यदुपुत्र क्रोष्टु के वंश
यदुपुत्र क्रोष्टु के ध्वजिनीवान् नामक पुत्र हुआ ॥ उसके स्वाति , स्वाति के रुशंकु , रुशंकु के चित्ररथ और चित्ररथ के शशिबिन्दु नामक पुत्र हुआ जो चौदहों स्वामी तथा चक्रवर्ती महारत्नोंका ‘ सम्राट् था॥
शशिबिन्दु के वंशज
शशिबिन्दु के एक लाख स्त्रियाँ और लाख पुत्र थे ॥ उनमें पृथुश्रवा , पृथुकर्मा , पृथुकीर्ति , पृथुयशा , पृथुजय और पृथुदान — ये छः पुत्र प्रधान थे ॥
पृथुश्रवा के वंशज
पृथुश्रवा का पुत्र पृथुतम और उसका पुत्र उशना हुआ जिसने सौ अश्वमेध – यज्ञ किया था ॥
उशना के वंशज
पुत्र उशना के शितपु नामक हुआ ॥ शितपु के रुक्मकवच , रुक्मकवच के परावृत् तथा परावृत्के रुक्मेषु , पृथु , ज्यामघ , वलित और हरित नामक पाँच पुत्र हुए ॥
ज्यामघ की कथा
इनमेंसे ज्यामघ के विषय में अब भी यह श्लोक गाया – जाता है— ॥ संसार में स्त्री के वशीभूत जो – जो लोग होंगे और जो – जो पहले हो चुके हैं उनमें शैव्याका पति राजा ज्यामघ ही सर्वश्रेष्ठ है ॥ उसकी स्त्री शैव्या यद्यपि निःसन्तान थी तथापि सन्तान की इच्छा रहते हुए भी उसने उसके भय से दूसरी स्त्री से विवाह नहीं किया ॥ एक दिन बहुत – से रथ , घोड़े और हाथियों के संघट्ट से अत्यन्त भयानक महायुद्ध में लड़ते हुए उसने अपने समस्त शत्रुओं को जीत लिया ॥
शैव्या का क्रोध और पुत्रवधू का आगमन
उस समय वे समस्त शत्रुगण पुत्र , मित्र , स्त्री , सेना और कोशादि से हीन होकर अपने – अपने स्थानों को छोड़कर दिशा- विदिशाओं में भाग गये ॥ उनके भाग जानेपर उसने एक राजकन्या को देखा जो अत्यन्त भय से कातर हुई विशाल आँखों से [ देखती हुई ] ‘ हे तात , हे मातः , हे भ्रातः ! मेरी रक्षा करो , रक्षा करो ‘ इस प्रकार व्याकुलता पूर्वक विलाप कर रही थी ॥ उसको देखते ही उसमें अनुरक्त चित्त हो जाने से राजा ने विचार किया ॥
‘ यह अच्छा ही हुआ , मैं पुत्रहीन और वन्ध्याका पति हूँ । ऐसा मालूम होता है कि सन्तान की कारणरूपा इस कन्यारत्न को विधाता ने ही इस समय यहाँ भेजा है ॥ तो फिर मुझे इससे विवाह कर लेना चाहिये ॥ अथवा इसे अपने रथपर बैठाकर अपने निवासस्थान को लिये चलता हूँ , वहाँ देवी शैव्याकी आज्ञा लेकर ही इससे विवाह कर लूंगा ‘ ॥ तदनन्तर वे उसे रथपर चढ़ाकर अपने नगर को ले चले ॥ वहाँ विजयी राजा के दर्शन के लिये सम्पूर्ण पुरवासी , सेवक , कुटुम्बीजन और मन्त्रि वर्ग के सहित महारानी शैव्या नगर के द्वार पर आयी हुई थी ॥ उसने राजाके वामभाग में बैठी हुई राजकन्या को देखकर क्रोध के कारण ने कुछ काँपते हुए होठों से कहा- ॥
‘ हे अति चपलचित्त ! तुमने रथमें यह किसे बैठा रखी है ? ” ॥ राजाको भी जब कोई उत्तर न सूझा तो अत्यन्त डरते – डरते कहा “ यह मेरी पुत्रवधू है । ” ॥ तब शैव्या बोली- ॥ “ मेरे तो कोई पुत्र हुआ नहीं है और आपके दूसरी कोई स्त्री भी नहीं है , फिर किस पुत्रके कारण आपका इससे पुत्रवधू का सम्बन्ध हुआ ? ।।
इस प्रकार शैव्याके ईर्ष्या और क्रोध – कलुषित वचनों से विवेक हीन होकर भयके कारण कही हुई असंबद्ध बातके सन्देह को दूर करने के लिये राजाने कहा- ॥ ” तुम्हारे जो पुत्र होनेवाला है उस भावी शिशु की मैंने यह पहले से ही भार्या निश्चित कर दी है । ” यह सुनकर रानीने मधुर मुसकानके साथ कहा ‘ अच्छा , ऐसा ही हो ‘ और राजा के साथ नगर में प्रवेश किया ॥
विदर्भ के वंशज
तदनन्तर पुत्र – लाभके गुणोंसे युक्त उस अति विशुद्ध लग्न होरांशक अवयवके समय हुए पुत्रजन्म विषयक पवार्तालापके प्रभावसे गर्भधारणके योग्य अवस्था न रहनेपर भी थोड़े ही दिनों में शैव्या के गर्भ रह गया और यथा समय एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ पिताने उसका नाम विदर्भ रखा ॥ और उसीके साथ उस पुत्रवधूका पाणिग्रहण हुआ ॥ उससे विदर्भ ने क्रथ और कैशिक नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥
रोमपाद के वंशज
फिर रोमपाद नामक एक तीसरे पुत्रको जन्म दिया जो नारदजी के उपदेश से ज्ञान – विज्ञान सम्पन्न हो गया था ॥ रोमपादके बभ्रु , बभ्रुके धृति , धृतिके कैशिक और कैशिक के चेदि नामक पुत्र हुआ जिसकी सन्ततिमें चैद्य राजाओंने जन्म लिया ॥
क्रथ के वंशज
ज्यामघ की पुत्रवधू के पुत्र क्रथ के कुन्ति नामक पुत्र हुआ ॥ कुन्ति के धृष्टि , धृष्टिके निधृति , निधृतिके दशार्ह , दशार्हके व्योमा , व्योमा के जीमूत , जीमूतके विकृति , विकृति के भीमरथ , भीमरथ के नवरथ , नवरथ के दशरथ , दशरथ के शकुनि , शकुनि के करम्भि , करम्भिके देवरात , देवरातके देवक्षत्र , देवक्षत्र के मधु , मधुके कुमारवंश , कुमारवंशके अनु , अनुके राजा पुरुमित्र , पुरुमित्र के अशु और अंशु के सत्वत नामक पुत्र हुआ तथा सत्वत से सात्वत वंश का प्रादुर्भाव हुआ ॥
श्रवण का महत्त्व
इस प्रकार ज्यामघ की सन्तान का श्रद्धापूर्वक भली प्रकार श्रवण करने से मनुष्य अपने समस्त पापों से मुक्त हो जाता है ॥