कृष्ण का वृन्दावन में आगमन
एक दिन रामको बिना साथ लिये कृष्ण अकेले ही वृन्दावनको गये और वहाँ वन्य पुष्पोंकी मालाओंसे सुशोभित गोपगणसे घिरे हुए विचरने लगे ॥ घूमते-घूमते वे चंचल तरंगों से शोभित यमुनाके तटपर जा पहुँचे जो किनारॉपर फेनके इकट्ठे हो जानेसे मानो सब ओरसे हैंस रही थी ॥
कालियनाग का कुण्ड
यमुनाजी में उन्होंने विषाग्निसे सन्तप्त जलवाला कालियनागका महाभयंकर कुण्ड देखा ॥ उसकी विषाग्निके प्रसारसे किनारेके वृक्ष जल गये थे और वायुके थपेड़ोंसे उछलते हुए जलकणोंका स्पर्श होनेसे पक्षिगण दग्ध हो जाते थे ॥
भगवान् का विचार
मृत्युके अपर मुखके समान उस महाभयंकर कुण्डको देखकर भगवान् मधुसूदनने विचार किया- ॥ ‘इसमें दुष्टात्मा कालियनाग रहता है जिसका विष ही शस्त्र है और जो दुष्ट मुझ [अर्थात् मेरी विभूति गरुड] से पराजित हो समुद्रको छोड़कर भाग आया है ॥ इसने इस समुद्रगामिनी सम्पूर्ण यमुनाको दूषित कर दिया है, अब इसका जल प्यासे मनुष्यों और गौओंके भी काममें नहीं आता है ॥अतः मुझे इस नागराजका दमन करना चाहिये, जिससे व्रजवासी लोग निर्भय होकर सुखपूर्वक रह सकें ॥’इन कुमार्गगामी दुरात्माओंको शान्त करना चाहिये, इसलिये ही तो मैंने इस लोकमें अवतार लिया है ॥अतः अब मैं इस ऊँची-ऊँची शाखाओंवाले पासहीके कदम्बवृक्षपर चढ़कर वायुभक्षी नागराजके कुण्डमें कूदता हूँ’ ॥
नागकुण्ड में प्रवेश
ऐसा विचारकर भगवान् अपनी कमर कसकर वेगपूर्वक नागराजके कुण्डमें कूद पड़े ॥ उनके कूदनेसे उस महाहदने अत्यन्त क्षोभित होकर दूरस्थित वृक्षोंको भी भिगो दिया ॥
उस सर्पके विषम विषकी ज्वालासे तपे हुए जलसे भीगनेके कारण वे वृक्ष तुरन्त ही जल उठे और उनकी ज्वालाओंसे सम्पूर्ण दिशाएँ व्याप्त हो गयीं ॥
कालियनाग से सामना
तब कृष्णचन्द्रने उस नागकुण्डमें अपनी भुजाओंको ठोंका; उनका शब्द सुनते ही वह नागराज तुरंत उनके सम्मुख आ गया ॥ उसके नेत्र क्रोधसे कुछ ताम्रवर्ण हो रहे थे, मुखोंसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं और वह महाविषैले अन्य वायुभक्षी सर्पोंसे घिरा हुआ था ॥ उसके साथमें मनोहर हारोंसे भूषिता और शरीर कम्पनसे हिलते हुए कुण्डलोंकी कान्तिसे सुशोभिता सैकड़ों नागपत्नियाँ थीं ॥ तब सर्पोंने कुण्डलाकार होकर कृष्णचन्द्रको अपने शरीरसे बाँध लिया और अपने विषाग्नि-सन्तप्त मुखोंसे काटने लगे ॥
गोपगण और गोपियों का शोक
तदनन्तर गोपगण कृष्णचन्द्रको नागकुण्डमें गिरा हुआ और सर्पोंके फणोंसे पीडित होता देख व्रजमें चले आये और शोकसे व्याकुल होकर रोने लगे ॥ गोपगण बोले- आओ, आओ, देखो! यह कृष्ण कालीदहमें डूबकर मूच्छित हो गया है, देखो इसे नागराज खाये जाता है ॥ वज्रपातके समान उनके इन अमंगल वाक्योंको सुनकर गोपगण और यशोदा आदि गोपियाँ तुरंत ही कालीदहपर दौड़ आयीं ॥ ‘हाय! हाय! वे कृष्ण कहाँ गये ?’ इस प्रकार अत्यन्त व्याकुलतापूर्वक रोती हुई गोपियाँ यशोदाके साथ शीघ्रतासे गिरती-पड़ती चलीं ॥ नन्दजी तथा अन्यान्य गोपगण और अद्भुत-विक्रमशाली बलरामजी भी कृष्णदर्शनकी लालसासे शीघ्रतापूर्वक यमुना तटपर आये ॥
वहाँ आकर उन्होंने देखा कि कृष्णचन्द्र सर्पराजके चंगुलमें फँसे हुए हैं और उसने उन्हें अपने शरीरसे लपेटकर निरुपाय कर दिया है॥ हे मुनिसत्तम ! महाभागा यशोदा और नन्दगोप भी पुत्रके मुखपर टकटकी लगाकर चेष्टाशून्य हो गये ॥ अन्य गोपियोंने भी जब कृष्णचन्द्रको इस दशामें देखा तो वे शोकाकुल होकर रोने लगीं और भय तथा व्याकुलताके कारण गद्गदवाणीसे उनसे प्रीतिपूर्वक कहने लगीं ॥
अब हम सब भी यशोदाके साथ इस सर्पराजके महाकुण्डमें ही डूबी जाती हैं, अब हमें व्रजमें जाना उचित नहीं है ॥ सूर्यके बिना दिन कैसा ? चन्द्रमाके बिना रात्रि कैसी ? साँड़के बिना गौएँ क्या? ऐसे ही कृष्णके बिना व्रजमें भी क्या रखा है ?
कृष्णके बिना साथ लिये अब हम गोकुल नहीं जायँगी; क्योंकि इनके बिना वह जलहीन सरोवरके समान अत्यन्त अभव्य और असेव्य है ॥ जहाँ नीलकमलदलकी-सी आभावाले ये श्यामसुन्दर हरि नहीं हैं उस मातृ-मन्दिरसे भी प्रीति होना अत्यन्त आश्चर्य ही है ॥ अरी ! खिले हुए कमलदलके सदृश कान्तियुक्त नेत्रोंवाले श्रीहरिको देखे बिना अत्यन्त दीन हुई तुम किस प्रकार व्रजमें रह सकोगी ? ॥ जिन्होंने अपनी अत्यन्त मनोहर बोलीसे हमारे सम्पूर्ण मनोरर्थोको अपने वशीभूत कर लिया है, उन कमलनयन कृष्णचन्द्रके बिना हम नन्दजीके गोकुलको नहीं जायँगी ॥ अरी गोपियो ! देखो, सर्पराजके फणसे आवृत होकर भी श्रीकृष्णका मुख हमें देखकर मधुर मुसकानसे सुशोभित हो रहा है ॥
कालियनाग का दमन
गोपियोंके ऐसे वचन सुनकर तथा त्रासविह्वल चकितनेत्र गोपको, पुत्रके मुखपर दृष्टि लगाये अत्यन्त दीन नन्दजीको और मूर्च्छाकुल यशोदाको देखकर महाबली रोहिणीनन्दन बलरामजीने अपने संकेतमें कृष्णजीसे कहा- ॥ ” हे देवदेवेश्वर ! क्या आप अपनेको अनन्त नहीं जानते ? फिर किसलिये यह अत्यन्त मानव भाव व्यक्त कर रहे हैं ॥ पहियोंकी नाभि जिस प्रकार अर्रोका आश्रय होती है उसी प्रकार आप ही जगत्के आश्रय, कर्ता, हर्ता और रक्षक हैं तथा आप ही त्रैलोक्यस्वरूप और वेदत्रयीमय हैं॥
हे अचिन्त्यात्मन्! इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वसु, आदित्य, मरुद्गण और अश्विनीकुमार तथा समस्त योगिजन आपहीका चिन्तन करते हैं ॥ हे जगन्नाथ ! संसारके हितके लिये पृथिवीका भार उतारनेकी इच्छासे ही आपने मर्त्यलोकमें अवतार लिया है; आपका अग्रज मैं भी आपहीका अंश हूँ ॥ हे भगवन्! आपके मनुष्य-लीला करनेपर ये गोपवेषधारी समस्त देवगण भी आपकी लीलाओंका अनुकरण करते हुए आपहीके साथ रहते हैं ॥ हे शाश्वत! पहले अपने विहारार्थ देवांगनाओंको गोपीरूपसे गोकुलमें अवतीर्णकर पीछे आपने अवतार लिया है ॥
हे कृष्ण ! यहाँ अवतीर्ण होनेपर हम दोनोंके तो ये गोप और गोपियाँ ही बान्धव हैं; फिर अपने इन दुःखी बान्धवोंकी आप क्यों उपेक्षा करते हैं ॥ हे कृष्ण ! यह मनुष्यभाव और बालचापल्य तो आप बहुत दिखा चुके, अब तो शीघ्र ही इस दुष्टात्माका जिसके शस्त्र दाँत ही हैं, दमन कीजिये ” ॥
इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर, मधुर मुसकानसे अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए श्रीकृष्णचन्द्रने उछलकर अपने शरीरको सर्पके बन्धनसे छुड़ा लिया और फिर अपने दोनों हाथोंसे उसका बीचका फण झुकाकर उस नतमस्तक सर्पके ऊपर चढ़कर बड़े वेगसे नाचने लगे ॥ कृष्णचन्द्रके चरणोंकी धमकसे उसके प्राण मुखमें आ गये, वह अपने जिस मस्तकको उठाता उसीपर कूदकर भगवान् उसे झुका देते ॥ श्रीकृष्णचन्द्रजीकी भ्रान्ति (भ्रम), रेचक तथा दण्डपात नामकी [नृत्यसम्बन्धिनी] गतियोंके ताडनसे वह महासर्प मूर्छित हो गया और उसने बहुत-सा रुधिर वमन किया ॥ इस प्रकार उसके सिर और ग्रीवाओंको झुके हुए तथा मुखोंसे रुधिर बहता देख उसकी पत्नियाँ करुणासे भरकर श्रीकृष्णचन्द्रके पास आयीं ॥
हे देवदेवेश्वर ! हमने आपको पहचान लिया; आप सर्वज्ञ और सर्वश्रेष्ठ हैं, जो अचिन्त्य और परम ज्योति है आप उसीके अंश परमेश्वर हैं ॥ जिन स्वयम्भू और व्यापक प्रभुकी स्तुति करनेमें देवगण भी समर्थ नहीं हैं उन्हीं आपके स्वरूपका हम स्त्रियाँ किस प्रकार वर्णन कर सकती हैं ? ॥ पृथिवी, आकाश, जल, अग्नि और वायुस्वरूप यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका छोटे-से-छोटा अंश है, उसकी स्तुति हम किस प्रकार कर सकेंगी ॥ योगिजन जिनके नित्यस्वरूपको यत्न करनेपर भी नहीं जान पाते तथा जो परमार्थरूप अणुसे भी अणु और स्थूलसे भी स्थूल है उसे हम नमस्कार करती हैं ॥
जिनके जन्ममें विधाता और अन्तमें काल हेतु नहीं हैं तथा जिनका स्थितिकर्ता भी कोई अन्य नहीं है उन्हें सर्वदा नमस्कार करती हैं ॥ इस कालियनागके दमनमें आपको थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं है, केवल लोकरक्षा ही इसका हेतु है; अतः हमारा निवेदन सुनिये ॥ हे क्षमाशीलॉमें श्रेष्ठ ! साधु पुरुषोंको स्त्रियों तथा मूढ और दीन जन्तुऑपर सदा ही कृपा करनी चाहिये; अतः आप इस दीनका अपराध क्षमा कीजिये ॥ प्रभो ! आप सम्पूर्ण संसारके अधिष्ठान हैं और यह सर्प तो [ आपकी अपेक्षा] अत्यन्त बलहीन है। आपके चरणोंसे पीडित होकर तो यह आधे मुहूर्तमें ही अपने प्राण छोड़ देगा ॥
हे अव्यय! प्रीति समानसे और द्वेष उत्कृष्टसे देखे जाते हैं; फिर कहाँ तो यह अल्पवीर्य सर्प और कहाँ अखिलभुवनाश्रय आप? [ इसके साथ आपका द्वेष कैसा ?] ॥ अतः हे जगत्स्वामिन् । इस दीनपर दया कीजिये। हे प्रभो। अब यह नाग अपने प्राण छोड़ने ही चाहता है, कृपया हमें पतिकी भिक्षा दीजिये ॥ हे भुवनेश्वर। हे जगन्नाथ हे महापुरुष हे पूर्वज । यह नाग अब अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है, कृपया आप हमें पतिको भिक्षा दीजिये ॥ हे वेदान्तवेद्यदेवेश्वर। हे दुष्ट दैत्य दलन । अब यह नाग अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है; आप हमें पतिकी भिक्षा दीजिये ।
नागपत्नियोंके ऐसा कहनेपर थका मौदा होनेपर भी नागराज कुछ ढौंढस बाँधकर धीरे-धीरे कहने लगा “हे देवदेव! प्रसन्न होइये ॥
हे नाथ! आपका स्वाभाविक अष्टगुण विशिष्ट परम ऐश्वर्य निरतिशय है [ अर्थात् आपसे बढ़कर किसी का भी ऐश्वर्य नहीं है], अतः मैं किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा ? आप पर हैं, आप पर (मूलप्रकृति) के भी आदिकारण हैं, हे परात्मक! परकी प्रवृत्ति भी आपहीसे हुई है, अतः आप परसे भी पर हैं फिर मैं किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा ? जिनसे ब्रह्मा, रुद्र, चन्द्र, इन्द्र, मरुद्गण, अश्विनीकुमार, वसुगण और आदित्य आदि सभी उत्पन्न हुए हैं उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा ? यह सम्पूर्ण जगत् जिनके काल्पनिक अवयवका एक सूक्ष्म अवयवांशमात्र है, उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा ?
जिन सदसत् (कार्य-कारण) स्वरूपके वास्तविक रूपको ब्रह्मा आदि देवेश्वरगण भी नहीं जानते उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा ? जिनकी पूजा ब्रह्मा आदि देवगण नन्दनवनके पुष्प, गन्ध और अनुलेपन आदिसे करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ ॥ देवराज इन्द्र जिनके अवताररूपोंकी सर्वदा पूजा करते हैं तथापि यथार्थ रूपको नहीं जान पाते, उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ ? योगिगण अपनी समस्त इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींचकर जिनका ध्यानद्वारा पूजन करते हैं, उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ ॥
जिन प्रभुके स्वरूपकी चित्तमें भावना करके योगिजन भावमय पुष्प आदिसे ध्यानद्वारा उपासना करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ? हे देवेश्वर! आपकी पूजा अथवा स्तुति करनेमें मैं सर्वथा असमर्थ हूँ, मेरी चित्तवृत्ति तो केवल आपकी कृपाकी ओर ही लगी हुई है, अतः आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ हे केशव ! मेरा जिसमें जन्म हुआ है वह सर्पजाति अत्यन्त क्रूर होती है, यह मेरा जातीय स्वभाव है। हे अच्युत ! इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है ॥ इस सम्पूर्ण जगत्की रचना और संहार आप ही करते हैं। संसारकी रचनाके साथ उसके जाति, रूप और स्वभावोंको भी आप ही बनाते हैं ॥
हे ईश्वर ! आपने मुझे जाति, रूप और स्वभावसे युक्त करके जैसा बनाया है उसीके अनुसार मैंने यह चेष्टा भी की है ॥ हे देवदेव ! यदि मेरा आचरण विपरीत हो तब तो अवश्य आपके कथनानुसार मुझे दण्ड देना उचित है ॥ तथापि हे जगत्स्वामिन्! आपने मुझ अज्ञको जो दण्ड दिया है वह आपसे मिला हुआ दण्ड मेरे लिये कहीं अच्छा है, किन्तु दूसरेका वर भी अच्छा नहीं ॥ हे अच्युत! आपने मेरे पुरुषार्थ और विषको नष्ट करके मेरा भली प्रकार मानमर्दन कर दिया है। अब केवल मुझे प्राणदान दीजिये और आज्ञा कीजिये कि मैं क्या करूँ ?
हे सर्प ! अब तुझे इस यमुनाजल में नहीं रहना चाहिये। तू शीघ्र ही अपने पुत्र और परिवारके सहित समुद्रके जलमें चला जा ॥ तेरे मस्तकपर मेरे चरण-चिह्नोंको देखकर समुद्रमें रहते हुए भी सपका शत्रु गरुड तुझपर प्रहार नहीं करेगा ॥
सर्पराज कालियसे ऐसा कह भगवान् हरिने उसे छोड़ दिया और वह उन्हें प्रणाम करके समस्त प्राणियोंके देखते-देखते अपने सेवक, पुत्र, बन्धु और स्त्रियोंके सहित अपने उस कुण्डको छोड़कर समुद्रको चला गया ॥ सर्पके चले जानेपर गोपगण, लौटे हुए मृत पुरुषके समान कृष्णचन्द्रको आलिंगनकर प्रीतिपूर्वक उनके मस्तकको नेत्रजलसे भिगोने लगे ॥ कुछ अन्य गोपगण यमुनाको स्वच्छ जलवाली देख प्रसन्न होकर लीलाविहारी कृष्णचन्द्रकी विस्मितचित्तसे स्तुति करने लगे ॥ तदनन्तर अपने उत्तम चरित्रोंके कारण गोपियोंसे गीयमान और गोपोंसे प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्र व्रजमें चले आये ॥