इन्द्र का कोप और मेघों की आज्ञा
अपने यज्ञके रुक जानेसे इन्द्रने अत्यन्त रोषपूर्वक संवर्तक नामक मेघोंके दलसे इस प्रकार कहा- ॥ ” अरे मेघो! मेरा यह वचन सुनो और मैं जो कुछ कहूँ उसे मेरी आज्ञा सुनते ही, बिना कुछ सोचे- विचारे तुरन्त पूरा करो ॥ देखो अन्य गोपके सहित दुर्बुद्धि नन्दगोपने कृष्णकी सहायताके बलसे अन्धा होकर मेरा यज्ञ भंग कर दिया है ॥ अतः जो उनकी परम जीविका और उनके गोपत्वका कारण है, उन गौओंको तुम मेरी आज्ञासे वर्षा और वायुके द्वारा पीड़ित कर दो ॥ मैं भी पर्वत शिखरके समान अत्यन्त ऊँचे अपने ऐरावत हाथीपर चढ़कर वायु और जल छोड़नेके समय तुम्हारी सहायता करूँगा ” ॥
इन्द्र की आज्ञा से मेघों का प्रकोप
इन्द्रकी ऐसी आज्ञा होनेपर गौओंको नष्ट करनेके लिये मेघोंने अति प्रचण्ड वायु और वर्षा छोड़ दी ॥ उस समय एक क्षणमें ही मेघोंकी छोड़ी हुई महान् जलधाराओंसे पृथिवी, दिशाएँ और आकाश एकरूप हो गये ॥ मेघगण मानो विद्युल्लतारूप दण्डाघातसे भयभीत होकर महान् शब्दसे दिशाओंको व्याप्त करते हुए मूसलाधार पानी बरसाने लगे ॥ इस प्रकार मेघोंके अहर्निश बरसनेसे संसारके अन्धकारपूर्ण हो जानेपर ऊपर- नीचे और सब ओरसे समस्त लोक जलमय-सा हो गया ॥
गौओं और गोपों की दुर्दशा
वर्षा और वायुके वेगपूर्वक चलते रहने से गौओंके कटि, जंघा और ग्रीवा आदि सुन्न हो गये और काँपते-काँपते अपने प्राण छोड़ने लग [ अर्थात् मूच्छित हो गयीं ] ॥ हे महामुने! कोई गौएँ तो अपने बछड़ोंको अपने नीचे छिपाये खड़ी रहीं और कोई जलके वेगसे वत्सहीना हो गयीं ॥ वायुसे काँपते हुए दीनवदन बछड़े मानो व्याकुल होकर मन्द- स्वरसे कृष्णचन्द्रसे ‘रक्षा करो, रक्षा करो’ ऐसा कहने लगे ॥
उस समय गो, गोपी और गोपगणके सहित सम्पूर्ण गोकुलको अत्यन्त व्याकुल देखकर श्रीहरिने विचारा ॥ यज्ञ-भंगके कारण विरोध मानकर यह सब करतूत इन्द्र ही कर रहा है; अतः अब मुझे सम्पूर्ण व्रजकी रक्षा करनी चाहिये ॥ अब मैं धैर्यपूर्वक बड़ी-बड़ी शिलाओंसे घनीभूत इस पर्वतको उखाड़कर इसे एक बड़े छत्रके समान व्रजके ऊपर धारण करूँगा ॥
श्रीकृष्ण का निर्णय और पर्वत का धारण
श्रीकृष्णचन्द्रने ऐसा विचारकर गोवर्धन पर्वतको उखाड़ लिया और उसे लीलासे ही अपने एक हाथपर उठा लिया ॥ पर्वतको उखाड़ लेनेपर शूरनन्दन श्रीश्यामसुन्दरने गोपोंसे हँसकर कहा- ‘आओ, शीघ्र ही इस पर्वतके नीचे आ जाओ, मैंने वर्षासे बचनेका प्रबन्ध कर दिया है ॥ यहाँ वायुहीन स्थानोंमें आकर सुखपूर्वक बैठ जाओ; निर्भय होकर प्रवेश करो, पर्वतके गिरने आदिका भय मत करो” ॥
गोवर्धन पर्वत के नीचे जीवन
श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर जलकी धाराओंसे पीडित गोप और गोपी अपने बर्तन-भाँड़ोंको छकड़ोंमें रखकर गौओंके साथ पर्वतके नीचे चले गये ॥ व्रज वासियोंद्वारा हर्ष और विस्मयपूर्वक टकटकी लगाकर देखे जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र भी गिरिराजको अत्यन्त निश्चलतापूर्वक धारण किये रहे ॥ जो प्रीतिपूर्वक आँखें फाड़कर देख रहे थे उन हर्षितचित्त गोप और गोपियोंसे अपने चरितोंका स्तवन होते हुए श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतको धारण किये रहे ॥
इन्द्र की पराजय और गोपों की प्रसन्नता
हे विप्र ! गोपके नाशकर्ता इन्द्रकी प्रेरणासे नन्दजीके गोकुलमें सात रात्रितक महाभयंकर मेघ बरसते रहे ॥ किंतु जब श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वत धारणकर गोकुलकी रक्षा की तो अपनी प्रतिज्ञा व्यर्थ हो जानेसे इन्द्रने मेघोंको रोक दिया ॥ आकाशके मेघहीन हो जानेसे इन्द्रकी प्रतिज्ञा भंग हो जानेपर समस्त गोकुलवासी वहाँसे निकलकर प्रसन्नतापूर्वक फिर अपने-अपने स्थानोंपर आ गये॥ और कृष्णचन्द्रने भी उन व्रजवासियोंके विस्मयपूर्वक देखते-देखते गिरिराज गोवर्धनको अपने स्थानपर रख दिया ॥