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19. भक्ति

भक्ति

 भक्ति का महत्व

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में भुजा उठाकर कहा है कि भक्ति से दिये हुए फल, फूल, पत्र, जल आदि तुच्छ पदार्थों को भी मैं आनन्दपूर्वक ग्रहण करता हूँ। बिना भक्ति से नहीं। अध्यात्म रामायण में भक्ति को ज्ञान की जननी कहा है। भागवत् महात्म्य में भक्ति को विवेक, वैराग, ज्ञान की जननी कहा है। नास्तिकों के ग्रंथों को छोड़कर और सर्व शास्त्रों में भक्ति से ही चार पदार्थों की प्राप्ति होती है।

भक्ति का लक्षण

शांडिल्य सूत्रों में शांडिल्य ऋषि भक्ति का लक्षण इस प्रकार – कहते हैं

आत्म स्वरूप परमेश्वर में एक रस परम प्रीति का नाम भक्ति है” दूसरा अर्थ जैसे मछली की जल से, भूखे पुरुष की अन्न से, लोभी पुरुष की द्रव्य से और कामी पुरुष की कामिनी से प्रीति होती है। वैसी ही आत्मस्वरूप अद्वितीय परमेश्वर में निरन्तर एक रस प्रीति का नाम पराभक्ति है। शांडिल्य ऋषि पराभक्ति से ही मोक्ष मानते हैं।

श्रीकृष्ण और उद्धव संवाद

भागवत् में श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि हे उद्धव ! पुरुषों के कल्याण की इच्छा से मैंने तीन योग कहे हैं। १. ज्ञान योग, २. कर्म योग, ३. भक्ति योग (जिसे उपासना भी कहते हैं।) इनसे भिन्न किसी काल में, किसी देश में कल्याण का ओर कोई दूसरा साधन नहीं है।

शुभ कर्मों के फल स्वर्ग आदि को भी अनित्य जानकर कर्मों को त्यागने वाले वीतरागी के लिए ज्ञानयोग कहा है और ऐहिक व पारलौकिक भोग पदार्थों में आसक्त तथा संसार सम्बन्धी धन, पुत्र, स्त्री आदि में राग वालों के लिए कर्म योग कहा है।

देव इच्छा से अथवा किसी पुण्य प्रभाव से पापों को हनन करने वाली मेरी कथा में, कीर्तन में तथा सत्संग में अत्यन्त श्रद्धावान तथा कर्मों में उदासीन पुरुष को भक्तियोग ही कल्याण रूपी सिद्धि देने वाला है।

श्रीकृष्ण और सुदामा संवाद

भागवत् में भगवान् श्रीकृष्ण सुदामा से कहते हैं कि हे शुभवत मित्र! प्रीति से अणु मात्र भी भक्तों द्वारा दिया हुआ मैं बहुत आनन्दकारी मानता हूँ और बहुत सा भी बिना भक्ति से दिया हुआ भी मुझको तुष्ट नहीं करता है।

कर्म भक्ति

नारद पांचरात्र में नारदजी कहते हैं कि वेद से कहे हुए यज्ञ और शुभ कर्म भक्ति रहित पुरुष को पवित्र नहीं कर सकते, जैसे सूरा से पूर्ण घट को गंगाजी शुद्ध नहीं करती है।

त्रिपाद विभूति महानारायणोपनिषद् में कहा है कि भक्ति रहित पुरुष को शुद्ध, बुद्ध, अद्वय स्वरूप ब्रह्म का ज्ञान किसी भी काल में नहीं हो सकता।

अनन्य भक्ति

वासुदेवोपनिषद् में वासुदेव अर्न्तयामी ने कहा है कि आदि, मध्य और अन्त से रहित, स्वयं प्रकाश सत्, चित आनन्द स्वरूप सर्व विकारों से रहित, अक्रिय, अविनाशी, सर्व चराचर के अधिष्ठान, दूध में धृत के समान सर्व व्यापी, भेद रहित अद्वैत स्वरूप, मुझ ब्रह्म को अनन्य भक्ति से ही पुरुष जान सकता है। भक्ति से रहित पुरुष नहीं जान सकता है।

अध्यात्म रामायण में श्रीरामचन्द्रजी का कथन

अध्यात्म रामायण में कहा है कि श्री नारदजी आनन्दकन्द कोशलचन्द्र श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिए अयोध्या आए। श्री रामचन्द्रजी ने उठकर नमस्कारपूर्वक स्वागत कर सुखासन पर बैठाकर कहा कि, हे मुनि श्रेष्ठ ! संसारी पुरुषों को आपका दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ है और हमारे जैसे विषयों में आसक्त चित्त वालों को तो और भी महान् दुर्लभ है।

ऐसे श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर नारदजी ने कहा कि हे करुणाधाम श्रीरामचन्द्रजी में तो आपके भक्तों के जो भक्त हैं उनके भी सेवक रूप जो भक्त हैं उन भक्तों का मैं किंकर हूँ। इस कारण से आप मोहकारी वचनों से मुझे मोहित न करें और ऐसी कृपा करे कि जिससे आप में मेरी भक्ति सदा बनी रहे।

अध्यात्म रामायण में श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं कि हे शबरी! पुरुषत्व, स्त्रीत्व, ब्राह्मणत्व आदि जाति तथा गृहस्थादि आश्रम मेरे भजन करने में कारण नहीं है। एक भक्ति ही कारण है और भक्ति का ही मैं मुख्य नाता मानता हूं दूसरा नहीं। भक्ति के बिना मैं किसी वश में नहीं होता हूँ।

ऐसे श्रीरामचन्द्रजी की भक्तवत्सलता देखकर महादेवजी पार्वती से कहते हैं। हे शैलपुत्री ! “संसारी विषयों को छोड़कर योगीजन एकाग्रचित से रमण करते हैं। जिसमें ऐसे श्री रामचन्द्र भक्तवत्सल जगत् के नाथ प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ वस्तु रह जाती है। निम्न जाति की शबरी भी भक्ति से मुक्ति को प्राप्त हुई।

स्कन्ध पुराण में कहा है कि जो पुरुष मधुदैत्य के नाशक श्रीकृष्णचन्द्रजी में भक्ति वाले हैं। वो यदि वर्ण शंकरी नीच जाति वाले भी हैं तो भी पवित्र माने जाते हैं और जो पुरुष परमात्मा की भक्ति से रहित हैं वे उच्च कुल जाति के होने पर भी म्लेच्छों के तुल्य है।

सुग्रीव और श्रीरामचन्द्रजी का संवाद

अध्यात्म रामायण में कहा है कि दशरथ नन्दन, दुष्ट निकन्दन श्री रामचन्द्रजी में सुग्रीव की जब तक ईश्वर बुद्धि न हुई, तब तक स्त्री, पुत्र, राज्य आदि की आशा रही। पर जब श्रीराम के
एक ही बाण से सप्त ताल वृक्षों की निष्पत्र रूपी अदभुत घटना देखी तब सुग्रीव ने श्रीरामचन्द्रजी को पूर्ण ब्रह्म ईश्वर जानकर कहा कि हे ! परिपूर्ण श्रीरामचन्द्रजी ! अब मैं बाली को मारकर विजय नहीं चाहता हूँ।

श्रीरामचन्द्रजी ने कहा कि अभी तो आप स्त्री, राज्य की प्राप्ति की इच्छा करते थे और अब कहते हो कि हम नहीं चाहते तो आप और क्या चाहते हैं? तब सुग्रीव ने कहा मैं ससार बंधन को नाश करने वाली आपकी परमानन्द स्वरूप भक्ति ही सदा के लिए चाहता हूँ।

हे रघुकुल शिरोमणि करुणानिधान श्री रामजी ! मैं अविवेक से स्त्री, राज्य, पुत्रादि की याचना करता था। अब विवेकजनक आपके दर्शन से मायामूलक पुत्र, स्त्री, राज्यादि सर्व को, संसार रूपी बन्धन को मेरे गले में से निकाल ले और यदि आप कहे कि यह काम दूसरे से कराना तो यह बन नहीं सकता, क्योंकि आप मायापति हैं, आपके बिना इस जीव को माया से कोई नहीं छुड़ा सकता।

गीता में श्रीकृष्ण भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि निन्दा स्तुति समान है। जिस पुरुष को और जैसी कैसी वस्तु के ही लाभ में संतुष्ट है और शरीर को क्षण भंगुर जानकर घर नहीं बांधते हैं और अद्वितीय आत्मस्वरूप ब्रह्म में ही स्थिर बुद्धि वाले हैं। ऐसे एक रस प्रीति रूप भक्ति वाले पुरुष ही मुझको प्रिय हैं।

महाभारत सार

महाभारत सार में अर्जुन के बाणों से व्यथित् किंचित प्राणशेष भूशायी कर्ण को देखकर श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा “अहो कष्ट है। आज पृथ्वी दानवीर कर्ण से रहित होना चाहती है। अर्जुन ने कहा आप कर्ण की बहुत प्रशंसा करते हैं। तब श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा है। अर्जुन ! चलो आज तुम्हें कर्ण की दानवीरता दिखलायें। इतना कहकर श्रीकृष्णचन्द्रजी वृद्ध ब्राह्मण का स्वरूप और अर्जुन ब्रह्मचारी का स्वरूप धारण कर कर्ण के पास गये। कर्ण ने वाणी मात्र से नमस्कार कर कहा कि हे वृद्ध विप्र ! मैं आपकी क्या सेवा करूं।

कृष्णजी ने कहा कि में अपनी कन्या के विवाह के लिये धन चाहता हूँ। कर्ण ने प्रसन्नतापूर्वक कहा कि मेरे दांतों में सवा मण स्वर्ण के मोल के हीरे हैं वो आप तोड़कर निकाल लो। कृष्णजी ने कहा कि हम ऐसा हिंसा का काम नहीं कर सकते हैं। हिंसा न करना ही परम धर्म है। ऐसा कहकर चलने लगे। तब कर्ण ने कहा “अहो, कष्ट है आज प्राणों के होते हुए मेरे पास से ब्राह्मण निराश होकर जा रहे हैं।

” कर कर्ण ने कहा हे ब्राह्मण ! आइए इतना कहकर जोश से उठकर पुनः विचार कर्ण ने हाथ में पत्थर उठाकर कृष्ण अर्जुन के देखते हुए दांतों को तोड़ने के लिए हाथ उठाया तब भगवान् कृष्ण रूप होकर कर्ण का हाथ पकड़ लिया और कहा हे कर्ण ! ऐसी संकट अवस्था में तुम्हारी दानवीरता देखने के लिए हम अर्जुन के साथ ऐसा रूप धरकर आये थे। कहो आपकी क्या इच्छा है। कर्ण ने हाथ जोड़कर कहा अहो ! भाग्य है मेरे जो मरण दशा में भी त्रिलोकीनाथ कृष्ण के दर्शन स्पर्श को प्राप्त हुआ हूं।

पुरुष के हाथ दान देने से ही शोभा पाते हैं कंकणादि से नहीं, बुद्धि की शुद्धि ज्ञान से ही होती स्नानादि से नहीं है। माननीय पुरुष की तृप्ति मान से ही होती है, भोजनादि से नहीं और मुक्ति तो केवल आप वासुदेव सच्चिदानन्द की भक्ति से ही होती है, मण्डन करने से नहीं होती है। हे कृष्णचन्द्रजी ऐसा मन्दभाग्य कौन होगा ? जो मुक्तिकारक आपकी भक्ति को छोड़कर और कुछ मांगे। मैं तो एकमात्र आपकी भक्ति ही चाहता हूँ।

विवेक चूड़ामणि

विवेक चूड़ामणि में मोक्ष के साधनों में भक्ति को ही मुख्य माना है। कैसी है वो भक्ति सो कहते हैं ‘स्वात्मस्वरूप ब्रह्म के विचार करने का नाम भक्ति है।’

सच्चे गुरु और भक्त

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि वही पिता है, वही माता है, वही गुरु हैं वही शुभ पुत्र है, वही ईश्वर रूप है, जो श्रीकृष्णचन्द्रजी के गुरु चरण कमलों में दृढ़ भक्ति उत्पन्न कराये।

गुरु का अर्थ:

अद्वयतारकोपनिषद् में गुरु शब्द का अर्थ कहा है कि ‘गु’ अक्षर अन्धकार का नाम है और ‘रु’ शब्द अन्धकार का नाशक है। अस्तु अज्ञान रूपी अन्धकार को नाश करने वाले का नाम गुरु कहा जाता है।

अज्ञान रूप “कारण शरीर”:

योग कुण्डल्योपनिषद् में अज्ञान रूप “कारण शरीर”को घट कहा है। उसमें प्रकाश रूप “आत्मा” दीपक है, गुरु के महावाक्य रूपी दण्ड से अज्ञानरूपी घट के सम्यक फूटने पर ब्रह्मज्ञानरूपी दीपक प्रकाशित होता है।

ब्रह्मक्षेत्रीय गुरु:

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि अज्ञान से अन्ध पुरुष के बुद्धिरूपी नेत्र ‘आत्म ज्ञान’ रूप अंजन की शलाका से खोल दिये हैं, जिसने उस ब्रह्मक्षेत्रीय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के लिये नमस्कार है।

गुरु का महत्व:

देवी भागवत् में कहा है कि विवेक आदि साधनों द्वारा गुरु ज्ञान का जनक होने से ब्रह्मा रूप है । बध्याकार वृत्ति ज्ञान का पालन होने से गुरु विष्णु रूप है और संसार को देने वाले अज्ञान का संहारक होने से गुरु शिव रूप है और ब्रह्मवेत्ता होने से गुरु परब्रह्म रूप अस्तु संसार सागर से तारने वाले ऐसे श्री गुरु के प्रति नमस्कार है।

कुपथगामी का त्याग:

महाभारत में कुपथगामी का त्याग कहा है। काशी राज की कन्या अम्बालिका को साथ लेकर परशुरामजी भीष्म पितामह के पास आये और कहा कि इस राजकन्या के साथ विवाह करे। यह गुरु की आज्ञा मानो नहीं तो युद्ध करे। भीष्म ने नमस्कार कर कहा कि मैं ब्याह नहीं करूंगा। युद्ध करने के लिए तैयार हूँ। क्योंकि कार्य अकार्य को नहीं जानते हुए लिपायमान कुपथगामी गुरु का शास्त्र में त्याग करना कहा है।

प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप:

विष्णु पुराण की कथानुसार हिरण्यकश्यप से प्रह्लाद ने कहा है कि हे महाभाग्य तात ! सर्व प्राणी इस संसार में अपने महत्व के लिये अति उद्यम करते हैं तो भी पुरुषों के पूर्वकृत पुण्यरूप भाग्य ही सुखप्रद विभूति रूप से फलित होते हैं। भाग्यहीनों के उद्यम भी फलीभूत नहीं होते।

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