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शुकदेव का आख्यान

शुकदेव का आख्यान

शुकदेव का आख्यान

योनीनां चतुराशीति सहस्राणि च संख्यया ।

भ्रान्तोऽहं तेषु सर्वेषु तत्कोऽहं प्रब्रवीमि किम् ।।1।।

पूर्व अध्याय में निरूपित ब्रह्मविचार रूप आन्तरीय पूजा से अनन्तर अब वैराग्यरूप शुकदेव का आख्यान इस तृतीय अध्याय में निरूपण करते हैं।

स्कन्दपुराण में कहा है कि व्यासजी की जावाली पत्नी के बारह वर्ष पर्यन्त गर्भ की स्थिति होने पर व्यासजी ने गर्भस्थित प्राणी से पूछा कि हे गर्भ स्थित प्राणी आप दशमास की मर्यादा को उल्लंघन करने वाले गर्भ में कौन हैं। तब गर्भ में स्थित शुकदेव ने कहा कि कीट पतंग आदि सर्व योनियों की जो चौरासी हजार संख्या है तिन सर्व में मैंने भ्रमण करा है तो अब मैं क्या कहूँ कि कौन हूँ ।।1।।

तावज्ज्ञानं च वैराग्यं पूर्वजातिस्मृतिस्तथा ।

यावद्गर्भस्थितो जन्तुः सर्वोऽपि द्विजसत्तम ||2||

हे द्विजो में श्रेष्ठ व्यासजी । जब तक जन्तु माता के गर्भ में स्थित रहता है तब तक ही प्राणी को सौ जन्म के शुभ-अशुभ का ज्ञान और वैराग्य तथा पूर्व जन्मों की सर्व जाति की स्मृति रहती है ||2||

संस्काराः शतशो जाता मम जन्मनि जन्मनि ।

भवार्णावे परिक्षिप्तो यैरहं बन्धनात्मकै : ||3||

गर्भ से बाहर हो जाने पर प्राणी का सर्व ज्ञान-वैराग्य आदि वैष्णवी माया से नष्ट हो जाता है, माता के जठराग्नि के ताप से माया का ताप अधिक दग्ध करने वाला है इस कारण से मैं गर्भ में स्थित हूँ। यदि आप दो घड़ी माया-मोह को रोक सकते हों तो मैं गर्भ से बाहर निकल आता हूँ। तब व्यासजी ने कहा कि मैं दो घड़ी आपको माया-मोह से व्याप्त न होने देऊँगा आप गर्भ से बाहर आयें। यह सुन शुकदेव गर्भ से निकलकर शीघ्र ही बनको चल दिये।

व्यासजी पुत्र के तेज पराक्रम से मोहित होकर कहते हैं हे पुत्र ! प्रथम संस्कारपूर्वक विद्या पढ़ो पश्चात् वन को जाना। शुकदेव ने कहा इसी कारण से मैंने बन्धनकारी माता-पिता-पुत्र के सम्बन्ध रूप माया-मोह का निरोध मांगा था यही माया-मोह अनर्थकारी है और पूर्व जन्मों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि जातियों के अनुसार मेरे हजारों बार ही संस्कार हुये हैं। जिन जाति-अभिमान के जनक बन्धन रूप उपनयन आदि संस्कारों ने मेरे को अब तक संसार सागर में सर्व ओर से पटक रखा है। अस्तु अब मैं आत्मस्वरूप ब्रह्म अद्वैत के चिन्तन से बिना दूसरा बन्धन रूप कार्य कोई भी न करूंगा ||3||

अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं कक्षिवां ऋषिरस्मि विप्रः ||4||

ऋग्वेद में कहा है कि गर्भ में स्थित हुए वामदेव सर्वचराचर को एक अद्वैतस्वरूप अपना आत्मा जानकर कहते हैं कि मैं ही पूर्वकाल में सूर्य था और मैं ही मनु था। मैं ही विप्र कक्षीवान् ऋषि था, मैं ही कुत्स और आर्जुनेय ऋषि था और मैं ही शुक्राचार्य रूप उशना कवि था। सर्वदा सर्व जगह यावत् चराचर वस्तु देखने में आती है सो सर्वरूप मैं ही हूँ। इस प्रकार का अद्वैतज्ञान वामदेव को पूर्वजन्म के साधनों से गर्भ में प्राप्त हो गया ||4||

जन्म दुःखं जरा दुःखं दुःखं च मरणे तथा ।

गर्भवासे पुनर्दुःखं विष्ठामूत्रमये पितः ||5||

देवीभागवत में शुकदेवजी व्यासजी से कहते हैं कि हे पितः । जन्म होने काल में महान् दुःख होता है और वृद्ध अवस्था में भी अति कष्ट होता है तथा मरणकाल में भी महान् दुःख होता है और विष्ठा-मूत्र रूप माता के गर्भ में वास करने पर महादुःख होता है। अस्तु आत्मविचारहीन प्राणी को संसार में कहीं भी सुख नहीं है ||5||

कदाचिदपि मुच्येत लोहकाष्ठादि यन्त्रितः ।

पुत्रदारैर्निबद्धस्तु न विमुच्येत कर्हिचित् ।।6।।

इस लोक में राज- अपराधी पुरुष अपने अपने अपराध का फल भोगकर काल पूरा होने पर कभी न कभी तो लोहे की बेड़ी से अथवा काष्ठ के बन्धन से मुक्त हो ही जाता है परन्तु पुत्र-दारादिकों के रागरूप बन्धन से बंधा हुआ पुरुष किसी भी काल में मुक्त नहीं होता है । है पितः । इन पुत्र दारा आदि बन्धनों से बन्धा हुआ मैं अब तक, चौरासी हजार योनि रूप जेल भोगता रहा हूँ अब कुछ संसार रूप कारागार से मुक्त होने का साधन वैराग्य प्राप्त हुआ है। वेद व्यासजीने कहा हे पुत्र । वेद शास्त्रों का अध्ययन करके पश्चात् वैराग्यपूर्वक जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैतज्ञान से समस्त बन्धनों का उच्छेद कर संसार में जीवन्मुक्त होकर विचरना ||6||

अधीत्य वेदशास्त्राणि संसारे रागिणश्च ये ।

तेभ्यः परो न मूर्खोऽस्ति सधर्माः श्वाश्वसूकरैः ।।7।।

शुकदेवजी ने कहा हे पितः ! जो पुरुष वेदशास्रों को अर्थ सहित पढ़कर भी संसार के पदार्थों में राग वाले हैं तिन पुरुषों से बढ़कर संसार में और कोई मूर्ख नहीं है वे पुरुष जानो श्वान, घोड़ा तथा शूकरों के समान धर्म वाले हैं। ऐसे पुरुषों का जो वेद शास्त्र अध्ययन है। वह केवल अल्पश्रुत पुरुषों को वंचन करने के ही लिये है। इसी कारण से वे श्वान आदियों के समान धर्म वाले हैं क्योंकि परवचन आदि कर्मों से श्वान आदि योनियों की प्राप्ति कही ||7||

मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य वेदशास्त्रण्यधीत्य च ।

वध्यते यदि संसारे को विमुच्येत मानवः ||8||

प्रथम तो पुण्य प्रभाव से दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त होता है, उसमें भी त्रिवर्णक द्विजाति शरीर की प्राप्ति होना अतिदुर्लभ है। तिसमें भी वेदशास्त्रों का ज्ञाता होना महान् पुण्यों का फल है। वेदशास्त्रों का ज्ञाता होकर भी यदि पुरुष संसार के पदार्थों में रागकर के स्त्वन्धायमान होता है तब कहो संसार के बन्धनों से कौन पुरुष मुक्त होगा। अर्थात् जो वेदशास्त्रों का ज्ञाता होकर भी सांसारिक पदार्थों में राग से बन्धा हुआ है। तिस पुरुष के मुक्त होने का कोई मार्ग नहीं है ।।8।।

विचारः सफलस्तस्य विज्ञेयो यस्य सन्मतेः ।

दिनानुदिनमायाति तानवं भोगगृन्धुता ||9||

योगवासिष्ठ में कहा है कि शास्त्रों का विचार करना तिस पुरुष का सफल जानने योग्य है कि जिस शुभ बुद्धि वाले की दिन-दिन प्रति शास्त्रविचार से भोगों के भोगने की इच्छा वासना नष्ट होती है। भोग पदार्थों की इच्छा करने वाले का शास्त्रविचार करना व्यर्थ ही है ||9||

विवेकोऽस्ति वचस्येव चित्रेऽग्निरिव भास्वरः ।

यस्य तेनापरित्यक्ता दुःखायैवाविवेकिता ||10||

जिस पुरुष के वाणी में कथनमात्र ही विवेक की वार्ताएं हैं और हार्दिक चित्त में विवेक नहीं है। जैसे चित्र में प्रचण्ड अग्नि की ज्वाला लटालट प्रकाश वाली प्रतीत होती हैं। परन्तु तिन में दाह, प्रकाशकरण की शक्ति नहीं है। तैसे ही वाचिक विवेकी का विवेक हार्दिक अज्ञान रूप अन्धकार को नाशकर आत्मबोध का प्रकाश करने वाला नहीं है। तिस वाचिक विवेकी ने जानो निश्चित दुःख के लिये अविवेकता का त्याग नहीं किया हैं||10||

कुशला ब्रह्मवार्तायां वृत्तिहीनाः सुरागिणः ।

तेप्यज्ञानतया नूनं पुनरायान्ति यान्ति च ।।11।।

तेजोबिन्दु उपनिषद् में कहा है कि जो पुरुष ब्रह्माकार वृत्ति से हीन हैं सांसारिक विषयों में दृढ राग वाले हैं और ब्रह्म की वार्ता करने में कुशल हैं वे पुरुष निश्चित ही अज्ञानी होने से इस संसार में जन्मते हैं और मरते हैं तिनका आवागमन दूर नहीं होता है ।।11।।

परोपदेशे कुशला भवन्ति बहवो जनाः ।

दुर्लभस्तु स्वयं कर्त्ता प्राप्ते कर्मणि सर्वदा ।।12।।

देवीभागवत में कहा है कि दूसरे को उपदेश करने वाले पुरुष संसार में बहुत से होते हैं।परन्तु धर्म, कर्म की कर्त्तव्यता प्राप्त होने पर सर्वदा स्वयं विचार कर कर्म करने वाला पुरुष प्राप्त होना अतिदुर्लभ है ।।12।।

अधीत्य चतुरो वेदान्सर्वशास्त्राव्यनेकशः ।

ब्रह्म तत्त्वं न जानाति दवपाकरसं यथा ||13||

मुक्तिकोपनिषद् में श्रीरामचन्द्र परमानन्द ने हनुमान से कहा है कि हे वायुपुत्र ! जो पुरुष चारों वेदों को और सर्व शास्त्रों को तथा सर्व स्मृतियों और पुराणों को पढ़कर जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैततत्व को नहीं जानता है वो पुरुष ऐसा है जैसे कड़छी दूधपाक में, नाना प्रकार के व्यञ्जनों में फिरती-फिरती घिस जाती है, परन्तु दूधपाक आदि के रस को नहीं जानती है। अर्थात् अद्वैततत्व ब्रह्मानंद ज्ञान से बिना पुरुष परिश्रम को ही प्राप्त होता है ।।13।।

नानामार्गेस्तु दुष्प्राप्यं कैवल्यं परमं पदम् ।

पतिताः शास्त्रजालेषु प्रज्ञया तेन मोहिताः ।।14।।

योगतत्वोपनिषद् में कहा है कि सद्गुरुमुख द्वारा वेदान्तशास्र के विचार से बिना दूसरे नाना शास्त्रों के मार्गों से आत्मब्रह्मस्वरूप परम पद कैवल्य मोक्ष प्राप्त होना दुर्घट है क्योंकि नाना प्रकार के विवाद से ग्रस्त शास्त्ररूप जालों में बुद्धि के अभिमान से पतित हुए पुरुष तिस विवाद के कारण से मोहित हुए परम पद को प्राप्त नहीं होते हैं ।।14।।

सदा सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः ।

शर्कराकंटकादिभ्यो यथोपानत्पदः शिवम् ||15||

भागवत में कहा है कि सर्वदा सन्तुष्ट मनवाले पुरुष को सर्वदिशायें सुखरूप देखने में आती है जैसे पाद में पादत्राण पहिने हुए पुरुष को सर्व पृथ्वी कंकर-कंटक आदि से रहित सुखरूप देखने में आती है ।।15।।

पण्डिता बहवो राजन्बहुज्ञाः संशयच्छिदः ।

सदसस्पतयोऽप्येके असंतोषात्पतन्त्यधः ।।16।

नारदजी युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे राजन् ! संसार में बहुत से पण्डित हैं जो बहुत से शास्त्रों के ज्ञाता और संशयों के छेदन करने वाले हैं। बहुत से सभापति बनकर सभा को वाक्यजाल से रज्जन करने वाले हैं, परन्तु संतोष न होने से परमानंद से पतित होकर अधोगति को प्राप्त होते हैं ।।16।।

बुद्ध्वाप्यत्यन्तवैरस्यं यः पदार्थेषु दुर्मतिः ।

बन्धाति भावनां भूयो नरो नासौ स गर्दभः ।।17।।

योगवासिष्ठ में कहा है कि जो पुरुष दुष्टमति गुरुमुख द्वारा शास्त्रों का श्रवण करके आत्मा से अतिरिक्त अनात्म पदार्थों में निःसारता निश्चय करके भी रमणीक सारपने की भावना बांधता है वो पुरुष नहीं माना जाता है वो तो भारवाही गर्दभ ही है।।17।।

मातापितृसहस्राणि पुत्रदाराशतानि च ।

अनागतान्यतीतानि कस्य ते कस्य वा वयम् ।।18।।

महाभारत में शुकदेव के तीव्र वैराग्य को देखकर वेद व्यासजी कहते हैं हे तात ! हजारों ही माता-पिता तथा पुत्र दारा भाई बन्धु आदि पूर्व जन्मों में हो चुके हैं और हजारों ही बार आगे होवेंगे। क्योंकि जब तक जीव ब्रह्म के अद्वैतज्ञानपूर्वक कैवल्य मोक्ष को प्राप्त नहीं होता तब तक जन्म-मरण का चक्र दूर नहीं होता।

ऐसे असंख्यात जन्मों के प्रवाह में क्या निश्चय हो सकता है कि कौन किसका माता-पिता है और कौन किसका पुत्र है बहुत सी बार मैं आपका पुत्र हुआ हूँ और बहुत सी बार आप मेरे पुत्र हुए हो। अब कहो किस जन्म के पिता-पुत्र का नाता माना जाय । विचार करने पर न पूर्वजों के किसी के माता-पिता पुत्र आदि हैं और वर्तमान् इस काल में न हम किसी के पितापुत्र आदि हैं ||18||

नैवास्य भविता कश्चिन्नासौ भवति कस्यचित् ।

पथि संगम एवायं दारैः पुत्रैश्च बन्धुभिः ।।19।।

शिवपुराण में कहा है कि न तो इस प्राणी का कोई माता-पिता पुत्र आदि हुआ है और न आगे कोई होगा और न यह प्राणी किसी का माता-पिता पुत्र हुआ है और न किसी का होगा। जैसे कोई सम्बन्ध न होने पर भी एक मार्ग में बहुत से मिलकर चलने वाले पुरुष कल्पित नाते बहुत से बना लेते हैं ऐसे कर्मभोगरूप मार्ग में मिलकर वास्तव में कोई नाता न होने पर भी कल्पित माता-पिता दारा पुत्र बन्धु रूप से बहुत से नाते बना लेते हैं। कर्म के भोग रूप मार्ग के समाप्त हो जाने पर मरकर भिन्न हुए का फिर पुनः समागम नहीं होता ||19||

क्रीणन्ति प्राणपण्येन धनं मानं धनभ्रमाः ।

यथाशाखैः कथं बुद्धवा न क्रीणन्त्यजरं पदम् ||20||

योगवासिष्ठ में वसिष्ठ ने कहा है कि अहो ! आश्चर्य है संसार में अतिभ्रांत मूढजन युद्धादि में निज प्राणों को भी बेचकर धन जयादिमान को मोल लेते हैं। इसी प्रकार बुद्धि से शास्त्रों का विचार करके विवेक, वैराग्य श्रवणादि द्वारा श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु से अजर अमर मोक्ष पद को मोल क्यों नहीं लेते हैं ||20||

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