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अर्थ पुरुषार्थ का धन का वर्णन

अर्थ

अर्थ पुरुषार्थ के विवरण

  1. परिभाषा:

    • अर्थ: इस पुरुषार्थ का मुख्य उद्देश्य होता है धन की प्राप्ति और उसका संयमित उपयोग। धन की प्राप्ति व्यक्ति को आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक स्थिति में सुधार, और अपनी और परिवार की देखभाल के लिए संदर्भित करती है।
  2. महत्व:

    • आर्थिक सुरक्षा: अर्थ पुरुषार्थ की महत्वपूर्ण भूमिका है जो व्यक्ति को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है। धन की प्राप्ति उसकी और उसके परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार करने में मदद करती है।
    • सामाजिक स्थिति: अर्थ पुरुषार्थ व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में सुधार करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धन के प्राप्ति से उसकी समाज में मान्यता बढ़ती है।
  3. अर्थ पुरुषार्थ के उपाय:

    • धन की प्राप्ति: इस पुरुषार्थ में धन की प्राप्ति के विभिन्न उपाय शामिल होते हैं जैसे कि कारोबार, व्यापार, निवेश, अर्थिक कला, और अन्य धन प्राप्ति के साधन।
    • धन का उपयोग: अर्थ पुरुषार्थ का संरक्षण और धन का संयमित उपयोग उसकी और उसके परिवार की आर्थिक और सामाजिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण है। धन को सही और न्यायिक तरीके से प्रयोग करना चाहिए।
  4. संतुलन और मर्यादा:

    • संतुलन: अर्थ पुरुषार्थ का पालन करते हुए संतुलित और न्यायिक रूप से धन का उपयोग करना चाहिए। अतिशय धन या अन्य अव्यवस्थित धन का प्रयोग असामाजिक और निराधार बना सकता है।
    • मर्यादा: अर्थ पुरुषार्थ का पालन करते हुए समाज की मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। धन की प्राप्ति और उपयोग में न्याय और धर्म के अनुसार चलना चाहिए।

निष्कर्ष

अर्थ पुरुषार्थ भारतीय दर्शन में मानव जीवन के उद्देश्यों में धन की प्राप्ति, संरक्षण, और उपयोग को समाहित करता है। यह व्यक्ति को आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक स्थिति में सुधार, और अपनी और परिवार की देखभाल के लिए माध्यम प्रदान करता है। अर्थ पुरुषार्थ का पालन संतुलित और मर्यादित रूप से करना चाहिए, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों के हित में उन्नति हो सके।

(पद्मपु. खण्ड 6-अ. 128 – श्लो. 114 )

ब्रह्मणा निर्मिता वर्णाः स्वे स्वे धर्मे नियोजिता: ।

स्वधर्मेणागतं द्रव्यं शुक्लं द्रव्यं तदुच्यते ।।1।।

(पाराशरस्मृ. अ. 12 श्लो. 43)

न्यायोपार्जिनवित्तेन कर्तव्यं ह्यात्मरक्षणं तथा ।

अन्यायेन तु यो जीवेत्सर्वकर्मबहिष्कृतम् ।।2।।

पूर्व धर्म पुरुषार्थ का कथन करा अब धन सम्बन्धी सुख रूप दूसरे अर्थ पुरुषार्थ का कथन करते हैं। पद्मपुराण में कहा है कि ब्रह्मा ने ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न कर सबको स्व-स्व धर्मों में नियुक्त करा अस्तु स्वधर्म के अनुसार जो द्रव्य प्राप्त करा जाता है सो शुक्ल द्रव्य कहा जाता है। शुक्ल द्रव्य के अल्प दान करने से भी महान फल होता है ।।1।।

पाराशर स्मृति में कहा है कि न्यायपूर्वक उपार्जित धन से ही अपना पालन पोषण तथा धर्म कर्म करना योग्य है अन्याय से उपार्जित करे हुए धन से जो पुरुष जीवन व्यतीत करता है तिस पुरुष का सर्व धर्मकर्मों से बहिष्कार करना योग्य है ।। 2।।

( महाभा पर्व 3- अ. 8 श्लो. 17-18)

अर्थाद्धर्मश्च कामश्च स्वर्गश्चैव नराधिप I

प्राणयात्राऽपि लोकस्य विना हार्थे न सिध्यति ||3||

यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवा ।

यस्यार्थाः स पुमाँल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ||4||

( महाभा पर्व 6-अ 11 – श्लो. 41 )

अर्थस्य पुरुषों दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित् ।

इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्यर्थेन कौरवैः ॥5॥

महाभारत में वनवास के कष्ट से पीड़ित हुए अर्जुन ने युधिष्ठिर से कहा हे नराधिप । धनरूप अर्थ से ही धर्म सम्पादन करा जाता है और स्त्री आदि कामसुख भी अर्थ से ही प्राप्त होता है। स्वर्ग की प्राप्ति भी यज्ञ दान आदि द्वारा अर्थ से ही होती है और प्राणियों की प्राणयात्रा भी बिना अर्थ से सिद्ध नहीं हो सकती ।।3।।

और लोक में यह वार्ता प्रसिद्ध है कि जिस पुरुष के पास धनरूप बहुत से अर्थ हैं तिस पुरुष के सर्व भित्र बन जाते हैं और सर्व ही बान्धव बन जाते हैं। जिसके पास में बहुत से अर्थ हैं सो ही लोक में एक पुरुष माना जाता है, अर्थ के बिना पुरुष को पशु जैसा मानते हैं और जिसके पास धन रूप अर्थ है सो मूर्ख पुरुष भी पण्डित माना जाता है। अस्तु हे भ्रातः हमारे को भुजाओं के बल से युक्त क्षत्रिय राजपुत्र को भिक्षावृत्ति से काल व्यतीत करना योग्य नहीं है ।।4।।

युद्ध के आरम्भ काल में युधिष्टिर के भीष्म पितमाह को नमस्कार करने के लिये जाने पर भीष्म पितामह ने कहा हे धर्म पुत्र! युद्ध को छोड़कर मांगो जो कुछ मांगते हो ! क्योंकि धन रूप अर्थ का पुरुष दास है और अर्थ किसी का दास नहीं होता है ! हे युधिष्ठिर यह वार्ता सत्य ही है कौरवों करके मैं अर्थ से बांधा गया हूँ। ऐसा ही युधिष्ठिर से द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने कहा ।।5।।

(पद्यपु. खण्ड 5-अ. 45-श्लो. 100-102-104)

अर्थार्जिनविधौ मर्त्या विशन्ति विषमे जले ।

कान्तारमटवीं चैव श्वापदैः सेवतां तथा ।।6।।

सुतदारान्परित्यज्य दूरं गच्छन्ति लोभिनः ।

स्कन्दे भारं वहन्त्यन्ये तयां च केनिपातनैः ॥17॥

एभिर्न्यायार्जितं वित्तं वणिग्भावेन यत्नतः ।

पितृदेवद्विजातिभ्यो दत्तं चाक्षयमश्नुते ।।8।।

पद्मपुराण में कहा है कि अर्थ उपार्जन करने में पुरुष ऐसी विधियां रचते हैं कि मृत्युकारी अगाध विषम समुद्र के जल में भी प्रवेश कर जाते हैं और अर्थ के लिये ही सिंह तथा व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं से सेवित घोर बनाटवी में भी प्रवेश कर जाते हैं।।6।।

अर्थ के लोभी पुरुष पुत्र-स्त्री आदि प्रिय बन्धुओं को परित्याग कर परदेश में चले जाते हैं और बहुत से पुरुष स्कन्धों पर भार उठाकर धन उपार्जन करते हैं। बहुत से नौका में बोझ लादकर समुद्रों में भुजबल से खेबकर परिश्रम से धन कमाते हैं ।।7।।

इस प्रकार से न्याय – धर्मपूर्वक शरीर के परिश्रम से वणिक व्यापार के यत्न से उपार्जित धन को जो पुरुष पितरों के निमित्त अथवा देवों के निमित्त विद्वान् द्विजातियों के लिये दान करता है सो पुरुष अक्षय फल को भोगता है। इस रीति से धर्मपूर्वक शरीर के परिश्रम से उपार्जित धन का अल्पदान भी महान फल देने वाला होता है ।।8।।

(मार्कण्डेय. अ. 31 – श्लो. 11 )

पादेनार्थस्य पारत्र्यं कुर्यात्संचयमात्मवान् ।

अर्धेन चात्मभरणं नित्यं नैमित्तिकान्वितम् ।।9।।

मार्कण्डेय पुराण में कहा है कि बुद्धिमान् कल्याण का अभिलाषी पुरुष न्याय उपार्जित धन के चार भाग करे तिन में से एक भाग से शुभगतिकारी धर्म को सम्पादन करे और एक भाग को कष्टकाल में वर्तने के लिये दीर्घदर्शी पुरुष जमा रखे और शेष दो भाग रूप अर्ध धन से नित्य नैमित्तिक कर्म सहित सुखकारी आचरण शास्त्रों में कहा है। इस शास्त्रविहित आचरण को त्याग कर पुरुष इस लोक में यश-सुख को और परलोक में शुभगति को प्राप्त नहीं हो सकता है ।।9।।

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