अर्थ
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वर्ण व्यवस्था और धर्म
पद्म पुराण में कहा है कि ब्रह्मा ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न कर, सबको ‘स्व’ स्व धर्मों में नियुक्त करा कर अस्तु स्वधर्म के अनुसार जो द्रव्य प्राप्त किया जाता है, सो शुल्क द्रव्य कहा जाता है। शुल्क द्रव्य के अल्प दान करने से भी महान फल होता है।
न्यायपूर्वक धनार्जन और धर्म
पाराशर स्मृति में कहा है कि न्याय पूर्वक उपार्जित धन से ही अपना पालन-पोषण तथा धर्म-कर्म करना योग्य है। अन्याय से उपार्जित करे हुये धन से जो पुरुष जीवन व्यतीत करता है उस पुरुष का सर्व धर्म कर्मों से बहिष्कार करना योग्य है।
धन और धर्म का संबंध
महाभारत में वनवास के कष्ट से पीड़ित हुये अर्जुन ने युधिष्ठिर से कहा हे नराधिप ! धन, रूप, अर्थ से ही धर्म सम्पादन किया जाता है और स्त्री आदि काम सुख भी अर्थ से ही प्राप्त होता है। स्वर्ग की प्राप्ति भी यज्ञ, दान आदि द्वारा अर्थ से ही होती है और प्राणियों की प्राण यात्रा भी बिना अर्थ से सिद्ध नहीं हो सकती।
और लोक में यह वार्ता प्रसिद्ध हैं कि जिस पुरुष के पास धन बहुत से अर्थ हैं उस पुरुष के सर्व मित्र बन जाते हैं और सर्व ही रूपी बन्धव बन जाते हैं। जिसके पास में बहुत से अर्थ हैं सो ही लोक में एक पुरुष माना जाता है। अर्थ के बिना पुरुष को पशु जैसा मानते हैं और जिसके पास अर्थ रूपी धन है, सो मूर्ख पुरुष भी पण्डित माना जाता है। अस्तु हे भ्रातः ! हमें भुजाओं के बल से युक्त क्षत्रिय राजपुत्रों को भिक्षा वृत्ति से काल व्यतीत करना योग्य नहीं है।
युद्ध के आरम्भ काल में युधिष्ठर के भीष्म पितामह को नमस्कार करने के लिये जाने पर भीष्म पितामह ने कहा हे धर्म पुत्र ! युद्ध को छोड़कर मांगो जो कुछ मागते हो ! क्योंकि धन रूपी अर्थ का पुरुष दास है और अर्थ किसी का दास नहीं होता। हे युधिष्ठर! यह वार्ता सत्य ही है कौरवों के मैं अर्थ से बांधा गया हूँ। ऐसा ही युधिष्ठर से द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने कहा ।
अर्थ उपार्जन के प्रयास
पद्म पुराण में कहा है कि अर्थ उपार्जन करने में पुरुष ऐसी विधियाँ रचते हैं कि मृत्युकारी अगाध विषम समुद्र के जल में भी प्रवेश कर जाते हैं और अर्थ के लिये ही सिंह तथा व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं से सेवित घोर बनावटी में भी प्रवेश कर जाते हैं।
अर्थ के लोभी पुरुष पुत्र- स्त्री आदि प्रिय बन्धुओं का परित्याग कर परदेश में चले जाते हैं। और बहुत से पुरुष कन्धों पर भार उठा कर धन उपार्जन करते हैं। बहुत से नौका में बोझ लाद कर समुद्रों में भुजबल से खे कर परिश्रम से धन कमाते हैं। इस प्रकार से न्याय, धर्म पूर्वक शरीर के परिश्रम से वणिक व्यापार के यत्न से उपार्जित धन को जो पुरुष पितरों के निमित्त अथवा देवों के निमित्त विद्वान द्विजातियों के लिये दान करता है, सो पुरुष अक्षय फल को भोगता है। इस रीति से धर्म पूर्वक शरीर के परिश्रम से उपार्जित धन का अल्पदान भी महान फल देने वाला होता है।
धन का विभाजन और उपयोग
मार्कण्डेय पुराण में कहा है कि बुद्धिमान, कल्याण का अभिष पुरुष न्याय उपार्जित धन के चार भाग करे। तीन में से एक भाग से शुभ जति-कारी धर्म को सम्पादन करे और एक भाग को कष्ट काल में बर्तने के लिये दीर्घ-दर्शी पुरुष जमा रखे और शेष दो भाग रूपी अर्ध धन से नित्य नैमित्तिक धर्म सहित अपने परिवार का पालन पोषण करे। ऐसा धर्मात्मा गृहस्थों का सुखकारी आचरण शास्त्रों में कहा है। इस शास्त्र विहित आचरण को त्याग कर पुरुष इस लोक में यश सुख को और परलोक में शुभ गति को प्राप्त नहीं हो सकता है।