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25. कालयवनका भस्म होना तथा मुचुकुन्दकृत भगवत्स्तुति

कालयवन

 

महर्षि गार्ग्य और यदुवंश

 एक बार महर्षि गार्ग्यसे उनके सालेने यादवोंकी गोष्ठीमें नपुंसक कह दिया। उस समय समस्त यदुवंशी हँस पड़े ॥  तब गार्ग्यने अत्यन्त कुपित हो दक्षिण-समुद्रके तटपर जा यादवसेनाको भयभीत करनेवाले पुत्रकी प्राप्तिके लिये तपस्या की ॥  उन्होंने श्रीमहादेवजीकी उपासना करते हुए केवल लोहचूर्ण भक्षण किया तब भगवान् शंकरने बारहवें वर्षमें प्रसन्न होकर उन्हें अभीष्ट वर दिया ॥

यवनराज का जन्म

एक पुत्रहीन यवनराजने महर्षि गार्ग्यकी अत्यन्त सेवाकर उन्हें सन्तुष्ट किया, उसकी स्त्रीके संगसे ही इनके एक भौंरेके समान कृष्णवर्ण बालक हुआ ॥ 

वह यवनराज उस कालयवन नामक बालकको, जिसका वक्षःस्थल वज्रके समान कठोर था, अपने राज्यपदपर अभिषिक्त कर स्वयं वनको चला गया ॥ 

कालयवन की भाग्यवान सेवा

तदनन्तर वीर्यमदोन्मत्त कालयवनने नारदजीसे पूछा कि पृथिवीपर बलवान् राजा कौन-कौनसे हैं? इसपर नारदजीने उसे यादवोंको ही सबसे अधिक बलशाली बतलाया ॥  यह सुनकर कालयवनने हजारों हाथी, घोड़े और रथोंके सहित सहस्रों करोड़ म्लेच्छसेनाको साथ ले बड़ी भारी तैयारी की ॥  और यादवोंके प्रति क्रुद्ध होकर वह प्रतिदिन [हाथी, घोड़े आदिके थक जानेपर ] उन वाहनोंका त्याग करता हुआ [ अन्य वाहनोंपर चढ़कर ] अविच्छिन्न-गतिसे मथुरापुरीपर चढ़ आया ॥

युद्ध के लिए तैयारी 

[एक ओर जरासन्धका आक्रमण और दूसरी ओर कालयवनकी चढ़ाई देखकर ] श्रीकृष्णचन्द्रने सोचा- “यवनोंके साथ युद्ध करनेसे क्षीण हुई यादव-सेना अवश्य ही मगधनरेशसे पराजित हो जायगी ॥ और यदि प्रथम मगधनरेशसे लड़ते हैं तो उससे क्षीण हुई यादवसेनाको बलवान् कालयवन नष्ट कर देगा। हाय! इस प्रकार यादवोंपर [ एक ही साथ ] यह दो तरहकी आपत्ति आ पहुँची है ॥  अतः मैं यादवोंके लिये एक ऐसा दुर्जय दुर्ग तैयार कराता हूँ जिसमें बैठकर वृष्णिश्रेष्ठ यादवोंकी तो बात ही क्या है, स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकें ॥  उस दुर्गमें रहनेपर यदि मैं मत्त, प्रमत्त (असावधान), सोया अथवा कहीं बाहर भी गया होऊँ तब भी, अधिक-से-अधिक दुष्ट शत्रुगण भी यादवोंको पराभूत न कर सकें ” ॥ 

द्वारकापुरी निर्माण

ऐसा विचारकर श्रीगोविन्दने समुद्रसे बारह योजन भूमि माँगी और उसमें द्वारकापुरी निर्माण की ॥ 

जो इन्द्रकी अमरावतीपुरीके समान महान् उद्यान, गहरी खाई, सैकड़ों सरोवर तथा अनेकों महलोंसे सुशोभित थी ॥ कालयवनके समीप आ जानेपर श्रीजनार्दन सम्पूर्ण मथुरा- निवासियोंको द्वारकामें ले आये और फिर स्वयं मथुरा लौट गये॥  जब कालयवनकी सेनाने मथुराको घेर लिया तो श्रीकृष्णचन्द्र बिना शस्त्र लिये मथुरासे बाहर निकल आये। तब यवनराज कालयवनने उन्हें देखा ॥  महायोगीश्वरोंका चित्त भी जिन्हें प्राप्त नहीं कर पाता उन्हीं वासुदेवको केवल बाहुरूप शस्त्रोंसे ही युक्त [अर्थात् खाली हाथ] देखकर वह उनके पीछे दौड़ा ॥ 

राजा मुचुकुन्द की तपस्या

कालयवनसे पीछा किये जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र उस महा गुहामें घुस गये जिसमें महावीर्यशाली राजा मुचुकुन्द सो रहा था ॥ 

उस दुर्मति यवनने भी उस गुफामें जाकर सोये हुए राजाको कृष्ण समझकर लात मारी ॥  उसके लात मारने से उठकर राजा मुचुकुन्दने उस यवनराजको देखा। उनके देखते ही वह यवन उसकी क्रोधाग्निसे जलकर भस्मीभूत हो गया ॥ 

पूर्वकालमें राजा मुचुकुन्द देवताओंकी ओरसे देवासुर संग्राममें गये थे; असुरोंको मार चुकनेपर अत्यन्त निद्रालु होनेके कारण उन्होंने देवताओंसे बहुत समयतक सोनेका वर माँगा था ॥ उस समय देवताओंने कहा था कि तुम्हारे शयन करनेपर तुम्हें जो कोई जगावेगा वह तुरन्त ही अपने शरीरसे उत्पन्न हुई अग्निसे जलकर भस्म हो जायगा ॥ 

इस प्रकार पापी कालयवनको दग्ध कर चुकनेपर राजा मुचुकुन्दने श्रीमधुसूदनको देखकर पूछा- ‘आप कौन हैं ?’ तब भगवान्ने कहा- “मैं चन्द्रवंशके अन्तर्गत यदुकुलमें वसुदेवजीके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ हूँ” ॥  तब मुचुकुन्दको वृद्ध गार्ग्य मुनिके वचनोंका स्मरण हुआ। उनका स्मरण होते ही उन्होंने सर्वरूप सर्वेश्वर श्रीहरिको प्रणाम करके कहा- “हे परमेश्वर! मैंने आपको जान लिया है; आप साक्षात् भगवान् विष्णुके अंश हैं ।।  पूर्वकालमें गार्ग्य मुनिने कहा था कि अट्ठाईसवें युगमें द्वापरके अन्तमें यदुकुलमें श्रीहरिका जन्म होगा ॥

  निस्सन्देह आप भगवान् विष्णुके अंश हैं और मनुष्योंके उपकारके लिये ही अवतीर्ण हुए हैं तथापि मैं आपके महान् तेजको सहन करनेमें समर्थ नहीं हूँ ॥  हे भगवन्! आपका शब्द सजल मेघकी घोर गर्जनाके समान अति गम्भीर है तथा आपके चरणोंसे पीडिता होकर पृथिवी झुकी हुई है॥  हे देव! देवासुर- महासंग्राममें दैत्य-सेनाके बड़े-बड़े योद्धागण भी मेरा तेज नहीं सह सके थे और मैं आपका तेज सहन नहीं कर सकता ॥ 

संसारमें पतित जीवोंके एकमात्र आप ही परम आश्रय हैं। हे शरणागतोंका दुःख दूर करनेवाले ! आप प्रसन्न होइये और मेरे अमंगलोंको नष्ट कीजिये ॥  आप ही समुद्र हैं, आप ही पर्वत हैं, आप ही नदियाँ हैं और आप ही वन तथा आप ही पृथिवी, आकाश, वायु, जल, अग्नि और मन हैं ॥  आप ही बुद्धि, अव्याकृत, प्राण और प्राणोंका अधिष्ठाता पुरुष हैं; तथा पुरुषसे भी परे जो व्यापक और जन्म तथा विकारसे शून्य तत्त्व है वह भी आप ही हैं ॥  जो शब्दादिसे रहित, अजर, अमेय, अक्षय और नाश तथा वृद्धिसे रहित है, वह आद्यन्तहीन ब्रह्म भी आप ही हैं ॥ 

आपहीसे देवता, पितृगण, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध और अप्सरागण उत्पन्न हुए हैं। आपहीसे मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप और मृग आदि हुए हैं तथा आपहीसे सम्पूर्ण वृक्ष और जो कुछ भी भूत-भविष्यत् चराचर जगत् है वह सब हुआ है॥  हे प्रभो ! मूर्त- अमूर्त, स्थूल सूक्ष्म तथा और भी जो कुछ है वह सब आप जगत्कर्ता ही हैं, आपसे भिन्न और कुछ भी नहीं है ॥ 

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की प्राप्ति

हे भगवन्! तापत्रयसे अभिभूत होकर सर्वदा इस संसार-चक्रमें भ्रमण करते हुए मुझे कभी शान्ति प्राप्त नहीं हुई ॥  हे नाथ! जलकी आशासे मृगतृष्णाके समान मैंने दुःखोंको ही सुख समझकर ग्रहण किया था; परन्तु वे मेरे सन्तापके ही कारण हुए ॥  हे प्रभो! राज्य, पृथिवी, सेना, कोश, मित्रपक्ष, पुत्रगण, स्त्री तथा सेवक आदि और शब्दादि विषय इन सबको मैंने अविनाशी तथा सुख-बुद्धिसे ही अपनाया था; किन्तु हे ईश! परिणाममें वे ही दुःखरूप सिद्ध हुए ॥ 

हे नाथ! जब देवलोक प्राप्त करके भी देवताओंको मेरी सहायताकी इच्छा हुई तो उस (स्वर्गलोक)-में भी नित्य-शान्ति कहाँ है ? ॥  हे परमेश्वर ! सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्तिके आदि-स्थान आपकी आराधना किये बिना कौन शाश्वत शान्ति प्राप्त कर सकता है ? ॥ हे प्रभो! आपकी मायासे मूढ हुए पुरुष जन्म, मृत्यु और जरा आदि सन्तापोंको भोगते हुए अन्तमें यमराजका दर्शन करते हैं ॥ 

आपके स्वरूपको न जाननेवाले पुरुष नरकोंमें पड़कर अपने कर्मोंके फलस्वरूप नाना प्रकारके दारुण क्लेश पाते हैं ॥  हे परमेश्वर ! मैं अत्यन्त विषयी हूँ और आपकी मायासे मोहित होकर ममत्वाभिमानके गड्ढेमें भटकता रहा हूँ॥  वही मैं आज अपार और अप्रमेय परमपदरूप आप परमेश्वरकी शरणमें आया हूँ जिससे भिन्न दूसरा कुछ भी नहीं है और संसारभ्रमणके खेदसे खिन्न-चित्त होकर मैं निरतिशय तेजोमय निर्वाणस्वरूप आपका ही अभिलाषी हूँ” ॥

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