1. गुरु और उनका महत्व
धनोपयोगः सत्पात्ते यस्यैवास्ति स पण्डितः ।
गुरुशुश्रूषया जन्म चित्तं सद्धयानचितया |१|
अर्थ – धनोपयोग इति- इस संसार में जिस पुरुष का घन सत्पात्र के लिए, जन्म गुरुजनों की सेवा के लिए और चित्त हरिहर चिंतन के लिए हो वही पण्डित है ।
प्रष्टव्या गुरवो नित्यं ज्ञातमर्थमपि स्वयम ।
स तैनिश्चयमानीतो ददाति परमं सुखम् ।।२॥
अर्थ- प्रष्टव्या इति अपने आप अर्थ को जानते हुए भी सदा गुरुओं से पूछना अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि गुरु जी से निर्णय किया हुआ तत्व सदा सुखदायी होता है।
2. गुरु के महत्व की अनुप्रासिक परीक्षा
प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्याः परीक्षे मित्रबान्धवाः ।
कर्मा’ते दासभृत्याश्च न च पुत्रा न च स्त्रियः ।३।
अर्थ – प्रत्यक्ष इति सब को चाहिए कि वे गुरुजनों की उनके संमुख, अपने भाई बंधुओं की उनके पीछे और काम को पूर्ण कर चुकने पर अपने दासजनों की स्तुति (तारीफ) करें।
3. गुरु के पराभव से युक्ति
गुरोरवज्ञया मृत्युर्म तत्यागाद्दरिद्रता ।
गुरुमन्त्र परित्यागी सिद्धोऽपि नरकं व्रजेत् ॥४॥
अर्थ- गुरोरिति संसार में गुरुक्षों के अपमान करने का फल मृत्यु, और उनके दिये हुये मन्त्र से विमुख होने से दरि- द्रता प्राप्त होती है और यदि गुरु और मंत्र दोनो को छोड़ दें तो सिद्ध पुरुष भी नरक गामी होता है ।
गुरुद्रव्यापहतृणां ते जोहानिर्दरिद्रता ।
दुमृत्युश्च महारोगी धनहानिः सदा भवेत् । ५।
अर्थ – गुरुद्रव्य इति– गुरुद्रव्य को चुराने वाले पुरुष दरिद्री, निस्तेज, महारोग से पीड़ित, धन को नष्ट करने वाले और अंत में अपगति से मरते हैं ।
दुर्भगा विकलो मूर्खो निर्विवेको नपुंसकः ।
नीच कर्म करो नीचो गुरुदूषणकारका |६|
अर्थ – दुभंग इति गुरुओं की निन्दा करने वाले पुरुष भाग्यहीन, अज्ञानी, नपुंसक, उन्मत्त और नीच कर्म करते हुए अति नीच होते हैं ।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥७॥
अर्थ – अज्ञानमिति – जिस श्री गुरु महाराज ने अज्ञान स्वरूप अंधकार से अंधे पुरुषों के नेत्र, ज्ञान स्वरूप अंजन (सुरमे ) की सलाई से खोल दिये हैं उन गुरुओं से चरण कमलों में प्रणाम हो ।