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केशिध्वज और खाण्डिक्य कौन थे?
पूर्वकालमें धर्मध्वज जनक नामक एक राजा थे। उनके अमितध्वज और कृतध्वज नामक दो पुत्र हुए। इनमें कृतध्वज सर्वदा अध्यात्मशास्त्रमें रत रहता था ॥ कृतध्वजका पुत्र केशिध्वज नामसे विख्यात हुआ और अमितध्वजका पुत्र खाण्डिक्य जनक हुआ ॥ पृथिवीमण्डलमें खाण्डिक्य कर्म मार्गमें अत्यन्त निपुण था और केशिध्वज अध्यात्मविद्याका विशेषज्ञ था ॥ वे दोनों परस्पर एक-दूसरेको पराजित करनेकी चेष्टामें लगे रहते थे। अन्तमें, कालक्रमसे केशिध्वजने खाण्डिक्यको राज्यच्युत कर दिया ॥ राज्यभ्रष्ट होनेपर खाण्डिक्य पुरोहित और मन्त्रियोंके सहित थोड़ी-सी सामग्री लेकर दुर्गम वनोंमें चला गया ॥ केशिध्वज ज्ञाननिष्ठ था तो भी अविद्या (कर्म) द्वारा मृत्युको पार करनेके लिये ज्ञानदृष्टि रखते हुए उसने अनेकों यज्ञोंका अनुष्ठान किया ॥
केशिध्वज और खाण्डिक्यका योगसम्बन्धी संवाद किस कारणसे हुआ था ?
एक दिन जब राजा केशिध्वज यज्ञानुष्ठानमें स्थित थे उनकी धर्मधेनु (हविके लिये दूध देनेवाली गौ)-को निर्जन वनमें एक भयंकर सिंहने मार डाला ॥ व्याघ्रद्वारा गौको मारी गयी सुन राजाने ऋत्विजोंसे पूछा कि ‘इसमें क्या प्रायश्चित्त करना चाहिये ?’ ॥ ऋत्विजोंने कहा-‘हम [ इस विषयमें] नहीं जानते; आप कशेरुसे पूछिये।’ जब राजाने कशेरुसे यह बात पूछी तो उन्होंने भी उसी प्रकार कहा कि ‘हे राजेन्द्र ! मैं इस विषयमें नहीं जानता। आप भृगुपुत्र शुनकसे पूछिये, वे अवश्य जानते होंगे।
‘ हे मुने! जब राजाने शुनकसे जाकर पूछा तो उन्होंने भी जो कुछ कहा, वह सुनिये – ॥ “इस समय भूमण्डलमें इस बातको न कशेरु जानता है, न मैं जानता हूँ और न कोई और ही जानता है, केवल जिसे तुमने परास्त किया है वह तुम्हारा शत्रु खाण्डिक्य ही इस बातको जानता है” ॥ यह सुनकर केशिध्वजने कहा – ‘हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं अपने शत्रु खाण्डिक्यसे ही यह बात पूछने जाता हूँ । यदि उसने मुझे मार दिया तो भी मुझे महायज्ञका फल तो मिल ही जायगा और यदि मेरे पूछनेपर उसने मुझे सारा प्रायश्चित्त यथावत् बतला दिया तो मेरा यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण हो जायगा’ ॥
ऐसा कहकर राजा केशिध्वज कृष्ण मृगचर्म धारणकर रथपर आरूढ़ हो वनमें, जहाँ महामति खाण्डिक्य रहते थे, आये ॥ खाण्डिक्यने अपने शत्रुको आते देखकर धनुष चढ़ा लिया और क्रोधसे नेत्र लाल करके कहा- ॥
खाण्डिक्य बोले- अरे ! क्या तू कृष्णाजिनरूप कवच बाँधकर हमलोगोंको मारेगा ? क्या तू यह समझता है कि कृष्ण मृगचर्म धारण किये हुए मुझपर यह प्रहार नहीं करेगा ? ॥ हे मूढ़ ! मृगोंकी पीठपर क्या कृष्ण मृगचर्म नहीं होता, जिनपर कि मैंने और तूने दोनोंहीने तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा की है॥ अतः अब मैं तुझे अवश्य मारूँगा, तू मेरे हाथसे जीवित बचकर नहीं जा सकता। हे दुर्बुद्धे ! तू मेरा राज्य छीननेवाला शत्रु है, इसलिये आततायी है ॥
केशिध्वज बोले- हे खाण्डिक्य! मैं आपसे एक सन्देह पूछनेके लिये आया हूँ, आपको मारनेके लिये नहीं आया, इस बातको सोचकर आप मुझपर क्रोध अथवा बाण छोड़ दीजिये ॥ यह सुनकर महामति खाण्डक्यने अपने सम्पूर्ण पुरोहित और मन्त्रियोंसे एकान्तमै सलाह की ॥ मन्त्रियोंने कहा कि ‘इस समय शत्रु आपके वशमें है, इसे मार डालना चाहिये। इसको मार देनेपर यह सम्पूर्ण पृथिवी आपके अधीन हो जायगी’ ॥
खाण्डिक्यने कहा- “यह निस्सन्देह ठीक है, इसके मारे जानेपर अवश्य सम्पूर्ण पृथिवी मेरे अधीन हो जायगी; किन्तु इसे पारलौकिक जय प्राप्त होगी और मुझे सम्पूर्ण पृथिवी परन्तु यदि इसे नहीं मारूंगा तो मुझे पारलौकिक जय प्राप्त होगी और इसे सारी पृथिवी ॥ मैं पारलौकिक जयसे पृथिवीको अधिक नहीं मानता; क्योंकि परलोक-जय अनन्तकालके लिये होती है और पृथिवी तो थोड़े ही दिन रहती है। इसलिये मैं इसे मारूँगा नहीं, यह जो कुछ पूछेगा, बतला दूँगा ” ॥
तब खाण्डिक्य जनकने अपने शत्रु केशिध्वजके पास आकर कहा-‘ ‘तुम्हें जो कुछ पूछना हो पूछ लो, मैं उसका उत्तर दूँगा’ ॥
तब केशिध्वजने जिस प्रकार धर्मधेनु मारी गयी थी वह सब वृत्तान्त खाण्डिक्यसे कहा और उसके लिये प्रायश्चित्त पूछा ॥ खाण्डिक्यने भी वह सम्पूर्ण प्रायश्चित्त, जिसका कि उसके लिये विधान था, केशिध्वजको विधिपूर्वक बतला दिया ॥ तदनन्तर पूछे हुए अर्थको जान लेनेपर महात्मा खाण्डिक्यकी आज्ञा लेकर वे यज्ञभूमिमें आये और क्रमशः सम्पूर्ण कर्म समाप्त किया ॥
फिर कालक्रमसे यज्ञ समाप्त होनेपर अवभृथ (यज्ञान्त) स्नानके अनन्तर कृतकृत्य होकर राजा केशिध्वजने सोचा ॥ ” मैंने सम्पूर्ण ऋत्विज् ब्राह्मणोंका पूजन किया, समस्त सदस्योंका मान किया, याचकोंको उनकी इच्छित वस्तुएँ र्दी, लोकाचारके अनुसार जो कुछ कर्तव्य था वह सभी मैंने किया, तथापि न जाने, क्यों मेरे चित्तमें किसी क्रियाका अभाव खटक रहा है?” ॥
इस प्रकार सोचते- सोचते राजाको स्मरण हुआ कि मैंने अभीतक खाण्डिक्यको गुरु-दक्षिणा नहीं दी ॥ तब वे रथपर चढ़कर फिर उसी दुर्गम वनमें गये, जहाँ खाण्डिक्य रहते थे ॥ खाण्डिक्य भी उन्हें फिर शस्त्र धारण किये आते देख मारनेके लिये उद्यत हुए। तब राजा केशिध्वजने कहा- ॥ “खाण्डिक्य! तुम क्रोध न करो, मैं तुम्हारा कोई अनिष्ट करनेके लिये नहीं आया, बल्कि तुम्हें गुरु-दक्षिणा देनेके लिये आया हूँ-ऐसा समझो ॥
मैंने तुम्हारे उपदेशानुसार अपना यज्ञ भली प्रकार समाप्त कर दिया है, अब मैं तुम्हें गुरु-दक्षिणा देना चाहता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो” ॥ तब खाण्डिक्यने फिर अपने मन्त्रियोंसे परामर्श किया कि “यह मुझे गुरु-दक्षिणा देना चाहता है, मैं इससे क्या माँगूँ ? ” ॥ मन्त्रियोंने कहा—“आप इससे सम्पूर्ण राज्य माँग लीजिये, बुद्धिमान् लोग शत्रुओंसे अपने सैनिकोंको कष्ट दिये बिना राज्य ही माँगा करते हैं ” ॥ तब महामति राजा खाण्डिक्यने उनसे हँसते हुए कहा- “मेरे-जैसे लोग कुछ ही दिन रहनेवाला राज्यपद कैसे माँग सकते हैं ? ॥ यह ठीक है आपलोग स्वार्थ-साधनके लिये ही परामर्श देनेवाले हैं; किन्तु ‘परमार्थ क्या और कैसा है?’ इस विषयमें आपको विशेष ज्ञान नहीं है”॥
यह कहकर राजा खाण्डिक्य केशिध्वजके पास आये और उनसे कहा, ‘क्या तुम मुझे अवश्य गुरु-दक्षिणा दोगे ?’ ॥ जब केशिध्वजने कहा कि ‘मैं अवश्य दूँगा’ तो खाण्डिक्य बोले-” आप आध्यात्मज्ञानरूप परमार्थ-विद्यामें बड़े कुशल हैं ॥ सो यदि आप मुझे गुरु-दक्षिणा देना ही चाहते हैं तो जो कर्म समस्त क्लेशोंकी शान्ति करनेमें समर्थ हो वह बतलाइये ” ॥