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63. महाराज रजि और उनके पुत्रोंका चरित्र

महाराज रजि

महाराज रजि

 रजिके अतुलित बल पराक्रमशाली पाँच सौ पुत्र थे ॥  एक बार देवासुर संग्रामके आरम्भमें एक – दूसरेको मारनेकी इच्छावाले देवता और दैत्योंने ब्रह्माजीके पास जाकर पूछा – ” भगवन् ! हम दोनोंके पारस्परिक कलहमें कौन – सा पक्ष जीतेगा ? ” ॥  तब भगवान् ब्रह्माजी बोले – “ जिस पक्षकी ओरसे राजा रजि धारणकर युद्ध करेगा उसी पक्षकी विजय होगी ” ॥

रजि को देवताओं और दैत्यों की प्रार्थना

तब दैत्योंने जाकर रजिसे अपनी सहायताके लिये प्रार्थना की , इसपर रजि बोले- ॥  ” यदि देवताओंको जीतनेपर मैं आप लोगों का इन्द्र हो सकूँ तो आपके पक्षमें लड़ सकता हूँ ॥  यह सुनकर दैत्योंने कहा- ” हमलोग एक बात कहकर उसके विरुद्ध दूसरी तरहका आचरण नहीं करते । हमारे इन्द्र तो प्रह्लादजी हैं और उन्हींके लिये हमारा यह सम्पूर्ण उद्योग है ” , ऐसा कहकर जब दैत्यगण चले गये तो देवताओं ने भी आकर राजासे उसी प्रकार प्रार्थना की और उनसे भी उसने वही बात कही । तब देवताओंने यह कहकर कि ‘ आप ही हमारे इन्द्र होंगे ‘ उसकी बात स्वीकार कर ली ॥

देवराज इन्द्र का रजि को सम्मान

अतः रजि ने देव – सेनाकी सहायता करते हुए अनेक महान् अस्त्रोंसे दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना नष्ट कर दी ॥ तदनन्तर शत्रु – पक्षको जीत चुकनेपर देवराज इन्द्रने रजिके दोनों चरणोंको अपने मस्तकपर रखकर कहा- ॥ ‘ भयसे रक्षा करने और अन्न – दान देनेके कारण आप हमारे पिता हैं , आप सम्पूर्ण लोकोंमें सर्वोत्तम हैं ; क्योंकि मैं त्रिलोकेन्द्र आपका पुत्र हूँ ‘ ॥  इसपर राजाने हँसकर कहा – ‘ अच्छा , ऐसा ही सही । शत्रुपक्षकी भी नाना प्रकारकी चाटुवाक्ययुक्त अनुनय – विनयका अतिक्रमण करना उचित नहीं होता [ फिर स्वपक्षकी तो बात ही क्या है ] । ‘ ऐसा कहकर वे अपनी राजधानीको चले गये ॥  इस प्रकार शतक्रतु ही इन्द्र – पदपर स्थित हुआ ।

रजि के पुत्रों का इन्द्र से राज्य माँगना

पीछे , रजि के स्वर्गवासी होने पर देवर्षि नारद जी की प्रेरणा से रजिके पुत्रोंने अपने पिता के पुत्रभाव को प्राप्त हुए शतक्रतुसे व्यवहारके अनुसार अपने पिता का राज्य माँगा ॥  किन्तु जब उसने न दिया , तो उन महाबलवान् रजि – पुत्रों ने इन्द्र को जीतकर स्वयं ही इन्द्र पद का भोग किया ॥

बृहस्पतिजी का इन्द्र को आश्वासन

फिर बहुत सा समय बीत जानेपर एक दिन बृहस्पतिजीको एकान्तमें बैठे देख त्रिलोकीके यज्ञभागसे वंचित हुए शतक्रतुने उनसे कहा- ॥  क्या ‘ आप मेरी तृप्तिके लिये एक बेरके बराबर भी पुरोडाशखण्ड मुझे दे सकते हैं ? ‘ उनके ऐसा कहनेपर बृहस्पतिजी बोले- ॥ ‘ यदि ऐसा है , तो पहले ही तुमने मुझसे क्यों नहीं कहा ? तुम्हारे लिये भला मैं क्या नहीं कर सकता ? अच्छा , अब थोड़े ही दिनोंमें मैं तुम्हें अपने पदपर स्थित कर दूंगा । ‘ ऐसा कह बृहस्पतिजी रजि – पुत्रोंकी बुद्धिको मोहित करनेके लिये अभिचार और इन्द्रकी तेजोवृद्धिके लिये हवन करने लगे ॥ 

रजि-पुत्रों का धर्म त्याग और इन्द्र द्वारा उनका वध

बुद्धिको मोहित करनेवाले उस अभिचार – कर्मसे अभिभूत हो जानेके कारण रजि- पुत्र ब्राह्मण – विरोधी , धर्म त्यागी और वेद – विमुख हो गये ॥ तब धर्माचारहीन हो जानेसे इन्द्रने उन्हें मार डाला ॥ और पुरोहितजीके द्वारा तेजोवृद्ध होकर स्वर्गपर अपना अधिकार जमा लिया ॥  इस प्रकार इन्द्रके अपने पदसे गिरकर उसपर फिर आरूढ़ होनेके इस प्रसंगको सुननेसे पुरुष अपने पदसे पतित नहीं होता और उसमें कभी दुष्टता नहीं आती ॥  [ आयुका दूसरा पुत्र ] रम्भ सन्तानहीन हुआ ॥

क्षत्रवृद्ध वंश का वर्णन

 क्षत्रवृद्धका पुत्र प्रतिक्षत्र हुआ , प्रतिक्षत्रका संजय , संजयका जय , जयका विजय , विजयका कृत , कृतका हर्यधन , हर्यधनका सहदेव , सहदेवका अदीन , अदीनका जयत्सेन , जयत्सेनका , संस्कृति और संस्कृतिका पुत्र क्षत्रधर्मा हुआ । ये सब क्षत्रवृद्धके वंशज हुए ॥ अब मैं नहुषवंशका वर्णन करूँगा ॥ 

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