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14. पौण्ड्रक-वध तथा काशीदहन

पौण्ड्रक

पौण्ड्रक कौन था ?

पौण्ड्रकवंशीय वासुदेव नामक एक राजाको अज्ञानमोहित पुरुष ‘आप वासुदेवरूपसे पृथिवीपर अवतीर्ण हुए हैं’ ऐसा कहकर स्तुति किया करते थे ॥ अन्तमें वह भी यही मानने लगा कि ‘मैं वासुदेवरूपसे पृथिवीमें अवतीर्ण हुआ हूँ!’ इस प्रकार आत्मविस्मृत हो जानेसे उसने विष्णुभगवान् के समस्त चिह्न धारण कर लिये ॥ और महात्मा कृष्णचन्द्रके पास यह सन्देश लेकर दूत भेजा कि “हे मूढ़! अपने वासुदेव नामको छोड़कर मेरे चक्र आदि सम्पूर्ण चिह्नोंको छोड़ दे और यदि तुझे जीवनकी इच्छा है तो मेरी शरणमें आ” ॥ 

दूतने जब इसी प्रकार कहा तो श्रीजनार्दन उससे हँसकर बोले- “ठीक है, मैं अपने चिह्न चक्रको तेरे प्रति छोडूंगा। हे दूत ! मेरी ओरसे तू पौण्ड्रकसे जाकर यह कहना कि मैंने तेरे वाक्यका वास्तविक भाव समझ लिया है, तुझे जो करना हो सो कर ॥ 

मैं अपने चिह्न और वेष धारणकर तेरे नगरमें आऊँगा और निस्सन्देह अपने चिह्न चक्रको तेरे ऊपर छोडूंगा ॥  ‘और तूने जो आज्ञा करते हुए ‘आ’ ऐसा कहा है, सो मैं उसे भी अवश्य पालन करूँगा और कल शीघ्र ही तेरे पास पहुँचूँगा ॥  हे राजन् ! तेरी शरणमें आकर मैं वही उपाय करूँगा जिससे फिर तुझसे मुझे कोई भय न रहे ॥ 

 श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर जब दूत चला गया तो भगवान् स्मरण करते ही उपस्थित हुए गरुडपर चढ़कर तुरंत उसकी राजधानीको चले ॥ 

पौण्ड्रक-वध

भगवान्‌के आक्रमणका समाचार सुनकर काशीनरेश भी उसका पृष्ठपोषक (सहायक) होकर अपनी सम्पूर्ण सेना ले उपस्थित हुआ ॥  तदनन्तर अपनी महान् सेनाके सहित काशीनरेशकी सेना लेकर पौण्ड्रक वासुदेव श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख आया ॥ भगवान्ने दूरसे ही उसे हाथमें चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष और पद्म लिये एक उत्तम रथपर बैठे देखा ॥  श्रीहरिने देखा कि उसके कण्ठमें वैजयन्तीमाला है, शरीरमें पीताम्बर है, गरुडरचित ध्वजा है और वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न हैं ॥

उसे नाना प्रकारके रत्नोंसे सुसज्जित किरीट और कुण्डल धारण किये देखकर श्रीगरुडध्वज भगवान् गम्भीरभावसे हँसने लगे ॥  और हे द्विज ! उसकी हाथी घोड़ोंसे बलिष्ठ तथा निस्त्रिंश खड्ग, गदा, शूल, शक्ति और धनुष आदिसे सुसज्जित सेनासे युद्ध करने लगे ॥  श्रीभगवान्ने एक क्षणमें ही अपने शार्ङ्गधनुषसे छोड़े हुए शत्रुओंको विदीर्ण करनेवाले तीक्ष्ण बाणों तथा गदा और चक्रसे उसकी सम्पूर्ण सेनाको नष्ट कर डाला ॥ इसी प्रकार काशिराजकी सेनाको भी नष्ट करके श्रीजनार्दनने अपने चिह्नोंसे युक्त मूढमति पौण्ड्रकसे कहा ॥ 

श्रीभगवान् बोले- हे पौण्ड्रक! मेरे प्रति तूने जो दूतके मुखसे यह कहलाया था कि मेरे चिह्नोंको छोड़ दे सो मैं तेरे सम्मुख उस आज्ञाको सम्पन्न करता हूँ ॥ देख, यह मैंने चक्र छोड़ दिया, यह तेरे ऊपर गदा भी छोड़ दी और यह गरुड भी छोड़े देता हूँ, यह तेरी ध्वजापर आरूढ़ हों ॥ 

ऐसा कहकर छोड़े हुए चक्रने पौण्ड्रकको विदीर्ण कर डाला, गदाने नीचे गिरा दिया और गरुडने उसकी ध्वजा तोड़ डाली ॥  तदनन्तर सम्पूर्ण सेनामें हाहाकार मच जानेपर अपने मित्रका बदला चुकानेके लिये खड़ा हुआ काशीनरेश श्रीवासुदेवसे लड़ने लगा ॥  तब भगवान्ने शार्ङ्गधनुषसे छोड़े हुए एक बाणसे उसका सिर काटकर सम्पूर्ण लोगोंको विस्मित करते हुए काशीपुरीमें फेंक दिया ॥  इस प्रकार पौण्ड्रक और काशीनरेशको अनुचरों- सहित मारकर भगवान् फिर द्वारकाको लौट आये और वहाँ स्वर्ग सदृश सुखका अनुभव करते हुए रमण करने लगे ॥ इधर काशीपुरीमें काशिराजका सिर गिरा देख सम्पूर्ण नगरनिवासी विस्मयपूर्वक कहने लगे- ‘यह क्या हुआ ? इसे किसने काट डाला ? ‘ ॥ 

काशीदहन

मारा जब उसके पुत्रको मालूम हुआ कि उसे श्रीवासुदेवने है तो उसने अपने पुरोहितके साथ मिलकर भगवान् शंकरको सन्तुष्ट किया ॥  अविमुक्त महाक्षेत्रमें उस राजकुमारसे सन्तुष्ट होकर श्रीशंकरने कहा-‘वर माँग ‘ ॥  वह बोला-‘”हे भगवन्! हे महेश्वर!! आपकी कृपासे मेरे पिताका वध करनेवाले कृष्णका नाश करनेके लिये (अग्निसे) कृत्या उत्पन्न हो ”  ॥ 

 भगवान् शंकरने कहा, ‘ऐसा ही होगा।’ उनके ऐसा कहनेपर दक्षिणाग्निका चयन करनेके अनन्तर उससे उस अग्निका ही विनाश करनेवाली कृत्या उत्पन्न हुई॥ उसका कराल मुख ज्वालामालाओंसे पूर्ण था तथा उसके केश अग्निशिखाके समान दीप्तिमान् और ताम्रवर्ण थे। वह क्रोधपूर्वक ‘कृष्ण ! कृष्ण !!’ कहती द्वारकापुरीमें आयी ॥ 

 उसे देखकर लोगोंने भय-विचलित नेत्रोंसे जगद्गति भगवान् मधुसूदनकी शरण ली ॥  जब भगवान् चक्रपाणिने जाना कि श्रीशंकरकी उपासना कर काशिराजके पुत्रने ही यह महाकृत्या उत्पन्न की है तो अक्षक्रीडामें लगे हुए उन्होंने लीलासे ही यह कहकर कि ‘इस अग्निज्वालामयी जटाओंवाली भयंकर कृत्याको मार डाल’ अपना चक्र छोड़ा ॥ 

तब भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्रने उस अग्नि- मालामण्डित जटाओंवाली और अग्निज्वालाओंके कारण भयानक मुखवाली कृत्याका पीछा किया ॥  उस चक्रके तेजसे दग्ध होकर छिन्न-भिन्न होती हुई वह माहेश्वरी कृत्या  अति वेगसे दौड़ने लगी तथा वह चक्र भी उतने ही वेगसे उसका पीछा करने लगा ॥ 

 अन्तमें विष्णुचक्रसे हतप्रभाव हुई कृत्याने शीघ्रतासे काशीमें ही प्रवेश किया ॥  उस समय काशी- नरेशकी सम्पूर्ण सेना और प्रथमगण अस्त्र- शस्त्रोंसे सुसज्जित होकर उस चक्रके सम्मुख आये ॥ 

तब वह चक्र अपने तेजसे शस्त्रास्त्र-प्रयोगमें कुशल उस सम्पूर्ण सेनाको दग्धकर कृत्याके सहित सम्पूर्ण वाराणसीको जलाने लगा ॥  जो राजा, प्रजा और सेवकोंसे पूर्ण थी; घोड़े, हाथी और मनुष्योंसे भरी थी; सम्पूर्ण गोष्ठ और कोशोंसे युक्त थी और देवताओंके लिये भी दुर्दर्शनीय थी, उसी काशीपुरीको भगवान् विष्णुके उस चक्रने उसके गृह, कोट और चबूतरोंमें अग्निकी ज्वालाएँ प्रकटकर जला डाला ॥ अन्तमें, जिसका क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ तथा जो अत्यन्त उग्र कर्म करनेको उत्सुक था और जिसकी दीप्ति चारों ओर फैल रही थी, वह चक्र फिर लौटकर भगवान् विष्णुके हाथमें आ गया ॥ 

 

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