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77. आभ्युदयिक श्राद्ध , प्रेतकर्म तथा श्राद्धादि का विचार

आभ्युदयिक श्राद्ध

पुत्र के जन्म के समय के कर्म

पुत्र के उत्पन्न होनेपर पिताको सचैल ( वस्त्रोंसहित ) स्नान करना चाहिये । उसके पश्चात् जातकर्म – संस्कार और आभ्युदयिक श्राद्ध करने चाहिये ॥ फिर तन्मयभावसे अनन्यचित्त होकर देवता और पितृगणके लिये क्रमशः दायीं और बायीं ओर बिठाकर दो – दो ब्राह्मणों का पूजन करे और उन्हें भोजन करावे ॥

आभ्युदयिक श्राद्ध की विधि

पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके दधि , अक्षत और बदरीफल से बने हुए पिण्डों को देवतीर्थ या प्रजापतितीर्थसे दान करे ॥ इस आभ्युदयिक श्राद्ध से नान्दीमुख नामक पितृगण प्रसन्न होते हैं , अतः सब प्रकारकी अभिवृद्धिके समय पुरुषोंको इसका अनुष्ठान करना चाहिये ॥

विशेष अवसरों पर नान्दीमुख श्राद्ध

कन्या और पुत्र के विवाह में , गृहप्रवेश में , बालकों के नामकरण तथा चूडाकर्म आदि संस्कारोंमें , सीमन्तोन्नयन – संस्कारमें और पुत्र आदिके मुख देखनेके समय गृहस्थ पुरुष एकाग्रचित्तसे नान्दीमुख नामक पितृगणका पूजन करे ॥

मृत्यु के पश्चात् कर्म

बन्धु – बान्धवों को चाहिये कि भली प्रकार स्नान करानेके अनन्तर पुष्प – मालाओं से विभूषित शवका गाँवके बाहर दाह करें और फिर जलाशयमें वस्त्रसहित स्नान कर दक्षिण – मुख होकर ‘ यत्र तत्र स्थितायैतदमुकाय १ वाक्य का उच्चारण करते हुए जलांजलि दें ॥ तदनन्तर गोधूलिके समय तारा – मण्डलके दीखने लगनेपर ग्राममें प्रवेश करें और कटकर्म ( अशौच कृत्य ) सम्पन्न करके पृथिवी पर तृणादि की शय्यापर शयन करें ॥ मृत पुरुषके लिये नित्यप्रति पृथिवीपर पिण्डदान करना चाहिये और हे पुरुषश्रेष्ठ ! केवल दिनके समय मांसहीन भात खाना चाहिये ॥

अशौच काल के नियम

अशौच काल में , यदि ब्राह्मणों की इच्छा हो तो उन्हें भोजन कराना चाहिये , क्योंकि उस समय ब्राह्मण और बन्धुवर्गके भोजन करनेसे मृत जीवकी तृप्ति होती है ॥ अशौचके पहले , तीसरे , सातवें अथवा नवें दिन वस्त्र त्यागकर और बहिर्देश में स्नान करके तिलोदक दे ॥ अशौचके चौथे दिन अस्थिचयन करना चाहिये , उसके अनन्तर अपने सपिण्ड बन्धुजनोंका अंग स्पर्श किया जा सकता है ॥उस समयसे समानोदक पुरुष चन्दन और पुष्पधारण आदि क्रियाओंके सिवा [ पंचयज्ञादि ] और सब कर्म कर सकते हैं ॥

भस्म और अस्थिचयन के अनन्तर सपिण्ड पुरुषोंद्वारा शय्या और आसनका उपयोग तो किया जा सकता है , किन्तु स्त्री – संसर्ग नहीं किया जा सकता ॥

विशेष परिस्थितियों में अशौच निवृत्ति

बालक , देशान्तरस्थित व्यक्ति , पतित और तपस्वीके मरनेपर तथा जल , अग्नि और उद्बन्धन ( फाँसी लगाने ) आदि द्वारा आत्मघात करने पर शीघ्र ही अशौचकी निवृत्ति हो जाता ॥ मृतक के कुटुम्बका अन्न दस दिनतक खाना चाहिये तथा अशौच कालमें दान , परिग्रह , होम और स्वाध्याय आदि कर्म भी न करने चाहिये ॥ यह [ दस दिनका ] अशौच ब्राह्मणका है ; क्षत्रियका अशौच बारह दिन और वैश्यका पन्द्रह दिन रहता है तथा शूद्रकी अशौच – शुद्धि एक मासमें होती है ॥

अशौच काल की अवधि

अशौच के अन्तमें इच्छानुसार अयुग्म ( तीन , पाँच , सात , नौ आदि ) ब्राह्मणों को भोजन करावे तथा उनकी उच्छिष्ट ( जूठन ) के निकट प्रेतकी तृप्तिके लिये कुशा पर पिण्डदान करे ॥ अशौच शुद्धि हो जानेपर ब्रह्मभोजके अनन्तर ब्राह्मण आदि चारों वर्णोंको क्रमश : जल , शस्त्र , प्रतोद ( कोड़ा ) और लाठीका स्पर्श करना चाहिये ॥ तदनन्तर ब्राह्मण आदि वर्णोंके जो जो जातीय धर्म बतलाये गये हैं उनका आचरण करे और स्वधर्मानुसार उपार्जित जीविका से निर्वाह करे ॥ फिर प्रतिमास मृत्युतिथिपर एकोद्दिष्ट श्राद्ध करे जो आवाहनादि क्रिया और विश्वेदेवसम्बन्धी ब्राह्मणके आमन्त्रण आदिसे रहित होने चाहिये ॥

अशौच शुद्धि के बाद

उस समय एक अर्ध्य और एक पवित्रक देना चाहिये , तथा बहुत – से ब्राह्मणोंके भोजन करनेपर भी मृतकके लिये एक ही पिण्डदान करना चाहिये ॥ तदनन्तर यजमानके अभिरम्यताम् ‘ ऐसा कहनेपर ब्राह्मणगण ‘ अभिरताः स्मः ‘ ऐसा कहें और फिर पिण्डदान समाप्त होनेपर अमुकस्य वाक्यका उच्चारण अक्षय्यमिदमुपतिष्ठताम् ‘ इस करें ॥ इस प्रकार एक वर्षतक प्रतिमास एकोद्दिष्टकर्म करने का विधान है । हे राजेन्द्र ! वर्ष के समाप्त होनेपर सपिण्डीकरण करे॥ 

सपिण्डीकरण और उत्तरकर्म

इस सपिण्डीकरण कर्मको भी एक वर्ष , छः मास अथवा बारह दिनके अनन्तर एकोद्दिष्ट श्राद्ध की विधि से ही करना चाहिये ॥ इसमें तिल , गन्ध और जलसे युक्त चार पात्र रखे । इनमेंसे एक पात्र मृत पुरुषका होता है तथा तीन पितृगणके होते हैं । फिर मृत पुरुषके पात्रस्थित जलादिसे पितृगणके पात्रोंका सिंचन करे । इस प्रकार मृत – पुरुषको पितृत्व प्राप्त हो जानेपर सम्पूर्ण श्राद्धधर्मोके द्वारा उस मृत – पुरुषसे ही आरम्भ कर पितृगणका पूजन करे ॥

 पुत्र , पौत्र , प्रपौत्र , भाई , भतीजा अथवा अपनी सपिण्ड सन्ततिमें उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्धादि क्रिया करनेका अधिकारी होता है ॥ यदि इन सबका अभाव हो तो समानोदककी सन्तति अथवा मातृपक्षके सपिण्ड अथवा समानोदकको इसका अधिकार है ॥ मातृकुल और पितृकुल दोनोंके नष्ट हो जानेपर स्त्री ही इस क्रियाको करे ; अथवा [ यदि स्त्री भी न हो तो ] साथियोंमेंसे ही कोई करे या बान्धवहीन मृतक के धनसे राजा ही उसके सम्पूर्ण प्रेत – कर्म करे ॥

प्रेत कर्म के प्रकार

सम्पूर्ण प्रेत – कर्म तीन प्रकारके हैं- पूर्वकर्म मध्यमकर्म तथा उत्तरकर्म । इनके पृथक् – पृथक् लक्षण सुनो ॥ दाहसे लेकर जल और शस्त्र आदिके स्पर्शपर्यन्त जितने कर्म हैं उनको पूर्वकर्म कहते हैं । तथा प्रत्येक मासमें जो एकोद्दिष्ट श्राद्ध किया जाता है वह मध्यमकर्म कहलाता है ॥ सपिण्डीकरणके पश्चात् मृतक व्यक्तिके पितृत्वको प्राप्त हो जानेपर जो पितृकर्म किये जाते हैं वे उत्तरकर्म कहलाते हैं ॥ माता , पिता , सपिण्ड , समानोदक , समूहके लोग अथवा उसके अधिकारी राजा पूर्वकर्म कर सकते हैं ; किंतु उत्तरकम केवल पुत्र , दौहित्र आदि अथवा उनकी सन्तानको ही करना चाहिये । प्रतिवर्ष मरण दिनपर स्त्रियोंका भी उत्तरकर्म एकोद्दिष्ट श्राद्धको विधिसे अवश्य करना चाहिये ॥ अतः हे अनघ ! उन उत्तरक्रियाओंको जिस – जिसको जिस – जिस विधिसे करना चाहिए।

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