91. ऋभु और निदाघ का पुनर्मिलन और उपदेश

ऋभु और निदाघ का पुनर्मिलन और उपदेश

ऋभु का पुनरागमन

ब्राह्मण बोले – हे नरेश्वर ! तदनन्तर सहस्र वर्ष व्यतीत होनेपर महर्षि ऋभु निदाघको ज्ञानोपदेश करनेके लिये फिर उसी नगरको गये ॥ वहाँ पहुँचनेपर उन्होंने देखा कि वहाँका राजा बहुत – सी सेना आदिके साथ बड़ी धूम – धामसे नगरमें प्रवेश कर रहा है और वनसे कुशा तथा समिध लेकर आया हुआ महाभाग निदाघ जनसमूहसे हटकर भूखा – प्यासा दूर खड़ा है ॥ निदाघको देखकर ऋभु उसके निकट गये और उसका अभिवादन करके बोले — ‘ हे द्विज ! यहाँ एकान्तमें आप कैसे खड़े हैं ‘ ॥

निदाघ बोले – हे विप्रवर ! आज इस अति रमणीक नगरमें राजा जाना चाहता है , सो मार्गमें बड़ी भीड़ हो रही है ; इसलिये मैं यहाँ खड़ा हूँ ॥ ऋभु बोले-  मालूम होता है आप यहाँकी सब बातें जानते हैं । अतः कहिये इनमें राजा कौन है ? और अन्य पुरुष कौन हैं ?

राजा और गज का पहचान

निदाघ बोले — यह जो पर्वतके समान ऊँचे मत्त गजराजपर चढ़ा हुआ है वही राजा है तथा दूसरे लोग परिजन हैं ॥ऋभु बोले- आपने राजा और गज , दोनों एक साथ ही दिखाये , किंतु इन दोनोंके पृथक् – पृथक् विशेष चिह्न अथवा लक्षण नहीं बतलाये ॥ अतः हे महाभाग ! इन दोनोंमें क्या – क्या विशेषताएँ हैं , यह बतलाइये । मैं यह जानना चाहता हूँ कि इनमें कौन राजा है और कौन गज है ?निदाघ बोले- इनमें जो नीचे है वह गज है और उसके ऊपर राजा है ।

इन दोनोंका वाह्य वाहक सम्बन्ध है- इस बातको कौन नहीं जानता ? ऋभु बोले – [ ठीक है , किन्तु ] हे ब्रह्मन् ! मुझे इस प्रकार समझाइये , जिससे मैं यह जान सकूँ कि ‘ नीचे ‘ इस शब्दका वाच्य क्या है ? और ‘ ऊपर ‘ किसे कहते हैं ॥ ब्राह्मणने कहा – ऋभुके ऐसा कहनेपर निदाघने अकस्मात् उनके ऊपर चढ़कर कहा- ” सुनिये , आपने जो पूछा है वही बतलाता हूँ — ॥ इस समय राजाकी भाँति मैं तो ऊपर हूँ और गजकी भाँति आप नीचे हैं ।आपको समझानेके लिये ही मैंने यह दृष्टान्त दिखलाया है ” ॥

ऋभु का स्वयं परिचय

ऋभु बोले- यदि आप राजाके समान हैं और मैं गजके समान हूँ तो यह बताइये कि आप कौन हैं ? और मैं कौन हूँ ?  ब्राह्मणने कहा- ऋभुके ऐसा कहनेपर निदाघने तुरन्त ही उनके दोनों चरण पकड़ लिये और कहा ‘ निश्चय ही आप आचार्यचरण महर्षि ऋभु हैं ॥ हमारे आचार्यजीके समान अद्वैत – संस्कारयुक्त चित्त और किसीका नहीं हैं ; अतः मेरा विचार है कि आप हमारे गुरुजी ही आकर उपस्थित हुए हैं ‘ ॥ ऋभु बोले- हे निदाघ ! पहले तुमने सेवा – शुश्रूषा करके मेरा बहुत आदर किया था अतः तुम्हारे स्नेहवश मैं ऋभु नामक तुम्हारा गुरु ही तुमको उपदेश देनेके लिये आया हूँ ॥

अद्वैत ज्ञान का सार

‘ समस्त पदार्थोंमें अद्वैत आत्म – बुद्धि रखना ‘ यही परमार्थका सार है जो मैंने तुम्हें संक्षेपमें उपदेश कर दिया ॥ ब्राह्मण बोले- निदाघसे ऐसा कह परम विद्वान् गुरुवर भगवान् ऋभु चले गये और उनके उपदेशसे निदाघ भी अद्वैत – चिन्तनमें तत्पर हो गया ॥ और समस्त प्राणियोंको अपनेसे अभिन्न देखने लगा हे धर्मज्ञ ! हे पृथिवीपते ! जिस प्रकार उस ब्रह्मपरायण ब्राह्मणने परम मोक्षपद प्राप्त किया , उसी प्रकार तू भी आत्मा , शत्रु और मित्रादिमें समान भाव रखकर अपनेको सर्वगत जानता हुआ मुक्ति लाभ कर ॥

जिस प्रकार एक ही आकाश श्वेत – नील आदि भेदोंवाला दिखायी देता है , उसी प्रकार भ्रान्तदृष्टियोंको एक ही आत्मा पृथक् – पृथक् दीखता है ॥ इस संसारमें जो कुछ है वह सब एक आत्मा ही है और वह अविनाशी है , उससे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ; मैं , तू और ये सब आत्मस्वरूप ही हैं । अतः भेद – ज्ञानरूप मोहको छोड़ ॥

सौवीरराज का आत्मसाक्षात्कार

 उनके ऐसा कहनेपर सौवीरराजने परमार्थदृष्टिका आश्रय लेकर भेद – बुद्धिको छोड़ दिया और वे जातिस्मर ब्राह्मणश्रेष्ठ भी बोधयुक्त होनेसे उसी जन्ममें मुक्त हो गये ॥ इस प्रकार महाराज भरतके इतिहासके इस सारभूत वृत्तान्तको जो पुरुष भक्तिपूर्व कहता या सुनता है उसकी बुद्धि निर्मल हो जाती है , उसे कभी आत्म – विस्मृति नहीं होती और वह जन्म – जन्मान्तरमें मुक्तिकी योग्यता प्राप्त कर लेता है ॥

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