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ईश्वर के नाम का कथन

ईश्वर के नाम का कथन

ईश्वर के नाम का कथन

( नारद पंचरात्र. 4- अ. 3- श्लो. 223)

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनामभिस्तुल्यं रामनाम वरानने ।।1।।

पूर्व त्रयोदश अध्याय में तीर्थव्रत का कथन करा अब चौदहवें अध्याय में ईश्वर-नाम की महिमा निरूपण करते हैं। क्योंकि तीर्थव्रत करने वाले पुरुष अवश्य ही पापहारी हरि का नाम लेने वाले होते हैं इस हेतु से तीर्थव्रत के कथन से पश्चात् ईश्वर के नाम का कथन करना उचित ही है।

नारद पंचरात्र में पार्वती ने महादेव से पूछा है महादेवजी ! सर्व नामों में सुखपूर्वक उच्चारण करने में कौन-सा नाम श्रेष्ठ है ? तब महादेवजी ने कहा हे मनोरमे ! जिस परमात्मा सच्चिदानन्द में योगी जनों के मन संसारी विषयों को छोड़कर रमण करते हैं। उसका नाम राम है। हे वरानने ! एकाग्रचित्त से राम राम इन सुखमुख उच्चारण रामनाम को हजार नाम के तुल्य कहा है इस कारण से यह नाम श्रेष्ठ है ।।1।।

(अध्यात्मरामा काण्ड. 4-सर्ग. 1-श्लो. 84)

राम रामेति यद्वाणी मधुरं गायति क्षणम् ।

स ब्रह्महा सुरापो वा मुच्यते सर्वपातकैः ।।2।।

(वाल्मीकी काण्ड 6-सर्ग 18-श्लो. 33)

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।

अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम ||3||

(गर्ग सं. खण्ड 10-अ. 59- श्लो. 13)

शिखिमुकुटविशेषं नीलपद्यांगदेशं विधुमुखकृतकेशं कौस्तुभाषीत वेशम् ।।

मधुरस्वकलेशं शं भजे भ्रातृशेषं व्रजजनवनितेशं माधवं राधिकेशम् ||4||

अध्यात्म रामायण में पार्वतीजी ने महादेवजी से पूछा है कि हे देव ! रामनाम लेने से क्या फल होता है ? महादेवजी ने कहा हे पार्वति, जो पुरुष एकाग्र चित्त से राम-राम इस नाम को मधुरवाणी से एक क्षण काल भी गायन करता है वो पुरुष ब्रह्महत्या के पाप से और सुरापान के पाप से और सर्व पापों से मुक्त हो जाता है ।।2।।

वाल्मीकि रामायण में श्री रामचंद्र कौशलचन्द्र परमानन्द ने कहा है कि हे सुग्रीव । जो प्राणी एक बार भी मेरी शरण में आकर याचना करता है कि मैं आपका हूँ तिन सर्व के लिये मैं अभयदान देता हूँ यह मेरा व्रत है ।।3।।

गर्गसंहिता में गर्मचार्यजी ने श्रीकृष्णचन्द्रजी के इस प्रकार के स्वरूप का ध्यान करना कहा है- ‘मोर मुकुटवाले, नीलकमल के समान शरीरवाले, चन्द्रमा के समान मुख पर केशजुल्फों की शोभावाले, कौस्तुभमणि युक्त, पीतवस्त्रधारी, क्लेशनाशक, मधुर- शब्दभाषी, बलरामजी के भ्राता, ब्रजवासियों की स्त्रियों के ईश्वर, राधिका के स्वामी माधव, ऐसे कृष्णचन्द्रजी को ध्यानपूर्वक मैं भजता हूँ। सो कृष्ण परमात्मा कृपा करें ।।4।।

(स्कन्दपु खण्ड 4-ख. 1- अ. 8 श्लो. 99 )

गोविन्द माधव मुकुन्द हरे मुरारे । शंभो शिवेश शशिशेखर शूलपाणे ।

दामोदराच्युतजनार्दन वासुदेव । त्याज्या भटा व इति सततमामनन्ति ।।5।।

स्कन्दपुराण में बमराज अपने दूतों को कहते हैं कि हे दूतों। जो पुरुष हे गोविन्द, माधव, मुकुन्द, हे हरे मुरारे ! हे शंभो, शिव, हे ईश, शशिशेखर, हे शूलपाणे, हे दामोदर, अच्युत हे जनार्दन, वासुदेव आदि नामों का सर्वदा उच्चारण करने वाले हैं उन पुरुषों को दूर से ही त्याग देना क्योंकि ईश्वर के नाम लेने वालों का मैं यम शासनकर्त्ता नहीं हूँ ||5||

( नरसिंह पु. अ. 18 – श्लो. 8)

ओम् नमो नारायणायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधकः ।

भक्तानां जपतां तात स्वर्गमोक्षफलप्रदः ।।6।।

नरसिंहपुराण में व्यासजी ने कहा है कि हे शुकतात ‘ओम नमो नारायणाय’ यह मन्त्र सर्व अर्थों को सिद्ध करने वाला है। जप करने वाले सकामी भक्तों को स्वर्गरूप फलप्रद है और निष्काम जप करने वाले भक्तों को चित्तशुद्धिपूर्वक जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैतज्ञान द्वारा अपुनरावृत्ति रूप मोक्षफल को देने वाला है ॥16॥

(भा. स्कन्ध 6-अ. 1-श्लो. 29-30)

दूरे क्रीडनकासक्तं पुत्रं नारायणाह्वयम् ।

प्लावितेन स्वरेणोच्चैराजुहावाकुलेन्द्रियः ।।7।।

निशम्य यम्रियमाणस्य ब्रुवतो हरिकीर्तनम् ।

भर्तुर्नाम महाराज पार्षदाः सहसाऽपतन् ।।8।।

भागवत में कहा है कि दुराचरणकारी अजामिल भयकारी यमदूतों को देखकर व्याकुल- इन्द्रिय भयभीत हुआ । दूर खेल में आसक्त हुए नारायण नामक अपने छोटे पुत्र को उच्चस्वर से हे नारायण आवो ! हे नारायण आवो ! ऐसे बुलाता भया ।।7।।

नारदजी ने कहा है कि हे महाराज युधिष्ठिर ऐसे मरते हुए अजामिल के मुख से पुत्रमोह के वश होकर भी हरिनारायण नामकीर्तन अपने स्वामी विष्णु का नाम सुनकर पार्षद शीघ्र ही अजामिल के पास आते भये और यम दूतों से कहा तुम कौन हो जो हरिकीर्तन करने वाले को भय देते हो । तब दूतों ने कहा हम पापियों के शासक यमराज के दूत हैं। तब विष्णु – पार्षदों ने कहा हे दूतों ! हरि-नारायण कीर्तन करने वालों का कोई शासक नहीं है ऐसा कहकर अजामिल को विष्णु के पार्षद विष्णु लोक में ले गये ||8||

(कलिसंतरणो. मं. 1)

ओम् हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।9।।

इति षोडशकं नाम्रां कलिकल्मषनाशनम् ।

नातः परतरोपायः सर्ववेदेषु दृश्यते ।।10।।

कलिसंतरणोपनिषद् में नारदजी के पूछने पर ब्रह्माजी ने कहा है कि ओम् हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।। यह षोडश- नामक मंत्र ही कलियुग में पापों का नाशक है इस मंत्र से बढ़कर दूसरा कोई उपाय कल्याण का सर्व वेदों में नहीं देखा जाता है । इस षोड़श नामक मंत्र के जपने में कोई विधि नहीं है। स्नान करके अथवा बिना स्नान करे, चलता-फिरता, बैठा हुआ, पड़ा हुआ सर्व प्रकार से जप कर सकता है ।।9 ।। 10।।

(दत्तात्रयो. खण्ड. 2-मं. 1 )

ओम नमो भगवते दत्तात्रेयाय ।।11।।

दत्तात्रेयोपनिषद् में कहा है कि पुरुष शान्त रूप भगवान् दत्तात्रेय के प्रति नमस्कार कर शान्ति को प्राप्त होता है ।।11।।

(गरुड़ो. मं. 1)

स्वस्तिको दक्षिणं पादं वाम पादं तु कुञ्चितम् ।

प्राज्ञ्जलीकृतदोर्युग्मं गरूडं हरिवल्लभम् ।।12।।

गरुड़ोपनिषद् में कहा है कि स्वस्ति रूप दाहिने पाद वाले को, संकुचित वाम पादे वाले को, दो हाथ जोड़कर प्रांजली करते हुए हरि के प्रिय गरुड़ को नमस्कार गरुड़ोपनिषद में उक्त प्रकार से गरुड़ के नामों को लेकर पुरुष सर्पों के भय से रहित हो जाता है ।।12।।

(गीता. अ. 7-श्लो. 16)

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।13।।

गीता में श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् ने कहा है कि चार प्रकार के पुण्यकारी पुरुष मेरे को भजते हैं। एक तो चोर, व्याघ्र, रोग आदि के भय से युक्त आर्त। दूसरा मुझ (भगवान् के) तत्वस्वरूप को जानने की इच्छा वाला जिज्ञासु। तीसरा धन की कामना वौला अर्थार्थी। चौथा मेरे विष्णु के तत्वस्वरूप को जानने वाला ज्ञानी, हे भारत ! ये चार मेरा सेवन करते हैं ।।13।।

(विष्णुपु. अंश. 6-अ. 5-श्लो. 78)

उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम् ।

वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति ।।14।।

विष्णुपुराण में कहा है कि भूत प्राणियों की उत्पत्ति, प्रलय और आना-जाना थ जन्म-मरण, मोक्षकारी विद्या, बन्धनकारी अविद्या इन छैओं को जो जाने वो भगवान् कहा जाता है।

(अर्थवशिरो. मं. 4)

यस्माद्भक्ता ज्ञानेन भजन्ति तस्मादुच्यते भगवान् ।।15।।

अथर्वशिरोपनिषद् में कहा है कि जिस कारण से ज्ञान होने से भी भक्त विष्णु को भजते हैं तिस कारण से ही भगवान् कहा जाता है ।।15।।

(भारतसार पर्व. 3-अ. 42- श्लो. 12-13-14)

करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम् ।

वटस्य पत्रश्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||16||

कण्ठे सुमालं तिलकाङ्कभालं सौंदर्यनिष्काशितमेघजालम् ।

रिपोः करालं जलजामृणालं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ।।17।।

गोपालबालं भुवनैकपालं संसारमायामतिमोहजालम् ।

यशोविशालं शिशुपालकालं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||18||

महाभारतसार में विष्णु की माया से मोहित माकण्डेय ऋषि ने प्रलयकाल के समुद्र में वटपत्रशायी बालमुकुन्दजी की स्तुति करी है। हे भगवन् कमलरूपी हाथों से चरणकमल को मुखरूपी कमल में लेकर चूसते हुए वटपत्रशायी आप बालमुकुन्द को मैं मन से स्मरण करता हूँ ।।16।।

गले में शुभ मालाधारी, भाल में तिलकधारी, मेघों के समूह से निकले हुए श्याम सुन्दररूपधारी, शत्रु को भयकारी, पद्म के तन्तु सम कोमल आप बाल मुकुन्द को मैं मन से स्मरण करता हूँ ।।17।।

गोपालबाल-स्वरूपधारी, सर्व लोकों के एक अद्वितीय पालक, अतिमोहजाल रूप संसार मायाधारी, महान् यश वाले, शिशुपाल के काल रूप आप बालमुकुन्द को मैं मन से स्मरण करता हूँ। इस प्रकार बालमुकुन्द की स्तुति करके मार्कण्डेय ऋषि प्रलयकारी समुद्र की तरंगों की व्यथा से निवृत्त होते भये ।।18।।

(देव्यो. मं. 6)

कालरात्रि ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।।19।।

देव्योपनिषद् में कहा है कि कालरात्रि देवी और ब्रह्मा से स्तुत सावित्रि देवी और लक्ष्मीजी और स्कन्द की माता पार्वती इन सबको एक अद्वैतस्वरूप मानकर नमस्कार करना उचित है ।।19।।

(शिवपु. 9 ज्ञानसंहिता. अ. 68 -श्लो. 18 )

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।

सदावसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ।।20।।

लख संख्यक शिवपुराण में कहा है कि कर्पूर के सम गौर वर्ण वाले, भक्तों पर कृपा कर अवतार धारण करने वाले, संसार में साररूप, भुजगेन्द्र महान् सर्पों का गले में हार धारण करने वाले, सदा भक्तों के हृदय में वास करने वाले ऐसे भवनाशक महादेव को पार्वती के सहित नमस्कार करता हूँ इस प्रकार महादेव का ध्यान करें ।। 20।।

(शिवपु संहिता. 4- अ. 1-श्लो. 21-22-23)

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् ।

उज्जयिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम् ।।21।।

केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम् ।

वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमी तटे ।।22।।

वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने ।

सेतुबंधे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये ।।23।।

दोहा

सोमनाथ सौराष्ट्र में, काशी में विश्वेश ।

महाकाल उज्जैन में, शिवालये घुश्मेश ।।1।।

भीमशंकरा डाकिनी, सेतुबंध रामेश ।

त्र्यम्बक गौतमी तीर पर, दारूकवन नागेश ।।2।।

मल्लिकार्जुन श्रीशैल पे, हिमगिरि पर केदार ।

चिताभूमि स्थान में, वैद्यनाथ भवहार ।।3।।

ओंकार परमेश्वर, रेवातट दोए नाम ।

द्वादश ज्योतिर्लिंग को, सदा करूँ प्रणाम ।।4।।

श्रद्धासहित जो ध्यावहीं, निशिदिनि में दो बार ।

सर्व पाप से मुक्त हो, पावे सिद्धि अपार ।।5।।

शिवपुराण में कहा है कि 1 सौराष्ट्र देश में सोमनाथ नाम के ज्योतिर्लिंग है। 2. श्रीशैल नाम पर्वत पर मल्लिकार्जुन नाम का ज्योतिर्लिंग है। 3 उज्जयिनी पुरी में महाकाल नाम का ज्योतिर्लिंग है। 4 ओंकार नामक स्थान में ओंकार-परमेश्वर यह दोनों लिंग एक ज्योतिर्लिंग रूप से माने जाते है। 5 डाकिनी स्थान में भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिंग हैं। 6 हिमालय पर्वत पर केदार नामक ज्योतिर्लिंग है। 7 काशीपुरी में विश्वेश नामक ज्योतिर्लिंग है। 8 दक्षिण गंगा गौतमी के तट पर त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिंग है। 9 चिताभूमि में वैद्यनाथ नामक ज्योतिर्लिंग है । 10 दारूका बन में नागेश नामक ज्योतिर्लिंग। 11 सेतुबन्ध स्थान में रामेश नामक ज्योतिर्लिंग है । 12 और शिवालय स्थान में घुश्मेश नामक ज्योतिर्लिंग है। इन बारह ज्योतिर्लिंगों का प्रातःकाल सायंकाल में स्मरण करने वाला सर्वपापों से मुक्त हो जाता है ।।21 ।। 22 ।। 23।।

(स्कन्द पु. खण्ड. 7-खं. 1- अ. 1 – श्लो. 3)

अमृतेनोदरस्थेन म्रियन्ते सर्वदेवताः।

कण्ठस्थितेन विषेणापि जीवति स पातु वः ।। 24।।

(यजुसं. अ. 16-मं. 41)

ओम् नमः शिवाय ।।25।।

(पञ्चब्रह्मो. मं. 24)

पञ्चाक्षरमयं शंभुं परब्रह्मस्वरूपणिम्

नकारादियकारान्तं ज्ञात्वा पञ्चाक्षरं जपेत् ।।26 ।।

(वराहो. अ. 3 मं. 13)

आदरेण यथा स्तौति धनवन्तं धनेच्छया ।

तथा चेद्विश्वकर्तारं को न मुच्येत बन्धनात् ।। 27।।

स्कन्दपुराण में कहा है कि स्वकर्मवशवर्ति सर्व देवता उदर में अमृत स्थित होने पर भी मर जाते हैं परन्तु महादेव कंठ में स्थित विष से भी जीते हैं ऐसे कल्याणरूप शिव आप ऋषियों की पालना करें ।।25।।

यजुर्वेद में ओम् नमः शिवाय यह पाँच अक्षरी मंत्र जप करना कल्याणकारी कहा है ।।25।।

पञ्चब्रह्मोपनिषद् में कहा है कि पञ्चाक्षर रूप सुखकारी शंभु परब्रह्मस्वरूप को जानकर जिसके आदि में ‘न’ और अन्त में ‘य’ है ऐसे पञ्चाक्षर मंत्र ‘ओम् नम शिवाय’ का जाप करें ।।26।।

वराहोपनिषद् में कहा है कि जैसे पुरुष धन की इच्छा से धनवाले पुरुष की आदरपूर्वक स्तुति करता है तैसे ही यदि विश्व के कर्त्ता हर्त्ता भर्त्ता ईश्वर परमात्मा की स्तुति करे तो फिर ऐसा कौन है जो संसार के बन्धनों से मुक्त न होवे अर्थात् अवश्य ही मुक्त होता है ॥27॥

(सारतारो. पा. 2-मं. 1)

ओमित्येतदक्षरं परं ब्रह्म तदेवोपासितव्यम् ।।28।।

 

(अथर्व शिखो. मं. 1)

सर्ववाच्यवस्तु प्रणवात्मकम् ।।29।।

(माण्डुकका. श्लो. 26)

प्रणवो ह्यपरं ब्रह्म प्रणवश्च परः स्मृतः ।

अपूर्वोऽनन्तरोऽबाह्योऽनपरः प्रणवोऽव्ययः ।। 30 ।।

सारतारोपनिषद् में कहा है कि ओम् यह अक्षर परब्रह्म स्वरूप है सो अवश्य ही उपासना करने योग्य है और अथर्वशिखोपनिषद् में सर्व वाच्यवस्तु ओम् स्वरूप ही कहा ।।28।।29।।

माण्डूककारिका में कहा है कि ओम् ही अपरब्रह्म है और ओम् ही सत्यज्ञान अनन्त स्वरूप परब्रह्म है। अविनाशी ओम् न पूर्वरूप है, न अन्तरूप है, न बाह्य रूप है, न अपर रूप है ऐसा प्रणव उपासनीय है ।।30।।

(योगद. पाद. 1 सू. 27-28-29)

तस्य वाचकः प्रणवः ।।31।।

तज्जपस्तदर्थभावनम् ।।32।।

ततः प्रत्यक् चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ।।33।।

योगदर्शन में कहा है कि उस ईश्वर परमात्मा का वाचक रूप नाम प्रणव है ।।31।।

सोऽअहं इस मंत्र का ओम् बनता है। सो नाम ब्रह्म का है अहं नाम जीव का है तिन दोनों की एकता का बोधक ओम् है जीव ब्रह्म की एकता का निश्चय करना ही तिस ओम् रूप प्रणव का जप है ।।32।।

पुनः पुनः विचार कर जीव ब्रह्म की एकता निश्चय रूप जप करने से प्रत्यक् आत्मचेतनस्वरूप की प्राप्ति और ज्ञानयोग के प्रतिबन्धक विघ्नों का अभाव होता है ।।33।।

(योगचुडामण्यु. मं. 88)

शुचिर्वाप्यशुचिर्वापि यो जपेत्प्रणवं सदा ।

न स लिप्यति पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।34।।

(संन्यासो. अ. 2- मं. 104)

यस्तुद्वादशसाहस्रं प्रणवं जपतेऽन्वहम् ।

तस्य द्वादशभिर्मासैः परं ब्रह्म प्रकाशते ।।35।।

योगचूड़ामण्युपनिषद् में कहा है कि पुरुष शुचि हो वा अशुचि हो जो प्रणव को सदा जपता है सो पुरुष जैसे क्रमल जल से लिपायमान नहीं होता है तैसे पापों से लिपायमान नहीं होता है ।।34।।

संन्यासोपनिषद् में कहा है कि जो संसार से विरक्त पुरुष द्वादशहजार प्रणव का जप रोज करके अन्नजल ग्रहण करता है उस वीतराग को द्वादश मास के बाद परब्रह्म ज्ञानरूप से प्रकाशित हो जाता है ।135।।

(रामोत्तरतापिन्यु. मं. 1-2-4-8)

अकाराक्षरसंभूतः सौमित्रिर्विश्वभावनः ।

उकाराक्षरसंभूतः शत्रुघस्तैजसात्मकः ।।36।।

प्राज्ञात्मकस्तु भरतो मकाराक्षरसंभवः ।

अर्धमात्रात्मको रामो ब्रह्मानन्दैकविग्रहः ।।37।।

क्षेत्रस्मिंस्तव देवेश यत्र कुत्रापि वा मृताः ।

कृमिकीटादयोऽप्याशु मुक्ताः सन्तुनचान्यथा ।।38।।

मुमूर्षोर्दक्षिणो कर्णे यस्य कस्य वा स्वयम् ।

उपदेक्ष्यसि ममन्त्रं स मुक्तो भविता शिव ।।39।।

रामोत्तरतापन्युपनिषद् में कहा है कि विश्वनामक लक्ष्मण अकार अक्षर से प्रगट हुए हैं. और तैजस नामक शत्रुघ्न उकार अक्षर से प्रगट हुए हैं और प्राज्ञ नामक भरत मकार अक्षर से प्रगट हुए हैं अर्धबिन्दु रूप आत्मा ब्रह्मानन्द एक अद्वैतस्वरूप राम है। इस प्रकार से प्रणवस्वरूप राम को ही सर्व रूप कहा है ।।36।।37।।

ऐसे ब्रह्मस्वरूप राम से शिव ने काशी में मुक्ति का क्षेत्र लगाने की प्रार्थना की तब रामचन्द्रजी ने कहा कि हे देवेश ! आपके इस काशी क्षेत्र में जहाँ कहीं भी मरे हुए कीट, सर्प आदि भी मुक्त हो जायेंगे मेरा कथन अन्यथा नहीं है ।।38।।

हे शिव ! किसी भी मरते हुए के दक्षिण कान में आप स्वयं मेरे राम नाम तारक मन्त्र का उपदेश करोगे सो ही मुक्त हो जायेंगे ।।39।।

(गोपथ ब्रा. पूर्वभा. प्र. 1-मं. 23)

ते देवा भीता आसन् क इमानसुरानपहनिष्यतीति । ते ओंर ब्रह्मणः पुत्रं

ज्येष्ठं दद्दशुस्ते तमब्रुवन् भवता मुखेनेमानसुरान् जयेमेति । स वरमवृणीत् न

मामनीरयित्वा ब्राह्मणाः ब्रह्म वदेयुर्यदि वदेयुरब्रह्म तत् स्यादिति तथेति ।।40।।

गोपथ ब्राह्मण में कहा है कि सर्वं देवता भयभीत हुए विचारते भये कि इन असुरों को कौन नष्ट करेगा। तब वे देवता ब्रह्मा के ज्येष्ठ पुत्र ॐ को देखते भये । देखकर तिन देवताओं ने ॐ को कहा कि आप द्वारा हम असुरों को जय करना चाहते हैं तब ॐ देवताओं से वर मांगता भया कि मेरे उच्चारण के बिना ब्राह्मण वेदपाठ न करें, यदि ओम् ऐसे उच्चारण न कर वेदपाठ करेंगे तब वो वेदपाठ न माना जायेगा। तब देवताओं ने स्वीकार कर लिया। ॐ ने कहा हे देवो असुरों को जय करने के लिये अमावस्या और पूर्णमासी यह दो पर्व शुभ कर्म करने में पुण्य बलवर्धक हैं। इन पुण्य कालों में यज्ञ कर असुरों को जीतोगे। इस गोपथ ब्राह्मण के प्रमाण से शुभ कर्म में ॐ पूर्व उच्चारण करा जाता है ।।40।।

(नृसिंहपूर्वतापिन्यु . उपनिषत्. 1- सं. 3)

प्रणवं यदि विजानीयात् स्री शुद्रः स मृतोऽधो गच्छति तस्मात्सर्वदा नाचष्टे

यद्याचष्टे स आचार्यस्तेनैव स मृतोऽधोगच्छति ।।41।।

नरसिंह पूर्व तापिन्युपनिषद् में कहा है कि प्रणव के अर्थ को जानकर यदि स्त्री शुद्र जप करेंगे तो वो मरकर अधोगति को जावेंगे इस कारण से आचार्य सर्वदा स्त्री शूद्र की शिक्षा न दे। यदि किसी लोभ से स्त्री शूद्र को प्रणव की शिक्षा देगा तो वह शिक्षा देने वाला आचार्य भी तिन स्त्री शूद्रों के सहित मरकर अधोगति को जावेगा ।। 41 ।।

(स्कन्द खण्ड. 6-अ. 257- श्लो. 6)

प्रणवस्याधिकारो न तवास्ति वरवर्णिनि ।

नमो भगवते वासुदेवायेति जपः सदा ।।42।।

स्कन्दपुराण में कहा है कि एक समय पार्वती ने महादेव से प्रार्थना करी कि हे प्राणनाथ मेरे को जप करने के लिए आप प्रणव की शिक्षा दें तब महादेव ने कहा हे पार्वती ! प्रणव की शिक्षा में तुम्हारा अधिकार नहीं है अस्तु आप ॐ को छोड़कर ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ इस मन्त्र को सर्वदा जपें क्योंकि स्त्री शूद्र को चातुर्मास के व्रत की दीक्षापूर्वक शुद्धि से बिना प्रणव के जप में अधिकार नहीं है और शास्त्र की विधि को छोड़कर कोई भी शुभ गति नहीं पा सकते हैं ।।42।।

(गर्भो. मं. 3-4-5)

सप्तमें मासे जीवेन संयुक्तो भवति ।

अथ नवमे मासे सर्वलक्षणज्ञानकरणसंपूर्ण भवति ।143।।

यन्मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म शुभाशुभम् ।

एकाकी तेन दह्येऽहं गतास्ते फलभोगिनः ।।44।।

अहो दुःखोदधौ मग्नो न पश्यामि प्रतिक्रियाम् ।

यदि योन्याः प्रमुच्येऽहं तत्प्रपद्ये महेश्वरम् ।।45।।

गर्भोपनिषद् में कहा है कि प्राणी कर्मों के अनुसार माता के गर्भ में शरीर बन जाने पर सातवें मास में जीव से युक्त होता है और नवमें मास में मन, बुद्धि, ज्ञान-इन्द्रियों से युक्त सम्पूर्ण हो जाता है ।। 43।।

तब माता के जठराग्नि से दग्ध होता हुआ सौ जन्मतक का ज्ञान होने से अपने पापकर्मों को यादकर रुदन करता है। अहो कष्ट है जो मैंने पुत्र स्त्री बन्धु आदि परिवार पालन के लिये बहुत से पुण्य पापकर्म करे और अपने लिये शुभकर्म न करा । तिन पापकर्मों से अब मैं अकेला ही माता के गर्भ में दग्ध हो रहा हूँ। और बन्धुजन धनरूप फल को भोगकर चले गये ।।44।।

अहो ! दुःख समुद्र में मन हुआ मैं अपने दुःख की निवृत्ति का उपाय नहीं देख सकता हूँ यदि इस गर्भयोनि से मुक्त हो जाऊँगा तो मैं महेश्वर परमात्मा की शरण को प्राप्त होऊँगाऔर अब ईश्वर से बिना दूसरों को अपना न मानूंगा। ऐसी प्रार्थना करने पर गंदे कीट के समान योनि से गिरता है ।।45।।

(अमृतनादो. मं. 34)

अशीतिश्च शतं चैव सहस्राणि त्रयोदश ।

लक्षश्चैको विनिश्वास अहररात्रप्रमाणतः ।।46।।

( योगचुडामण्यु. मं. 31)

हंस हंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ।

षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्यैकविंशति ।।47।।

अमृतनादोपनिषद् में कहा है कि संयमहीन रोगी बालक और विषयासक्त पुरुषों के श्वासों की दिन रात्रि के प्रमाण से एकलक्ष तेरह हजार एक सौ अस्सी संख्या है ।।46।।

योगचूडामणि उपनिषद् में कहा है कि हंस-हंस इस मंत्र को प्राणायाम का अभ्यासी संयमी पुरुष दिनरात्रि में श्वास प्रश्वास के साथ इक्कीस हजार छः सौ जाप सर्वदा करता है। यह स्वाभाविक होने से अजपा रूप जाप कहा है। संयमी पुरुष का श्वास ही जप रूप हो जाता है। ऐसे जप के बिना बहुत से श्वास लेना लुहार की धोंकनी के समान व्यर्थ ही है ।।47।।

(शाण्डिल्यो. अ. 1-मं. 2)

उच्चैरुच्चारणं यथोक्तफलम्। उपांशु सहस्रगुणम्। मानसं कोटिगुणम् ।।48।।

(शिवपु.संहिता. 7-उतरार्ध. अ. 12- श्ले. 126 )

उत्तमं मानसं जाप्यमुपांशु मध्यमं विदुः ।

अधमं वाचिकं प्राहुरागमार्थविशारदाः ।।49 ।।

(पद्मपु. खण्ड. 4 – अ. 87 – श्लो. 18)

महापुण्यास्ततस्तस्युः सततं कर्षकादयः ।

मन्त्रोच्चारं च सिंहादेरायासं बहुलत्वतः ।।50।।

शाण्डिल्योपनिषद् में जप तीन प्रकार का कहा है कि उच्चस्तर से जप करा हुआ यथोक्त फल को देता है और मध्यम स्वर से करा हुआ पूर्वोक्त से हजार गुणा अधिक होता है। मुख न हिलाकर मानसी जप करने से पुर्वोक्त से करोड़ गुणा अधिक फल होता है ।।48।।

शिवपुराण में कहा है कि मानसी जप उत्तम है और धीरे-धीरे स्पष्ट न बोल कर जप करना मध्यम है और दूसरों को सुना कर उच्च स्वर से वाचिक जप को शास्त्रज्ञान में कुशल विद्वान अधम कहते हैं ।।49।।

पद्मपुराण में कहा है कि यदि उच्च स्वर से बोलकर राम नाम से पुण्य होता हो तब तो कृषि करने वाले सर्वदा बैलों को चलाने में उच्च स्वर से राम बोलते हुए महापुण्य शील होने चाहिये और यदि परिश्रम से उच्चारण करना ही पुण्य रूप होवे तो मंत्र के उच्चारण से गर्जना करने में सिंह आदि का परिश्रम अधिक होने से सिंह भी धर्मात्मा सिद्ध होने चाहिये। परन्तु ऐसा होता नहीं है अस्तु दूसरे को विक्षेपकारी न होने से मानसी जप ही उत्तम कहा है ।।50।।

(लिंगपु. पूर्वार्ध. अ. 85- श्लो. 113-114)

तत्पूर्वाभिमुखं वश्यं दक्षिणं चाभिचारिकम् ।

पश्चिमं धनदं विद्यादुत्तरं शान्तिदं भवेत् ।।51।।

अङ्गुष्ठं मोक्षदं विद्यात्तर्जनी शत्रुनाशनी ।

मध्यमा धनदा शान्तिकरेत्येषा ह्यनाभिका ।।52।।

लिंगपुराण में कहा है कि पूर्व को मुखकर जप करना वशकारी है, दक्षिण को मुख कर जप करना शत्रुनाशक है, पश्चिम को मुख कर जप करना धनदायक है और उत्तर को मुखकर जप करना शान्तिप्रद है ।। 51।।

अंगुष्ठ पर माला से जप करना मोक्षप्रद जानना, तर्जनी पर माला से जाप करना शत्रुनाशक है, मध्यमा पर माला से जाप करना धनप्रद है और अनामिका पर माला से जाप करना जपकर्ता को शान्तिप्रद है ।।52।।

(रुद्राक्षजाबालो. मं. 5-6-7)

पञ्चवक्त्रं तु रुद्राक्षं पञ्च ब्रह्म स्वरूपकम् ।

पञ्चवक्त्रः स्वयं ब्रह्मपुंहत्यां च व्यपोहति ।।53।।

तज्जापाल्लभते पुण्यं नरो रुद्राक्षधारणात् ।

धात्रीफलप्रमाणं यच्छ्रेष्टमेतदुदाहृतम् ।।54।।

बदरीफलमात्रं तु मध्यमं प्रोच्यते बुधैः ।

अधमं चणमात्रं स्यात्प्रक्रियैषामथोच्यते ।।55।।

रुद्राक्षजाबालोपनिषद् में कहा है कि पच्चमुखी रुद्राक्ष सनातन पञ्च देवरूप ब्रह्मरूप है। पंचमुखी रुद्राक्ष स्वयं ब्रह्मस्वरूप होने से श्रद्धा से धारणकर्ता की पुरुषहत्या का नाशक है ।।53।।

तिस रुद्राक्ष से जप करने से धारण करने से चारों वर्णाश्रमों के पुरुष पुण्य को प्राप्त होते हैं। आंवले के फल प्रमाण रुद्राक्ष श्रेष्ठ कहा है बेर फल के प्रमाण रुद्राक्ष मध्यम कहा है और चने के प्रमाण रुद्राक्ष अधम कहा है ऐसा रुद्राक्ष का महात्म्य रुद्र भगवान् ने कहा है ।।54।।55।।

(अक्षमालिको. मं.)

ये देवादिविषदस्तेभ्यो नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु शोभायै ।

पितरोऽनुमदन्तु शोभायै ज्ञानमयीमक्षमालिकाम् ।।56।।

अक्षमालिकोपनिषद् में कहा है कि जो देवता देवलोक में स्थित हैं और पितरलोक में जो पितर स्थित हैं तिन सर्वदेवों और पितरों के प्रति हमारा नमस्कार है वे सर्व देवता और पितर अखण्ड ज्ञान रूप अक्ष माला का हमारी शोभा के लिये अनुमोदन करें, ऐसी प्रार्थना पुरुष जप करने काल में करें ।।56।।

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