उद्दालक
येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातमिति ।
कथं नु भगवः स आदेशो भवतीति ।।1।।
अब आठवें अध्याय में उद्दालकादि ऋषियों का श्वेतकेतु पुत्रादि के साथ गुरुशिष्य रूप संवाद को कहते हैं। छांदोग्योपनिषद् में कहा है कि गुरु के पास से पढ़कर आये हुए मानी श्वेतकेतु पुत्र से उद्दालक पूछते हैं कि आपने गुरु से उस ब्रह्म का स्वरूप भी सुना है • जिसके सुनने से न सुना भी सुना जाता हैं और जिस आत्मस्वरूप ब्रह्म के मनन करने से मनन करा हुआ भी सर्व मनन हो जाता है, और जिसके ज्ञान होने से अज्ञात भी ज्ञात हो जाता है। पिता की ऐसी अद्भुत् वार्ता सुनकर श्वेतकेतु निर्मान होकर पिता से पूछता हैं भो भगवन् । ऐसा उपदेश गुरु से मैंने नहीं सुना है। कृपाकर आप कहें सो उपदेश कैसा होता है ।।1।।
यथा सोम्यैकेन मृतपिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।।2।।
तब उद्दालक ने कहा कि हे सौम्य पुत्र ! जैसे एक कारणरूप मृत्तिकापिण्ड के ज्ञात होने से यावत् मृत्तिका का कार्य विकार रूप घटादि सर्व मृन्मयरूप से ज्ञात हो जाते हैं। क्योंकि कार्य को कारण से भिन्न न होने से कार्य का और कारण का भेद केवलवाणी का आरम्भ रूप विकार कथन मात्र ही है। कार्य कारण का भेद वास्तव से नहीं है नाममात्र ही है और घटादि कार्य में अनुगत कारण रूप से मृत्तिका ही सत्य है ।।2।।
सदेव सौम्येदमग्न आसीदेकमेवाद्वितीयम् ।।3।।
छांदोग्योपनिषद् में कहा है कि तैसे ही हे प्रियपुत्र । ब्रह्म का विवर्त कार्यरूप यह सत् ईश्वर अव्यक्त कारणब्रह्मस्वरूप ही था एक अद्वैतस्वरूप कारणब्रह्म से इस नाम रूप कार्यप्रपञ्च की कोई भिन्न सत्ता नहीं है ||3||
सता मोम्य तदा संपन्नो भवति ||4||
उद्दालक ने कहा दृश्यमान प्रपंच सृष्टि से हे पुत्र । तिस सुपुत्ति काल में पुरुष के पुण्य प्रभाव से अन्तः कारण को अज्ञान में लय होने से जीवपने को त्याग कर सत्य सुख स्वरूप आत्मा के साथ एक रूपता को प्राप्त हो जाता है ||4||
चौरैरिवासि पुरुषो विपने विसृष्टो रागादिभिस्तनुषु नद्धविशुद्धदृष्टिः ।
पांथैरिवैष गुरुणासि विमुक्तबन्धसद्ब्रह्म तत्त्वमसि याहि सुखं स्वधाम ||5||
स्वाराज्यसिद्धि में कहा है कि जैसे किसी धनी पुरुष का धन छीनकर चोरों ने वम्र से नेत्र बान्ध कर उसको घोर वन में छोड़ दिया तब रुदन करते को सुनकर किसी दयालु पुरुष ने नेत्रों के बन्धन खोलकर कहा कि इस निर्भय मार्ग से अपने ग्राम को चले जाओ।
तैसे ही चोरों के समान राग लोभ काम क्रोध आदि ने पुरुष के धर्मादि धन को छीनकर देह पुत्रादि रूप संसार बन में अहंता ममता रूप वस्त्रों से आत्मविचार बुद्धिरूपी नेत्र को बान्ध कर छोड़ दिया है। तब पुण्य प्रभाव से प्राप्त विद्वान् ब्रह्मवेत्ता दयालु गुरुने कहा कि सच्चिदानन्द ब्रह्म सो तुम हो। ऐसे अद्वैत उपदेश से देहादि में अहंता ममता रूप अज्ञान-बन्धन से मुक्त कर कहा कि इस निर्भय अद्वैत मार्ग से परमानन्द मोक्ष रूप निजधाम को प्राप्त हो जाओ ||5||
यथा सोम्य पुरुषं मन्धारेभ्योऽभिनद्धाक्षमानीय तं ततोऽतिजने विसृजेत्।।6।।
छांदोग्योपनिषद् में कहा है कि हे प्रिय ! जैसे किसी धनी पुरुष को गन्धार देश से नेत्र बांधकर चोरों ने लाकर उसका धन छीनकर तिसको अतिनिर्जन बन में छोड़ दिया ||6||
तस्य यथाभिनहनं प्रमुच्य प्रब्रू यादेतां दिशं गन्धारा एतां दिशै व्रजेति ।
स ग्रामाद्ग्रामं पृच्छन् पण्डितो मेधावी गन्धारानेवोपसंपद्यतैवमेवेहाचार्यवान्पुरुषो वेद तस्य ताक्देवचिरं यावन्न विमोक्ष्ये अथ संपत्स्ये ।।7।।
तब किसी दयालु पुरुष ने तिस दीन दुःखी के बन्धन को खोलकर कहा कि इस दिशा में हो गया। तैसे ही मोह अज्ञान रूप वस्त्र से बद्धज्ञानचक्षु जिज्ञासु पुरुष: प्राप्त गन्धार देश है। राजमार्ग द्वारा इस दिशा को चले जाओ। तब सो बन्धमुक्त पुरुष पण्डित तीव्र बुद्धि वाला एकग्राम से दूसरे ग्राम को पूछता हुआ सुखपूर्वक अपने गंधार देश को को पुण्य पापादि चोरों ने इस दुःखकारी देहरूप वन में छोड़ दिया।
तब उस जिज्ञासु को ब्रह्मवेत्ता आचार्य ने कृपाकर ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान का उपदेश कर मोह अज्ञान रूप बन्धनों से मुक्त कर अद्वैतमार्ग द्वारा परमानन्द निज मोक्षधाम को प्राप्त करा दिया। ऐसे ब्रह्मवेत्ता आचार्य से शिक्षित ही जिज्ञासु आत्मस्वरूप ब्रह्म को जान सकता है। विद्वान् ब्रह्मनिष्ठ आचार्य वाले पुरुष को ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत विचार में तीव्र बुद्धिवाले को अविद्या बन्धन से मुक्त को तावत् काल ही विदेहमुक्ति में देर है जब तक तीव्र प्रारब्ध के वश से देहपात नहीं होता है। भोगकर तीव्र प्रारब्ध के क्षय होने से पश्चात् विदेहमोक्ष को प्राप्त हो जाता है ।।7।।
श्रत ं ह्येव मे भगवदृशेभ्यस्तरति शोकमात्मविदिति ।
सोऽहं भगवः शोचामि तं मा भगवाञ्छोकस्य पारं तारयत्विति ।।8।।
तस्मै मृदितकषायाय तमसः पारंदर्शयति भगवानन्सनत्कुमारः ।।9।।
छांदोग्योपनिषद् में कहा है कि नारदजी ने श्रद्धा भक्ति पूर्वक ब्रह्मवित् सनत्कुमार को प्राप्त होकर कहा भो भगवन् ! मैंने निश्चित ही आप जैसे महान् भगवत् पूज्यपादों से सुना है कि ब्रह्मस्वरूप आत्मवित् पुरुष इस दुःखरूप संसारशोक को तर जाता है। और मैं केवल शास्त्रवेद मंत्रों का ही ज्ञाता हूँ। आत्मवित् नहीं हूँ इस हेतु से मैं शोक करता हूँ। है भगवन् । तिस ब्रह्मस्वरूप आत्मा के अज्ञानरूप महान शोकसागर से मेरे को आप ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान रूप नाव द्वारा पार उतारें।
रूप मल जिसके ऐसे शुद्ध नारद के लिये तिस ज्ञान वैराग्यादि द्वारा नष्ट हुए हैं राग तम अज्ञान से परे परमानन्द ब्रह्मात्मस्वरूप को भगवान् परमहंस ब्रह्मवित् सनत्कुमार दिखलाते हैं ।।9।।
यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वे वविजिज्ञासितव्य इति॥10॥
शास्त्रप्रसिद्ध जो व्यापक परब्रह्मरूप भूमा हैं सो भूमा चेतन महान्निरतिशय सुखस्वरूप है। ऐसे सुखस्वरूप सर्व व्यापी भूमा से अल्पव्यापी में सापेक्षिक सुख होने से परमानन्द नहीं हैं। परब्रह्मस्वरूप भूमा ही निश्चित निरतिशय परमानन्द स्वरूप है। सो परमानन्द स्वरूप भूमा ही मुमुक्षु को जानने की इच्छा का विषय होने से अवश्य ही ज्ञातव्य है ॥10॥
यो वै भूमा तदमृतमथ यदल्पं तन्मर्त्य स भगवः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति स्वे महिम्नि ||11||
शास्त्रप्रसिद्ध जो परमानन्द स्वरूप भूमा है सो अमृत रूप-अविनाशी है। और जो सर्वव्यापी भूमा से भिन्न अल्पव्यापी है सो निश्चित ही मरणशील विनाशी है। तब नारदजी ने पूछा हे भगवन् ! सो सर्वव्यापी परमानन्द अविनाशी रूप भूमा किस में स्थित हैं। सनत्कुमारजी कहते हैं कि सो भूमा सत्य ज्ञान आनन्द स्वरूप अपनी महिमा में ही स्थित है । तिस भूमा से भिन्न कोई धारण करने वाला नहीं है ।।11।।
मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्य उद्यास्यन् वारेऽहमस्मात्स्थानादस्मि हन्त तेऽनया कात्यायन्याऽन्तं करवाणीति ।।12।।
बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि ने अपनी भार्या मैत्रेयी से कहा है। हे मैत्रेयी ! क्या है इस दुःखरूप गृहस्थाश्रम में रहने से । अरेमैत्रेयि! मैं इस गृहस्थाश्रम स्थान से उत्कृष्ट जीवनमुक्तिसुखकारी परिव्राजक रूप चतुर्थ आश्रम में जाता हुआ तुम्हारी अनुमति लेता हूँ। और इस दूसरी कात्यायनी भार्या से तेरे को मैं भिन्न करता हूँ। और तुम दोनों को द्रव्य बांटकर अब मैं जाऊँगा ।।12।।
सा होवाच मैत्रेयी । यन्नु म इयं भगौः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात्कथं तेनामृता स्यामिति ।। अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनेति ।।13।।
पति के ऐसे वाक्य सुनकर मन्दबुद्धिवाली कात्यायनी तो चुप हो गई और विचारबुद्धिवाली मैत्रेयी कहती है। हे भगवन् ! आप क्या कहते हो, क्या मेरे को यह सर्व सागर पर्यन्त पृथिवी को धन से पूर्ण हुई को भी यदि आप बांटकर दे जाओगे तो क्या तिस धन से मैं अमृतस्वरूप मोक्ष को प्राप्त हो जाऊँगी ? यह सुन याज्ञवल्क्य ने कहा हे मैत्रेयी । पुत्र धनादि की प्राप्ति से अमृत स्वरूप मोक्ष की आशा भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि धन से तो धनी पुरुषों के समान खानपान रूप भोगों की प्राप्ति होती है ।।13।।
सा होवाच मैत्रयी यैनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्यां यदेव भगरान्वेद तदेव मे ब्रूहीति ।।14।।
ऐसा सुनकर मैत्रेयी कहती है हे स्वामिन् ! जिस धन करके मैं अमृतस्वरूप मोक्ष को न प्राप्त हो सकूँगी तो तिस धनादि से मुझे क्या करना है। ऐसे धन से मेरे को कोई प्रयोजन नहीं है। मेरे लिये तो जो आप भगवान् पूज्यपाद निश्चित अमृत स्वरूप मोक्ष को जानते हो सोई कहो तिस अमृत स्वरूप मोक्ष से दूसरा मैं सुनना नहीं चाहती हूँ ।।14।।
स होवाच न वाऽरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्म मस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति ।
न वाऽरेजायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति ॥15॥
तब याज्ञवल्क्य भार्या के ब्रह्मात्मस्वरूप जिज्ञासा के शुभ भाषण से प्रसन्न होकर मोक्ष के साधन वैराग्य को उत्पादन करते हुए कहते हैं। अरे प्रिये मैत्रेयी! प्रसिद्ध इस लोक में पति की सुखकामना के लिये पति भार्या को प्रिय नहीं होता है। स्त्री को अपनी सुख कामना के लिये पति प्रिय होता है और हे मैत्रेयी ! स्त्री की सुखकामना के लिये स्त्री पति को प्यारी नहीं होती है।
किन्तु अपनी सुखकामना के लिये पति को स्त्री प्यारी होती है। ऐसे ही सर्व धन पुत्र आदि भी प्राणियों को अपनी- अपनी कामना के लिये ही प्रिय होते हैं। धन-पुत्र स्त्री आदि अनात्म पदार्थों में गुण को लेकर प्रीति होने से अनात्म पदार्थों में गौण प्रेम हैं। और मुख्य परम प्रेम का विषय आत्मा है।।15।।
श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिद्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वारे दृष्टव्यः
आत्मा वाडरे दर्शनेन श्रवणेन मत्याविज्ञानेनद् सर्वं विदितम् ।।16।।
याज्ञवल्क्य ने कहा हे मैत्रेयी। ब्रह्मस्वरूप आत्मा का बोधक शास्त्र ही विद्वान गुरु से श्रोतव्य है। और श्रवण करे हुए आत्मा का ही युक्तियों से मनन कर्त्तव्य है। मनन करे हुए आत्मा का ही अनात्मप्रत्ययों के त्यागपूर्वक ब्रह्मस्वरूप आत्माकार प्रत्ययों का प्रवाहरूप निदिध्यासन कर्तव्य है। हे मैत्रेयी । आत्मा के श्रवण से मनन से और परिपक्व निदिध्यासन से ब्रह्मात्मस्वरूप का निश्चित ज्ञान होने से यह सर्व चराचर प्रपंच अनात्मरूप से ज्ञात हो जाता है।।16।।
येनेद सर्वं विजानाति तं कैन विजानीयाद्विज्ञातारम् ।।17।।
हे मैत्रेयी ! जिस सर्व के प्रकाशक कूटस्थ आत्मा साक्षी से यह सर्व साक्ष्य रूप प्रपंच जाना जाता है तिस सर्व के ज्ञाता को किस अन्य साधन से जान सकता है। अर्थात् सो ब्रह्मस्वरूप आत्मा ही सर्व का ज्ञाता है तिस आत्मा का कोई दूसरा ज्ञाता नहीं है। इस प्रकार ब्रह्मात्मस्वरूप को जानकर ही प्राणी अमृतरूप मोक्ष को प्राप्त होता है ।।17।।
यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदुर्यस्य
सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ॥18॥
बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है कि जो अन्तर्यामी परमात्मा सर्व भूत प्राणियों में स्थित हुआ भी विचारशील सर्व भूतप्राणियों के अन्तर में यह आत्मा है, ऐसा नहीं जाना जाता है। और विचारहीन सर्व प्राणी तो सर्वथा ही नहीं जानते हैं। और जिस सर्वव्यापी परमात्मा के सर्व भूतप्राणी शरीर हैं। जो अन्तर्यामी सर्व भूतप्राणियों के अन्तर स्थित हुआ प्रेरणा कर रहा है। सो यह शास्त्रप्रसिद्ध परमानन्द तुम्हारा आत्मा सर्व का प्रेरक मरण रहित अमृत-स्वरूप परब्रह्म है ।।18।।
स एष नेति नेत्यात्माऽगृह्यो न हि गृह्यते । तं त्वोपनिषदं पुरुषं पृच्छामि तं चेन्मे
न विवक्ष्यसि मूर्धा ते विपतिस्यतीति ।।19।।
और कहा है कि जो सर्व चराचर का अधिष्ठान परमात्मा प्रत्यग् आत्मस्वरूप है। सो नेति नेति इत्यादि श्रुतियों से सर्व माया अविद्या उपाधियों से रहित कहा गया है। और ब्रह्मस्वरूप आत्मा इन्द्रियों से ग्रहण नहीं होता है रूपादि गुणों से रहित होने से और अपक्षय वृद्धि आदि विकारों से रहित होने से सो आत्मा विशीण नहीं होता है। है शाकल्य ! तिस ब्रह्मस्वरूप आत्मा को उपनिषदों से ही जानने योग्य पुरुष परमात्मा को तुम्हारे से मैं याज्ञवल्क्य पूछता हूँ।
तिस ब्रह्मात्मस्वरूप को यदि मिथ्या ही ब्रह्मज्ञान के अभिमानी हुए तुम नहीं कहोगे तो तुम्हारा मिथ्यावादी का शिर टूट कर गिर जायेगा। तब उपनिषदों से ही जानने योग्य पुरुष परमात्मा ब्रह्म को न जानते हुए शाकल्य का शिर टूट कर भूमि पर जा पड़ा। ब्रह्मवेत्ता के साथ द्वेष करने से इस लोक और परलोक की हानि होती है।।19।।
अत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति ॥20॥
इस स्वप्न अवस्था में यह सर्वव्यापी पुरुष आत्मा ही स्वयंप्रकाश ज्योतिस्वरूप प्रकाशता है। और सूर्य चन्द्रमा आदि स्वप्न में नहीं प्रकाशते हैं ।।20।।
न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्त्यथ स्थान् रथयोगान् पथः सृजते ॥21॥
तिस स्वप्न में रथ और प्रसिद्ध रथ में जुतने के योग्य अश्व नहीं हैं और रथ के चलने योग्य वास्तव मार्ग भी नहीं हैं। किन्तु तिस स्वप्न अवस्था में रथ और रथ में जुतने योग्य घोड़े और मार्ग सर्व वासना रूप कल्पित अविद्या से नवीन रचे जाते हैं और तिनका प्रकाशक स्वयंज्योति आत्मा साक्षी है ।। 21 ।।
यद्वैतन्न पश्यति पश्यन्वै तन्न पश्यति न हि द्रष्टुर्दृष्टे र्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात् ।।22।।
तिस सुषुप्ति अवस्था में वह प्रसिद्द प्रकाशस्वरूप आत्मा अपने से भिन्न किसी भी वस्तु को नहीं देखता है। सर्व का प्रकाशक साक्षी होने से द्रष्टा हुआ भी इस सर्व दृश्यपदार्थ को सुषुप्ति में नहीं देखता है। अब नित्य ज्ञान स्वरूप में हेतु कहते हैं। कूटस्थ चेतनस्वरूप द्रष्टा की स्वरूपभूत जो ज्ञानदृष्टि तिसका कभी भी नाश नहीं होता है ज्ञानदृष्टि के अविनाशी होने से ।।22।।
एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति ॥23॥
ब्रह्मानन्द से दूसरा आनन्द न होने से इस ब्रह्मानन्द की ही कला को लेकर अन्य सर्व भूतप्राणी आनन्द वाले हुए आनन्द से जीते हैं ॥23॥
आत्मानं चेद्विजानीयाद्यमस्मीति पुरुषः ।
किमिच्छन्कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत् ॥24॥
यह परमात्मा सर्वव्यापी पुरुष मैं हूँ। ऐसे यदि गुरुकृपा से ब्रह्मस्वरूप अद्वितीय आत्मा को प्राणी जान ले तो सर्व को अपना आत्मा होने से किस भोगपदार्थ की इच्छा कर किस फल की कामना के लिये बुद्धिमान् पुरुष शरीर को संतप्त करेगा अर्थात् ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैत का ज्ञाता संतप्त नहीं होता है ॥ 24॥
तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः
नानुध्यायाद्वहूञ्छन्दान् वाचो विग्लापन हि तदिति ॥ 25॥
तिस ब्रह्मस्वरूप आत्मा को जानकर बुद्धिमान ब्रह्मवेता जीवन्मुक्ति-आनन्दकारी केवल आत्माकार शान्तबुद्धि को संपादन करे और बहुत से विक्षेपकारी शब्दजाल रूप व्याकरण शास्त्रों को प्रयोजन से अधिक न अध्ययन करे। क्योंकि ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैतबोधक वाक्यों से भिन्न जो शब्दजाल है। सो केवल वाक् इन्द्रिय को थकित ही करने वाला है ॥ 25॥
स्वप्रकाशं ध्यायेत् ॥26॥
भावनोपनिषद् में कहा है कि आत्मस्वरूप स्वप्रकाश पर ब्रह्म का सदा ध्यान करे ॥26॥
न शब्दशास्त्राभिरतस्य मोक्षो न चैव रम्यावसथप्रियस्य ।
न भोजनाच्छादनतत्परस्य न लोकचित्तग्रहणे रतस्य ॥ 27॥
आपस्तम्बस्मृति में कहा है कि ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतबोधक वेदान्तशास्त्र से अन्य व्याकरणादि शास्त्रों में ही सदा अभिरत पुरुष का मोक्ष नहीं होता है और रमणीक जन्मभूमि आदि वास स्थानों में आसक्त पुरुष का भी मोक्ष नहीं होता है। सर्वदा काल भोजन वस्त्राच्छादन आदि में तत्परायण पुरुष का भी मोक्ष नहीं होता है और जो पुरुष निजमान प्रतिष्ठा के लिये लोकों के मन को रञ्जन कर अपने वशीभूत करने में अभिरत है तिसका भी मोक्ष नहीं होता है। अर्थात् इन सर्व से विरक्त का ही मोक्ष होता है ।।27।।
न साधुना कर्मणा भूयान्नो एवासाधुना कनीयान् ।।28।।
बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है कि एक रस आत्मस्वरूप ब्रह्म शास्त्रविहित शुभ कर्मों से बढ़ता नहीं और शास्त्रनिषिद्ध कर्मों से घटता नहीं है ।।28।।
नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते ।।29।।
श्वेताश्तरोपनिषद् में कहा है कि यह सर्वगत् ब्रह्मस्वरूप आत्मा न तो स्त्री है न पुरुष है और न यह आत्मा नपुंसक है। जैसे अग्नि से ढाला हुआ सुवर्ण नाना सांचे रूप उपाधियों को प्राप्त होकर नाना आकारों वाला हो जाता है तैसे ही सो ब्रह्मस्वरूप आत्मा जिस- जिस देव मनुष्य अनुसार आदि शरीर उपाधि को प्राप्त होता है तिस-तिस शरीर के नाम – आकारों से युक्त हो जाता है ||29||
एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥ 30॥
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् ॥ 31॥
श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा है कि एक अद्वितीय प्रकाश मान, देव सर्वव्यापी सर्व भूतप्राणियों में अति सूक्ष्म होने से छिपा हुआ सर्व भूतप्राणियों के अन्तर में आत्मा स्थित है। और सर्व शुभाशुभ कर्म का द्रष्टा और सर्वभूत प्राणियों का अधिष्ठान सर्व का साक्षी चेतन केवल गुणरहित निर्विकार ब्रह्मस्वरूप आत्मा है।।30।। और चिरकाल स्थायी रूप नित्य आकाश आदि का भी त्रिकाल अबाध्य रूप ब्रह्म नित्य है। सूर्य चन्द्रादि का और चक्षुश्रोत्र इन्द्रियादि चेतनों का भी ब्रह्मस्वरूप आत्मा चेतन है। जो एक अद्वैतस्वरूप परब्रह्म सर्वव्यापी कर्म-उपासनाओं के अनुसार नाना प्राणियों को मन इच्छित फलों का विधान करते हैं सो सर्व के आत्मा परब्रह्म हैं ।।31।।
यथा ह्याग्रिः काष्ठेषु तिलेषु तैलमिव तं विदित्वा मृत्युमत्येति ।।32।।
हंसोपनिषद् में कहा है कि जैसे अग्नि प्रसिद्ध सर्व काष्ठों में अनुगत है और जैसे सर्व तिलों में तेल अनुगत है। तैसे ही सर्व चराचर प्राणियों में अनुगत तिस आत्मस्वरूप ब्रह्म को जानकर प्राणी जन्ममरण कष्टरूप मृत्यु को उलंघन कर परमानन्द स्वरूप मोक्ष को प्राप्त होता है ॥ 32॥
अक्षमा भवतः केयं साधकत्वप्रकल्पने ।
किं न पश्यसि संसारं तत्रैवाज्ञानकल्पितम् ॥33॥
चित्सुखी में सुरेश्वराचार्य की कारिका है। पूर्व पक्ष एक शुद्ध चेतन में साध्य- साध्यत्व कल्पना घटती नहीं है। उत्तर-एक अद्वय ब्रह्म में यह अल्प साध्य-साधक कल्पना करने में क्या आपको असन्तोष है। क्या आप नहीं देखते हो तिस आत्मस्वरूप ब्रह्म में माया करके कल्पित करे हुए इस दृश्यमान् सर्व प्रपंच को यदि ब्रह्म में मायाकल्पित प्रपंच की घटना हो गई तो साध्य-साधक की घटना का तो क्या आश्चर्य है ||33||
व्यवहारे यथैवाज्ञस्तथैवाखिलपण्डितः ।
वासनामात्रभेदोऽत्र कारणं बन्धमोक्षदम् ॥34॥
योगवासिष्ठ में कहा है कि व्यवहार काल में जैसे अज्ञानी खानपान आदि व्यवहार करता है तैसे ही आत्मज्ञानी और सर्वशास्त्रों का ज्ञाता पण्डित भी करता है। तिन अज्ञानी और आत्मज्ञानी दोनों में बन्ध और मोक्ष का कारण वासनामात्र का ही भेद है। क्योंकि अज्ञानी का तो रागपूर्वक मन सदा विषयाकार वासना वाला है। और आत्मज्ञानी का मन सदा विषयों में वैराग्यपूर्वक ब्रह्मस्वरूप आत्माकार वासनावाला है ये ही भेद हैं ॥34॥
योऽन्यथा संतमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा ॥ 35॥
महाभारत में कहा है कि जो पुरुष बुद्धि आदि से अन्य स्वरूप सच्चिदानन्द अकर्ता अभोक्ता हुए आत्मा को अन्य रूप विनाशी दुःखी कर्ता भोक्ता रूप से कथन करता है। तिस चोर र पुरुष आत्माघाती ने आत्मा को छिपाने वाले मिथ्या वादी ने संसार में क्या पाप नहीं करा अर्थात् सर्व ही पाप कर लिये हैं ।।34।।
प्रतर्दनो ह वै दैवोदासिरिन्द्रस्य प्रियं धामोपजगाम युद्धेन पौरुषेण च तं हेन्द्र उवाच प्रतर्दन वरं ते ददानीति सहोवाच प्रतर्दनस्त्वमेव वृणीष्व यं त्वं मनुष्याय हिततमं मन्यस इति तं होवाच सत्यं हीन्द्र मामेव विजानीह्येतदेवाहं मनुष्याय हिततमं मन्ये । त्रिशीर्षाणां त्वाष्ट्रमहनमवाङ्मुखान्यती नशालावृकेभ्यः प्रयच्छन्तस्य मे तत्र न लोमं चनमीयते ।।35।।
कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद् में कहा है कि दिवोदास का पुत्र प्रसिद्ध प्रतर्दन नाम काशी का राजा अपने युद्धबल पौरूष करके इन्द्र के प्रिय इन्द्रपुरी रूप धाम को प्राप्त हुए। प्रतर्दन के बल पौरुष से तुष्ट होकर इन्द्र ने तिसको कहा कि हे प्रतर्दन ! आप वर मांगे मैं आपके लिए वर देता हूँ । तब प्रतर्दन ने इन्द्र से कहा कि हे इन्द्रदेव । हम रजोगुणी मनुष्य अपने हिततम को नहीं जानते हैं।
जिस वर को आप अल्पबुद्धि मनुष्य के लिये हिततम कल्याणकारी मानते हो सो कहो. तब तिस प्रतर्दन से इन्द्र अतितुष्ट होकर बोले कि सच्चिदानन्द स्वरूप सर्व का आत्मा मेरे को ही जान निश्चित यह आत्मस्वरूप ब्रह्म में ही मनुष्य के लिये हिततम हूँ ऐसा मैं मानता हूँ। क्योंकि मैंने त्वष्टा के पुत्र त्रिशिरा को हनन किया है और अद्वैत ब्रह्मात्म स्वरूप के चिन्तन से रहित बहिर्मुख द्रव्य के संग्रह करने वाले सन्यासियों को काटकर श्वानों के और श्याल व्याघ्रों के लिये फेंकते हुए तिस मैं आत्माज्ञाता इन्द्र का तिन अधर्मकारियों के नाश करने से रोम मात्र भी छेदन नहीं हुआ है। ऐसा ब्रह्मात्म स्वरूप अद्वैतज्ञान का महत्व है ॥36॥
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईषते ।।37।।
और ऋग्वेद में इन्द्र ब्रह्म का ही नाम है। कहा है कि इन्द्र परमात्मा अपनी त्रिगुणात्मिका माया शक्ति रूप उपाधियों करके ही नाना रूप को प्राप्त होता है ॥ 37॥
मनसो भिद्यते वृत्तिरभिन्नेष्वपि वस्तुषु ।
अन्यथैव सुतं नारी चिन्तयत्यन्यथा पतिम् ॥38॥
शिवपुराण में कहा है कि भेदरहित वस्तुओं में भी मन की वृतियें भिन्न होती हैं। जैसे एक ही पुरुष को माता तो पुत्र भाव से चिन्तन करती हुई आलिङ्गन करती है। और भार्या उसी पुरुष को पतिभाव को प्राप्त हुए को कामदृष्टि से चिन्तन करती हुई आलिङ्गन करती है। तैसे ही एक अद्वितीय ब्रह्म स्वरूप आत्मा उपासक पुरुषों की नाना दृष्टियों से चिन्तन करा हुआ एक ही नाना रूप से माना जाता है ॥ 38॥