य प्रभाव से मनुष्य देह पाकर नहीं करते हैं और टट्टू हजामतों में ही शुभ काल व्यतीत करने वाले पुरुष जन्म-मरण के बोझ को उठाने वाले संसार के टट्टू ही बने रहेंगे ||57||