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मृत्यु होने पर शरीर का संस्कार

मृत्यु

मानव जीवन का अंतिम पड़ाव मृत्यु है। शास्त्रों में मृत्यु के उपरांत शरीर के संस्कार के बारे में विशेष निर्देश दिए गए हैं, विशेष रूप से जब यह किसी संन्यासी, यति, या परमहंस जैसे महात्मा का हो। सामान्यतः हम यह देखते हैं कि मृत्यु के पश्चात् शरीर का अंतिम संस्कार अग्निदाह द्वारा किया जाता है, किंतु जब बात अद्वैत ज्ञान में स्थिर और संसार से विरक्त महात्माओं की होती है, तब उनके लिए भिन्न विधियों का उल्लेख मिलता है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो जब कोई महात्मा, जिनका जीवन ब्रह्मज्ञान और संसार के प्रति विरक्तता में बिता हो, शरीर का परित्याग करते हैं, तो उनके शरीर का संस्कार करने का तरीका सामान्य व्यक्ति से अलग होता है। शास्त्रों में इस विषय पर स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि ऐसे महात्माओं का अग्निदाह नहीं किया जाना चाहिए। इसके पीछे न केवल धार्मिक बल्कि आध्यात्मिक कारण भी होते हैं, जिनका उद्देश्य उस आत्मा के अद्वैत ब्रह्म में लीन होने की स्थिति को मान्यता देना है।

अग्निदाह से जुड़े धार्मिक निर्देश

स्कंद पुराण और देवीभागवत जैसे प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से यह निर्देश मिलता है कि जब कोई महात्मा ब्रह्मज्ञान से युक्त होकर देह का परित्याग करता है, तो उसके शरीर को अग्नि के सुपुर्द नहीं किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब लक्ष्मणजी ने संसार से मोह का त्याग कर अपना शरीर त्यागा, तब श्रीरामचंद्रजी को आकाशवाणी के माध्यम से निर्देश दिया गया कि लक्ष्मणजी का शरीर अग्निदाह के योग्य नहीं है। यह विशेषतः ब्रह्मज्ञान से युक्त महात्माओं के लिए कहा गया है, क्योंकि ऐसे महात्मा पहले से ही ज्ञान की अग्नि में जल चुके होते हैं।

संन्यासियों के शरीर का संस्कार: विशेष परंपराएँ

संन्यासियों, विशेष रूप से वे जो अद्वैत ज्ञान और ब्रह्म की प्राप्ति कर चुके होते हैं, के शरीर का संस्कार विशेष होता है। पैंगला उपनिषद और अन्य ग्रंथों के अनुसार, जब कोई यति या संन्यासी ब्रह्मज्ञान में स्थिर होकर शरीर त्याग करता है, तो उसके शरीर को अग्नि के हवाले नहीं किया जाता। इसका कारण यह है कि वह पहले से ही ज्ञान की अग्नि में समाहित हो चुका होता है।

संन्यासियों का देहपात होने पर निम्नलिखित विधियाँ अपनाई जाती हैं:

शास्त्रों में महात्माओं के देहपात के बाद क्रियाएँ

शास्त्रों में महात्माओं के शरीर का संस्कार करने के लिए कुछ खास नियमों का पालन करने की बात की गई है।

  1. विदुर का उदाहरण: देवीभागवत में युधिष्ठिर और विदुर का उदाहरण मिलता है। जब विदुर ने देह का परित्याग किया, तो युधिष्ठिर उनका अंतिम संस्कार करने के लिए तत्पर हुए, लेकिन आकाशवाणी ने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा कि विदुर ब्रह्मज्ञान में लीन हो चुके हैं, इसलिए उनके शरीर का अग्निदाह नहीं होना चाहिए।
  2. ज्ञानाग्नि का महत्व: शास्त्र कहते हैं कि जब एक महात्मा, जो ब्रह्मज्ञान में स्थिर हो, अपने शरीर को त्यागता है, तो वह शरीर पहले से ही ज्ञान की अग्नि में जल चुका होता है। इसलिए उनके शरीर को अग्निदाह करने की आवश्यकता नहीं है।

महात्माओं के लिए श्राद्ध या क्रियाएँ क्यों नहीं की जातीं?

जिन महात्माओं का जीवन अद्वैत ज्ञान में लीन होकर बिता हो, उनके शरीर के बाद श्राद्ध, तर्पण या किसी अन्य प्रकार की क्रियाओं का कोई महत्व नहीं होता। इसका कारण यह है कि जब वे स्वयं ब्रह्मस्वरूप होते हैं, तो उनके लिए कोई क्रिया या कर्म की आवश्यकता नहीं रहती।

संन्यासियों के शरीर का प्रवाह: गंगा का महत्व

गरुड़ पुराण में महात्माओं के शरीर के लिए गंगा या अन्य पवित्र नदियों का महत्व बताया गया है। कहा गया है कि जब कोई विरक्त महात्मा शरीर त्यागता है, तो उसका शरीर गंगा जैसी पवित्र नदियों में प्रवाहित करना चाहिए। यदि ऐसा संभव न हो, तो पृथ्वी में उचित विधि से स्थापन करना चाहिए।

महात्माओं के शरीर का दाह संस्कार क्यों नहीं किया जाता?

महात्माओं के शरीर का दाह संस्कार न करने के पीछे प्रमुख कारण यह है कि वे अपने जीवन में ही अद्वैत ज्ञान के द्वारा संसार के सभी मोह-माया से मुक्त हो चुके होते हैं। ज्ञान की अग्नि में उनका शरीर पहले ही जल चुका होता है, इसलिए उनके लिए अग्निदाह की कोई आवश्यकता नहीं होती।

आध्यात्मिक स्थिति: महात्मा की आध्यात्मिक स्थिति इतनी उच्च होती है कि वे संसार के सभी बंधनों से परे हो जाते हैं। उनके शरीर को जलाने का कोई उद्देश्य नहीं रह जाता, क्योंकि वे पहले से ही ब्रह्म में लीन हो चुके होते हैं।

ज्ञानाग्नि और देहपात: जब कोई व्यक्ति ब्रह्मज्ञान में स्थिर हो जाता है, तो उसकी चेतना अद्वैत ब्रह्म में विलीन हो जाती है। उसका शरीर केवल एक माध्यम बन जाता है, जिसे दाह संस्कार करने की आवश्यकता नहीं होती।

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FAQs

मृत्यु होने पर संन्यासियों का शरीर कैसे संस्कारित किया जाता है?

संन्यासियों का देहपात होने पर उनके शरीर का अग्निदाह नहीं किया जाता। उनके शरीर को या तो महानदियों में प्रवाहित किया जाता है या पृथ्वी में शास्त्रोक्त विधि से स्थापन किया जाता है।

महात्माओं के शरीर का अग्निदाह क्यों नहीं होता?

महात्माओं का शरीर ज्ञान की अग्नि में पहले ही दग्ध हो चुका होता है, इसलिए उनके लिए अग्निदाह की आवश्यकता नहीं होती।

क्या संन्यासियों के लिए श्राद्ध किया जाता है?

नहीं, संन्यासियों के लिए श्राद्ध या किसी प्रकार की क्रिया नहीं की जाती, क्योंकि वे पहले से ही सभी बंधनों से मुक्त होते हैं।

गंगा में महात्माओं का शरीर प्रवाहित करने का क्या महत्व है?

गंगा जैसी पवित्र नदियों में शरीर प्रवाहित करने से आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा को मोक्षदायिनी माना जाता है।

विदुर का अंतिम संस्कार क्यों नहीं किया गया?

विदुर ब्रह्मज्ञान में स्थिर हो चुके थे, इसलिए आकाशवाणी ने युधिष्ठिर को उनके शरीर का अग्निदाह करने से रोका था।

क्या किसी भी महात्मा का शरीर दफन किया जा सकता है?

हाँ, यदि पवित्र नदियाँ उपलब्ध न हों, तो महात्माओं का शरीर शास्त्रोक्त विधि से पृथ्वी में दफन किया जा सकता है।

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