1. क्रोध, मोह, और ज्ञान
नास्ति क्रोध समौ व्याधिर्नास्ति मोह समो रिपुः ।
नास्ति क्रोध समो वह्निर्नास्ति झान समं सुखम् ।१।
अर्थ – नास्तीति काम के समान रोग, मोह के समान शत्रु, क्रोध तुल्य अग्नि और ज्ञान के समान अन्य कोई संसार में सुख नहीं है ।
2. इन्द्रियों का प्रभाव
मातङ्गमत्स्य मधुकरपतंगसारंगकोटयोनिहताः ।
एकै केन्द्रियवशगाः किंपुनरखिलेंद्रियासक्ताः ।२।
अर्थ – मातंग इति-हाथी काम से, मत्स्य मांस से, भ्रमर सुगन्धि पर, पतंग (क्षुद्र कीड़ा) स्वरूप पर, और मृग स्वर पर मुग्ध हो जाता है यह सब जीव जब एक एक इन्द्रिय वश इन वस्तुओं पर मोहित हो जाते हैं तो सम्पूर्ण इन्द्रियों वालों की क्या गति होगी ।
3. रूप, शब्द, रस, गंध, और स्पर्श
रूपं शब्दो रसो गंधः स्पर्शश्चैते विनाशकाः ।
एते वशीकृतायैव ते विनष्टाः स्वयं जनाः ।३।
अर्थ-रूपमिति-रूप, शब्द, रस, गन्ध, और स्पर्श यह पांचों ही इन्द्रिय के विषय होने से जीवों के विघातक हैं, और जो महात्मा इन को वश कर लेते हैं उनकी कथा क्या कहीं जा सकती है |
4. नीच का संग
न स्थातव्यं न वक्तव्य ं क्षणमप्यता सह ।
पयोपि शौण्डिनी हस्ते वारुणीत्यभिधीयते |४|
अर्थ – नेति-नीच के साथ एक क्षण भर भी बोलना, बैठना उत्तम नहीं, जैसे कलालन के हाथ दूध भी मद्य सा प्रतीत होता है।
5. दुर्जन और मृदंग
अहो भवति सादृश्य’ मृदंगस्य खलस्य च ।
यावन्मुख गतः पिण्डस्तावन्मधुर भाषिणो । ५।
अर्थ – अहविति-मृदंग (एक बाजा) और दुर्जन इन की एक जैसी समानता है जब तक बोलते रहो तभी तक उत्तम प्रतीत होते हैं पीछे बुरे ही मालूम होते रहते हैं ।
6. ज्ञानी और मूर्ख
अपि सर्वविदो विराजते न वचः श्रोतरि वोधवर्जिते ।
तरुणे नारि नष्ट लोचने सफलाः कि तु कलत विभ्रमाः।६।
अर्थ – अपीति वक्ता सज्जन चाहे पूर्ण पंडित भी हो तो संमुख यदि श्रोता (सुनने) वाला मूर्ख हो तो कहना वृथा है, जैसे पुरुष के सुन्दर और युवा होने पर भी अंधापन साथ में हो तो उसके लिये उसकी स्त्री भ्रमरूप ही जानों |
7. श्रृंगार का महत्त्व
श्रृार षोडशं सम्यक् यदि कुर्याद्धि सुन्दरी ।
तथापि निष्फलं तस्या भतृ दृष्टि विनायतः | ७|
अर्थ – श्रृङ्गार इति सुन्दरी यदि सोलह श्रृङ्गार भी कर ले तो भी यदि वह पति की दृष्टि से शून्य है तो सब निष्फल ।
8. शेषनाग और अन्य सर्प
अहो बहवः सन्ति भेकभक्षण तत्पराः ।
एक एव हि शेषोऽय’ धरणी धरण क्षमः ।८।
अर्थ – अहयइति-मेंढक को खाने वाले सांप सैंकड़ों हैं किन्तु शेषनाग केवल एक ही है जो सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने फण पर उठाने की सामर्थ्य रखता है ।
9. साधु और साधुवेषधारी
उदर भरणाः सर्वे साधुवेषधरा नराः ।
लोक सागर संतारे विरलाः साधवो जनाः । ९।
अर्थ- उदरमिति-पेट को भरने वाले हजारों ही साधू मिल जाते हैं किन्तु भवसागर से पार कराने वाले सन्त जन कोई कोई ही प्राप्त होते हैं ।
10. कर्म चंडाल
सूपी पिशुनश्चैव कृतघ्नो दीघरोषण ।
वारः कर्म चंडाला जातिजातस्तु पंचमः ।१०।
अर्थ – असूयीति – ईर्षा करने वाला, निदक, कृतघ्न और क्रोधी यह तो चारों कर्म चांडाल हैं । जाति से उत्पन्न अन्य चांडाल समझने चाहिये ।
11. सर्प और दुर्जन
सर्पः क्रूरः खलः क्रूर। सर्पात्क्रू रतरः खलः ।
मंत्रौषधर्वशः सर्पाः खलः केनोपशाम्यति ।११।
अर्थ-सर्प इति-सांप और दुर्जन दोनों ही क्रूर हैं परन्तु सांप से दुष्ट पुरुष अधिक क्रूर है क्योंकि सांप के इसे हुए को मंत्र और औषधि आदि उपाय हैं किन्तु खल की कोई औषधि नहीं है ।
12. संग दोष का प्रभाव
न हि संसर्गदोषेण साधवो यान्ति विक्रियाम ।
भुजंगैर्वेष्टयमानोपि चन्दनो न विषायते ।१२।
अर्थ-संग दोष का प्रभाव सज्जनों पर नहीं होता जैसे चारों ओर से सांप से परिवेष्ठित चन्दन वृक्ष विष नहीं होता ।
13. नीच पर उपकार
उपकारोपि नीचानां प्रकोपाय न शांतये ।
पयः पानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनम् ।१३।
अर्थ – उपकार इति-नीच पर उपकार करना क्रोध का ही हेतु होता है शांति के लिए नहीं जैसे सांप को दूध पिलाना उस का विष बढ़ाना मात्र ही है ।
14. बानर का उत्तर
द्विहस्तश्च द्विपादश्च दृश्यते पुरुषाकृतिः ।
शीतवाताभिघाताय गृहं किं न करोविभो।१४।
अर्थ-द्विहस्त इति-पक्षी एक बंदर को कहता है कि है बानर तुम पुरुषों के समान दो हाथ और दो पैरों वाले होते हुए भी शीत और वायु से बचने के लिये घर क्यों नहीं बना लेते ।
सूचीमुखे दुराचारे रंडे पण्डितवादिनि ।
असमर्थी गृहारंभ समर्थो गृहभंजने ।१५।
अर्थ-सूचीमुख इति उत्तर में वह बानर बोला कि अरे सूचीमुख दुराचारी, और अपने आप को पंडित मानने वाले पक्षी ! हम अपने घर बनाने के लिये असमर्थ और तुम्हारे घर को तोड़ने में समर्थ हैं इतना कह कर उस दुष्ट कपि ने उस पक्षी का घर तोड़ दिया इन दोनों श्लोकों दृष्टांत का सम्बंध पूर्वोक्त 13 संख्या के श्लोक से है ।
15. मूर्ख को उपदेश
उपदेशो न दातव्यो यादृशे तादृशे नरे ।
चटिका कपिमूर्खेण सगृहा निगृ हा कृता ।१६।
अर्थ-उपदेश इति-ऐसे वैसे पुरुष को उपदेश नहीं करना चाहिये देखो ! मूर्ख बंदर ने घर में रहते हुए पक्षी को वे घरा बना दिया, यह भी पूर्वोक्त श्लोक 15 वें का शेषक है ।
16. गुणों से उच्चता
गुणैरुत्तु ंगतां याति न चोच्चासनसंस्थितः ।
प्रासादशिखरस्थोपि काकः किं गरुडायते ।१७।
अर्थ-गुणं रिति गुणों से ही पुरुष उच्च हो सकता न कि ऊंचे आसन पर बैठने से, जैसे महल के शिखर पर बैठ कर कौआ गरुड़ नहीं बन सकता ।
17. अस्थायी सुख
अभ्रच्छाया तृणाग्निश्च पराधीनं च यत्सुखम् ।
अज्ञानिषु च वैराग्य क्षिप्रमेव विनश्यति ।१८।
अर्थ-अभ्रच्छायेति-बादल की छाया, तिनको की आग, पराधीनता का सुख, और मूर्खों में वैराग्य बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
18. गतानुगति
गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः ।
पश्य लोकस्य मूर्खत्वंहारित’ तामूभाजनम् ॥१९॥
अर्थ – गतानुगतिक संसार में यह नियम है कि लोग एक के पीछे ही एक चलते हैं, परन्तु परमार्थी बहुत अल्प होते हैं, देखो ! जैसे लोगों की मूर्खता से ताम्र पात्र खोया गया ।
निम्न कथा उन्नीसवें श्लोक की पुष्टि है-
कथा – किसी समय किसी ब्राह्मण ने वन में अपने ताम्र के पात्र को पृथ्वी में गाड़ दिया, और उस स्थान पर एक पात्र से एक मिट्टी का शिव लिंग का चिह्न बना दिया और चला गया, पीछे जो पुरुष उस बन में से निकला उसने उस चिन्ह को शिव लिंग ही समझ उसी तरह का निशान बना दिया । निदान इस प्रकार अनेक चिन्ह वहां वैसे ही बन गये जब वह पात्र वाला ब्राह्मण आया तो उसने ऐसा देखा और बहुत घबराया कि अब मैं किस चिन्ह के नीचे अपने उस ताम्र पात्र को पा सकता हूं अन्त में वह बहुत चेष्टा कर हार गया पात्र भी प्राप्त न कर सका तो उसने समझा कि लोगों की मूर्खता से ही मेरा पात्र खो गया ।
लम्बते च फलैव क्षो लम्बते च बहुश्रुतः ।
शुष्कवृक्षश्च मूर्खश्च भज्यते न च लम्बते ।२०।
अर्थ-लम्बत इति-वृक्ष फलों के भार से नम हो जाते हैं ओर विद्वान पूर्ण विद्या प्राप्त कर नम हो जाते हैं, और शुष्क वृक्ष अथवा मूर्ख झुकते नहीं किन्तु टूट जाते हैं ।
शक्यो वारयितु’ जलेन दहनश्छत्रेण सूर्यातपो ।
नागेन्द्रो निशितांकुशेन समदौ दंडेन गोगर्दभो ।
व्याधिर्मेषज संग्रहैश्च विविधैर्मत प्रयोगैर्विषं ।
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ।२१।
अर्थ – शक्य इति–जल से अग्नि, छत्र से धूप, तीक्ष्ण अन्कुश से मतवाला हाथी, मदमत्त बैल और गधा डंडे से, औष धियों से व्याधि और अनेक प्रकार के यन्त्रों से विष निवारण कर सकते हैं और सब दूर करने के उपाय हैं परन्तु मूर्ख की संसार में कोई औषधि नहीं है ।
कलजोऽयं गुणवानिति विश्वासो नहि खलेषु कर्तव्यः ।
नन मलयचन्दनादपि समुत्थितोऽग्निर्ददृत्येव ।२२।
अर्थ – कुलजोऽयमिति यह कुलीन और गुणवान् है ऐसा समझ कर दुष्ट पर विश्वास नहीं करना चाहिए, जैसे देखो ! मलय चंदन की रगड़ से भी अग्नि उत्पन्न हो जाती है ।