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108. कश्यपजी की अन्य स्त्रियोंके वंश एवं मरुद्गणकी उत्पत्तिका वर्णन

विष्णुभगवान्की विभूति

कश्यपजी ऋषि और उनके वंश का वर्णन

1. संह्लादके वंशज

 संह्लादके पुत्र आयुष्मान् शिबि और बाष्कल थे तथा प्रह्लादके पुत्र विरोचन थे और विरोचनसे बलिका जन्म हुआ ॥  बलिके सौ पुत्र थे जिनमें बाणासुर सबसे बड़ा था ।

2. हिरण्याक्षके वंशज

हिरण्याक्षके पुत्र उत्कुर , शकुनि , भूतसन्तापन , महानाभ , महाबाहु तथा कालनाभ आदि सभी महाबलवान् थे ॥

3. दनुके वंशज

( कश्यपजीकी एक दूसरी स्त्री ) दनुके पुत्र द्विमूर्धा , शम्बर , अयोमुख , शंकुशिरा , कपिल , शंकर , एकचक्र , महाबाहु , तारक , महाबल , स्वर्भानु , वृषपर्वा , महाबली पुलोम और परमपराक्रमी विप्रचित्ति थे । ये सब दनुके पुत्र विख्यात हैं ॥  स्वर्भानुकी कन्या प्रभा थी तथा शर्मिष्ठा , उपदानी और हयशिरा – ये वृषपर्वाकी परम सुन्दरी कन्याएँ विख्यात हैं ॥ 

4. वैश्वानरके वंशज

वैश्वानरकी पुलोमा और कालका दो पुत्रियाँ थीं । वे दोनों कन्याएँ मरीचिनन्दन कश्यपजीकी भार्या हुईं ॥  उनके पुत्र साठ हजार दानव – श्रेष्ठ हुए । मरीचिनन्दन कश्यपजीके वे सभी पुत्र पौलोम और कालकेय कहलाये ॥

5. विप्रचित्तिके वंशज

इनके सिवा विप्रचित्तिके सिंहिकाके गर्भसे और भी बहुत – से महाबलवान् , भयंकर और अतिक्रूर पुत्र उत्पन्न हुए ॥ वे व्यंश , शल्य , बलवान् नभ , महाबली वातापी , नमुचि , इल्वल , खसृम , अन्धक , नरक , कालनाभ , महावीर , स्वर्भानु और महादैत्य वक्त्र योधी थे ॥ ये सब दानवश्रेष्ठ दनुके वंशको बढ़ानेवाले थे । इनके और भी सैकड़ों – हजारों पुत्र – पौत्रादि हुए ॥

6. प्रह्लादजीके वंशज

महान् तपस्याद्वारा आत्मज्ञानसम्पन्न दैत्यवर प्रह्लादजीके कुलमें निवातकवच नामक दैत्य उत्पन्न हुए ॥

7. ताम्राके वंशज

कश्यपजीकी स्त्री ताम्राकी शुकी , श्येनी , भासी , सुग्रीवी , शुचि और गृद्धिका – ये छः अति प्रभावशाली कन्याएँ कही जाती हैं ॥ 

शुकीसे शुक , उलूक एवं उलूकोंके प्रतिपक्षी काक आदि उत्पन्न हुए तथा श्येनीसे श्येन ( बाज ) , भासीसे भास और गृद्धिकासे गृद्धोंका जन्म हुआ । शुचिसे जलके पक्षिगण और सुग्रीवीसे अश्व , उष्ट्र और गर्दभोंकी उत्पत्ति हुई । इस प्रकार यह ताम्राका वंश कहा जाता है ॥

8. विनताके वंशज

 विनताके गरुड और अरुण ये दो पुत्र विख्यात हैं । इनमें पक्षियोंमें श्रेष्ठ सुपर्ण ( गरुडजी ) अति भयंकर और सर्पोको खानेवाले हैं ॥ 

9. सुरसाके वंशज

हे ब्रह्मन् सुरसासे सहस्त्रों सर्प उत्पन्न हुए जो बड़े ही प्रभावशाली , आकाशमें विचरनेवाले , अनेक शिरोंवाले और बड़े विशालकाय थे ॥

10. कद्रूके वंशज

और कद्रूके पुत्र भी महाबली और अमित तेजस्वी अनेक सिरवाले सहस्त्रों सर्प ही हुए जो गरुडजीके वशवर्ती थे ॥ उनमेंसे शेष , वासुकि , तक्षक , शंखश्वेत , महापद्म , कम्बल , अश्वतर , एलापुत्र , नाग , कर्कोटक , धनंजय तथा और भी अनेक उग्र विषधर एवं काटनेवाले सर्प प्रधान हैं ॥

11. क्रोधवशाके वंशज

क्रोधवशाके पुत्र क्रोधवशगण हैं । वे सभी बड़ी – बड़ी दाढ़ोंवाले , भयंकर और कच्चा मांस खानेवाले जलचर , स्थलचर एवं पक्षिगण हैं ॥  महाबली पिशाचोंको भी क्रोधाने ही जन्म दिया है ।

12. सुरभिके वंशज

सुरभिसे गौ और महिष आदिकी उत्पत्ति हुई तथा

13. इराके वंशज

इरासे वृक्ष , लता , बेल और सब प्रकारके तृण उत्पन्न हुए हैं ॥

14. खसाके वंशज

खसाने यक्ष और राक्षसोंको ,

15. मुनिके वंशज

मुनिने अप्सराओंको तथा

16. अरिष्टाके वंशज

अरिष्टाने अति समर्थ गन्धर्वोको जन्म दिया ॥ 

ये सब स्थावर – जंगम कश्यपजीकी सन्तान हुए । इनके और भी सैकड़ों – हजारों पुत्र पौत्रादि हुए ॥

17. स्वारोचिष मन्वन्तरकी सृष्टि का वर्णन

यह स्वारोचिष – मन्वन्तरकी सृष्टिका वर्णन कहा जाता है ॥  वैवस्वत मन्वन्तरके आरम्भमें महान् वारुण यज्ञ हुआ , उसमें ब्रह्माजी होता थे , अब मैं उनकी प्रजाका वर्णन करता हूँ ॥ 

18. पूर्व मन्वन्तरके सप्तर्षिगण

पूर्व मन्वन्तरमें जो सप्तर्षिगण स्वयं ब्रह्माजीके मानसपुत्ररूपसे उत्पन्न हुए थे , उन्हींको ब्रह्माजीने इस कल्पमें गन्धर्व , नाग , देव और दानवादिके पितृरूपसे निश्चित किया ॥  पुत्रोंके नष्ट हो जानेपर दितिने कश्यपजीको प्रसन्न किया । उसकी सम्यक् आराधनासे सन्तुष्ट हो तपस्वियों में श्रेष्ठ कश्यपजीने उसे वर देकर प्रसन्न किया । उस समय उसने इन्द्रके वध करनेमें समर्थ एक अति तेजस्वी पुत्रका वर माँगा । 

19. दिति और कश्यपजीके वंशज

गुपुर वह वे मुनिश्रेष्ठ कश्यपजीने अपनी भार्या दितिको वर दिया और उस अति उग्र वरको देते हुए वे उससे बोले – ॥  “ यदि तुम भगवान्‌के ध्यानमें तत्पर रहकर अपना गर्भ शौच और संयमपूर्वक सौ वर्षतक धारण कर सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इन्द्रको मारनेवाला ” होगा ” ॥  ऐसा कहकर मुनि कश्यपजीने उस देवीसे संगमन किया और उसने बड़े शौचपूर्वक रहते हुए वह गर्भ धारण किया ॥  उस गर्भको अपने वधका कारण जान देवराज इन्द्र भी विनयपूर्वक उसकी सेवा करनेके लिये आ गये ॥

उसके शौचादिमें कभी कोई अन्तर पड़े – यही देखनेकी इच्छासे इन्द्र वहाँ हर समय उपस्थित रहते थे । अन्तमें सौ वर्षमें कुछ ही कमी रहनेपर उन्होंने एक अन्तर देख ही लिया ॥  एक दिन दिति बिना चरण – शुद्धि किये ही अपनी शय्यापर लेट गयी । उस समय निद्राने उसे घेर लिया । तब इन्द्र हाथमें वज्र लेकर उसकी कुक्षिमें घुस गये और उस महागर्भके सात टुकड़े कर डाले । इस प्रकार वज्रसे पीड़ित होनेसे वह गर्भ जोर – जोरसे रोने लगा ॥

इन्द्रने उससे पुनः – पुनः कहा कि ‘ मत रो ‘ । किन्तु जब वह गर्भ सात भागोंमें विभक्त हो गया , [ और फिर भी न मरा ] तो इन्द्रने अत्यन्त कुपित हो अपने शत्रु- विनाशक वज्रसे एक – एकके सात – सात टुकड़े और कर दिये । वे ही अति वेगवान् मरुत् नामक देवता हुए ॥  भगवान् इन्द्रने जो उससे कहा था कि ‘ मा रोदीः ‘ ( मत रो ) इसीलिये वे मरुत् कहलाये । ये उनचास मरुद्गण इन्द्रके सहायक देवता हुए ॥ 

 

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