राजा भरत चरित्र
आपने पहले जिसकी चर्चा की थी वह राजा भरतका चरित्र मैं सुनना चाहता हूँ ,कृपा करके कहिये ॥ कहते हैं , वे राजा भरत निरन्तर योगयुक्त होकर भगवान् वासुदेवमें चित्त लगाये शालग्रामक्षेत्र में रहा करते थे ॥ इस प्रकार पुण्यदेशके प्रभाव और हरिचिन्तनसे भी उनकी मुक्ति क्यों नहीं हुई , जिससे उन्हें फिर ब्राह्मणका जन्म लेना पड़ा ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! ब्राह्मण होकर भी उन महात्मा भरतजीने फिर जो कुछ किया वह सब आप कृपा करके मुझसे कहिये ॥
राजा भरत का तपस्वी जीवन
वे महाभाग पृथिवीपति भरतजी भगवान्में चित्त लगाये चिरकालतक शालग्रामक्षेत्रमें रहे ॥ गुणवानोंमें श्रेष्ठ उन भरतजीने अहिंसा आदि सम्पूर्ण गुण और मनके संयममें परम उत्कर्ष लाभ किया ॥ ‘ हे यज्ञेश ! हे अच्युत ! हे गोविन्द ! हे माधव ! हे अनन्त ! हे केशव ! हे कृष्ण ! हे विष्णो ! हे हृषीकेश ! हे वासुदेव ! आपको नमस्कार है ‘- इस प्रकार राजा भरत निरन्तर केवल भगवन्नामोंका ही उच्चारण किया करते थे । वे स्वप्नमें भी इस पदके अतिरिक्त और कुछ नहीं कहते थे और न कभी इसके अर्थके अतिरिक्त और कुछ चिन्तन ही करते थे ॥ वे नि : संग , योगयुक्त और तपस्वी राजा भगवान्की पूजाके लिये केवल समिध , पुष्प और कुशाका ही संचय करते थे ।इसके अतिरिक्त वे और कोई कर्म नहीं करते थे ॥
भरतजी और हरिणी का प्रसंग
एक दिन वे स्नानके लिये नदीपर गये और वहाँ स्नान करनेके अनन्तर उन्होंने स्नानोत्तर क्रियाएँ कीं ॥ हे ब्रह्मन् ! इतनेहीमें उस नदी – तीरपर एक आसन्नप्रसवा( शीघ्र ही बच्चा जननेवाली )प्यासी हरिणी वनमेंसे जल पीनेके लिये आयी॥
उस समय जब वह प्राय : जल पी चुकी थी , वहाँ सब प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाली सिंहकी गम्भीर गर्जना सुनायी पड़ी ॥ तब वह अत्यन्त भयभीत हो अकस्मात् उछलकर नदीके तटपर चढ़ गयी ; अतः अत्यन्त उच्च स्थानपर चढ़नेके कारण उसका गर्भ नदीमें नदीकी तरंगमालाओंमें पड़कर बहते हुए उस गर्भ भ्रष्ट मृगबालकको राजा भरतने पकड़ लिया ॥ गर्भपातके दोषसे तथा बहुत ऊँचे उछलनेके कारण वह हरिणी भी पछाड़ खाकर गिर पड़ी और मर गयी ॥ उस हरिणीको मरी हुई देख तपस्वी भरत उसके बच्चेको अपने आश्रमपर ले आये ॥
मृगछौने के प्रति ममता
फिर राजा भरत उस मृगछौनेका नित्यप्रति पालन – पोषण करने लगे और वह भी उनसे पोषित होकर दिन – दिन बढ़ने लगा ॥ वह बच्चा कभी तो उस आश्रमके आस – पास ही घास चरता रहता और कभी वनमें दूरतक जाकर फिर सिंहके लौट आता ॥ प्रातःकाल वह बहुत दूर भी चला जाता , तो भी सायंकालको फिर आश्रममें ही लौट आता और भरतजीके आश्रमकी पर्णशालाके आँगनमें पड़ रहता ॥ इस प्रकार कभी पास और कभी दूर रहनेवाले उस मृगमें ही राजाका चित्त सर्वदा आसक्त रहने लगा , वह अन्य विषयोंकी ओर जाता ही नहीं था ॥
जिन्होंने सम्पूर्ण राज – पाट और अपने पुत्र तथा बन्धु बान्धवोंको छोड़ दिया था वे ही भरतजी उस हरिणके बच्चेपर अत्यन्त ममता करने लगे ॥ उसे बाहर जानेके अनन्तर यदि लौटनेमें देरी हो जाती तो वे मन ही – मन सोचने लगते –’अहो ! उस बच्चेको आज किसी भेड़ियेने तो नहीं खा लिया ? किसी सिंहके पंजेमें तो आज वह नहीं पड़ गया ? देखो , उसके खुरोंके चिह्नोंसे यह पृथिवी कैसी चित्रित हो रही है ? मेरी ही प्रसन्नताके लिये उत्पन्न हुआ वह मृगछौना न जाने आज कहाँ रह गया है ?
क्या वह वनसे कुशलपूर्वक लौटकर अपने सींगोंसे मेरी भुजाको खुजलाकर मुझे आनन्दित करेगा ? देखो , उसके नवजात दाँतोंसे कटी हुई शिखावाले ये कुश और काश सामाध्यायी [ शिखाहीन ] ब्रह्मचारियोंके समान कैसे सुशोभित हो रहे हैं ? देरके गये हुए उस बच्चेके निमित्त भरत मुनि इसी प्रकार चिन्ता करने लगते थे और जब वह उनके निकट आ जाता तो उसके प्रेमसे उनका मुख खिल जाता था ॥
भरतजी का मृत्यु और पुनर्जन्म
इस प्रकार उसीमें आसक्तचित्त रहनेसे , राज्य , भोग , समृद्धि और स्वजनोंको त्याग देनेवाले भी राजा भरतकी समाधि भंग हो गयी ॥ उस राजाका स्थिरचित्त उस मृगके चंचल होनेपर चंचल हो जाता और दूर चले जानेपर दूर चला जाता ॥ कालान्तरमें राजा भरतने , उस मृगबालकद्वारा पुत्रके सजल नयनोंसे देखे जाते हुए पिताके समान अपने प्राणोंका त्याग किया ॥ राजा भी प्राण छोड़ते समय स्नेहवश उस मृगको ही देखता रहा तथा उसीमें तन्मय रहनेसे उसने और कुछ भी चिन्तन नहीं किया ॥
तदनन्तर , उस समयकी सुदृढ़ भावनाके कारण वह जम्बूमार्ग ( कालंजरपर्वत ) -के घोर वनमें अपने पूर्वजन्मकी स्मृतिसे युक्त एक मृग हुआ ॥ अपने पूर्वजन्मका स्मरण रहने के कारण वह संसारसे उपरत हो गया और अपनी माताको छोड़कर फिर शालग्रामक्षेत्रमें आकर ही रहने लगा ॥ वहाँ सूखे घास – फूंस और पत्तोंसे ही अपना शरीर – पोषण करता हुआ वह अपने मृगत्व – प्राप्तिके हेतुभूत कर्मोंका निराकरण करने लगा ॥
ब्राह्मण जन्म और आत्मज्ञान
तदनन्तर , उस शरीरको छोड़कर उसने सदाचार सम्पन्न योगियोंके पवित्र कुलमें ब्राह्मण – जन्म ग्रहण किया । उस देहमें भी उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा ॥ वह सर्वविज्ञानसम्पन्न और समस्त शास्त्रों के मर्मको जाननेवाला था तथा अपने आत्माको निरन्तर प्रकृतिसे परे देखता था ॥ आत्मज्ञानसम्पन्न होनेके कारण वह देवता आदि सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेसे अभिन्नरूपसे देखता था ॥
उपनयन संस्कार हो जानेपर वह गुरुके पढ़ानेपर भी वेद – पाठ नहीं करता था तथा न किसी कर्मकी ओर ध्यान देता और न कोई अन्य शास्त्र ही पढ़ता था ॥ जब कोई उससे बहुत पूछताछ करता तो जडके समान कुछ असंस्कृत , असार एवं ग्रामीण वाक्योंसे मिले हुए वचन बोल देता ॥ निरन्तर मैला – कुचैला शरीर , मलिन वस्त्र और अपरिमार्जित दन्तयुक्त रहनेके कारण वह ब्राह्मण सदा अपने नगरनिवासियों से अपमानित होता रहता था ॥ योगश्रीके लिये सबसे अधिक हानिकारक सम्मान ही है , जो योगी अन्य मनुष्योंसे अपमानित होता है वह शीघ्र ही सिद्धि लाभ कर लेता है ॥
ब्राह्मण का काली के बलिपशु के रूप में चयन
अतः योगिको, सन्मार्गको दूषित न करते हुए ऐसा आचरण करना चाहिये जिससे लोग अपमान करें और संगतिसे दूर रहें ॥ हिरण्यगर्भके इस सारयुक्त वचनको स्मरण रखते हुए वे महामति विप्रवर अपने – आपको लोगोंमें जड और उन्मत – सा ही प्रकट करते थे ॥ कुल्माष ( जौ आदि ) धान , शाक , जंगली फल अथवा कण आदि जो कुछ भक्ष्य मिल जाता उस थोड़े – सेको भी बहुत मानकर वे उसीको खा लेते और अपना कालक्षेप करते रहते ॥
फिर पिताके शान्त हो जानेपर उनके भाई – बन्धु उनका सड़े – गले अन्नसे पोषण करते हुए उनसे खेती बारीका कार्य कराने लगे ॥ वे बैलके समान पुष्ट शरीरवाले और कर्ममें जडवत् निश्चेष्ट थे । अतः केवल आहारमात्रसे ही वे सब लोगोंके यन्त्र बन जाते थे । [ अर्थात् सभी लोग उन्हें आहारमात्र देकर अपना – अपना काम निकाल लिया करते थे ] ॥ उन्हें इस प्रकार संस्कारशून्य और ब्राह्मणवेषके विरुद्ध आचरणवाला देख रात्रिके समय पृषतराजके सेवकोंने बलिकी विधिसे सुसज्जितकर कालीका बलिपशु बनाया । किन्तु इस प्रकार एक परम योगीश्वरको बलिके लिये उपस्थित देख महाकालीने एक तीक्ष्ण ले उस क्रूरकर्मा राजसेवकका गला काट डाला और अपने पार्षदोंसहित उसका तीखा रुधिर किया ॥
सौवीरराज और ब्राह्मण का संवाद
तदनन्तर , एक दिन महात्मा सौवीरराज कहीं जा रहे थे । उस समय उनके बेगारियोंने समझा कि यह भी बेगारके ही योग्य है ॥ राजाके सेवकोंने भी भस्ममें छिपे हुए अग्निके समान उन महात्माका रंग – ढंग देखकर उन्हें बेगारके योग्य समझा ॥ उन सौवीरराजने मोक्षधर्मके ज्ञाता महामुनि कपिलसे यह पूछनेके लिये कि ‘ इस दुःखमय संसारमें मनुष्योंका श्रेय किसमें है ” शिबिकापर चढ़कर इक्षुमती नदीके किनारे उन महर्षिके आश्रमपर जानेका विचार किया ॥
तब राजसेवकके कहनेसे भरत मुनि भी उसको पालकीको अन्य बेगारियोंके बीचमें लगकर वहन करने लगे ॥ इस प्रकार बेगारमें पकड़े जाकर अपने पूर्वजन्मका स्मरण रखनेवाले , सम्पूर्ण विज्ञानके एकमात्र पात्र वे विप्रवर अपने पापमय प्रारब्धका क्षय करनेके लिये उस शिबिकाको उठाकर चलने लगे ॥ बुद्धिमानों में श्रेष्ठ द्विजवर तो चार हाथ भूमि देखते हुए । मन्द – गतिसे चलते थे , किन्तु उनके अन्य साथी जल्दी जल्दी चल रहे थे ॥
ब्राह्मण का आत्मतत्त्व पर उपदेश
इस प्रकार शिबिकाकी विषम – गति देखकर राजाने कहा- ” अरे शिबिकावाहको । यह क्या करते हो ? समान गतिसे चलो ” ॥ किन्तु फिर भी उसकी गति उसी प्रकार विषम देखकर राजाने फिर कहा- ” अरे क्या है ? इस प्रकार असमान भावसे क्यों चलते हो ? ‘ ‘ ॥ राजाके बार – बार ऐसे वचन सुनकर वे शिबिकावाहक [ भरतजीको दिखाकर ] कहने लगे- ” हममेंसे एक यही धीरे – धीरे चलता है ” ॥
राजाने कहा- अरे , तूने तो अभी मेरी शिबिकाको थोड़ी ही दूर वहन किया है ; क्या इतनेहीमें थक गया ? तू वैसे तो बहुत मोटा – मुष्टण्डा दिखायी देता है , फिर क्या तुझसे इतना भी श्रम नहीं सहा जाता ? ब्राह्मण बोले – राजन् ! मैं न मोटा हूँ और न मैंने आपकी शिबिका ही उठा रखी है । मैं थका भी नहीं हूँ और न मुझे श्रम सहन करनेकी ही आवश्यकता है ॥
राजा बोले- अरे , तू तो प्रत्यक्ष ही मोटा दिखायी दे रहा है , इस समय भी शिबिका तेरे कन्धेपर रखी हुई है और बोझा ढोनेसे देहधारियोंको श्रम होता ही है ॥ ब्राह्मण बोले- राजन् ! तुम्हें प्रत्यक्ष क्या दिखायी दे रहा है , मुझे पहले यही बताओ । उसके ‘ बलवान् ‘ अथवा ‘ अबलवान् ‘ आदि विशेषणोंकी बात तो पीछे करना ॥ ‘ तूने मेरी शिबिकाका वहन किया है , इस समय भी वह तेरे ही कन्धोंपर रखी हुई है ‘ – तुम्हारा ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है , अच्छा मेरी बात सुनो ॥
देखो , पृथिवीपर तो मेरे पैर रखे हैं , पैरोंके ऊपर जंघाएँ हैं और जंघाओंके ऊपर दोनों ऊरु तथा ऊरुओंके ऊपर उदर है ॥ उदरके ऊपर वक्षःस्थल , बाहु और कन्धोंकी स्थिति है तथा कन्धोंके ऊपर यह शिबिका रखी है । इसमें मेरे ऊपर कैसे बोझा रहा ? इस शिबिकामें जिसे तुम्हारा कहा जाता है वह शरीर रखा हुआ है । वास्तवमें तो ‘ तुम वहाँ ( शिबिकामें ) हो और मैं यहाँ ( पृथिवीपर ) हूँ ‘ – ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है ॥ हे राजन् ! मैं , तुम और अन्य भी समस्त जीव पंचभूतोंसे ही वहन किये जाते हैं । तथा यह भूतवर्ग भी गुणोंके प्रवाहमें पड़कर ही बहा जा रहा है ॥
हे पृथिवीपते ! ये सत्त्वादि गुण भी कर्मोके वशीभूत हैं और समस्त जीवोंमें कर्म अविद्याजन्य ही हैं ॥ आत्मा तो शुद्ध , अक्षर , शान्त , निर्गुण और प्रकृतिसे परे है तथा समस्त जीवोंमें वह एक ही ओत – प्रोत है । अतः उसके वृद्धि अथवा क्षय कभी नहीं होते ॥
हे नृप ! जब उसके उपचय ( वृद्धि ) , अपचय ( क्षय ) | ही नहीं होते तो तुमने यह बात किस युक्तिसे कही कि ‘ तू मोटा है ? ‘ ॥ यदि क्रमशः पृथिवी , पाद , जंघा , कटि , ऊरु और उदरपर स्थित कन्धोंपर रखी हुई यह शिबिका मेरे लिये भाररूप हो सकती है तो उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी तो हो सकती है ? [ क्योंकि ये पृथिवी आदि तो जैसे तुमसे पृथक् हैं वैसे ही मुझ आत्मासे भी सर्वथा भिन्न हैं ] ॥
तथा इस युक्तिसे तो अन्य समस्त जीवोंने भी केवल शिबिका ही नहीं , बल्कि सम्पूर्ण पर्वत , वृक्ष , गृह और पृथिवी आदिका भार उठा रखा है ॥ हे राजन् ! जब प्रकृतिजन्य कारणोंसे पुरुष सर्वथा भिन्न है तो उसका परिश्रम भी मुझको कैसे हो सकता है ? और जिस द्रव्यसे यह शिबिका बनी हुई है उसीसे यह आपका , मेरा अथवा और सबका शरीर भी बना है ; जिसमें कि ममत्वका आरोप किया हुआ है ॥
ऐसा कह वे द्विजवर शिबिकाको धारण किये हुए ही मौन हो गये ; और राजाने भी तुरन्त पृथिवीपर उतरकर उनके चरण पकड़ लिये ॥ राजा बोला- अहो द्विजराज ! इस शिबिकाको छोड़कर आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये । प्रभो ! कृपया बताइये , इस जडवेषको धारण किये आप कौन हैं ? ॥ हे विद्वन् ! आप कौन हैं ? किस निमित्तसे यहाँ आपका आना हुआ ? तथा आनेका क्या कारण है ? यह सब आप मुझसे कहिये । मुझे आपके विषयमें सुननेकी बड़ी उत्कण्ठा हो रही है ॥
ब्राह्मण बोले – हे राजन् ! सुनो , मैं अमुक हूँ – यह बात कही नहीं जा सकती और तुमने जो मेरे यहाँ आनेका कारण पूछा सो आना – जाना आदि सभी क्रियाएँ कर्मफलके उपभोगके लिये ही हुआ करती हैं ॥ सुख – दुःखका भोग ही देह आदिकी प्राप्ति करानेवाला है तथा धर्माधर्मजन्य सुख – दुःखोंको भोगनेके लिये ही जीव देहादि धारण करता है ॥
हे भूपाल ! समस्त जीवोंकी सम्पूर्ण अवस्थाओंक कारण ये धर्म और अधर्म ही हैं , फिर विशेषरूपसे मर आगमनका कारण तुम क्यों पूछते हो ? राजा बोला – अवश्य ही , समस्त कार्यों में धर्म और अधर्म ही कारण हैं और कर्मफलके उपभोगके लिये ही एक देहसे दूसरे देहमें जाना होता है ॥ किन्तु आपने जो कहा कि ‘ मैं कौन हूँ- यह नहीं बताया जा सकता ‘ इसी बातको सुननेकी मुझे इच्छा हो रही है ।
हे ब्रह्मन् ! ‘ जो है [ अर्थात् जो आत्मा कर्ता भोक्तारूपसे प्रतीत होता हुआ सदा सत्तारूपसे वर्तमान है ] वही मैं हूँ ‘ – ऐसा क्यों नहीं कहा जा सकता ? हे द्विज यह ‘ अहम् ‘ शब्द तो आत्मामें किसी प्रकारके दोषका कारण नहीं होता ॥ ब्राह्मण बोले- हे राजन् ! तुमने जो कहा कि ‘ अहम् ‘ शब्दसे आत्मामें कोई दोष नहीं आता सो ठीक ही है , किन्तु अनात्मामें ही आत्मत्वका ज्ञान करानेवाला भ्रान्तिमूलक ‘ अहम् ‘ शब्द ही दोषका कारण है ॥
हे नृप ! ‘ अहम् ‘ शब्दका उच्चारण जिहा , दन्त , ओष्ठ और तालुसे ही होता है , किन्तु ये सब उस शब्दके उच्चारणके कारण हैं , ‘ अहम् ‘ ( मैं ) नहीं ॥ तो क्या जिह्वादि कारणोंके द्वारा यह वाणी ही स्वयं अपनेको ‘ अहम् ‘ कहती है ? नहीं । अतः ऐसी स्थितिमें ‘ तू मोटा है ‘ ऐसा कहना भी उचित नहीं है ॥ सिर तथा कर चरणादिरूप यह शरीर भी आत्मासे पृथक् ही है । अतः हे राजन् ! इस ‘ अहम् ‘ शब्दका मैं कहाँ प्रयोग करूँ ? तथा हे नृपश्रेष्ठ यदि मुझसे भिन्न कोई और भी सजातीय आत्मा हो तो भी ‘ यह मैं हूँ और यह अन्य है ‘ – ऐसा कहा जा सकता था ॥
किन्तु जब समस्त शरीरोंमें एक ही आत्मा विराजमान है तब ‘ आप कौन हैं ? मैं वह हूँ । ‘ ये सब वाक्य निष्फल ही हैं ॥ ‘ तू राजा है , यह शिबिका है , ये सामने शिबिकावाहक हैं तथा ये सब तेरी प्रजा हैं’– हे नृप ! इनमेंसे कोई भी बात परमार्थतः सत्य नहीं है ॥ हे राजन् ! वृक्षसे लकड़ी हुई और उससे तेरी यह शिबिका बनी ; तो बता इसे लकड़ी कहा जाय या वृक्ष ? किन्तु ‘ महाराज वृक्षपर बैठे हैं ‘ ऐसा कोई नहीं कहता और न कोई तुझे लकड़ीपर बैठा हुआ ही बताता है ! सब लोग शिबिकामें बैठा हुआ ही कहते हैं ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! रचनाविशेष में स्थित लकड़ियोंका समूह ही तो शिबिका है । यदि वह उससे कोई भिन्न वस्तु है तो काष्ठको अलग करके उसे ढूँढ़ो ॥ इसी प्रकार छत्रकी शलाकाओंको अलग रखकर छत्रका विचार करो कि वह कहाँ रहता है । यही न्याय तुममें और मुझमें लागू होता है [ अर्थात् मेरे और तुम्हारे शरीर भी पंचभूतसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं हैं ] ॥ पुरुष , स्त्री , गौ , अज ( बकरा ) , अश्व , गज , पक्षी और वृक्ष आदि लौकिक संज्ञाओंका प्रयोग कर्महेतुक शरीरोंमें ही जानना चाहिये ॥ हे राजन् ! पुरुष ( जीव ) तो न देवता है , न मनुष्य है , न पशु है और न वृक्ष है । ये सब तो कर्मजन्य शरीरॉकी आकृतियोंके ही भेद हैं ॥
लोकमें धन , राजा , राजाके सैनिक तथा और भी जो – जो वस्तुएँ हैं , हे राजन् ! वे परमार्थतः सत्य नहीं हैं , केवल कल्पनामय ही हैं ॥ जिस वस्तुकी परिणामादिके कारण होनेवाली कोई संज्ञा कालान्तरमें भी नहीं होती , वही परमार्थ – वस्तु है । हे राजन् ! ऐसी वस्तु कौन – सी है ? [ तू अपनेहीको देख ] समस्त प्रजाके लिये तू राजा है , पिताके लिये पुत्र है , शत्रुके लिये शत्रु है , पत्नीका पति है और पुत्रका पिता है ।
हे राजन् ! बतला , मैं तुझे क्या कहूँ ? हे महीपते ! तू क्या यह सिर है , अथवा ग्रीवा है या पेट अथवा पादादिमेंसे कोई है ? तथा ये सिर आदि भी ‘ तेरे ‘ क्या हैं ? हे पृथिवीश्वर ! तू इन समस्त अवयवोंसे पृथक् है ; अतः सावधान होकर विचार कि ‘ मैं कौन हूँ ‘ हे महाराज ! आत्मतत्त्व इस प्रकार व्यवस्थित है । उसे सबसे पृथक् करके ही बताया जा सकता है। तो फिर , मैं उसे ‘ अहम् ‘ शब्दसे कैसे बतला सकता हूँ ?