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शबरी

शबरी

शबरी की कथा

1. परिचय और समय

त्रेतायुग का समय है, वर्णाश्रम धर्मकी पूर्ण प्रतिष्ठा है, वनोंमें स्थान-स्थानपर ऋषियोंके पवित्र आश्रम बने हुए हैं। तपोधन ऋषियोंके यज्ञधूमसे दिशाएँ आच्छादित और वेदध्वनि से आकाश मुखरित हो रहा है।

2. शबरी का परिचय

ऐसे समय दण्डकारण्य में एक पति-पुत्र- विहीना, भक्ति – श्रद्धा सम्पन्ना भीलनी रहती थी; जिसका नाम था शबरी

शबरी ने एक बार मतंग ऋषिके दर्शन किये। संत-दर्शन से उसे परम हर्ष हुआ और उसने विचार किया कि यदि मुझसे ऐसे महात्माओंकी सेवा बन सके तो मेरा कल्याण होना कोई बड़ी बात नहीं है। परंतु साथ ही उसे इस बातका भी ध्यान आया कि मुझ नीच कुलमें उत्पन्न अधम नारी की सेवा ये स्वीकार कैसे करेंगे ? अन्तमें उसने यह निश्चय किया कि यदि प्रकटरूपसे मेरी सेवा स्वीकार नहीं होती तो न सही, मैं इनकी सेवा अप्रकटरूपसे अवश्य करूँगी।

3. सेवा और समर्पण

यह सोचकर उसने ऋषियोंके आश्रमोंसे थोड़ी दूरपर अपनी छोटी-सी कुटिया बना ली और कंद-मूल-फलसे अपना उदर-पोषण करती हुई वह अप्रकटरूपसे सेवा करने लगी। जिस मार्ग से ऋषिगण स्नान करने जाया करते, उषाकाल के पूर्व ही उसको झाड़-बुहारकर साफ कर देती, कहीं भी कंकड़ या काँटा नहीं रहने पाता। इसके सिवा वह आश्रमों के समीप ही प्रातःकाल के पहले-पहले ईंधनके सूखे ढेर लगा देती। शबरीको विश्वास था कि मेरे इस कार्य से दयालु महात्माओं की कृपा मुझपर अवश्य होगी।

कँकरीले और कँटीले रास्ते को निष्कण्टक और कंकड़ों से रहित देखकर तथा द्वारपर समिधाका संग्रह देखकर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने शिष्यों को यह पता लगाने की आज्ञा दी कि प्रतिदिन इन कामोंको कौन कर जाता है ? आज्ञाकारी शिष्य रातको पहरा देने लगे और उसी दिन रातके पिछले पहर शबरी ईंधनका बोझा रखती हुई पकड़ी गयी । शबरी बहुत ही डर गयी ।

शिष्यगण उसे मतंग मुनि के सामने ले गये और उन्होंने मुनिसे कहा कि ‘महाराज ! प्रतिदिन रास्ता साफ करने और ईंधन रख जानेवाले चोरको आज हमने पकड़ लिया है। यह भीलनी ही प्रतिदिन ऐसा किया करती है।’ शिष्योंकी बातको सुनकर भयकातरा शबरी से मुनिने पूछा ‘तू कौन है और किसलिये प्रतिदिन मार्ग बुहारने और ईंधन लानेका काम करती है ?’

4. मतंग ऋषि का आशीर्वाद

भक्तिमती शबरीने काँपते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक प्रणाम करके कहा- ‘नाथ ! मेरा नाम शबरी है, मन्द भाग्यसे मेरा जन्म नीच कुलमें हुआ है, मैं इसी वनमें रहती हूँ और आप जैसे तपोधन मुनियोंके दर्शनसे अपनेको पवित्र करती हूँ। अन्य किसी प्रकारकी सेवामें अपना अनधिकार समझकर मैंने इस प्रकारकी सेवामें ही मन लगाया है। भगवन् ! मैं आपकी सेवाके योग्य नहीं । कृपा- पूर्वक मेरे अपराधको क्षमा करें।’

शबरी के इन दीन और यथार्थ वचनों को सुनकर मुनि मतंगने दयापरवश हो अपने शिष्यों से कहा कि ‘यह बड़ी भाग्यवती है, इसे आश्रम के बाहर एक कुटिया में रहने दो और इसके लिये अन्नादि का उचित प्रबन्ध कर दो।” ऋषिके दयापूर्ण वचन सुनकर शबरीने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, कृपानाथ ! मैं तो कंद-मूलादि से ही अपना उदर-पोषण कर लिया करती हूँ । आपका अन्न प्रसाद तो मुझे इसीलिये इच्छित है कि इससे मुझ पर आपकी वास्तविक कृपा होगी जिससे मैं कृतार्थ हो सकूँगी। मुझे न तो वैभवकी इच्छा है और न मुझे यह असार संसार ही प्रिय लगता है। ‘दीनबन्धो ! मुझे तो आप ऐसा आशीर्वाद दें कि जिससे मेरी सद्गति हो।’

विनयावनत श्रद्धालु शबरीके ऐसे वचन सुनकर मुनि मतंगने कुछ देर सोच-विचारकर प्रेमपूर्वक उससे कहा-‘ -‘हे कल्याणि ! तू निर्भय होकर यहाँ रह और भगवान्‌ के नामका जप किया कर !’ ऋषिकी कृपा से शबरी जटा चीर-धारिणी होकर भगवद्भजन में निरत हो आश्रम में रहने लगी। अन्यान्य ऋषियों को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने मतंग ऋषि से कह दिया कि आपने नीच जाति शबरी को आश्रममें स्थान दिया है, इससे हमलोग आपके साथ भोजन करना तो दूर रहा, सम्भाषण भी करना नहीं चाहते ।

भक्तितत्त्व के मर्मज्ञ मतंग ने इन शब्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे इस बात को जानते थे कि ये सब भ्रम में हैं। शबरी के स्वरूप का इन्हें ज्ञान नहीं है, शबरी केवल नीच जाति की साधारण स्त्री ही नहीं है, वह एक भगवद्भक्ति परायण उच्च आत्मा है, ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो हीन वर्ण में उत्पन्न भगवत्परायण भक्त का आदर न करता हो ? जिस शबरी के हृदय में राम का रमण होने लगा था, उससे ऋषि मतंग कैसे घृणा कर सकते थे ? उन्होंने इस अवहेलनाका कुछ भी विचार नहीं किया और वे अपने उपदेश से शबरीकी भक्ति बढ़ाते रहे।

5. भगवान श्रीराम का आगमन

इस प्रकार भगवद्गुण-स्मरण और गान करते-करते बहुत समय बीत गया। मतंग ऋषिने शरीर छोड़नेकी इच्छा की, यह जानकर शिष्योंको बड़ा दुःख हुआ, शबरी अत्यन्त क्लेशके कारण क्रन्दन करने लगी। गुरुदेवका परमधाम में पधारना उसके लिये असहनीय हो गया। वह बोली, ‘नाथ ! आप अकेले ही न जायें, यह किंकरी भी आपके साथ जाने को तैयार है, विषण्णवदना कृताञ्जलिदीना शबरीको सम्मुख देखकर मतंग ऋषिने कहा—है सुव्रते । तू यह विषाद छोड़ दे; भगवान् श्रीरामचन्द्र इस समय चित्रकूट में हैं।

वे यहाँ अवश्य पधारेंगे। उन्हें तू इन्हीं चर्मचक्षुओंसे प्रत्यक्ष कर सकेगी, वे साक्षात् नारायण हैं। उनके दर्शनसे तेरा कल्याण हो जायगा । भक्तवत्सल भगवान् जब तेरे आश्रम में पधारें, तब उनका भलीभाँति आतिथ्य कर अपने जीवनको सफल करना, तबतक तू श्रीराम-नामका जप करती हुई यहीं निवास कर।

6. श्रीराम का स्वागत

शबरी को इस प्रकार आश्वासन देकर मुनि दिव्यलोक को चले गये। इधर शबरीने श्रीराम-नाममें ऐसा मन लगाया कि उसे दूसरी किसी बात का ध्यान ही नहीं रहा । शबरी कंद-मूल-फलोंपर अपना जीवन-निर्वाह करती हुई भगवान् श्रीरामके शुभागमनकी प्रतीक्षा करने लगी। ज्यों-ज्यों दिन बीतते हैं त्यों-ही-त्यों शबरीकी राम-दर्शन-लालसा प्रबल होती जाती है।

जरा-सा शब्द सुनते ही वह दौड़कर बाहर जाती है और बड़ी आतुरताके साथ प्रत्येक वृक्ष, लता-पत्र, पुष्प और फलोंसे तथा पशु-पक्षियोंसे पूछती है कि ‘अब श्रीराम कितनी दूर हैं, यहाँ कब पहुँचेंगे ?’ प्रातःकाल कहती है कि भगवान् आज संध्याको आवेंगे। सायंकाल फिर कहती है, कल सबेरे तो अवश्य पधारेंगे। कभी घरके बाहर जाती है, कभी भीतर आती है। कहीं मेरे रामके पैरोंमें चोट न लग जाय, इसी चिन्तासे बारम्बार रास्ता साफ करती और काँटे-कंकड़ोंको बुहारती है । घरको नित्य गोबर- गोमूत्र से लीप-पोत ठीक कर लेती है ।

नित नयी मिट्टी-गोबर की चौकी बनाती है। कभी चमककर उठती है, कभी बाहर जाती है और सोचती है, भगवान् बाहर आ ही गये होंगे। वनमें जो फल सबसे अधिक सुस्वादु और मीठा लगता है, वही अपने रामके लिये बड़े चावसे रख छोड़ती है। इस प्रकार शबरी उन राजीवलोचन रामके शुभ दर्शनकी उत्कण्ठासे ‘रामागमनकाङ्क्षया’ पागल सी हो गयी है। सूखे पत्ते वृक्षोंसे झड़कर नीचे गिरते हैं तो उनके शब्दको शबरी अपने प्रिय रामके पैरोंकी आहट समझकर दौड़ती है। इस तरह आठों पहर उसका चित्त श्रीराममें रमा रहने लगा, परंतु राम नहीं आये।

एक बार मुनिबालकोंने कहा—’शबरी ! तेरे राम आ रहे हैं।’ फिर क्या था। बेर आदि फलोंको आँगनमें रखकर वह दौड़ी सरोवर से जल लाने के लिये । प्रेमके उन्मादमें उसे शरीरकी सुधि नहीं थी, एक ऋषि स्नान करके लौट रहे थे। शबरीने उन्हें देखा नहीं और उनसे उसका स्पर्श हो गया ! मुनि बड़े क्रुद्ध हुए।

वे बोले – कैसी दुष्टा है ! जान-बूझकर हमलोगोंका अपमान करती है। शबरीने अपनी धुनमें कुछ भी नहीं सुना और वह सरोवरपर चली गयी। ऋषि भी पुनः स्नान करनेको उसके पीछे-पीछे गये। ऋषिने ज्यों ही जलमें प्रवेश किया त्यों ही जलमें कीड़े पड़ गये और उसका वर्ण रुधिर-सा हो गया ।

इतनेपर भी उनको यह ज्ञान नहीं हुआ कि यह भगवद्भक्तिपरायणा शबरीके तिरस्कारका फल है। इधर जल लेकर शबरी पहुँचने ही नहीं पायी थी कि दूरसे भगवान् श्रीराम मेरी शबरी कहाँ है ?’ पूछते हुए दिखायी दिये। यद्यपि अन्यान्य मुनियोंको भी यह निश्चय था कि भगवान् अवश्य पधारेंगे; परंतु उनकी ऐसी धारणा थी कि वे सर्वप्रथम हमारे ही यहाँ पदार्पण करेंगे। परंतु दीनवत्सल भगवान् श्रीरामचन्द्र जब पहले उनके यहाँ न जाकर शबरीकी मड़ैया का पता पूछने लगे तो उन तपोबलके अभिमानी मुनियोंको बड़ा आश्चर्य हुआ ।

श्रीरामका अपने प्रति इतना अनुग्रह देखकर शबरी उनकी अगवानीके लिये मनमें अनेक उमंगें करती हुई सामने चली।

इस प्रकार कहते हुए भगवान् श्रीराम लक्ष्मणसहित शबरी के आश्रममें पहुँचे।

आज शबरीके आनन्दका पार नहीं है। वह प्रेममें पगली होकर नाचने लगी। हाथसे ताल दे-देकर नृत्य करनेमें वह इतनी मग्न हुई कि उसे अपने उत्तरीय वस्त्रतकका ध्यान नहीं रहा, शरीरकी सारी सुध-बुध जाती रही। इस तरह शबरीको आनन्दसागरमें निमग्न देखकर भगवान् बड़े ही सुखी हुए और उन्होंने मुसकराते हुए लक्ष्मणकी ओर देखा । तब लक्ष्मणजीने हँसते हुए गम्भीर स्वरसे कहा कि ‘शबरी ! क्या तू नाचती ही रहेगी ? देख ! श्रीराम कितनी देरसे खड़े हैं, क्या इनको बैठाकर तू इनका आतिथ्य नहीं करेगी ?’ इन शब्दोंसे शबरीको चेत हुआ और उस धर्मपरायणा तापसी सिद्धा संन्यासिनीने श्रीमान् श्रीराम-लक्ष्मणको देखकर उनके चरणोंमें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और पाद्य- आचमन आदिसे उनका पूजन किया। सादर जल लै चरन पखारे ।

7. श्रीराम के उपदेश

भगवान् श्रीराम उस धर्मनिरता शबरीसे पूछने लगे- हे तपोधने ! तुमने साधनके समस्त विघ्नोंपर तो विजय पायी है? तुम्हारा तप तो बढ़ रहा है ? तुमने कोप और आहारका संयम तो किया है ? हे चारुभाषिणि! तुम्हारे नियम तो सब बराबर पालन हो रहे हैं? तुम्हारे मनमें शान्ति तो है ? तुम्हारी गुरुसेवा सफल तो हो गयी ? अब तुम क्या चाहती हो ?

श्रीरामके ये वचन सुनकर वह सिद्ध पुरुषोंमें मान्य-वृद्धा तापसी बोली – भगवन्! आप मुझे ‘सिद्धा, सिद्धसम्मला तापसी’ आदि कहकर लज्जित न कीजिये। मैंने तो आज आपके दर्शनसे ही जन्म सफल कर लिया है।

‘हे भगवन् ! आज आपके दर्शनसे मेरे सभी तप सिद्ध हो गये हैं, मेरा जन्म सफल हो गया, आज मेरी गुरुओंकी पूजा सफल हो गयी, मेरा तप सफल हो गया, हे पुरुषोत्तम ! आप देवताओंमें श्रेष्ठ रामकी कृपासे अब मुझे अपने स्वर्गापवर्गमें कोई संदेह नहीं रहा ।’

शबरी अधिक नहीं बोल सकी। उसका गला प्रेमसे रुँध गया। थोड़ी देर चुप रहकर फिर बोली, ‘प्रभो! आपके लिये संग्रह किये हुए कंद-मूल-फलादि तो अभी रखे ही हैं। भगवन् ! मुझ अनाथिनीके फलोंको ग्रहणकर मेरा मनोरथ सफल कीजिये ।’ यों कहकर शबरी चिरकालसे संग्रह किये हुए फलोंको लाकर भगवान्‌को देने लगी और भगवान् प्रेमसे सने फलोंकी बार-बार सराहना करते हुए उन्हें खाने लगे।

पद्मपुराणमें भगवान् व्यासजीने कहा हैं शबरी वनके पके हुए मूल और फलोंको स्वयं चख-चत्रकर परीक्षा कर भगवान्‌को देने लगी। जो अत्यन्त मधुर फल होते वही भगवान्‌के निवेदन करती। फलोंका आस्वाद लेकर भगवान्ने भी शबरीको परम कल्याणपद दे दिया ।

इस तरह भक्तवत्सल भगवान्‌के परम अनुग्रहसे शबरीने अपनी मनोगत अभिलाषा पूर्ण हुई जानकर परम प्रसन्नता लाभ की। तदनन्तर वह हाथ जोड़कर बोली-

आर्तत्राणपरायण पतितपावन भक्तवत्सल श्रीरामने उत्तरमें कहा- ‘हे भामिनि ! तुम मेरी बात सुनो। मैं एकमात्र भक्तिका नाता मानता हूँ। जो मेरी भक्ति करता है वह मेरा है और मैं उसका हूँ। जाति-पाँति, कुल-धर्म, बड़ाई, द्रव्य, बल, कुटुम्ब, गुण, चतुराई सब कुछ हो, पर यदि भक्ति न हो तो वह मनुष्य बिना जलके बादलोंके समान शोभाहीन और व्यर्थ है।’ धन्य है! वास्तवमें भक्ति ही भगवानको प्रिय है ‘भक्तिप्रियो माधवः ।’

इसीसे भगवान् श्रीराम कहते हैं- ‘पुरुषत्व-स्त्रीत्वका भेद या जाति, नाम और आश्रम आदि मेरे भजनमें कारण नहीं हैं, केवल भक्ति ही एक कारण है।’

‘जो मेरी भक्तिसे विमुख हैं, यज्ञ, दान, तप और वेदाध्ययन करके भी वे मुझे नहीं देख सकते।’ यही घोषणा भगवान्ने गीतामें की है।

इसके बाद भगवान्ने शबरीको नवधा भक्ति का स्वरूप बतलाया।

इस प्रकार भक्तिका वर्णन करनेके बाद भगवान् शबरीको अपना परम पद प्रदान करते हैं।

8. शबरी का मोक्ष

उसी समय दण्डकारण्यवासी अनेक ऋषि-मुनि शबरीजीके आश्रममें आ गये। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम और लक्ष्मणने खड़े होकर मुनियोंका स्वागत किया और उनसे कुशल प्रश्न किया। सबने उत्तरमें यही कहा-‘हे रघुश्रेष्ठ ! आपके दर्शनसे हम सब निर्भय हो गये हैं।’ प्रभो ! हम बड़े अपराधी हैं। इस परम भक्तिमती शबरीके कारण हमने मतंग-जैसे महानुभावका तिरस्कार किया। योगिराजोंके लिये भी जो परम दुर्लभ हैं ऐसे आप साक्षात् नारायण जिसके घरपर पधारे हैं, वह भक्तिमती शबरी सर्वथा धन्य है। हमने बड़ी भूल की। इस प्रकार सब ऋषि-मुनि पश्चात्ताप करते हुए भगवान् से विनय करने लगे। आज दण्डकारण्यवासी ज्ञानाभिमानियोंकी आँखें खुलीं ।

जब व्रजकी ब्राह्मण वनिताओंने अपने पतिदेवोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन कर साक्षात् यज्ञपुरुष श्रीकृष्णकी सेवामें पहुँचकर अनन्य भक्तिका परिचय दिया था, तब ब्राह्मणोंने एक बार तो बहुत बुरा माना; परंतु अन्तमें जब उन्हें बोध हुआ, तब उन्होंने भी बड़े पश्चात्तापके साथ इसी प्रकार अपनेको धिक्कार देते हुए कहा था-

‘हमारे तीन जन्मोंको (एक गर्भसे, दूसरे उपनयनसे और तीसरे यज्ञदीक्षासे) विद्याको, ब्रह्मचर्यव्रतको बहुत जाननेको, उत्तम कुलको, यज्ञादि क्रियाओंमें चतुर होनेको बार-बार धिक्कार है; क्योंकि हम श्रीहरिके विमुख हैं। निःसंदेह भगवान्की माया बड़े-बड़े योगियोंको मोहित कर देती है। अहो ! हमलोगोंक गुरु ब्राह्मण कहलाते हैं, परंतु अपने ही सच्चे स्वार्थसे (हरिकी भक्तिमें)चूक गये।’

9. मुनियों का पश्चाताप

ऋषि-मुनियोंको पश्चात्ताप करते देखकर श्रीलक्ष्मणजीने उनसे कहा- ‘महर्षिगण ! आपलोगोंको धन्य है। आप बड़े ही तपव्रतपरायण हैं, आप सांसारिक विषयजन्य सुखोंको त्यागकर निःस्पृह होकर वनमें निवास करते हैं। आपलोगोंहीके प्रभावसे यह सचराचर जगत् धर्म को धारण कर रहा है।’

इस प्रकारके वाक्योंसे ऋषियोंको कुछ संतोष हुआ, इतनेमें एक ऋषिने कहा- ‘हे शरणागतवत्सल ! यहाँके सुन्दर सरोवर के जलमें कीड़े क्यों पड़ रहे हैं तथा वह रुधिर-सा क्यों हो गया है ?” लक्ष्मणजीने हँसते हुए कहा- मतंग मुनिके साथ द्वेष करने तथा शबरी-जैसी रामभक्ता साध्वीका अपमान करनेके कारण आपके अभिमानरूपी दुर्गुणसे ही यह सरोवर इस दशा को प्राप्त हो गया है। इसके फिर पूर्ववत् होनेका एक यही उपाय है कि शबरी एक बार फिरसे उसका स्पर्श करे।’

निष्कर्ष

भगवान्‌ की आज्ञा से शबरी ने जलाशय में प्रवेश किया और तुरंत ही जल पूर्ववत् निर्मल हो गया। यह है भक्तों की महिमा ! भगवान्ने प्रसन्न होकर फिर शबरी से कहा कि तू कुछ वर माँग।

शबरीने कहा-‘मैं अत्यन्त नीच कुलमें जन्म लेनेपर भी आपका साक्षात् दर्शन कर रही हूँ, यह क्या साधारण अनुग्रहका फल है; तथापि मैं यही चाहती हूँ कि आपमें मेरी दृढ़ भक्ति सदा बनी रहे।’ भगवान्ने हँसते हुए कहा ‘तथास्तु’ !

शबरीने पार्थिव देह परित्याग करने के लिये भगवान्‌ की आज्ञा चाही, भगवान्ने उसे आज्ञा दे दी। शबरी मुनिजनों के सामने ही देह छोड़कर परम धाम को प्रयाण कर गयी और सब तरफ जय-जयकार की ध्वनि होने लगी। प्रिय पाठक और पाठिकाएँ ! हम और आप भी एक बार मिलकर कहें बोलो भक्त और उनके भगवान्‌की जय !’

FAQ’s-

शबरी कौन थी और उसका जीवन किस प्रकार था?

शबरी एक भक्तिमती भीलनी थी जो त्रेतायुग में दण्डकारण्य वन में रहती थी। पति-पुत्रहीन और नीच कुल में जन्मी होने के बावजूद, उसने भगवान श्रीराम की भक्ति में अपनी सारी जीवन-ऊर्जा लगा दी। उसने अपने समर्पण और भक्ति के माध्यम से भगवान श्रीराम का ध्यान आकर्षित किया और अंततः मोक्ष प्राप्त किया।

शबरी ने अपनी सेवा किस प्रकार की और इसका उद्देश्य क्या था?

शबरी ने ऋषियों की सेवा अप्रकटरूप से की। उसने आश्रमों के रास्ते को साफ किया, ईंधन इकट्ठा किया, और संपूर्ण श्रद्धा के साथ इन कार्यों को अंजाम दिया। इसका उद्देश्य था कि वह महात्माओं की कृपा प्राप्त कर सके और अपने जीवन को सार्थक बना सके।

मतंग ऋषि ने शबरी को कैसे स्वीकार किया?

मतंग ऋषि ने शबरी की दीन-हीनता और भक्ति को देखकर उसे आश्रम के बाहर एक कुटिया देने और उचित भोजन का प्रबंध करने की अनुमति दी। उन्होंने शबरी की भक्ति को सम्मानित किया और उसकी आत्मा की महानता को स्वीकार किया।

भगवान श्रीराम ने शबरी के आश्रम में कैसे आगमन किया?

भगवान श्रीराम और लक्ष्मण ने शबरी के आश्रम में पहुँचने से पहले अन्य ऋषियों से पूछा कि शबरी कहाँ है। जब उन्होंने पाया कि भगवान श्रीराम उनकी आशा के खिलाफ शबरी के आश्रम में पहले आए हैं, तो अन्य ऋषियों को आश्चर्य हुआ। शबरी की भक्ति और इंतजार ने श्रीराम को उसकी ओर आकर्षित किया।

शबरी ने भगवान श्रीराम को कौन-कौन से फल अर्पित किए?

शबरी ने भगवान श्रीराम को खुद चखकर परखें हुए सबसे स्वादिष्ट फलों को अर्पित किया। भगवान ने इन फलों की सराहना की और उन्हें स्वीकार किया, जिससे शबरी की भक्ति की महानता साबित हुई।

भगवान श्रीराम ने शबरी को किस प्रकार का उपदेश दिया?

भगवान श्रीराम ने शबरी को उपदेश देते हुए कहा कि भक्ति ही सबसे महत्वपूर्ण है। जाति, कुल, या धर्म से अधिक महत्वपूर्ण है भगवान की भक्ति। उन्होंने बताया कि भक्ति से ही व्यक्ति भगवान को प्राप्त कर सकता है, भले ही वह किसी भी जाति या वर्ण का हो।

मुनियों ने शबरी को लेकर क्यों पश्चात्ताप किया?

अन्य ऋषियों ने शबरी की भक्ति और भगवान श्रीराम के प्रति उसकी निष्ठा को देखकर अपने पूर्व के गलत आचरण पर पश्चात्ताप किया। उन्होंने मतंग ऋषि और शबरी का तिरस्कार किया था और अब वे समझ गए कि शबरी की भक्ति और साधना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

शबरी ने अंत में भगवान श्रीराम से क्या वरदान माँगा?

शबरी ने भगवान श्रीराम से केवल यही वरदान माँगा कि उसकी भक्ति हमेशा दृढ़ रहे। उसने भगवान श्रीराम से पार्थिव शरीर परित्याग की अनुमति भी माँगी, जिसे भगवान ने स्वीकार कर लिया।

शबरी की मृत्यु के बाद क्या हुआ?

शबरी ने भगवान श्रीराम की अनुमति से पार्थिव शरीर का त्याग किया और परम धाम को प्रस्थान किया। उसकी मृत्यु के बाद चारों ओर जय-जयकार की ध्वनि फैल गई और उसकी भक्ति की महिमा हर ओर गूंज उठी।

शबरी की कथा का प्रमुख संदेश क्या है?

शबरी की कथा का प्रमुख संदेश है कि भक्ति और समर्पण के द्वारा किसी भी जाति या वर्ण का व्यक्ति भगवान की कृपा और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। वास्तविक भक्ति ही सबसे महत्वपूर्ण है और यही भगवान को प्रसन्न करने का सबसे सही मार्ग है।

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