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करमैतीबाई-भगवद्प्रेम की सर्वोच्चता
जिसका मन उस नन्दनन्दन श्यामवदन मोहन की माधुरी छवि पर मोहित हो जाता है, उसे जगत्के सारे रूप, जगत्के सारे सुख फीके मालूम होने लगते हैं। उनमें भी संसार का जो सुख उस प्रियतमसे अलग कराने वाला होता है, वह तो विषवत् ही प्रतीत होता है ।
भगवत्प्रेम में विषयों का स्थान
संसार के विषय यदि भगवत्प्रेम में सहायक होकर रहें, प्यारे श्याम की पूजा-सामग्री होकर रहें तो अवश्य रहें, उनके रहने में परम सुख है; क्योंकि उनसे प्रियतम के पदकमलों की पूजा सम्पन्न होती है, परंतु जो विषय प्रियतम के प्रेम में बाधक हों, उनका तो न रहना ही अभीष्ट है। इसी से भक्तगण या तो सारे संसार को भगवत्पूजा की सामग्री के रूप में रखते हैं या उसे विरोधी अनुभव कर उसका सर्वथा परित्याग कर देते हैं। विषयों की आसक्ति का परित्याग तो दोनों को ही करना पड़ता है।
कहीं विषय रहते भी हैं तो वह भोग सामग्री के रूप में नहीं रहते, भक्त जब स्वयं अपने-आप को ही प्रभू के चरणों में समर्पण कर देता है, तब उसकी अपनी कोई भोग्य वस्तु तो रह ही कहाँ जाती है ? वह भी प्यारे का और उसकी सारी चीजें भी प्यारे की ।
करमैतीबाई का परिचय
अवश्य ही जो चीज प्यारे के बनकर नहीं रहना चाहती या जिसके कारण प्यारे के प्रति आत्मसमर्पण करने में बाधा होती है, वह वस्तु सर्वथा त्याज्य समझी जाती है। हमारी करमैतीबाई ने भी यही समझकर पिता और पति गृह को त्याग कर वृन्दावन की महायात्रा की थी।
जयपुर के अन्तर्गत खण्डेला नामक एक स्थान है। वहाँ सेखावत सरदार राज्य करते थे। पण्डित परशुरामजी खण्डेला राज्य के कुलपुरोहित थे। करमैतीबाई इन्हीं भाग्यशाली परशुरामजीकी सद्गुणवती पुत्री थी। पूर्वसंस्कारवश लड़कपन से ही करमैती का मन श्यामसुन्दर में लगा हुआ था। वह निरन्तर श्रीकृष्ण के नामका जाप किया करती और एकान्तस्थल में श्रीकृष्ण का ध्यान करती हुई ‘हा नाथ! हा नाथ !!’ पुकारा करती। ध्यानमें उसके नेत्रों से आँसुओंकी धारा बहने लगती । शरीर पर पुलकावलि छा जाती प्रेमावेशमें वह कभी हँसती, कभी रोती और कभी ऊँची सुरीली आवाजसे कीर्तन करने लगती । नन्हीं-सी बालिका का सरल भगवत्प्रेम देखकर घरके और आस-पासके सभी लोग प्रसन्न होते।
विवाह और विषमता
करमैती की उम्र विवाहके योग्य हो गयी। माता-पिता सुयोग्य वरकी खोज करने लगे। परंतु करमैती को विवाह की चर्चा नहीं सुहाती। वह लज्जावश माता-पिताके सामने कुछ बोलती तो नहीं, परंतु विषयोंकी बातें उसे विषके समान प्रतीत होतीं। इच्छा न होनेपर भी पिता की इच्छा से उसका विवाह हो गया, परंतु वह तो अपने-आपको विवाह से पूर्व ही-नहीं-नहीं, पूर्वजन्म में ही भगवान् के अर्पण कर चुकी थी। भगवान् की वस्तु पर दूसरे का अधिकार होना वह कैसे सहन कर सकती थी।
वह तो इस संसार के परे दिव्य प्रेम-राज्य के अधीश्वर नित्य नवीन, चिरकुमार सौन्दर्यकी राशि श्याम वदन सच्चिदानन्द को वरण कर दिन-रात उन्हीं का चिन्तन किया करती थी। कुछ दिन तो यों ही बीते, परंतु एक दिन ससुरालवाले उसे लेनेको आ गये। उसे पता लगा कि वह जिस घरमें ब्याही गयी है, वहाँके लोग भगवान्को नहीं मानते ! वे वैष्णवों और संतोंके विरोधी हैं। वहाँ उसे अपने प्यारे ठाकुरजीकी सेवाका भी अवसर नहीं मिलेगा और अपने शरीर-मनको भी विषय-सेवामें लगाना पड़ेगा।
यह सब सोच-विचारकर वह व्याकुल हो उठी, मन-ही-मन भगवान् को स्मरण कर रोने लगी। उसने कहा, ‘नाथ ! इस विपत्तिसे तुम्हीं बचाओ। क्या यह तुम्हारी दासी आज जबरदस्ती विषयोंकी दासी बनायी जायगी ? क्या तुम इसे ऐसा कोई उपाय नहीं बतला दोगे, जिससे यह तुम्हारे व्रजधाममें पहुँचकर वहाँकी पवित्र धूलिको अपने मस्तकपर धारण कर सके।’
करमैतीबाई का निर्णय
घर में माता-पिता बेटी को ससुराल भेजने की तैयारी में लगे हैं, इधर करमैती दूसरी ही धुन में मस्त है। रात को थककर सब सो गये, परंतु करमैती तो भगवान्से उपर्युक्त प्रार्थना कर रही है। अकस्मात् उसके मन में स्फुरणा हुई कि जगत्की इस विषय- वासनामें, जो मनुष्य को सदा के लिये प्यारे भगवान्से विमुख कर देती है, रहना सर्वथा मूर्खता है। अतएव कुछ भी हो विषयों का त्याग ही मेरे लिये सर्वथा श्रेयस्कर है। ऐसा विचारकर आधी रात के समय अन्धकार और सन्नाटे को चीरती हुई करमैती निर्भय चित्त से अकेले ही घर से निकल गयी।
जो उस प्राण प्यारे के लिये मतवाले होकर निकलते हैं उन्हें किसी का भी भय नहीं रहता । आज से पूर्व करमैती कभी घर से अकेली नहीं निकली थी, परंतु आज आधी रात के समय सब कुछ भूलकर दौड़ रही है। कोई साथ नहीं है। साथ है भक्तों के चिरसखा सदा संगी भगवान् श्यामसुन्दर, जिनका एक काम ही शरणागत-आश्रित भक्तों के साथ रहकर उनकी रक्षा करना है। भक्त नाभाजी वर्णन करते हैं-
भगवत्प्रेममें मतवाली करमैती अन्धकारको भेदन करती हुई चली जा रही है। उसे यह सुधि नहीं है कि मैं कौन हूँ और कहाँ जा रही हूँ।
यात्रा और वृन्दावन की ओर प्रस्थान
वह तो दौड़ी चली जा रही है। रातभर में कितनी दूर निकल गयी, कुछ पता नहीं । प्रातः काल हो गया, पर वह तो नींद-भूख को भुलाकर उसी प्रकार दौड़ी जा रही है। उधर सबेरा होते ही करमैतीकी माताने जब बेटीको घरमें नहीं पाया तो रोती हुई अपने पति परशुरामके पास जाकर यह दुःसंवाद सुनाया। परशुराम को बड़ा दुःख हुआ, एक तो पुत्रीका स्नेह और दूसरे लोक-लाजका भय । यद्यपि वह जानता था कि मेरी बेटी विषय-विराग और भगवदनुराग के कारण ही कहीं चली गयी है तथापि गाँवके लोग न मालूम क्या-क्या कहेंगे, मेरी सती पुत्रीपर व्यर्थ कलङ्क लगेगा । इन विचारोंसे वह महान् दुःखी होकर अपने यजमान राजाके पास गया।
राजाने पुरोहितके दुःखमें सहानुभूति प्रकट करते हुए चारों और सवार दौड़ाये। दो घुड़सवार उस रास्ते भी गये, जिस रास्तेसे करमैती जा रही थी। दूरसे घोड़ोंकी टाप सुनायी दी, तब करमैतीको होश हुआ । उसने समझा हो न हो ये सवार मेरे ही पीछे आ रहे हैं, परंतु वह छिपे कहाँ ! न कहीं पहाड़ की कन्दरा है और न वृक्षका ही कोई नाम-निशान है। रेगिस्तान-सा खुला मैदान है। अन्तमें एक बुद्धि उपजी। पास ही एक मरा हुआ ऊँट पड़ा था। सियार-गिद्धोंने उसके पेटको फाड़कर मांस निकाल लिया था। पेट एक खोहकी तरह बन गया था। करमैती बेधड़क उस सड़ी दुर्गन्ध से पूर्ण ऊँटके कंकाल में जा छिपी। सवारों ने उस ओर ताका ही नहीं।
तीव्र दुर्गन्धके मारे वे तो वहाँ ठहर ही नहीं सके। करमैती के लिये तो विषयों की दुर्गन्ध इतनी असह्य हो गयी थी कि उसने उस दुर्गन्ध से बचने के लिये इस दुर्गन्ध को बहुत तुच्छ समझा या प्रेम-पागलिनी भक्त बालिका के लिये भगवत्कृपा से वह दुर्गन्ध महान् सुगन्ध के रूप में ही परिणत हो गयी। जिसकी कृपासे अग्नि शीतल और विष अमृत बन गया था, उसकी कृपासे दुर्गन्ध का सुगन्ध बन जाना कौन बड़ी बात थी। तीन दिन तक करमैती ऊँटके पेटमें प्यारे श्याम के ध्यान में पड़ी रही। चौथे दिन वहाँ से निकली। थोड़ी दूर आगे जाने पर साथ मिल गया।
यात्रा और वृन्दावन की ओर प्रस्थान
करमैती ने पहले हरिद्वार पहुँचकर भागीरथीमें स्नान किया, फिर चलते-चलते वह साँवरे की लीलाभूमि वृन्दावनमें जा पहुँची। उस जमाने में वृन्दावन केवल सच्चे विरागी वैष्णव साधुओंका ही केन्द्र था। वहाँ चारों ओरके मतवाले भगवत्प्रेमियों का ही जमघट रहाकरता था, उसीसे वह परम पवित्र था और इसीसे भक्तों की दृष्टि उसकी ओर लगी रहती थी।
वृन्दावन पहुँचकर करमैती मानो आनन्दसागर में डूब गयी। वह जंगल में ब्रह्मकुण्ड पर रहने लगी। प्रेमसिन्धु की मर्यादा टूट जानेसे उसका जीवन नित्य अपार प्रेमधारा में बहने लगा। इधर परशुराम को जब कहीं पता न लगा तो वह ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वृन्दावन पहुँचा। वृन्दावन में भी करमैती का पता कैसे लगता ? जगत्के सामने अपनी भक्ति का स्वाँग दिखानेवाली वह कोई नामी-गरामी भक्त तो थी ही नहीं, वह तो अपने प्रियतम के प्रेम में डूबी हुई अकेली जंगलमें पड़ी रहती थी।
परशुरामजी की खोज
एक दिन परशुराम ने वृक्षपर चढ़कर देखा तो ब्रह्मकुण्डपर एक वैरागिनी दिखायी दी, वह तुरंत उतरकर वहाँ दौड़ा गया। जाकर देखता है, करमैती साधु-वेषमें ध्यानमग्ना बैठी है। उसके मुखपर भजन का निर्मल शीतल तेज छिटक रहा है। आँखोंसे प्रेमके आँसुओंकी अनवरत धारा बह रही है। परशुराम पुत्री की यह दशा देखकर हर्ष – शोक में डूब गया । पुत्री की बाहरी अवस्था पर तो शोक था और उसके भगवत्प्रेम पर उसे बड़ा हर्ष था। वह अपने को ऐसी भक्तिमती देवी का पिता समझकर धन्य मान रहा था।
करमैतीबाई का आत्मसमर्पण
परशुराम को वहाँ बैठे कई घंटे हो गये। वह उसकी प्रेमदशा देख-देखकर बेसुध सा हो गया, पर करमैती नहीं जागी। आखिर परशुराम ने उसे हिलाकर होश कराया और बहुत अनुनय-विनय के साथ घर चलकर भजन करनेके लिये कहा। करमैतीने कहा- ‘पिताजी! यहाँ आकर कौन वापस गया है ? फिर मैं तो उस प्रेममयके प्रेमसागर में डूबकर अपनेको खो चुकी हूँ, जीती हुई ही मर चुकी हूँ। यह मुर्दा अब यहाँसे कैसे उठे ? आप घर जाकर मेरी मातासहित श्रीकृष्ण का भजन करें।
इसके समान सुखका साज त्रिलोकी में कहीं दूसरा नहीं है। भगवान्के गुण गाते-गाते प्रेमावेश में करमैती मूर्च्छित हो गयी। ब्राह्मण परशुरामने संसारी जीवनको धिक्कार देते हुए उसे जगाया और श्रीकृष्ण भजनकी प्रतिज्ञा करके प्रेम में रोता हुआ वहाँसे घर लौटा। घर पहुंचकर उसने गृहिणी को पुत्री के समाचार सुनाकर कहा कि ‘ब्राह्मणी ! तू धन्य है, जो तेरे पेट से ऐसी संतान पैदा हुई। आज हमारा कुल पवित्र और धन्य हो गया।’
करमैतीबाई की प्रतिष्ठा
राजा ने जब यह समाचार सुना तो वह भी करमैती के दर्शन के लिये वृन्दावन को चल दिया। राजाने वृन्दावन पहुँचकर करमैती की बड़ी ही प्रेमविभोर अवस्था देखी। राजाका मस्तक भक्तिभावसे उसके चरणोंमें आप ही झुक गया। राजाने कुटिया बना देनेके लिये बड़ी प्रार्थना की, परंतु करमैती इनकार करती रही। अन्तमें राजाके बहुत आग्रह करनेपर कुटिया बनानेमें करमैतीने कोई बाधा नहीं दी। राजाने कुटिया बनवा दी। सुनते हैं कि करमैतीको कुटियाका ध्वंसावशेष अब भी है।
अंत समय
करमैतीबाई बड़े ही त्यागभावसे रहती थी। उसका मन क्षण-क्षणमें श्रीकृष्णरूपका दर्शन कर मतवाला बना रहता था। उसकी आँखोंपर तो सदा ही वर्षा ऋतु छायी रहती थी। यो परम तप करते-करते अन्तमें इस तपस्विनी देवीने वहाँ देह त्यागकर गोलोककी शेष यात्रा की ।
FAQ’s
करमैतीबाई कौन थीं और उनका परिचय क्या है?
करमैतीबाई एक प्रसिद्ध भक्तिमती और श्रीकृष्ण की अनुयायी थीं। उन्होंने अपने जीवन को श्यामसुंदर की भक्ति में समर्पित कर दिया और परिवार और समाज के मोह-माया को त्याग कर वृन्दावन की यात्रा की।
करमैतीबाई ने क्यों परिवार और गृह को त्यागा?
करमैतीबाई ने परिवार और गृह को त्याग दिया क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि उनके प्रेम और भक्ति का पूर्ण समर्पण तभी संभव है जब वह विषयों और संसार के बंधनों से मुक्त हो जाएँ।
करमैतीबाई की यात्रा वृन्दावन की ओर कैसे शुरू हुई?
करमैतीबाई ने आधी रात को अपने घर से भागकर वृन्दावन की ओर यात्रा शुरू की। उन्होंने अपने प्यारे भगवान की भक्ति के लिए संसार की सभी बाधाओं को पार किया, जिसमें एक ऊँट के कंकाल में छिपना भी शामिल था।
करमैतीबाई की वृन्दावन यात्रा के दौरान की कठिनाइयाँ क्या थीं?
वृन्दावन की यात्रा के दौरान करमैतीबाई को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जैसे कि रेगिस्तान और दुर्गंध से भरे हुए ऊँट के कंकाल में छिपना। इसके बावजूद, उन्होंने भगवान के प्रति अपनी भक्ति और समर्पण को बनाए रखा।
करमैतीबाई के वृन्दावन पहुंचने के बाद की स्थिति क्या थी?
वृन्दावन पहुंचने के बाद, करमैतीबाई ने ब्रह्मकुण्ड में निवास किया और भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम में खो गईं। वहां उन्होंने अपार प्रेम धारा में बहना शुरू किया और अपने जीवन को भक्तिपथ पर समर्पित कर दिया।
परशुरामजी ने करमैतीबाई की खोज कैसे की?
परशुरामजी ने करमैतीबाई की खोज वृन्दावन में की, जहां उन्होंने उसे साधु-वेष में ध्यानमग्न पाया। वह अपनी पुत्री की भक्ति देखकर भावुक हो गए और घर लौटकर भगवान की भक्ति की प्रेरणा दी।
करमैतीबाई की प्रतिष्ठा और सम्मान कैसे बढ़ा?
राजा ने करमैतीबाई की भक्तिपूर्ण अवस्था देखकर उसकी सराहना की और वृन्दावन में उसके लिए एक कुटिया बनवाने का प्रस्ताव दिया। करमैतीबाई ने कुटिया स्वीकार की और राजा की श्रद्धा के कारण उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी।
करमैतीबाई का अंत समय कैसे था?
करमैतीबाई का अंत समय भक्तिपंथ में ही हुआ। उन्होंने अंततः श्रीकृष्ण के दर्शन के साथ गोलोक की यात्रा की और देह को त्याग दिया।