अक्रूरजी का प्रस्थान
अक्रूरजी भी तुरंत ही मथुरापुरीसे निकलकर श्रीकृष्ण दर्शनकी लालसासे एक शीघ्रगामी रथद्वारा नन्दजीके गोकुलको चले ॥ अक्रूरजी सोचने लगे ‘आज मुझ जैसा बड़भागी और कोई नहीं है; क्योंकि अपने अंशसे अवतीर्ण चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान्का मुख मैं अपने नेत्रोंसे देखूंगा ॥
जन्म का सफलता
आजन्म का सफलताज मेरा जन्म सफल हो गया; आजकी रात्रि [ अवश्य ] सुन्दर प्रभातवाली थी, जिससे कि मैं आज खिले हुए कमलके समान नेत्रवाले श्रीविष्णुभगवान्के मुखका दर्शन करूँगा ॥ प्रभुका जो संकल्पमय मुखारविन्द स्मरणमात्रसे पुरुषोंके पापको दूर कर देता है, आज मैं विष्णुभगवान् के उसी कमलनयन मुखको देखूँगा ॥
वेदों के स्रोत का दर्शन
जिससे सम्पूर्ण वेद और वेदांगोंकी उत्पत्ति हुई है, आज मैं सम्पूर्ण तेजस्वियोंके परम आश्रय उसी भगवत् मुखारविन्दका दर्शन करूँगा ॥ समस्त पुरुषोंके द्वारा यज्ञोंमें जिन अखिल विश्वके आधारभूत पुरुषोत्तमका यज्ञपुरुषरूपसे यजन (पूजन) किया जाता है, आज मैं उन्हीं जगत्पतिका दर्शन करूँगा ॥
इन्द्र पदवी और अनन्त केशव
जिनका सौ यज्ञों से यजन करके इन्द्रने देवराज – पदवी प्राप्त की है, आज मैं उन्हीं अनादि और अनन्त केशवका दर्शन करूँगा ॥ जिनके स्वरूपको ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अश्विनीकुमार, वसुगण, आदित्य और मरुद्गण आदि कोई भी नहीं जानते आज वे ही हरि मेरे नेत्रोंके विषय होंगे ॥
सर्वात्मा भगवान का साक्षात्कार
जो सर्वात्मा, सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप और सब भूतोंमें अवस्थित हैं तथा जो अचिन्त्य, अव्यय और सर्वव्यापक हैं, अहो! आज स्वयं वे ही मेरे साथ बातें करेंगे ॥ जिन अजन्माने मत्स्य, कूर्म, वराह, हयग्रीव और नृसिंह आदि रूप धारणकर जगत्की रक्षा की है, आज वे ही मुझसे वार्तालाप करेंगे ॥
अवतार का उद्देश्य
‘इस समय उन अव्ययात्मा जगत्प्रभुने अपने मनमें सोचा हुआ कार्य करनेके लिये अपनी ही इच्छासे मनुष्य देह धारण किया है ॥ जो अनन्त (शेषजी) अपने मस्तकपर रखी हुई पृथिवीको धारण करते हैं, संसारके हितके लिये अवतीर्ण हुए वे ही आज मुझसे ‘अक्रूर’ कहकर बोलेंगे ॥
मायापति को नमस्कार
‘जिनकी इस पिता, पुत्र, सुहद्, भ्राता, माता और बन्धुरूपिणी मायाको पार करनेमें संसार सर्वथा असमर्थ है, उन मायापतिको बारम्बार नमस्कार है ॥ जिनमें हृदयको लगा देनेसे पुरुष इस योगमायारूप विस्तृत अविद्याको पार कर जाता है, उन विद्यास्वरूप श्रीहरिको नमस्कार है॥
यज्ञपुरुष और वासुदेव का वंदन
जिन्हें याज्ञिकलोग ‘यज्ञपुरुष’, सात्वत (यादव अथवा भगवद्भक्त) – गण ‘वासुदेव’ और वेदान्तवेत्ता ‘विष्णु’ कहते हैं उन्हें बारम्बार नमस्कार है॥ जिस (सत्य) – से यह सदसद्रूप जगत् उस जगदाधार विधातामें ही स्थित है उस सत्यबलसे ही वे प्रभु मुझपर प्रसन्न हों ॥ जिनके स्मरणमात्रसे पुरुष सर्वथा कल्याणपात्र हो जाता है, मैं सर्वदा उन अजन्मा हरिकी शरणमें प्राप्त होता हूँ’ ॥
गोकुल में आगमन
भक्तिविनम्रचित्त अक्रूरजी इस प्रकार श्रीविष्णुभगवान्का चिन्तन करते कुछ-कुछ सूर्य रहते ही गोकुलमें पहुँच गये ॥ वहाँ पहुँचनेपर पहले उन्होंने खिले हुए नीलकमलकी- सी कान्तिवाले श्रीकृष्णचन्द्रको गौओंके दोहनस्थानमें बछड़ोंके बीच विराजमान देखा ॥ जिनके नेत्र खिले हुए कमलके समान थे, वक्षःस्थलमें श्रीवत्स- चिह्न सुशोभित था, भुजाएँ लम्बी-लम्बी थीं, वक्षःस्थल विशाल और ऊँचा था तथा नासिका उन्नत थी ॥ जो सविलास हासयुक्त मनोहर मुखारविन्दसे सुशोभित थे तथा उन्नत और रक्तनखयुक्त चरणोंसे पृथिवीपर विराजमान थे ॥ जो दो पीताम्बर धारण किये थे, वन्यपुष्पोंसे विभूषित थे तथा जिनका श्वेत कमलके आभूषणोंसे युक्त श्याम शरीर सचन्द्र नीलाचलके समान सुशोभित था ॥
श्रीकृष्ण और बलभद्र के दर्शन
श्रीव्रजचन्द्रके पीछे उन्होंने हंस, कुन्द और चन्द्रमाके समान गौरवर्ण नीलाम्बरधारी यदुनन्दन श्रीबलभद्रजीको देखा ॥ विशाल भुजदण्ड, उन्नत स्कन्ध और विकसित मुखारविन्द श्रीबलभद्रजी मेघमालासे घिरे हुए दूसरे कैलासपर्वतके समान जान पड़ते थे ॥ उन दोनों बालकोंको देखकर महामति अक्रूरजीका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया तथा उनके सर्वांगमें पुलकावली छा गयी ॥
भगवान वासुदेव के अंश का परमपद
इन दो रूपोंमें जो यह भगवान् वासुदेवका अंश स्थित है वही परमधाम है और वही परमपद है॥ इन जगद्विधाताके दर्शन पाकर आज मेरे नेत्रयुगल तो सफल हो गये; किंतु क्या अब जिन्होंने अग्नि, विद्युत् और सूर्यकी किरणमालाके समान अपने उग्र चक्रका प्रहार कर दैत्यपतिकी सेनाको नष्ट करते हुए असुर-सुन्दरियोंकी आँखोंके अंजन धो डाले थे ॥
विष्णु भगवान का प्रेम
जिनको एक जलबिन्दु प्रदान करनेसे राजा बलिने पृथिवीतलमें अति मनोज्ञ भोग और एक मन्वन्तरतक देवत्वलाभपूर्वक शत्रुविहीन इन्द्रपद प्राप्त किया था ॥
वे ही विष्णुभगवान् मुझ निर्दोषको भी कंसके संसर्गसे दोषी ठहराकर क्या मेरी अवज्ञा कर देंगे?
आत्मज्ञान और प्रभु की शरण
मेरे ऐसे साधुजनबहिष्कृत पुरुषके जन्मको धिक्कार है ॥ अथवा संसारमें ऐसी कौन वस्तु है जो उन ज्ञानस्वरूप, शुद्धसत्त्वराशि, दोषहीन, नित्य – प्रकाश और समस्त भूतोंके हृदयस्थित प्रभुको विदित न हो ? ॥
अतः मैं उन ईश्वरोंके ईश्वर, आदि, मध्य और अन्तरहित पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुके अंशावतार श्रीकृष्णचन्द्रके पास भक्ति-विनम्रचित्तसे जाता हूँ। [ मुझे पूर्ण आशा है, वे मेरी कभी अवज्ञा न करेंगे ] ॥