उषा कोन थी?
रुक्मिणीके गर्भसे उत्पन्न हुए भगवान्के प्रद्युम्न आदि पुत्रोंका वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं; सत्यभामाने भानु और भौमेरिक आदिको जन्म दिया ॥ श्रीहरिके रोहिणीके गर्भसे दीप्तिमान् और ताम्रपक्ष आदि तथा जाम्बवतीसे बलशाली साम्ब आदि पुत्र हुए ॥ नाग्नजिती (सत्या) – से महाबली भद्रविन्द आदि और शैव्या (मित्रविन्दा) – से संग्रामजित् आदि उत्पन्न हुए ॥ माद्रीसे वृक आदि, लक्ष्मणासे गात्रवान् आदि तथा कालिन्दीसे श्रुत आदि पुत्रोंका जन्म हुआ ॥ इसी प्रकार भगवान्की अन्य स्त्रियोंके भी आठ अयुत आठ हजार आठ सौ (अट्ठासी हजार आठ सौ) पुत्र हुए ॥
इन सब पुत्रोंमें रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न सबसे बड़े थे, प्रद्युम्नसे अनिरुद्धका जन्म हुआ और अनिरुद्धसे वज्र उत्पन्न हुआ ॥ महाबली अनिरुद्ध युद्धमें किसीसे रोके नहीं जा सकते थे। उन्होंने बलिकी पौत्री एवं बाणासुरकी पुत्री उषासे विवाह किया था ॥ उस विवाहमें श्रीहरि और भगवान् शंकरका घोर युद्ध हुआ था और श्रीकृष्णचन्द्रने बाणासुरकी सहस्र भुजाएँ काट डाली थीं ॥
उषाके लिये श्रीमहादेव और कृष्णका युद्ध क्यों हुआ और श्रीहरिने बाणासुरकी भुजाएँ क्यों काट डालीं ?
आप मुझसे यह सम्पूर्ण वृत्तान्त कहिये; मुझे श्रीहरिकी यह कथा सुननेका बड़ा कुतूहल हो रहा है ॥ श्रीपराशरजी बोले- हे विप्र ! एक बार बाणासुरकी पुत्री उषाने श्रीशंकरके साथ पार्वतीजीको क्रीडा करती देख स्वयं भी अपने पतिके साथ रमण करनेकी इच्छा की ॥ तब सर्वान्तर्यामिनी श्रीपार्वतीजीने उस सुकुमारीसे कहा- “तू अधिक सन्तप्त मत हो, यथासमय तू भी अपने पतिके साथ रमण करेगी” ॥ पार्वतीजीके ऐसा कहनेपर उषाने मन-ही-मन यह सोचकर कि ‘न जाने ऐसा कब होगा ? और मेरा पति भी कौन होगा ?’ [ इस सम्बन्धमें] पार्वतीजीसे पूछा, तब पार्वतीजीने उससे फिर कहा- ॥
पार्वतीजी बोलीं- हे राजपुत्रि ! वैशाख शुक्ला द्वादशीकी रात्रिको जो पुरुष स्वप्नमें तुझसे हठात् सम्भोग करेगा वही तेरा पति होगा ॥
तदनन्तर उसी तिथिको उषाकी स्वप्नावस्थामें किसी पुरुषने उससे, जैसा श्रीपार्वतीदेवीने कहा था, उसी प्रकार सम्भोग किया और उसका भी उसमें अनुराग हो गया ॥
तब उसके बाद स्वप्नसे जगनेपर जब उसने उस पुरुषको न देखा तो वह उसे देखनेके लिये अत्यन्त उत्सुक होकर अपनी सखीकी ओर लक्ष्य करके निर्लज्जतापूर्वक कहने लगी—“हे नाथ! आप कहाँ चले गये ? ” ॥
बाणासुरका मन्त्री कुम्भाण्ड था; उसकी चित्रलेखा नामकी पुत्री थी, वह उषाकी सखी थी, [उषाका यह प्रलाप सुनकर] उसने पूछा—“यह तुम किसके विषयमें कह रही हो ?” ॥ किन्तु जब लज्जावश उषाने उसे कुछ भी न बतलाया तब चित्रलेखाने [सब बात गुप्त रखनेका ] विश्वास दिलाकर उषासे सब वृत्तान्त कहला लिया ॥
चित्रलेखाके सब बात जान लेनेपर उषाने जो कुछ श्रीपार्वतीजीने कहा था, वह भी उसे सुना दिया और कहा कि अब जिस प्रकार उसका पुनः समागम हो वही उपाय करो ॥
चित्रलेखाने कहा- हे प्रिये! तुमने जिस पुरुषको देखा है उसे तो जानना भी बहुत कठिन है फिर उसे बतलाना या पाना कैसे हो सकता है ? तथापि मैं तुम्हारा कुछ-न-कुछ उपकार तो करूँगी ही ॥ तुम सात या आठ दिनतक मेरी प्रतीक्षा करना-ऐसा कहकर वह अपने घरके भीतर गयी और उस पुरुषको ढूँढनेका उपाय करने लगी ॥
तदनन्तर [ सात-आठ दिन पश्चात् लौटकर] चित्रलेखाने चित्रपटपर मुख्य-मुख्य देवता, दैत्य, गन्धर्व और मनुष्योंके चित्र लिखकर उषाको दिखलाये ॥ तब उषाने गन्धर्व, नाग, देवता और | दैत्य आदिको छोड़कर केवल मनुष्योंपर और उनमें भी विशेषतः अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंपर ही दृष्टि दी ॥ राम और कृष्णके चित्र देखकर वह सुन्दर भृकुटिवाली लज्जासे जडवत् हो गयी तथा प्रद्युम्नको देखकर उसने लज्जावश अपनी दृष्टि हटा ली ॥ तत्पश्चात् प्रद्युम्नतनय प्रियतम अनिरुद्धजीको देखते ही उस अत्यन्त विलासिनीकी लज्जा मानो कहीं चली गयी ॥ [ वह बोल उठी]- ‘वह यही है, वह यही है।’ उसके इस प्रकार कहनेपर योगगामिनी चित्रलेखाने उस बाणासुरकी कन्यासे कहा- ॥
चित्रलेखा बोली- देवीने प्रसन्न होकर यह कृष्णका पौत्र ही तेरा पति निश्चित किया है; इसका नाम अनिरुद्ध है और यह अपनी सुन्दरताके लिये प्रसिद्ध है ॥ यदि तुझको यह पति मिल गया तब तो तूने मानो सभी कुछ पा लिया; किन्तु कृष्णचन्द्रद्वारा सुरक्षित द्वारकापुरीमें पहले प्रवेश ही करना कठिन है॥ तथापि हे सखि ! किसी उपायसे मैं तेरे पतिको लाऊँगी ही, तू इस गुप्त रहस्यको किसीसे भी न कहना ॥ मैं शीघ्र ही आऊँगी, इतनी देर तू मेरे वियोगको सहन कर। अपनी सखी उषाको इस प्रकार ढाढस बँधाकर चित्रलेखा द्वारकापुरीको गयी ॥