अद्वैतज्ञान

अद्वैतज्ञान

अद्वैतं नावमाश्रित्य जीवन्मुक्तत्वमाप्नुयात् ।।1।।

गत अध्याय में यतियों के धर्म कथन से अनन्तर अब एकादश अध्याय में वेद- प्रतिपादित जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैत का कथन करते हैं। सन्यासोपनिषद् में कहा है कि ब्रह्मात्म स्वरूप ज्ञानरूप नाव को आलम्बन कर वीतराग यति महात्मा परमानन्द रूप जीवन्मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं ।। 1 ।।

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।।2।।

यजुर्वेद के पुरुषसूक्त में कहा है कि जो यह सर्व वर्तमान् प्रपंच देखने में आ रहा है सो प्रपच सर्वव्यापी परमानन्द पुरुष स्वरूप ही है। और जो भूतकाल का चराचर प्रपंच और भविष्यत् काल का जो चराचर प्रपञ्च है सो सर्व प्रपञ्च सर्व शरीर रूप पुरशायी पुरुष परमात्मा का स्वरूप है क्योंकि ब्रह्मस्वरूप पुरुष परमात्मा की सत्ता से भिन्न किसी भी वस्तु की सत्ता सिद्ध नहीं होती है। जैसे जल की सत्ता से भिन्न तरंग बुदबुदे आदि की सत्ता नहीं हो सकती है  ||2||

नारायण एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।

निष्कलको निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः

शुद्धो देव एको नारायणो न द्वितीयोऽस्ति कश्चित् ||3||

ये ही नारायणोपनिषद् में कहा है कि सर्व का अधिष्ठान नारायण परमात्मा ही स्वरूपभूत है और यह जो वर्तमान भूत भविष्यत् काल का दृश्यमान् प्रपंच है सो नारायण रूप ही है। सर्व दोषकलङ्कों से रहित माया से रहित, विकल्परहित और मन वाणी के विषययत्व से रहित शुद्ध बुद्ध प्रकाशरूप देव त्रिविध भेद रहित एक अद्वैतस्वरूप सर्वव्यापी नारायण से भिन्न दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है। इस श्रुति प्रतिपादित ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान के बिना कोई भी प्राणी मुक्त नहीं हो सकता है ।।3।।

सर्व ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म ||4||

माण्डूक्योपनिषद् में कहा है कि निश्चित ही यह सर्व दृश्यमान् प्रपञ्च सत्य ज्ञान अनन्त ब्रह्मस्वरूप ही है और त्वंपदका अर्थ सर्वानुभवसिद्ध यह आत्मा भी सत्य ज्ञान अनन्त ब्रह्मस्वरूप है ||4||

यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह |

मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ||5||

कठोपनिषद् में कहा है कि जो चेतन वस्तु यहाँ जीव की उपाधि रूप अविद्या में बुद्धि के साक्षी रूप से वर्तमान है सोई चेतन वस्तु उस ईश्वर की उपाधिरूप माया में वर्तमान है। जो चेतन उस माया उपाधि में प्रविष्ट है सोई चेतन इस अविद्या उपाधि में स्थित है। ऐसे ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से ही श्रुति मोक्ष की प्राप्ति कहती है और जो प्राणी भेदशून्य ब्रह्म में भेद देखता है कि मैं ब्रह्म से भिन्न हूँ, ऐसा भेददर्शी मृत्यु से भी महामृत्यु संसार की दुर्गति को प्राप्त होता है ||5||

एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म । नेह नानास्ति कश्चन ।

तस्माद्ब्रह्मव्यतिरिक्तं सर्व बाधितमेव ||6||

त्रिपाद्विभूतिमहानारायणणोपनिषद् में कहा है कि अखण्ड एकरस निश्चित परमानन्द अद्वैत परमार्थस्वरूप ब्रह्म है। इस आत्मस्वरूप अद्वितीय ब्रा में किंचित् मात्र भी नानापना नहीं है। इस कारण से अद्वितीय ब्रह्मात्मस्वरूप से भिन्न सर्व यावत् प्रपंच हैं सो नाशवान् है। बाध योग्य है। (बाध-परमार्थत: मिथ्या निश्चय का नाम बाध है) ||6||

द्वितीयाद्वै भयं भवति ।।7।।

बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है कि द्वैत होने से निश्चित ही भय होता है और ब्रह्मात्मस्वरूप परमार्थ अद्वैत से परमानन्द की प्राप्ति होती है ।।7।।

अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद यथापशुरेवं स देवानाम् ॥8॥

जो अज्ञानी भेददर्शी पुरुष कहता है कि सो उपास्य ब्रह्म मुझ उपासक से अन्य है और मैं उपासक तिस उपास्य ब्रह्म से अन्य हूँ सो भेददृष्टि वाला पशुसम है, उपासनातत्त्व को नहीं जानता है। जैसे विवेकहीन पशु अपने स्वामी के हलादि में जुतकर घासरूप फल से ही तुष्ट हुआ सदा बहता रहता है तैसे ही भेद से उपासना करने वाले पुरुष देवताओं के पशु हैं । देवताओं की अज्ञान से भेद-उपासना करके संसार में जन्ममरण रूप से बहते हुए धन-पुत्रादि रूप घांस से तुष्ट रहते हैं इसी कारण से देवताओं के भेद-उपासक पशु के समान हैं ।। 8 ।।

स्वल्पमप्यन्तरं कृत्वा जीवात्मपरमात्मनोः ।

यस्तिष्ठति विमूढात्मा भयं तस्य भाषितम् ||9||

योगशिखोपनिषद् में कहा है कि जो मूढ़ पुरुष एक अद्वैत स्वरूप आत्मा और ब्रह्म में थोड़ा सा भी भेद मानकर स्थित होता है तिस भेद द्रष्टा को महान् जन्म मरण रूप भय की प्राप्ति वेद ने कथन करी है ||9||

मय्येव सकलं जातं मयि सर्व प्रतिष्ठितम् ।

मयि सर्व लयं याति तद्ब्रह्माद्वयमस्म्यहम्  ||10||

कैवल्योपनिषद् में ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञाननिष्ठों का निश्चय कहा है कि मुझ आत्मस्वरूप ब्रह्म में ही निश्चय यह सर्व संसार उत्पन्न होता है मेरे में ही यह सर्व प्रपंच स्थित रहता है और मुझ आत्मस्वरूप ब्रह्म में ही यह सर्व अज्ञान के सहित प्रपंच लय को प्राप्त होता है। ऐसा परमानन्द ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वय सर्व का अधिष्ठान में हूँ। यह अद्वैतब्रह्मनिष्ठ जीवन्मुक्तों का निश्चय है ।।10।।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन ।।11।।

निरालम्बोपनिषद् में कहा है कि यह दृश्यमान सर्व चराचर प्रपंच निश्चित ही अस्ति, भाति, प्रिय रूप से परब्रह्म रूप ही है। इस आत्मस्वरूप अद्वितीय ब्रह्म में किंचित मात्र भी द्वैतरूप नानापना नहीं है और नानारूप द्वैतदर्शी को कष्टगति की प्राप्ति कही है।।11।।

त्वमेवाहं न भेदोऽस्ति पूर्णत्वात्परमात्मनः ।।12।।

मण्डलब्राह्मणोपनिषद् में ब्रह्मवित् गुरु ने कहा है कि हे शिष्य ! तू जो है सो मैं हूँ, मैं जो हूँ तू है, भेद नहीं है क्योंकि सर्वत्र परब्रह्म परमात्मा के पूर्ण होने से ।।12।।

शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे ।

शिवस्य हृदयं विष्णुर्विष्णोश्च हृदयं शिवः ।।13।।

स्कंदोपनिषद् में कहा है कि विष्णुरूप शिव के प्रति और महादेवरूप व्यापक विष्णु प्रति अभेद दृष्टि से मैं नमस्कार करता हूँ। क्योंकि शिव का हृदयस्वरूप विष्णु है और विष्णु का हृदयस्वरूप शिव है ऐसे अद्वैत का प्रतिपालन करा है ।।13।।

आद्यो रा तत्पदार्थः स्यान्मकारस्त्वं पदार्थवान् ।

तयो: संयोजनमसीत्यर्थे तत्त्वविदो विदुः ।।14।।

रामरहस्योपनिषद में सनत्कुमारादियों के पूछने पर राम मन्त्र का अर्थ हनुमानजी न कहा है कि राम मन्त्र के आदि का ‘रा’ अक्षर तत् पद के अर्थ का बोधक और ‘म’ अक्षर त्वं पद के अर्थ का बोधक है। और रा+म इन दोनों का संयोग असि के अर्थ में वर्तता है। अर्थात् राम मन्त्र जीव ब्रह्म की एकता का बोधक महावाक्य रूप है। ऐसा तत्, त्वं पदों के अर्थ को जानने वाले ऋषि कहते हैं ।।14।।

नमस्त्वमर्थे विज्ञेयो रामस्तत्पदमुच्यते |

असीत्यर्थे चतुर्थी स्यादेवं मन्त्रेषु योजयेत् ||15||

नमः त्वं पद के अर्थ में जानना, राम तत् पद के अर्थ को कहता है और चतुर्थी विभक्ति असि के अर्थ में हुई जाननी अर्थात् ‘ॐ नमो रामाय’ यह मन्त्र भी तत्वमसि इस महावाक्य के अद्वैत अर्थ का बोधक है। इसी प्रकार से शिव कृष्णादि मन्त्रों में भी योजना करनी ||15||

सदा रामोऽहमस्मीति तत्त्वतः प्रवदन्ति ये ।

न ते संसारिणो नूनं राम एव न संशयः ।।16।।

जो शुद्धचित्त वाले पुरुष सर्वदा ही मैं राम हूँ ऐसे एकतारूप अद्वैततत्व को जानकर एकाग्र चित्त से कहते हैं वे पुरुष दुःखरूप संसार को प्राप्त नहीं होते हैं वो पुरुष निश्चित ही राम स्वरूप हैं, इसमें कोई संशय नहीं है ।।16।।

रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि ।

इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ।।17।।

रामपूर्वतापिन्युपनिषद् में कहा है कि जिस सत्यज्ञान अनन्त नित्यानन्द ब्रह्मात्मस्वरूप में विषयों से निरुद्ध चित्तवाले योगी महात्मा रमण करते हैं सो सच्चिदानन्द रामपद के द्वारा विभु परब्रह्म विधान करा गया है। ऐसे रामपद का ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत अर्थ जानकर जो पुरुष राम नाम लेते हैं तिनके ही सर्व दुःख नाश होते हैं और के नहीं ।।17।।

महापुरुषो यस्तच्चितं मय्येवावतिष्ठते

अहं च तिस्मन्नेवावस्थितः ||18||

तुरीयातीतोपनिषद् में नारायण ने कहा है कि जो वीतराग महान् पुरुष है तिसका चित्त निश्चित ही मेरे शुद्ध स्वरूप में ही स्थित रहता है और मैं परमानन्द रूप से सदा ज्ञात हुआ तिस वीतराग महात्मा में स्थित रहता ||18||

भूतभविष्यत्प्रभवः क्रियाश्चकालः क्रतुस्त्वं परमक्षरं च ।।19।।

एकाक्षरोपनिषद् में कहा है कि भूत भविष्यत् वर्तमान् काल की यावत् उत्पत्ति वाली वस्तु हैं और क्रिया कर्त्ता करण कर्म रूप यज्ञ काल देशादि सर्व परमानन्द ब्रह्म अविनाशी त्त्व पद का लक्ष्य आत्मा अक्षर स्वरूप है ।।19।।

सोऽहमस्मीति वा योऽसौऽहमस्मीति वा ।।20।।

बह्वृचोपनिषद् में कहा है कि जो तत् पद का लक्ष्य पर ब्रह्म कहा है सोई त्वं पद का लक्ष्य आत्मा साक्षी है अर्थात् सो परब्रह्म मैं हूँ। अथवा जो परब्रह्म है सो परमानन्द साक्षी स्वरूप मैं हूँ। यह ब्रह्म आत्मस्वरूप अद्वैत ज्ञाता का निश्चय है ।।20।।

जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादिप्रपंञ्चयत्प्रकाशते।

तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबन्धैः प्रमुच्यते ।।21।।

कैवल्योपनिषद् में कहा है कि जाग्रत में स्वप्न में सुषुप्ति में आदि से सविकल्प समाधि में सर्व प्रपंच जिस सच्चिदानन्द परब्रह्म से प्रकाशित होता है सो परमानन्द ब्रह्म मैं हूँ ऐसा निश्चित ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत को जानकर पुरुष संसार के सर्व बन्धनों से मुक्त होकर जीवनमुक्त हो जाता है ।। 21।।

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मा ।।22।।

नारायणोपनिषद् में कहा है कि ब्रह्म स्वरूप आत्मा अशुद्धचित्त पुरुषों को अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है अर्थात् अज्ञात है और शुद्धचित्त पुरुषों को महान् से भी महान् व्यापक है अर्थात् ब्रह्म आत्मस्वरूप से ज्ञात है ।।22।।

नाहं कर्त्ता नैव भोक्ता प्रकृतेः साक्षिरूपकः ।

मत्सान्निध्यात्प्रवर्तन्ते देहाद्या अजड़ा इव ||23||

सर्वसारोपनिषद् में ब्रह्मवित् ने कहा है कि न तो मैं कर्ता हैं न भोक्ता हैं प्रकृति रूप माया का प्रकाशक साक्षी हैं मुझ सच्चिदानन्द के सत्ता स्फूर्ति रूप सामीप्य सम्बन्ध से जड़ इन्द्रिय शरीरादि भी चेतन के समान स्वविषयों में प्रवृत्त होते हैं ऐसे असंग रूप से ब्रह्मनिष्ठ की स्थिति होती है  ||23||

पश्यन्त्यस्यां महात्मानः सुवर्णपिप्लाशनम् ।

उदासीन ध्रुवं हंसं स्नातकाध्वर्यवो जगुः ||24||

मन्त्रिकोपनिषद् में कहा है कि ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतविचार में स्थित हुए वीतराग महात्मा ही उपाधिहीन शुद्ध स्वरूप को और उपाधियुक्त कर्मफलभोक्ता को देख सकते हैं। सर्व से उत्कृष्ट रूप से स्थित हुए उदासीन ब्रह्म को नित्य प्रकाशस्वरूप परमानन्द को वेदविहित निष्काम कर्मों से शुद्धचित्त वाले शास्त्र ज्ञाता ही जान सकते हैं। सर्वशास्त्र अर्थ पारगामी यजुर्वेद के ज्ञाता नित्य प्रकाशस्वरूप हंस आत्मा का ही गायन करते हैं ||24||

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।

तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति ||25||

ऋग्वेदसंहिता में कहा है कि दो पक्षियों के समान जीव ईश्वर दोनों सदा साथ रहने वाले समान रूप वाले सखा रूप से एक शरीररूप वृक्ष में संयुक्त हुए स्थित हैं। तिन दोनों जीव ईश्वरों में ईश्वर से अन्य जीव पुण्य-पाप कर्मों फल को सुखमानकर भोगता है। और नित्य शुद्ध स्वरूप ईश्वर कर्मफल को न भोगता हुआ केवल साक्षीरूप से प्रकाशता है|

द्वौ सुपर्णी शरीरेऽस्मिञ्जीवेशाख्यौ सह स्थितौ ।

तयोर्जीवः फलं भुङक्ते कर्मणो न महेश्वर ||26||

इसी मंत्र का अर्थ सूतजी ने सूत संहिता में कहा है कि इस वृक्ष रूप शरीर में दो पक्षियों के समान जीव ईश्वर नाम वाले दोनों समान रूप वाले हुए साथ ही स्थित हैं। तिन जीव ईश्वर दोनों में जीव कर्मों के फल को भोगता है और नित्य शुद्धस्वभाव परमेश्वर परमात्मा कर्मों के फल को न भोगता हुआ केवल साक्षी हुआ प्रकाशक रूप से स्थित है ||26||

केवलं साक्षिरूपेण विना भोगं महेश्वरः ।

प्रकाशते स्वयं भेदः कल्पितो मायया तयोः  ||27||

केवल प्रकाशक साक्षीरूप से कर्मों के फलभोग से रहित निर्लेप रूप से ईश्वर परमात्मा स्थित है स्वयंप्रकाशस्वरूप सो ईश्वर बुद्धि और कर्मों के फलों को प्रकाशता है। वास्तव से एक चेतन स्वरूप तिन जीव ईश्वरों का भेद मिथ्या माया करके कल्पित है। माया करके मिथ्या कल्पित भेद परमार्थस्वरूप अद्वैत का हानिकारक नहीं है ।। 27।।

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः ।

जुष्टं पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ।।28।।

मुण्डकोपनिषद् में कहा है कि वृक्ष के समान नाशवान् एक ही इस शरीर में जीव ईश्वर दोनों स्थित हैं। तिन में पुरुषरूप जीव अज्ञानरूप मोह में डूबा हुआ अन्नमय कोश देह में आत्मबुद्धि करके मैं गौर हूँ, मैं श्याम हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, क्षत्रिय हूँ ऐसा मानता हुआ शक्तिहीनता रूपी अनीश्वरता से इष्ठ की प्राप्ति अनिष्ठ की निवृत्ति करने को न शक्त हुआ अविवेक से दीनता रूप मोह को प्राप्त हुआ शोक करता है। जब कर्मियों द्वारा सेवित जो देह उपाधिबाला जीव तिससे विलक्षणा नित्यतृप्त सर्व का नियंता ईश्वर मैं हूँ ऐसे अद्वैतरूप से देखता है तब ईश्वर की इस ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैतमहिमा को जानकर कृत- कृत्य हुआ सर्व शोक से रहित हो जाता है ।।28।।

अधिष्ठानं समस्तस्य जगतः सत्यचिद्धनम् ।

अहमस्मीति निश्चित्य वीतशोको भवत्ययम् ||29||

इसी मुण्डकोपनिषद् मंत्र का अर्थ सूतसंहिता में सूतजी ने कहा है कि समस्त प्रपंच का अधिष्ठान जो सत्यज्ञान आनन्दघन शुद्ध बुद्ध परब्रह्म है सो मैं हैं ऐसा ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत निश्चय करके पुरुष सर्व शोक से रहित हो जाता है ||29||

अस्य चिन्मात्ररूपस्य स्वस्य सर्वस्य साक्षिणः ।

महिमानं यदा वेद परमाद्वैतलक्षणम् ।

तदैव विद्या साक्षाद्वीतशोको भवत्ययम् ||30||

जब विवेक से इस शुद्ध बुद्ध चेतन स्वरूप परमात्मा की ओर स्वनिजानन्द सर्व के साक्षी आत्मा कूटस्थ की ब्रह्मात्म स्वरूप परमाद्वैत रूप परमानन्दकारी महिमा को जानता है तब निश्चित ही आत्मस्वरूप ब्रह्म अद्वैतज्ञान से निजानन्द को साक्षात् करके यह पुरुष सर्व शोक से रहित हो जाता है ।|30||

MEGHA PATIDAR
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