भगवान का मथुरा-प्रवेश
यदुकुलोत्पन्न अक्रूरजी ने श्री विष्णु भगवान् का जल के भीतर इस प्रकार स्तवनकर उन सर्वेश्वर का मनःकल्पित धूप, दीप और पुष्पादि से पूजन किया ॥ उन्होंने अपने मनको अन्य विषयों से हटाकर उन्हीं में लगा दिया और चिरकाल तक उन ब्रह्मभूत में ही समाहित भाव से स्थित रहकर फिर समाधि से विरत हो गये ॥ तदनन्तर महामति अक्रूर जी अपने को कृतकृत्य- सा मानते हुए यमुनाजल से निकलकर फिर रथ के पास चले आये॥ वहाँ आकर उन्होंने आश्चर्ययुक्त नेत्रोंसे राम और कृष्ण को पूर्ववत् रथमें बैठे देखा। उस समय श्रीकृष्णचन्द्र ने अक्रूरजी से कहा ॥
श्रीकृष्णजी बोले- अक्रूरजी ! आपने अवश्य ही यमुना – जलमें कोई आश्चर्यजनक बात देखी है, क्योंकि आपके नेत्र आश्चर्यचकित दीख पड़ते हैं ॥
अक्रूरजी बोले- हे अच्युत ! मैंने यमुनाजल में जो आश्चर्य देखा है उसे मैं इस समय भी अपने सामने मूर्तिमान् देख रहा हूँ॥ हे कृष्ण ! यह महान् आश्चर्यमय जगत् जिस महात्माका स्वरूप है उन्हीं परम आश्चर्य स्वरूप आपके साथ मेरा समागम हुआ है ॥ हे मधुसूदन ! अब उस आश्चर्यके विषय में और अधिक कहनेसे लाभ ही क्या है? चलो, हमें शीघ्र ही मथुरा पहुँचना है; मुझे कंस से बहुत भय लगता है। दूसरे के दिये हुए अन्नसे जीनेवाले पुरुषोंके जीवनको धिक्कार है! ॥
ऐसा कहकर अक्रूरजी ने वायु के समान वेगवाले घोड़ों को हाँका और सायंकाल के समय मथुरापुरी में पहुँच गये ॥
रजक-वध
मथुरापुरी को देखकर अक्रूर ने राम और कृष्ण से कहा- “हे वीरवरो! अब मैं अकेला ही रथसे जाऊँगा, आप दोनों पैदल चले आयें ॥ मथुरामें पहुँचकर आप वसुदेवजीके घर न जायें, क्योंकि आपके कारण ही उन वृद्ध वसुदेवजी का कंस सर्वदा निरादर करता रहता है” ॥
ऐसा कह- अक्रूरजी मथुरापुरी में चले गये। उनके पीछे राम और कृष्ण भी नगरमें प्रवेशकर राजमार्गपर आये ॥ वहाँके नर-नारियोंसे आनन्द पूर्वक देखे जाते हुए वे दोनों वीर मतवाले तरुण हाथियोंके समान लीलापूर्वक जा रहे थे ॥
मार्गमें उन्होंने एक वस्त्र रँगनेवाले रजकको घूमते देख उससे रंग-विरंगे सुन्दर वस्त्र माँगे ॥ वह रजक कंस का था और राजा के मुँहलगा होने से बड़ा घमण्डी हो गया था, अतः राम और कृष्णके वस्त्र माँगने पर उसने विस्मित होकर उनसे बड़े जोरों के साथ अनेक दुर्वाक्य कहे ॥ तब श्रीकृष्णचन्द्र ने क्रुद्ध होकर अपने करतल के प्रहार से उस दुष्ट रजक का सिर पृथिवी पर गिरा दिया ॥
माली पर कृपा
इस प्रकार उसे मारकर राम और कृष्णने उसके वस्त्र छीन लिये तथा क्रमशः नील और पीत वस्त्र धारण कर वे प्रसन्नचित्त से मालीके घर गये ॥
उन्हें देखते ही उस माली के नेत्र आनन्दसे खिल गये और वह आश्चर्यचकित होकर सोचने लगा कि ‘ये किसके पुत्र हैं और कहाँसे आये हैं?’ ॥ पीले और नीले वस्त्र धारण किये उन अति मनोहर बालकोंको देखकर उसने समझा मानो दो देवगण ही पृथिवीतलपर पधारे हैं ॥ जब उन विकसितमुखकमल बालकोंने उससे पुष्प माँगे तो उसने अपने दोनों हाथ पृथिवीपर टेककर सिरसे भूमिको स्पर्श किया ॥
फिर उस मालीने कहा- “हे नाथ! आपलोग बड़े ही कृपालु हैं जो मेरे घर पधारे। मैं धन्य हूँ, क्योंकि आज मैं आपका पूजन कर सकूँगा ” ॥ तदनन्तर उसने ‘देखिये, ये बहुत सुन्दर हैं, ये बहुत सुन्दर हैं’- इस प्रकार प्रसन्नमुखसे लुभा लुभाकर उन्हें इच्छानुसार पुष्प दिये ॥ उसने उन दोनों पुरुष श्रेष्ठोंको पुनः पुनः प्रणामकर अति निर्मल और सुगन्धित मनोहर पुष्प दिये ॥
तब कृष्णचन्द्रने भी प्रसन्न होकर उस माली को यह वर दिया कि ” हे भद्र ! मेरे आश्रित रहनेवाली लक्ष्मी तुझे कभी न छोड़ेगी ॥ हे सौम्य ! तेरे बल और धनका ह्रास कभी न होगा और जबतक दिन (सूर्य)- की सत्ता रहेगी तबतक तेरी सन्तानका उच्छेद न होगा ॥ तू भी यावज्जीवन नाना प्रकारके भोग भोगता हुआ अन्तमें मेरी कृपासे मेरा स्मरण करनेके कारण दिव्य लोकको प्राप्त होगा ॥ हे भद्र ! तेरा मन सर्वदा धर्मपरायण रहेगा तथा तेरे वंशमें जन्म लेनेवालोंकी आयु दीर्घ होगी ॥ हे महाभाग ! जबतक सूर्य रहेगा तबतक तेरे वंशमें उत्पन्न हुआ कोई भी व्यक्ति उपसर्ग (आकस्मिक रोग) आदि दोषोंको प्राप्त न होगा ” ॥
ऐसा कहकर श्रीकृष्णचन्द्र बलभद्रजी के सहित मालाकार से पूजित हो उसके घर से चल दिये ॥