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गुरुवार व्रत (बृहस्पति देव) की महिमा और कथा

गुरुवार व्रत

गुरुवार व्रत का पालन हिंदू धर्म में अति पुण्यदायक माना गया है। इस दिन पीले वस्त्र धारण करना, पीले चंदन से पूजा करना, और केले के वृक्ष का पूजन करना शुभ फलदायक होता है। इस व्रत की विधि, कथा और इसके पीछे छिपा संदेश हमारे जीवन में आध्यात्मिक संतुलन और समृद्धि लाता है।

गुरुवार व्रत की प्रमुख विधियाँ

महिलाओं को इस व्रत के करने पर कदली वृक्ष का पूजन करना चाहिए। पीली गाय के घी से बनाए गए भोजन से ही ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस दिन पुरुष बाल और दाढ़ी नहीं बनावें तथा महिलाएँ सिर भिगोकर स्नान नहीं करें। बृहस्पतिवार को जो भी स्त्री-पुरुष व्रत करें, उनको चाहिए कि वह दिन में एक ही समय भोजन करें, क्योंकि इस दिन बृहस्पतेश्वर भगवान का पूजन होता है, भोजन पीले चने की दाल का करें, परन्तु नमक नहीं खावें। पीले वस्त्र पहनें, पीले ही फलों का उपयोग करें, पीले चंदन से पूजन करें।

पूजन के बाद प्रेमपूर्वक गुरु महाराज की कथा सुनना चाहिए। इस व्रत को करने से मन की इच्छाएँ पूरी होती हैं और बृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं। धन, पुत्र, विद्या तथा मनवांछित फल की प्राप्ति होती है। परिवार को सुख-शांति मिलती है। इसलिए यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अति फलदायक है। इस व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय मन, क्रम, वचन से शुद्ध होकर जो इच्छा हो बृहस्पतिदेव की प्रार्थना करनी चाहिए। उसकी इच्छाओं को बृहस्पति देव अवश्य पूर्ण करते हैं, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।

राजा और रानी की कथा

एक समय की बात है, भारत में एक नृपति राजा राज्य करता था, वह बड़ा ही प्रतापी और दानी था। वह नित्य प्रतिदिन मंदिर में दर्शन करने जाता था तथा ब्राह्मण और गुरु की सेवा किया करता था। उसके द्वार से कोई निराश होकर नहीं लौटता तथा वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन करता था। हर दिन गरीबों की सहायता करता था, किन्तु ये सब बातें रानी को अच्छी नहीं लगतीं, वह न व्रत करती और न किसी को एक दमड़ी दान में देती थी तथा राजा से भी ऐसा करने को मना करती थी।

एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन गए हुए थे, घर पर रानी और दासी थी, उस समय गुरु भगवान एक साधु का रूप धारण कर राजा के द्वार पर भिक्षा माँगने गए। तब रानी कहने लगी “हे साधु महाराजा राजस दान-पुण्य से तंग आ गई हूँ। मेरे से घर का कार्य तो समाप्त नहीं होता, इस कार्य के लिए तो मेरे पतिदेव ही बहुत हैं। अब आप ऐसी कृपा करें कि यह सब धन नष्ट हो जाए तथा मैं आराम से रह सकूँ।

” साधु बोले “हे देवी! तुम तो बड़ी विचित्र हो, संतान और धन से कोई दुःखी होता है, इसको सभी चाहते हैं, पापी भी पुत्र और धन की इच्छा करता है। अगर आपके पास धन अधिक है, तो भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, धर्मशाला, तालाब, कुआँ, बावड़ी, बाग- बगीचे आदि का निर्माण कराओ, निर्धन मनुष्यों की कुंवारी कन्याओं का ब्याह कराओ और अनेकों यज्ञादि धर्म करो। इस प्रकार के कर्मों से आपके कुल और आपका नाम परलोक में सार्थक होगा एवं स्वर्ग की प्राप्ति होगी।”

मगर रानी इन बातों से खुश न हुई। वह बोली- “हे साधु महाराज! मुझे ऐसे धन की भी आवश्यकता नहीं, जिसको और मनुष्यों को दान दूँ तथा जिसको रखने-उठाने में मेरा सारा समय बराबर हो जाए।” साधु ने कहा- “”हे देवी! तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो ऐसा ही होगा। मैं तुम्हें बताता हूँ वैसा ही करना। बृहस्पतिवार के दिन घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से कहना वह हजामत करवाये, भोजन में मांस-मदिरा खाना, कपड़े धोबी के यहाँ धुलने डालना। इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा सब धन नष्ट हो जाएगा।” ऐसा कहकर साधु वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गए।

रानी ने साधु के कहे अनुसार वैसा ही किया। तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसका सारा धन नष्ट हो गया और भोजन के लिए दोनों समय तरसने लगे। सांसारिक भोगों से दुःखी रहने लगे। तब राजा ने रानी से कहा कि- “तुम यहाँ रहो मैं दूसरे देश जाता हूँ, क्योंकि यहाँ पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं। इसलिए कोई कार्य नहीं कर सकता, देश चोरी परदेश भीख बराबर है।” ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया। वो वहाँ जंगल से लकड़ी काटकर लाता, शहर में बेचता।

इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा। इधर राजा के घर रानी और दासी दुःखी रहने लगीं। किसी दिन भोजन मिलता और किसी दिन पानी पीकर ही रह जातीं। एक समय रानी और दासी के सात दिन बिना भोजन के बीत गए, तो रानी ने दासी से कहा- “हे दासी! यहाँ से पास के नगर में मेरी बहिन रहती है। वह बड़ी धनवान है, तू उसके पास जा और पाँच सेर बेझर माँग ला, जिससे कुछ समय के लिए गुजर हो जाएगी।” इस प्रकार रानी की आज्ञा मानकर दासी उसकी बहिन के पास गई।

रानी की बहिन उस समय पूजन कर रही थी, क्योंकि उस रोज बृहस्पतिवार था, जब दासी रानी की बहिन से बोली- “हे रानी! मुझको तुम्हारी बहिन ने भेजा है, पाँच सेर बेझर दे दो।” इस प्रकार अनेक बार कहा-परन्तु रानी ने कुछ उत्तर न दिया, क्योंकि वह उस समय बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी। इस प्रकार जब दासी को कोई उत्तर नहीं मिला, तो वह बहुत दुःखी हुई एवं क्रोध भी आया और लौटकर रानी के पास आकर बोली- “हे रानी! तुम्हारी बहन तो बड़ी अभिमानी है, वह छोटे मनुष्यों से बात भी नहीं करती, जब मैंने उससे कहा तो उसने कोई उत्तर नहीं दिया, इसलिए मैं वापस चली आई।

” रानी बोली- “हे दासी! इसमें उसका कोई दोष नही है, जब बुरे दिन आते हैं, तो कोई सहारा नहीं देता, अच्छे-बुरे का पता आपत्ति में ही लगता है, जो ईश्वर – की इच्छा होगी, वही होगा, यह सब हमारे भाग्य का दोष है।” उधर, उस रानी ने सोचा मेरी बहिन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली।इससे वह बहुत दुःखी हुई होगी, यह सोच कथा सुन विष्णु भगवान का पूजन समाप्त कर वह बहिन के घर चल दी और जाकर अपनी बहिन से बोली- “हे बहिन! तुम्हारी दासी आई, तब मैं बृहस्पति की कथा सुन रही थी और जब तक कथा होती है, न उठते हैं न बोलते हैं, इसलिए मैं न बोली। कहो – दासी क्यों आई थी।

” रानी बोली- “बहिन! हमारे अनाज नहीं था, वैसे तुमसे – कोई बात छुपी नहीं है, इसलिए मैंने दासी को पाँच सेर बेझर लेने भेजा था।” – रानी बोली- “देखो बृहस्पतिवार देव सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं, देखो शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो।” इस प्रकार जब रानी ने सुना तो वो – घर के अन्दर गई, वहाँ उसे एक घड़ा बेझर का भरा मिला, जिससे रानी और दासी बहुत खुश हुईं, तब दासी कहने लगा- “हे रानी! वैसे हमको अन्न नहीं मिलता है, तो हम रोज ही व्रत करते हैं, अगर इनसे व्रत की विधि और कथा पूछ ली जाए, तो उसे हम भी किया करें।

” तब रानी ने अपनी बहिन को बताया कि “हे बहिन ! बृहस्पतिवार के व्रत की कथा क्यों तथा यह व्रत कैसा करना चाहिए?” रानी की बहिन ने कह- “गुरु के व्रत में चने की दाल, मनुक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें व कहानी सुने तथा पीला भोजन करें। इस प्रकार करने से गुरु भगवान प्रसन्न होते हैं, अन्न, पुत्र, धन देते हैं व मनोकामना पूर्ण करते हैं।” इस प्रकार रानी व दासी ने निश्चय किया कि बृहस्पति भगवान का पूजन जरूर करेंगे। सात रोज बाद जब बृहस्पतिवार आया, तो उन्होंने व्रत रखा और घुड़साल से जाकर चना, गुड़ बीन लाई तथा इसकी दाल से केले की जड़ में विष्णु भगवान का पूजन किया।

अब पीला भोजन कहाँ से आवे, सोचकर बेचारी बड़ी दुःखी हुई, परन्तु उन्होंने व्रत किया था, इसलिए गुरु भगवान प्रसन्न थे, दो थाल में पीला भोजन लेकर आए और दासी को देखकर बोले- “हे दासी! यह तुम्हारे और रानी के लिए है, तुम दोनों करना।” दासी भोजन पाकर प्रसन्न हुई और रानी से बोली-“चलो रानीजी भोजन कर लो।

” रानी को इस विषय में कुछ पता नहीं था, इसलिए वह बोली- “तू ही भोजन कर, तू क्यो व्यर्थ में हमारी हँसी उड़ाती है।” दासी बोली- “एक महात्मा दे गए है।” रानी कहने लगी- “वह भोजन तेरे लिए दे गये हैं हैं तू कर।” दासी ने कहा- “वह महात्मा हम दोनो के लिए दो थाली में भोजन दे गये है, इसलिए हम दोनों साथ-साथ भोजन करेंगी।

” इस प्रकार दोनों ने गुरु भगवान को नमस्कार कर भोजन किया तथा अब वे प्रत्येक बृहस्पति को गुरु भगवान का व्रत व विष्णु पूजन करने लगी। बृहस्पति भगवान की कृपा से दोनों के पास फिर धन हो गया, रानी फिर उसी प्रकार आलस्य करने लगी, तो दासी बोली- “देखो रानी, तुम पहले भी इसी तरह आलस्य करती थीं, बड़ी मुसीबतों के बाद हमने धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगाओ, ब्राह्मणों को दान दो, कुआँ, तालाब, बावड़ी, मंदिर, पाठशाला आदि का निर्माण करवाओ, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओ, धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े, स्वर्ग प्राप्त हो और पित्तर प्रसन्न हों।”

जब रानी ने इसी प्रकार कर्म करने आरंभ किए, तो काफी यश फैलने लगा। एक दिन रानी व दासी विचार करने लगी। राजा न जाने किस प्रकार होंगे। उनकी कोई खबर नहीं। गुरु भगवान से उन्होंने प्रार्थना की तो चगवान ने राजा को स्वप्न में कहा-“हे राजा! उठ तेरी रानी तुझको याद करती है अपने देश को जा।” राजा प्रातः उठा और सोचने लगा स्त्री जाति खाने और पहनने की संगीनी होती है, पर भगवान की आज्ञा मानकर वो अपने और के लिए रवाना हुआ।

इससे पूर्व जब राजा परदेस आया तो दुःखी रहने लगा, प्रतिदिन जंगल से लकड़ी लाता और उन्हें शहर में बेचकर अपना जीवन व्यतीत करता। एक दिन राजा अपनी पुरानी बातों को याद कर दुःखी हो रोन लगा। तब बृहस्पतिदेव एक साधु का रूप धारण कर आए। राजा के पास आकर बोले- “हे लकड़हारे! तुम इस जंगल में किस चिंता में डूबे हो, मुझको बताओ।” यह सुन राजा की आँखों में आँसू भर आए और माधु को वंदना कर बोला- “हे प्रभु! आप सब कुछ जानने वाले हो।” इतना कह साधु को अपनी सारी कहानी बतला दी।

महात्मा दयालु होते हैं, उससे बोले- “हे राजा! तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति देव का अपमान किया था, इस कारण तुम्हारी यह दशा हुई, अब तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो। भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगे, देखो तुम्हारी स्त्री ने भी गुरुवार का व्रत आरंभ किया है। अब तुम मेरा कहाँ मानो बृहस्पतिवार को व्रत करके चने की दाल, गुड़ जल के लोटे में डालकर केले की जड़ में पूजन करो, कथा कहो और सुनो, भगवान तुम्हारी सब मनोकामनाएँ पूर्ण करेंगे।”

साधु को देख राजा बोला- “हे प्रभु! लकड़ियाँ बेचकर मुझे इतना पैसा नहीं मिलता, जिससे भोजन करने के बाद कुछ बचा सकूँ, मैंने रात्रि को अपनी रानी को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं, जिससे उसकी खबर मँगा सकूँ और कौन-सी कहानी कहूँ, यह भी मुझे मालूम नहीं।” साधु ने कहा- “हे राजा! तुम किसी बात की चिंता मत करो, बृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियाँ लेकर शहर जाओ, तुमको रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा, जिससे तुम भली-भाँति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जाएगा और बृहस्पतिदेव की कहानी इस प्रकार से है।”

कहानी

प्राचीन काल में एक ब्राह्मण था, वह बहुत निर्धन था, उसके कोई संतान नहीं थी। उसकी स्त्री बहुत मलीनता से रहती थी। वह न स्नान करती न किसी देवता का पूजन करती। प्रातः उठते ही सर्वप्रथम भोजन करती, बाद में कोई अन्य कार्य करती थी। इससे ब्राह्मण बड़ा दुःखी था, वा कुछ कहता किन्तु उसका कोई परिणाम न निकलता। भगवान की कृपा से ब्राह्मण की स्त्री को कन्या रूपी रत्न पैदा हुआ, वह कन्या अपने पिता के घर बड़ी होने लगी।

वह बालिका प्रातः स्नान करके विष्णु भगवान का जाय करती, बृहस्पतिवार का व्रत करती, पूजा पाठ समाप्त करके, वह स्कूल जाती, तो मुड्डी में जौ भर के ले जाती व पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। जब वे जौ स्वर्ण के हो जाते, तो लौटते समय घर ले आती थी। एक दिन वह सूप में सोने के जौ फटककर साफ कर रही थी, उसके पिता ने देख लिया और कहा- “हे बेटी! सोने के जौ को फटकने के लिए सोने का सूप होना चाहिए।” दूसरे दिन गुरुवार था, कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पतिदेव से प्रार्थना की, कि-“हे प्रभो! मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की हो, तो मेरे लिए सोने का सूप दे दो।

” बृहस्पति देव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली. रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई जाने लगी, जब लौट कर जौ बीन रही थी, बृहस्पति देव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आई और उससे वह जौ साफ करने लगी, परन्तु उसकी माँ का वही हाल रहा। एक दिन वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी, उसी समय उस शहर का राजपुत्र वहाँ से निकला। वह इस कन्या के रूप और कार्य को देख मोहित हो गया तथा महल में आकर भोजन तथा जल त्याग कर उदास होकर लेट गया।

राजा को जब पता लगा तो वह अपने मंत्रियों के साथ उसके पास आकर बोले- “हे बेटा! तुम्हें किस बात का कष्ट है, किसी ने अपमान किया है या और कोई कारण हो, तो कहो, मैं वही कार्य करूँगा, जिससे तुम्हे प्रसन्नता हो।” अपने पिता की बात सुनकर राजकुमार बोला- “हे पिताजी! मुझे आपकी कृपा से किसी बात का दुःख नहीं है, ना ही किसी ने मेरा अपमान किया, लेकिन मैं उस लड़की से विवाह करना चाहता हूँ, जो सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी।” यह सुन राजा आश्चर्य में पड़ गया और बोला- “बेटा ऐसी कन्या का पता तुम ही लगाओ, मैं उसके साथ तेरा विवाह अवश्य कर दूँगा।

” राजकुमार ने उस लड़की के घर का पता बताया, तब मंत्री उस लड़की के घर गए और ब्राह्मण देवता को सब हाल बतलाया। ब्राह्मण देवता राजकुमार के साथ अपनी कन्या का विवाह करने के लिए तैयार हो गए, तब विधि-विधान के अनुसार ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया।

कन्या के घर से जाते ही ब्राह्मण के घर पहले की भाँति गरीबी का निवास हो गया। अब तो भोजन के लिए अन्न भी बड़ी मुश्किल से मिलता। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्मण देवता अपनी पुत्री के पास गए। पुत्री ने पिता की दुःखी हालत को देखा और माँ का हाल पूछा, तब ब्राह्मण ने सभी हाल कहा। पुत्री ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा किया, इस तरह कुछ समय ब्राह्मण का सुख से गुजरा, लेकिन कुछ दिनों बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के यहाँ गया और सारा हाल कहा, लड़की बोली- “पिताजी! आप माँ को यहाँ ले आओ, मैं वो विधि बता दूँगी, जिससे गरीबी दूर हो जाएगी।

” तब ब्राह्मण अपनी स्त्री को साथ लेकर पहुँचा। बेटी माँ को समझाने लगी- “हे माँ! तुम प्रातः उठकर प्रथम स्नानादि करके विष्णु भगवान का पूजन करो, तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी।” परन्तु उसकी माँ ने एक भी बात नहीं मानी और प्रातः उठकर अपनी पुत्री के बच्चों की जूठन खा लिया, इस पर उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने रात को कोठरी का सभी सामान निकालकर उसमें माँ को बंद कर दिया तथा प्रातःकाल उसे उसमें से निकाला तथा स्नानादि करा पाठ करवाया, जिससे उसकी बुद्धि ठीक हो गई और बृहस्पतिवार का व्रत रखने लगी। इस व्रत के प्रभाव से उसकी माँ भी धनवान हो गई और मरणोपरांत बृहस्पतिजी की कृपा से स्वर्ग को प्राप्त हुई। फ

इस तरह कहानी कहकर साधु देवता वहाँ से लोप हो गए। धीरे-धीरे समय गुजरने पर फिर बृहस्पतिवार का दिन आया। राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर बेचने गया, उस दिन उसे और दिनों से अधिक पैसा मिला। राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर गुरुवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी दुःख दूर हुए, परन्तु जब दूसरा गुरुवार आया, तो वह व्रत करना भूल गया, इस कारण बृहस्पतिदेव नाराज हो गए। उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा शहर में यह घोषणा करवा दी कि कोई मनुष्य अपने घर भोजन न बनावे, समस्त जनता मेरे यहाँ भोजन करने आवे, इस आज्ञा को जो न मानेगा, उसे फाँसी की सजा दी जाएगी।

 इस तरह उस राजा को आज्ञानुसार शहर के सभी लोग भोजन करने आए, लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुँचा। इसलिए पाजा उसको अपने महल में ले आए और भोजन करा रहे थे कि रानी की नजर उस खूंटी पर पड़ी, जिस पर उसका हार लटका हुआ था, वह वहाँ दिखाई नहीं दिया। रानी ने निश्चय किया कि मेरा हार जरूर इस मनुष्य ने चुराया है। उसने सैनिकों को बुलाकर लकड़हारे को जेलखाने में बंद करवा दिया।

एक दिन राजा जेलखाने में दुःखी होकर विचार करने लगा कि न जो कौन-से पूर्व जन्म के कर्मों से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है और साधु को याद करने लगा, जो उसे जंगल में मिला था। अचानक उसी समय बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रकट हुए और उसकी दशा को देखकर कहने लगे-“अरे मूर्ख! तूने, बृहस्पतिवार की कथा नहीं करी, इस कारण तुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है, अब तू चिंता मंत कर।

बृहस्पतिवार के दिन तुझे जेलखाने के दरवाजे पर चार पैसे पड़े मिलेंगे, जिससे तू बृहस्पतिदेव का पूजन करना, तेरे सभी कष्ट दूस्ता जाएँगे।” बृहस्पतिवार के दिन चार पैसे पड़े मिले, तब राजा ने कथा कही। उसी रात को बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा- “हे राजा! तुमने जिस आदमी को जेलखाने में बंद किया है, वह निर्दोष है, वह भी राजा है। उसे छोड़ देना, रानी का हार उसी खूँटी पर लटका है, अगर तूने ऐसा नहीं किया, तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूँगा।” इस तरह के स्वप्न को देख राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार देख लकड़हारे को बुलाकर क्षमा माँगी तथा उसको सुंदर वस्त्र व आभूषण देकर विदा किया।

गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया। राजा जब नगर के निकट पहुँचा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएँ तथा बहुत-सी धर्मशालाएँ व मंदिर बन गए हैं। राजा ने पूछा यह बाग और धर्मशालाएँ किसकी हैं, तो नगर के लोग कहने लगे ये सब रानी और दासी के हैं, तो राजा को बहुत आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने सुना कि राजा आ रहे हैं, तो उसने दासी से कहा- “हे दासी! राजा हमको कितने बुरे हाल में छोड़ गए थे, वो हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जाएँ, इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा।

” आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई और राजा आए, तो उन्हें अपने साथ ले आई। राजा ने क्रोध में आकर अपनी तलवार निकाल ली और पूछने लगा कि यह बताओ यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है। तब उन्होंने कहा कि-“यह धन हमे बृहस्पतिदेव के व्रत से प्राप्त हुआ है।”

राजा ने निश्चय किया कि सात रोज बाद तो सभी बृहस्पतिदेव का पूजन करते है, लेकिन मैं रोजाना दिन में तीन बार कहानी कहूँगा तथा रोज व्रत किया करूँगा। अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बँधी रहती व दिन में तीन बार कहानी कहता। एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहाँ हो आवें। यह निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहिन के यहाँ चल दिया।

राह में उनसे देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं, उन्हें रोककर राजा ने कहा- “अरे भाइयों! मेरी बृहस्पति की कहानी सुन लो।” वे बोले- “लो हमारा तो आदमी मर गया है, इसको कहानी की पड़ी है।” लेकिन कुछ आदमी बोले-“कहो तुम्हारी कहानी सुनेंगे।” राजा ने दाल निकाली और कथा कहने लगा, जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके खड़ा हो गया।

आगे चला तो उसे एक किसान खेत मे हल चलाता मिला, राजा ने उसे देखा तो बोला- “अरे भइया ! मेरी बृहस्पति की कथा सुन लो।” किसान बोला-“जब तक मैं तेरी कथा सुनूँगा, तब तक चार हरैया खेत जोत लूँगा, जा अपनी कथा किसी और को सुनाना।” राजा आगे चल दिया। राजा के जाते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा उसे पेट में जोर से दर्द होने लगा, उस समय उसकी माँ रोटी लेकर आई, उसने यह देखा तो पुत्र से सब हाल पूछा, बेटे ने सब हाल कह दिया।

तब बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस राजा के पास आई और बोली मैं तेरी कथा सुनूँगी, पर तू मेरे खेत पर चलकर कह। राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गए तथा किसान के पेट का दर्द बंद हुआ। राजा अपनी बहिन के घर गया। बहिन ने उसकी बहुत मेहमानी की। दूसरे दिन राजा उठा तो उसने देखा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहिन से कहा कि- “ऐसा कोई मनुष्य है, जिसने भोजन नहीं किया हो, मेरी बृहस्पति की कथा सुन ले।

” बहिन बोली- “भैया यह देश ऐसा ही है, यहाँ लोग पहले भोजन करते हैं, बाद मे अन्य कार्य करते हैं, अगर कोई पड़ोस में हो तो देखूँ।” ऐसा कहकर देखने चली गई, परन्तु उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जिसने भोजन न किया हो। वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था। उसे मालूम हुआ यहाँ तीन रोज से किसी ने भोजन नहीं किया है। उसने जाकर बृहस्पतिदेव की कथा कही, जिससे सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया, जिससे राजा की प्रशंसा होने लगी।

एक रोज राजा ने अपनी बहिन से कहा- “हे बहिन ! हम अपने घर जाएँगे, तुम भी तैयार हो जाओ।” बहिन ने अपनी सास से कहा-सास ने कहा कि- “चली जा, पर अपने बच्चों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई औलाद नहीं है।” बहिन ने राजा से कहा- “भैया मैं तो चलूँगी, पर कोर्ड बालक नहीं जाएगा।” राजा बोला- “जब बालक नहीं चलेगा, तो तुम क्या करोगी।” दुःखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा ने अपनी रानी से कहा- “हम निरवंशी राजा हैं। हमारा मुँह देखने का धर्म नहीं है और भोजन आदि नहीं किया।”

रानी बोली “हे प्रभु! बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है। हमें औलाद अवश्य देंगे।” उसी रात बृहस्पतिदेव ने राजा से स्वप्न में कहा- “हे राजा! उठ सभी सोच त्याग दे। तेरी रानी गर्भ से है।” राजा यह बात सुनकर खुश हुआ। नवे मास रानी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। तब राजा बोला-“हे रानी! स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, बिना कहे नहीं रह सकती, जब मेरी बहिन आवे, तुम उससे कुछ कहना मत, रानी ने सुनकर हाँ कर दी।”

जब राजा की बहिन ने यह शुभ समाचार सुना, तो बहुत खुश हुई तथा बधाई देने अपने भाई के यहाँ आई, तो रानी ने कहा- “घोड़ा चढ़कर तो नहीं आई, गधा चढ़ी आई।” वह बोली- “भाभी मैं इस प्रकार न कहती, तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती।” बृहस्पतिदेव सभी के मन की मनोकामनाएँ पूर्ण करते है, जो सद्‌भावनापूर्वक बृहस्पतिदेव का व्रत करता है या सुनता है और दूसरो को सुनाता है, बृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामना पूर्ण करते हैं। भगवान बृहस्पति उसकी सदैव रक्षा करते हैं।

संसार में जो मनुष्य भगवान का पूजन व्रत सच्चे मन से करते हैं, उनकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। जैसी सच्ची भावना से राजा और रानी ने कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी मनोकामनाएँ बृहस्पतिदेव ने पूर्ण की थी, कथा सुनने के बाद सभी को प्रसाद लेकर जाना चाहिए। हृदय से मनन करते हुए जयकार बोलना चाहिए।

बोलो बृहस्पति देव की जय। विष्णु भगवान की जय।

गुरुवार व्रत का महत्व और लाभ

गुरुवार व्रत के पालन से भगवान बृहस्पति प्रसन्न होते हैं और भक्तों को अन्न, धन, पुत्र, और सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। यह व्रत निम्नलिखित लाभ प्रदान करता है:

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FAQs

गुरुवार व्रत कैसे करना चाहिए?

गुरुवार व्रत के दिन घर को गोबर से लीपें, स्नान के बाद पीले वस्त्र पहनें और केले के वृक्ष की पूजा करें। बिना नमक का भोजन करें और भगवान बृहस्पति की कथा सुनें।

क्या गुरुवार व्रत में नमक खा सकते हैं?

नहीं, गुरुवार व्रत में नमक का सेवन वर्जित है। इसकी जगह पीले चने की दाल और गुड़ का सेवन करें।

गुरुवार व्रत में कौन से रंग पहनने चाहिए?

गुरुवार व्रत के दिन पीले वस्त्र पहनना शुभ माना जाता है।

गुरुवार व्रत की पूजा सामग्री क्या है?

केले की जड़, पीला चंदन, हल्दी, गुड़, पीले फूल, और जल से बृहस्पति भगवान की पूजा करें।

गुरुवार व्रत की कथा क्यों सुननी चाहिए?

गुरुवार व्रत की कथा सुनने से व्रत का पुण्यफल प्राप्त होता है और भगवान बृहस्पति प्रसन्न होकर मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं।

गुरुवार व्रत से क्या लाभ होता है?

गुरुवार व्रत से धन, पुत्र, और विद्या की प्राप्ति होती है। यह व्रत परिवार में सुख-शांति और समृद्धि भी लाता है।







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