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70. इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन तथा सौभरिचरित्र

इक्ष्वाकु

रैवत और कुशस्थली का विनाश

जिस समय रैवत ककुझी ब्रह्मलोक से लौटकर नहीं आये थे उसी समय पुण्यजन नामक राक्षसोंने उनकी पुरी कुशस्थली का ध्वंस कर दिया ॥ उनके सौ भाई पुण्यजन राक्षसोंके भयसे दसों दिशाओं में भाग गये ॥ उन्हींके वंशमें उत्पन्न हुए क्षत्रियगण समस्त दिशाओंमें फैले ॥

क्षत्रियों का उत्पत्ति

धृष्ट के वंश में धाष्टक नामक क्षत्रिय हुए ॥ नाभाग के नाभाग नामक पुत्र हुआ , नाभागका अम्बरीष और अम्बरीष का पुत्र विरूप हुआ । विरूपसे पृषदश्वका जन्म हुआ तथा उससे रथीतर हुआ ॥

रथीतर

रथीतर के सम्बन्ध में यह श्लोक प्रसिद्ध है — ‘ रथीतर के वंशज क्षत्रिय सन्तान होते हुए भी आंगिरस कहलाय अतः वे क्षत्रोपेत ब्राह्मण हुए ‘ ॥ छींकने के समय मनुकी घ्राणेन्द्रिय से इक्ष्वाकु नामक पुत्रका जन्म हुआ ॥ उनके सौ पत्रों में से विकुक्षि , निमि और दण्ड नामक तीन पुत्र प्रधान हुए । तथा उनके शकुनि आदि पचास पुत्र उत्तरापथके और शेष अड़तालीस दक्षिणापथ के शासक हुए॥

इक्ष्वाकु वंश

इक्ष्वाकु ने अष्ट का बाद्ध का आरम्भ कर अपने पुत्र विकुक्षिको आज्ञा दी कि बाद्धके योग्य मांस लाओ ॥ उसने बहुत अच्छा ‘ कह उनकी आज्ञा को शिरोधार्य किया और धनुष बाण लेकर वनमें आ अनेकों मृगोंका वध किया , किन्तु अति थका माँदा और अत्यन्त भूखा होनेके कारण विकुक्षिने उनमें से एक शशक ( खरगोश ) खा लिया और बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको निवेदन किया ॥

उस मांसका प्रोक्षण करनेके लिये प्रार्थना किये जानेपर इक्ष्वाकुके कुल – पुरोहित वसिष्ठजीने कहा- ” इस अपवित्र मांसकी क्या आवश्यकता है ? तुम्हारे दुरात्मा पुत्रने इसे भ्रष्ट कर दिया है , क्योंकि उसने इसमें से एक शशक खा लिया है ” ॥ गुरु के ऐसा कहनेपर , तभीसे विकुक्षि का नाम शशाद पड़ा और पिताने उसको त्याग दिया ॥ पिता के मरने के अनन्तर उसने इस पृथिवी का धर्मानुसार शासन किया ॥ उस शशाद के पुरंजय नामक पुत्र हुआ ॥ पुरंजय का भी यह एक दूसरा नाम पड़ा – ॥

त्रेतायुग का देवासुर संग्राम

पूर्वकालमें त्रेतायुग में एक बार अति भीषण देवासुरसंग्राम हुआ ॥ उसमें महाबलवान् दैत्यगणसे पराजित हुए देवताओंने भगवान् विष्णु की आराधना की ॥ तब आदि – अन्त – शून्य , अशेष जगत्प्रतिपालक , श्रीनारायणने देवताओंसे प्रसन्न होकर कहा- ॥ “ आपलोगोंका जो कुछ अभीष्ट है वह मैंने जान लिया है । उसके विषयमें यह बात सुनिये- ॥ राजर्षि शशाद का जो पुरंजय नामक पुत्र है उस क्षत्रियश्रेष्ठ के शरीर में मैं अंश मात्र से स्वयं अवतीर्ण होकर उन सम्पूर्ण दैत्यों का नाश करूँगा । अतः तुमलोग पुरंजय को दैत्यों के वध के लिये तैयार करो ” ॥

यह सुनकर देवताओं ने विष्णुभगवान्‌ को प्रणाम किया और पुरंजय के पास आकर उससे कहा- ॥ “ हे क्षत्रियश्रेष्ठ ! हमलोग चाहते हैं कि अपने शत्रुओं के वध में प्रवृत्त हम लोगों की आप सहायता करें । हम अभ्यागत जनका आप मानभंग न करें । ” यह सुनकर पुरंजय ने कहा- ॥ “ ये जो त्रैलोक्यनाथ शतक्रतु आप लोगों के इन्द्र हैं यदि मैं इनके कन्धे पर चढ़कर आपके शत्रुओंसे युद्ध कर सकूँ तो आप लोगों का सहायक हो सकता हूँ ” ॥

पुरंजय का पराक्रम

यह सुनकर समस्त देवगण और इन्द्रने ‘ बहुत अच्छा’- ऐसा कहकर उनका कथन स्वीकार लिया ॥ फिर वृषभ – रूपधारी इन्द्रकी पीठ पर चढ़कर चराचरगुरु भगवान् अच्युतके तेजसे परिपूर्ण होकर राजा पुरंजयने रोषपूर्वक सभी दैत्योंको मार डाला ॥उस राजाने बैलके ककुद् ( कन्धे ) -पर बैठकर दैत्यसेनाका वध किया था , अतः उसका नाम ककुत्स्थ पड़ा ॥

ककुत्स्थ के वंशज

ककुत्स्थ के अनेना नामक पुत्र हुआ ॥ अनेना के पृथु , पृथुके विष्टराश्व , उनके चान्द्र युवनाश्व तथा उस चान्द्र युवनाश्वके शावस्त नामक पुत्र हुआ जिसने शावस्ती पुरी बसायी थी ॥ शावस्तके बृहदश्व तथा बृहदश्वके कुवलयाश्वका जन्म हुआ , जिसने वैष्णव तेज से पूर्णता लाभ कर अपने इक्कीस सहस्र पुत्रोंके साथ मिलकर महर्षि उदकके अपकारी धुन्धु नामक दैत्यको मारा था -अतः उनका नाम धुन्धुमार हुआ ॥ उनके सभी पुत्र धुन्धुके मुखसे निकले हुए निःश्वासाग्निसे दृढाश्व , जलकर मर गये ॥ उनमेंसे केवल और कपिलाश्व- ये तीन ही बचे थे ॥

युवनाश्व और मान्धाता की कथा

दृढाश्वसे हर्यश्व , हर्यश्वसे निकुम्भ , निकुम्भसे अमिताश्व , अमिताश्वसे कृशाश्व , कृशाश्वसे प्रसेनजित् और प्रसेनजित्से युवनाश्वका जन्म हुआ ॥ युवनाश्व निःसन्तान होनेके कारण खिन्न चित्तसे मुनीश्वरोंके आश्रमों में रहा करता था ; उसके दुःखसे द्रवीभूत होकर दयालु मुनिजनोंने उसके पुत्र उत्पन्न होनेके लिये यज्ञानुष्ठान किया ॥ आधी रातके समय उस यज्ञके समाप्त होनेपर मुनिजन मन्त्रपूत जलका कलश वेदीमें रखकर सो गये ॥

उनके सो जानेपर अत्यन्त पिपासाकुल होकर राजाने उस स्थानमें प्रवेश किया । और सोये होनेके कारण उन ऋषियोंको उन्होंने नहीं जगाया ॥ तथा उस अपरिमित माहात्म्यशाली कलश के मन्त्रपूत जलको पी लिया ॥ जागने पर ऋषियों ने पूछा – ‘ इस मन्त्रपूत जलको किसने पिया है ? ॥ इसका पान करने पर ही युवनाश्व की पत्नी महाबलविक्रमशील पुत्र उत्पन्न करेगी । ‘ यह सुनकर राजाने कहा- ” मैंने ही बिना जाने यह जल पी लिया है ” ॥

सौभरि मुनि की कथा 

अतः युवनाश्व के उदर में गर्भ स्थापित हो गया और क्रमशः बढ़ने लगा ॥ यथासमय बालक राजा की दायीं कोख फाड़कर निकल आया ॥ किन्तु इससे राजाकी मृत्यु नहीं हुई ॥ उसके जन्म लेनेपर मुनियोंने कहा- ” यह बालक क्या पान करके जीवित रहेगा ? “॥ उसी समय देवराज इन्द्रने आकर कहा ” यह मेरे आश्रय जीवित रहेगा ‘ ॥ अतः उसका नाम मान्धाता हुआ । देवेन्द्र ने उसके मुखमें अपनी तर्जनी ( अँगूठेके पासकी ) अँगुली दे दी और वह उसे पीने लगा । उस अमृतमयी अँगुली का आस्वादन करनेसे वह एक ही दिनमें बढ़ गया ॥ तभी से चक्रवर्ती मान्धाता सप्तद्वीपा पृथिवी का राज्य भोगने लगा ॥ इसके विषय में यह श्लोक कहा जाता है ॥

‘जहाँ से सूर्य उदय होता है और जहाँ अस्त होता है वह सभी क्षेत्र युवनाश्व के पुत्र मान्धाता का है ‘ ॥ मान्धाता ने शत बिन्दु की पुत्री बिन्दुमती से विवाह किया और उससे पुरुकुत्स , अम्बरीष और मुचुकुन्द नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये तथा उसी ( बिन्दुमती ) – से उनके पचास कन्याएँ हुईं ॥ उसी समय बवृच सौभरि नामक महर्षिने बारह वर्ष तक जल में निवास किया ॥ उस जल में सम्मद नामक एक बहुत – सी सन्तानों वाला और अति दीर्घकाय मत्स्यराज था ॥ उसके पुत्र , पौत्र और दौहित्र आदि उसके आगे – पीछे तथा इधर – उधर पक्ष , पुच्छ और सिर के ऊपर घूमते हुए अति आनन्दित होकर रात – दिन उसी के साथ क्रीडा करते रहते थे ॥

तथा वह भी अपनी सन्तान के सुकोमल स् पर्शसे अत्यन्त हर्षयुक्त होकर उन मुनिश्वर के देखते – देखते अपने पुत्र , पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अहर्निश क्रीडा करता रहता था ॥ इस प्रकार जलमें स्थित सौभरि ऋषिने एकाग्रतारूप समाधिको छोड़कर रात – दिन उस मत्स्यराज की अपने पुत्र , पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अति रमणीय क्रीडाओंको देखकर विचार किया ॥ अहो ! यह धन्य है , जो ऐसी अनिष्ट योनिमें उत्पन्न होकर भी अपने इन पुत्र , पौत्र और दौहित्र आदिके साथ निरन्तर रमण करता हुआ हमारे हृदयमें डाह उत्पन्न करता है ॥

हम भी इसी प्रकार अपने पुत्रादि के साथ अति ललित क्रीडाएँ करेंगे । ‘ ऐसी अभिलाषा करते हुए वे उस जलके भीतर से निकल आये और सन्तानार्थ गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेकी कामनासे कन्या ग्रहण करनेके लिये राजा मान्धाताके पास आये ॥ मुनिवर का आगमन सुन राजा ने उठकर अर्घ्यदानादिसे उनका भली प्रकार पूजन किया । तदनन्तर सौभरि मुनिने आसन ग्रहण करके राजासे कहा ॥ सौभरिजी बोले- हे राजन् ! मैं कन्या – परिग्रहका अभिलाषी हूँ , अतः तुम मुझे एक कन्या दो ; मेरा प्रणय भंग मत करो ।

ककुत्स्थवंशमें कार्यवश आया हुआ कोई भी प्रार्थी पुरुष कभी खाली हाथ नहीं लौटता ॥ हे मान्धाता ! पृथिवीतलमें और भी अनेक राजालोग हैं और उनके भी कन्याएँ उत्पन्न हुई हैं ; किंतु याचकोंको माँगी हुई वस्तु दान देनेके नियममें दृढप्रतिज्ञ तो यह तुम्हारा प्रशंसनीय कुल ही है ॥ हे राजन् ! तुम्हारे पचास कन्याएँ हैं , उनमेंसे तुम मुझे केवल एक ही दे दो । हे नृपश्रेष्ठ ! मैं इस समय प्रार्थनाभंगकी आशंकासे उत्पन्न अतिशय दुःखसे भयभीत हो रहा हूँ ॥

श्रीपराशरजी बोले- ऋषिके ऐसे वचन कातर हो शापके भयसे अस्वीकार करनेमें उनसे डरते हुए कुछ नीचेको मुख करके मन ही – मन चिन्ता करने लगे ॥ सौभरिजी बोले – हे नरेन्द्र ! तुम चिन्तित क्यों होते हो ? मैंने इसमें कोई असह्य बात तो कही नहीं है ; जो कन्या एक दिन तुम्हें अवश्य देनी ही है उससे ही यदि हम कृतार्थ हो सक तुम क्या नहीं प्राप्त कर सकते हो ? ॥ श्रीपराशरजी बोले- तब भगवान् सौभरिके शापसे भयभीत हो राजा मान्धाताने नम्रतापूर्वक – उनसे कहा ॥

राजा बोले- भगवन् ! हमारे कुलकी यह रीति है कि जिस सत्कुलोत्पन्न वरको कन्या पसन्द करती है वह उसीको दी जाती है । आपकी प्रार्थना तो हमारे मनोरथोंसे भी परे है । न जाने किस प्रकार यह उत्पन्न हुई है ? ऐसी अवस्थामें मैं नहीं जानता कि क्या करूँ ? बस , मुझे यही चिन्ता है । महाराज मान्धाताके ऐसा कहनेपर मुनिवर सौभरिने विचार किया- ॥ ‘ मुझको टाल देनेका यह एक और ही उपाय है । ‘ यह बूढ़ा है , प्रौढ़ा स्त्रियाँ भी इसे पसन्द नहीं कर सकतीं , फिर कन्याओंकी तो बात ही क्या है ? ‘ ऐसा सोचकर ही राजाने यह बात कही है । अच्छा , ऐसा ही सही , मैं भी ऐसा ही उपाय करूँगा । ‘ यह सब सोचकर उन्होंने मान्धातासे कहा- ॥

“ यदि ऐसी बात है तो कन्याओंके अन्तःपुर – रक्षक नपुंसकको वहाँ मेरा प्रवेश करानेके लिये आज्ञा दो । यदि कोई कन्या ही मेरी इच्छा करेगी तो ही मैं स्त्री – ग्रहण करूंगा नहीं तो इस ढलती अवस्थामें मुझे इस व्यर्थ उद्योगका कोई प्रयोजन नहीं है । ” ऐसा कहकर वे मौन हो गये ॥ तब मुनिके शापकी आशंकासे मान्धाताने कन्याओंके अन्तःपुर – रक्षकको आज्ञा दे दी ॥ उसके साथ अन्तःपुरमें प्रवेश करते हुए भगवान् सौभरिने अपना रूप सकल सिद्ध और गन्धर्वगणसे भी अतिशय मनोहर बना लिया ॥

उन ऋषिवरको अन्तःपुरमें ले जाकर अन्तःपुर रक्षकने उन कन्याओंसे कहा- ॥ ” तुम्हारे पिता महाराज मान्धाताकी आज्ञा है कि ये ब्रह्मर्षि हमारे पास एक कन्याके लिये पधारे हैं और मैंने इनसे प्रतिज्ञा की है कि मेरी जो कोई कन्या श्रीमान्‌को वरण करेगी उसकी स्वच्छन्दतामें मैं किसी प्रकारकी बाधा नहीं डालूँगा । ” यह सुनकर उन सभी कन्याओंने यूथपति गजराज का वरण करनेवाली हथिनियोंके समान अनुराग और आनन्दपूर्वक ‘ अकेली मैं ही – अकेली मैं ही वरण करती हूँ ‘ ऐसा कहते हुए उन्हें वरण कर लिया । वे परस्पर कहने लग- ॥ ‘ अरी बहिनो ! व्यर्थ चेष्टा क्यों करती हो ? मैं इनका वरण करती हूँ , ये तुम्हारे अनुरूप हैं भी नहीं ।

विधाताने ही इन्हें मेरा भर्त्ता और मुझे इनकी भार्या बनाया है । अतः तुम शान्त हो जाओ ॥ अन्तःपुरमें आते ही सबसे पहले मैंने ही इन्हें वरण किया था , तुम क्यों मरी जाती हो ? ‘ इस प्रकार मैंने वरण किया है- पहले मैंने वरण किया है ‘ ऐसा कह – कहकर उन राजकन्याओंमें उनके लिये बड़ा कलह मच गया ॥ जब उन समस्त कन्याओंने अतिशय अनुरागवश उन अनिन्द्यकीर्ति मुनिवरको वरण कर लिया तो रक्षकने नम्रतापूर्वक राजासे सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों – का कन्या त्यों कह सुनाया ॥

श्रीपराशरजी बोले- यह जानकर राजाने ‘ यह क्या कहता है ? ‘ ‘ यह कैसे हुआ ? ‘ ‘ मैं क्या करूँ ? ‘ ‘ मैंने क्यों उन्हें [ अन्दर जानेके लिये ] कहा था ? ‘ इस प्रकार सोचते हुए अत्यन्त व्याकुल चित्तसे इच्छा न होते हुए भी जैसे तैसे अपने वचनका पालन किया और अपने अनुरूप विवाह – संस्कारके समाप्त होनेपर महर्षि सौभरि उन समस्त कन्याओंको अपने आश्रमपर ले गये ॥

वहाँ आकर उन्होंने दूसरे विधाताके समान अशेष शिल्प – कल्प – प्रणेता विश्वकर्माको बुलाकर कहा कि इन समस्त कन्याओंमेंसे प्रत्येकके लिये पृथक् – पृथक् महल बनाओ , जिनमें खिले हुए कमल और कूजते हुए सुन्दर हंस तथा कारण्डव आदि जल – पक्षियोंसे सुशोभित जलाशय हों , सुन्दर उपधान ( मसनद ) , शय्या और परिच्छद ( ओढ़नेके वस्त्र ) हों तथा पर्याप्त खुला हुआ स्थान हो ॥ तब सम्पूर्ण शिल्प – विद्याके विशेष आचार्य विश्वकर्माने भी उनकी आज्ञानुसार सब कुछ तैयार करके उन्हें दिखलाया ॥

तदनन्तर महर्षि सौभरि की आज्ञासे उन महलों में अनिवार्यानन्द नामकी महानिधि निवास करने लगी ॥ तब तो उन सम्पूर्ण महलोंमें नाना प्रकारके भक्ष्य , भोज्य और लेह्य आदि सामग्रियोंसे वे राजकन्याएँ आये हुए अतिथियों और अपने अनुगत भृत्यवर्गोंको तृप्त करने लगीं ॥

एक दिन पुत्रियोंके स्नेहसे आकर्षित होकर राजा मान्धाता यह देखनेके लिये कि वे अत्यन्त दुःखी हैं या सुखी ? महर्षि सौभरिके आश्रमके निकट आये , तो उन्होंने वहाँ अति रमणीय उपवन और जलाशयोंसे युक्त स्फटिक शिलाके महलोंकी पंक्ति देखी जो फैलती हुई मयूख मालाओंसे अत्यन्त मनोहर मालूम पड़ती थी ॥ तदनन्तर वे एक महलमें जाकर अपनी कन्याका स्नेहपूर्वक आलिंगन कर आसनपर बैठे और फिर बढ़ते हुए प्रेमके कारण नयनोंमें जल भरकर बोले- ॥ “ बेटी ! तुमलोग यहाँ सुखपूर्वक हो न ? तुम्हें किसी प्रकारका कष्ट तो नहीं है ? महर्षि सौभरि हो ॥

तुमसे स्नेह करते हैं या नहीं ? क्या तुम्हें हमारे घरकी भी याद आती है ? ” पिताके ऐसा कहनेपर उस राजपुत्रीने कहा- ॥ ” पिताजी यह महल अति रमणीय है , ये उपवनादि भी अतिशय मनोहर हैं , खिले हुए कमलोंसे युक्त इन जलाशयोंमें जलपक्षिगण सुन्दर बोली बोलते रहते हैं , भक्ष्य , भोज्य आदि खाद्य पदार्थ , उबटन और वस्त्राभूषण आदि भोग तथा सुकोमल शय्यासनादि सभी मनके अनुकूल हैं , इस प्रकार हमारा गार्हस्थ्य यद्यपि सर्वसम्पत्तिसम्पन्न है ॥

तथापि अपनी जन्मभूमिकी याद भला किसको नहीं आती ? ॥ आपकी कृपासे यद्यपि सब कुछ मंगलमय है ॥ तथापि मुझे एक बड़ा दुःख है कि हमारे पति ये महर्षि मेरे घरसे बाहर कभी नहीं जाते । अत्यन्त प्रीतिके कारण ये केवल मेरे ही पास रहते हैं , मेरी अन्य बहिनोंके पास ये जाते ही नहीं हैं ॥ इस कारणसे मेरी बहिनें अति दुःखी होंगी । यही मेरे अति दुःखका कारण है । ” उसके ऐसा कहनेपर राजाने दूसरे महलमें आकर अपनी कन्याका आलिंगन किया और आसनपर बैठनेके अनन्तर उससे भी इसी प्रकार पूछा ॥

उसने भी उसी प्रकार महल आदि सम्पूर्ण उपभोगोंके सुखका वर्णन किया और कहा कि अतिशय प्रीतिके कारण महर्षि केवल मेरे ही पास रहते हैं और किसी बहिनके पास नहीं जाते । इस प्रकार पूर्ववत् सुनकर राजा एक – एक करके प्रत्येक महलमें गये और प्रत्येक कन्यासे इसी प्रकार पूछा ॥ और उन सबने भी वैसा ही उत्तर दिया । अन्तमें आनन्द और विस्मयके भारसे विवशचित्त होकर उन्होंने एकान्तमें स्थित भगवान् सौभरिकी पूजा करनेके अनन्तर उनसे कहा- ॥ ” भगवन् ! आपकी ही योगसिद्धिका यह महान् प्रभाव देखा है । इस प्रकारके महान् वैभवके साथ और किसीको भी विलास करते हुए हमने नहीं देखा , सो यह सब आपकी तपस्याका ही फल है ।

” इस प्रकार उनका अभिवादन कर वे कुछ कालतक उन मुनिवरके साथ ही अभिमत भोग भोगते रहे और अन्तमें अपने नगरको चले आये ॥ कालक्रमसे उन राजकन्याओंसे सौभरि मुनिके डेढ़ सौ पुत्र हुए । इस प्रकार दिन – दिन स्नेहका प्रसार होनेसे उनका हृदय अतिशय ममतामय हो गया ॥ वे सोचने लगे- ‘ क्या मेरे ये पुत्र मधुर बोलीसे बोलेंगे ? ये युवावस्थाको प्राप्त होंगे ? उस समय क्या मैं अपने पाँवोंसे चलेंगे ? क्या इन्हें सपत्नीक देख सकूँगा ? फिर क्या इनके पुत्र होंगे और मैं इन्हें अपने पुत्र – पौत्रोंसे युक्त देखूँगा ? ” इस प्रकार कालक्रमसे दिनानुदिन बढ़ते हुए इन मनोरथोंकी उपेक्षा कर वे सोचने लगे- ॥ ‘ अहो ! मेरे मोहका कैसा विस्तार है ॥

इन मनोरथोंकी तो हजारों – लाखों वर्षों में भी समाप्ति नहीं हो सकती । उनमेंसे यदि कुछ पूर्ण भी हो जाते हैं तो उनके स्थानपर अन्य नये मनोरथोंकी उत्पत्ति हो जाती है ॥ मेरे पुत्र पैरोंसे चलने लगे , फिर वे युवा हुए , उनका विवाह हुआ तथा उनके सन्तानें हुईं – यह सब तो मैं देख चुका ; किन्तु अब मेरा चित्त उन पौत्रोंके पुत्र – जन्मको भी देखना चाहता है ! यदि उनका जन्म भी मैंने देख लिया तो फिर मेरे चित्तमें दूसरा मनोरथ उठेगा और यदि वह भी पूरा हो गया तो अन्य मनोरथकी उत्पत्तिको ही कौन रोक सकता है ? ॥

मैंने अब भली प्रकार समझ लिया है । मृत्युपर्यन्त मनोरथका अन्त तो होना कि नहीं है और जिस चित्तमें मनोरथोंकी आसक्ति होती हैं । कभी परमार्थमें वह नहीं सकता ॥ अहो ! मेरी वह समाधि जलवासके साथी मत्स्यके संगसे अकस्मात् नष्ट हो गयी और उस संगके कारण ही मैंने स्त्री और धन आदिका परिग्रह किया तथा परिग्रहके कारण ही अब मेरी तृष्णा बढ़ गयी है ॥

एक शरीरका ग्रहण करना ही महान् दुःख है और मैंने तो इन राजकन्याओंका परिग्रह करके उसे पचास गुना कर दिया है । अनेक पुत्रोंके कारण अब वह बहुत ही बढ़ गया है ॥ अब आगे भी पुत्रोंके पुत्र तथा उनके पुत्रोंसे और उनका पुनः पुनः विवाह सम्बन्ध करनेसे वह और भी और भी बढ़ेगा । यह ममतारूप विवाहसम्बन्ध अवश्य बड़े हो दुःखका कारण है ॥

जलाशय में रहकर मैंने जो तपस्या की थी उसकी फलस्वरूपा यह सम्पत्ति तपस्याकी बाधक है । मत्स्यके संगसे मेरे चित्तमें जो पुत्र आदिका राग उत्पन्न हुआ था उसीने मुझे ठग लिया ॥ नि : संगता ही यतियोंको मुक्ति देनेवाली है , सम्पूर्ण दोष संगसे ही उत्पन्न होते हैं । संगके कारण तो योगारूढ यति भी पतित हो जाते हैं , फिर मन्दमति मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ? ॥परिग्रहरूपी ग्राहने मेरी बुद्धिको पकड़ा हुआ है । इस समय मैं ऐसा उपाय करूंगा जिससे दोषोंसे मुक्त होकर फिर अपने कुटुम्बियोंके दुःखसे दुःखी न होऊँ ॥

अब मैं सबके विधाता , अचिन्त्यरूप , अणुसे भी अणु और सबसे महान् सत्त्व एवं तमः स्वरूप तथा ईश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् विष्णुकी तपस्या करके आराधना करूँगा ॥ उन सम्पूर्ण तेजोमय , सर्वस्वरूप , अव्यक्त , विस्पष्टशरीर , अनन्त श्रीविष्णुभगवान्में मेरा दोषरहित चित्त सदा निश्चल रहे जिससे मुझे फिर जन्म न लेना पड़े ॥ जिस सर्वरूप , अमल , अनन्त , सर्वेश्वर और आदि – मध्य शून्यसे पृथक् और कुछ भी नहीं है उस गुरुजनोंके भी परम गुरु भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ ‘ ॥

श्रीपराशरजी बोले- इस प्रकार मन – ही – मन सोचकर सौभरि मुनि पुत्र , गृह , आसन , परिच्छद आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको छोड़कर अपनी समस्त स्त्रियोंके सहित वनमें चले गये । वहाँ वानप्रस्थोंके योग्य समस्त क्रियाकलापका अनुष्ठान करते हुए सम्पूर्ण पापोंका क्षय हो जानेपर तथा मनोवृत्तिके राग – द्वेषहीन हो जानेपर , आहवनीयादि अग्नियोंको अपनेमें स्थापित कर संन्यासी हो गये ॥ फिर भगवान्में आसक्त हो सम्पूर्ण कर्मकलापका त्याग कर परमात्मपरायण पुरुषोंके अच्युतपद ( मोक्ष ) को प्राप्त किया , जो अजन्मा , अनादि , अविनाशी , विकार और मरणादि धर्मोसे रहित , इन्द्रियादिसे अतीत तथा अनन्त है ॥

इस प्रकार मान्धाता की कन्याओंके सम्बन्धमें मैंने इस चरित्रका वर्णन किया है । जो कोई इस सौभरि – चरित्रका स्मरण करता है , अथवा पढ़ता पढ़ाता , सुनता – सुनाता , धारण करता – कराता , लिखता लिखवाता तथा सीखता – सिखाता अथवा उपदेश करता है उसके छः जन्मोंतक दुःसन्तति , असद्धर्म और वाणी अथवा मनकी कुमार्गमें प्रवृत्ति तथा किसी भी पदार्थ में ममता नहीं होती ॥

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