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79. गृहस्थसम्बन्धी सदाचार का वर्णन

गृहस्थसम्बन्धी

 गृहस्थसम्बन्धी सदाचारी पुरुष और उनका जीवन

सदाचारी पुरुष इहलोक और परलोक दोनों ही को जीत लेता है ॥ ‘ सत् ‘ शब्दका अर्थ साधु है , और साधु वही है जो दोषरहित हो । उस साधु पुरुष का जो आचरण होता है उसीको सदाचार कहते हैं ॥ इस सदाचार के वक्ता और : कर्ता सप्तर्षिगण , मनु एवं प्रजापति है।

प्रातःकालीन दिनचर्या और सदाचार

 बुद्धिमान् पुरुष स्वस्थ चित्तसे ब्राह्ममुहूर्त में जगकर अपने धर्म और धर्माविरोधी अर्थका चिन्तन करे ॥ तथा जिसमें धर्म और अर्थकी क्षति न हो ऐसे कामका भी चिन्तन करे । इस प्रकार दृष्ट और अदृष्ट अनिष्टकी निवृत्तिके लिये धर्म , अर्थ और काम इस त्रिवर्गके प्रति समान भाव रखना चाहिये ॥ हे नृप ! धर्मविरुद्ध अर्थ और काम दोनोंका त्याग कर दे तथा ऐसे धर्मका भी आचरण न करे जो उत्तरकालमें दुःखमय अथवा समाज – विरुद्ध हो ॥ न हे नरेश्वर ! तदनन्तर ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर प्रथम मूत्रत्याग करे ।

मूत्र और मल त्याग के नियम

ग्रामसे नैर्ऋत्यकोणमें जितनी दूर बाण जा सकता है उससे आगे बढ़कर अथवा अपने निवास स्थानसे दूर जाकर मल – मूत्र त्याग करे । पैर धोया हुआ और जूठा जल अपने घरके आँगनमें न डाले ॥ अपनी या वृक्षकी छायाके ऊपर तथा गौ , सूर्य , अग्नि , वायु , गुरु और द्विजातीय पुरुषके सामने बुद्धिमान् पुरुष कभी मल – मूत्र त्याग न करे ॥ इसी प्रकार हे पुरुषर्षभ ! जुते हुए खेतमें , सस्यसम्पन्न भूमिमें , गौओंके गोष्ठमें , जन – समाजमें , मार्गके बीचमें , नदी आदि तीर्थस्थानोंमें , जल अथवा जलाशयके तटपर और श्मशानमें भी कभी मल – मूत्रका त्याग न करे ॥

हे राजन् ! कोई विशेष आपत्ति न हो तो प्राज्ञ पुरुषको चाहिये कि दिनके समय उत्तर – मुख और रात्रिके समय दक्षिण – मुख होकर मूत्रत्याग करे ॥ मल त्यागके समय पृथिवीको तिनकोंसे और सिरको वस्त्रसे ढाँप ले तथा उस स्थानपर अधिक समयतक न रहे और न कुछ बोले ही ॥

हे राजन् ! बाँबीकी , चूहोंद्वारा बिलसे निकाली हुई , जलके भीतरकी , शौचकर्मसे बची हुई , घरके लीपनकी , चींटी आदि छोटे – छोटे जीवोंद्वारा निकाली हुई और हलसे उखाड़ी हुई – इन सब प्रकारकी मृत्तिकाओंका शौच कर्ममें उपयोग न करे ॥ हे नृप ! लिंगमें एक बार , गुदामें तीन बार , बायें हाथमें दस बार और दोनों हाथों में सात बार मृत्तिका लगानेसे शौच सम्पन्न होता है ॥ तदनन्तर गन्ध और फेनरहित स्वच्छ जलसे आचमन करे । तथा फिर सावधानतापूर्वक बहुत – सी मृत्तिका ले ॥ उससे चरण – शुद्धि करनेके अनन्तर फिर पैर धोकर तीन बार कुल्ला करे और दो बार मुख धोवे । तत्पश्चात् जल लेकर शिरोदेशमें स्थित इन्द्रियरन्ध्र , १ मूर्द्धा , बाहु , नाभि और हृदयको स्पर्श करे ॥

स्नान और तर्पण

फिर भली प्रकार स्नान करने के अनन्तर केश सँवारे और दर्पण , अंजन तथा दूर्वा आदि मांगलिक द्रव्यांका यथाविधि व्यवहार करे ॥ तदनन्तर हे पृथिवीपते ! अपने वर्णधर्मके अनुसार आजीविकाके लिये धनोपार्जन करे और श्रद्धापूर्वक यज्ञानुष्ठान करे ॥ सोमसंस्था , हविस्संस्था और पाकसंस्था – इन सब धर्म – कर्मोंका आधार धन ही है ।अतः मनुष्योंको धनोपार्जनका यत्न करना चाहिये ॥ नित्यकर्मोंके सम्पादनके लिये नदी , नद , तडाग , देवालयोंकी बावड़ी और पर्वतीय झरनोंमें स्नान करना चाहिये ॥

 कुएँ से जल खींचकर उसके पासकी भूमिपर स्नान करे और यदि वहाँ भूमिपर स्नान करना सम्भव न हो तो कुएँसे खींचकर लाये हुए जलसे घरहीमें नहा ले ॥ स्नान करनेके अनन्तर शुद्ध वस्त्र धारण कर देवता , ऋषिगण और पितृगणका उन्हींके तीर्थोंसे तर्पण करे ॥ देवता और ऋषियोंके तर्पणके लिये तीन – तीन बार तथा प्रजापतिके लिये एक बार जल छोड़े ॥ हे पृथिवीपते ! पितृगण और पितामहोंकी प्रसन्नताके लिये तीन बार जल छोड़े तथा इसी प्रकार प्रपितामहोंको भी सन्तुष्ट करे एवं मातामह ( नाना ) और उनके पिता तथा उनके पिताको भी सावधानतापूर्वक पितृ – तीर्थसे जलदान करे । 

यह जल माताके लिये हो , यह प्रमाताके लिये हो , यह वृद्धाप्रमाताके लिये हो , यह गुरुपत्नीको , यह गुरुको , यह मामाको , यह प्रिय मित्रको तथा यह राजाको प्राप्त हो –  यह जपता हुआ समस्त भूतोंके हितके लिये देवादि तर्पण करके अपनी इच्छानुसार अभिलषित सम्बन्धीके लिये जलदान करे ‘ ॥ [ देवादि तर्पणक समय इस प्रकार कहे— ] ‘ देव , असुर , यक्ष , नाग , गन्धर्व , राक्षस , पिशाच , गुह्यक , सिद्ध , कूष्माण्ड , पशु , पक्षी , जलचर , स्थलचर और वायु – भक्षक आदि सभी प्रकारके जीव मेरे दिये हुए इस जलसे तृप्त हो ।

 वे सब जो प्राणी सम्पूर्ण नरकों में नाना प्रकार की यातनाएँ भोग रहे हैं उनकी तृप्तिके लिये में यह जलदान करता हूँ ॥ जो मेरे बन्धु अथवा अबन्धु हैं , तथा जो अन्य जन्मोंमें मेरे बन्धु थे एवं और भी जो – जो मुझसे जलकी दिये हुए जलसे परितृप्त हो ॥ क्षुधा और तृष्णा से व्याकुल जीव कहीं भी क्यों न हों मेरा दिया हुआ यह तिलोदक उनको तृप्ति प्रदान करे ‘ ॥ इस प्रकार मैंने तुमसे यह काम्य तर्पण का निरूपण किया , जिसके करने से मनुष्य सकल संसार को तृप्त कर देता है और हे अनघ ।

इससे उसे जगत्की तृप्ति से होनेवाला पुण्य प्राप्त होता है ॥ इस समय प्रकार इस प्रकार उपरोक्त जीवोंको श्रद्धापूर्वक काम्यजल दान करनेके अनन्तर आचमन करे और फिर सूर्यदेव को जलांजलि दे ॥ [ उस कहे- ] ‘ भगवान् विवस्वान्‌को नमस्कार है जो वेद वेद्य और विष्णुके तेजस्स्वरूप हैं तथा जगत्को उत्पन्न करनेवाले , अति पवित्र एवं कर्मोंके साक्षी हैं ‘ ॥ तदनन्तर जलाभिषेक और पुष्प तथा धूपादि निवेदन करता हुआ गृहदेव और इष्टदेवका पूजन करे ॥ हे नृप ! फिर अपूर्व अग्निहोत्र करे , उसमें पहले ब्रह्माको और तदनन्तर क्रमशः प्रजापति , गुह्य , काश्यप और अनुमतिको आदरपूर्वक आहुतियाँ दे ॥

उससे बचे हुए हव्यको पृथिवी और मेघके उद्देश्यसे उदकपात्रमें , धाता और विधाताके उद्देश्यसे द्वारके दोनों ओर तथा ब्रह्माके उद्देश्यसे घरके मध्यमें छोड़ दे । हे पुरुषव्याघ्र ! अब मैं दिक्पालगणकी पूजाका वर्णन करता हूँ , श्रवण करो ॥ बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि पूर्व , दक्षिण , पश्चिम और उत्तर दिशाओंमें क्रमश : इन्द्र , यम , वरुण और चन्द्रमाके लिये हुतशिष्ट सामग्रीसे बलि प्रदान करे ॥ पूर्व और उत्तर दिशाओंमें धन्वन्तरिके लिये बलि दे तथा इसके अनन्तर बलिवैश्वदेव – कर्म करे ॥ बलिवैश्वदेवके समय वायव्यकोणमें वायुको तथा अन्य समस्त दिशाओं में वायु एवं उन दिशाओंको बलि दे , इसी प्रकार ब्रह्मा , अन्तरिक्ष और सूर्यको भी उनकी दिशाओंके अनुसार [ अर्थात् मध्यमें ] बलि प्रदान करे ॥

 विश्वेदेवों , पितरों और विश्वपतियों , विश्वभूतों , यक्षोंके उद्देश्यसे [ यथास्थान ] बलि प्रदान करे ॥ समस्त प्राणियोंको तदनन्तर बुद्धिमान् व्यक्ति और अन्न लेकर पवित्र पृथिवीपर समाहित चित्तसे बैठकर स्वेच्छानुसार बलि प्रदान करे ॥ [ उस समय इस प्रकार कहे- ] ‘ देवता , मनुष्य , पशु , पक्षी , सिद्ध , यक्ष , सर्प , दैत्य , प्रेत , पिशाच , वृक्ष तथा और भी चींटी आदि कीट – पतंग जो अपने कर्मबन्धनसे बँधे हुए क्षुधातुर होकर मेरे दिये हुए अन्नकी इच्छा करते हैं , उन सबके लिये मैं यह अन्न दान करता हूँ ।

वे इससे परितृप्त और आनन्दित हों ॥ जिनके माता , पिता अथवा कोई और बन्धु नहीं हैं तथा अन्न प्रस्तुत करनेका साधन और अन्न भी नहीं है उनकी तृप्तिके लिये पृथिवीपर मैंने यह अन्न रखा है ; वे इससे तृप्त होकर आनन्दित हों ॥ सम्पूर्ण प्राणी , यह अन्न और मैं — सभी विष्णु हैं , क्योंकि उनसे भिन्न और कुछ है ही नहीं ।

अतः मैं समस्त भूतोंका शरीररूप अन्न उनके पोषणके लिये दान करता हूँ ॥ यह भूतसमुदाय है उसमें जितने यह जो चौदह प्रकारका भी प्राणिगण अवस्थित हैं उन सबकी तृप्तिके लिये मैंने यह अन्न प्रस्तुत किया है ; वे इससे प्रसन्न हों ‘ ॥ इस प्रकार उच्चारण करके गृहस्थ पुरुष श्रद्धापूर्वक समस्त जीवोंके उपकारके लिये पृथिवीमें अन्नदान करे , क्योंकि गृहस्थ ही सबका आश्रय है ॥ हे नरेश्वर ! तदनन्तर कुत्ता , चाण्डाल , पक्षिगण तथा और भी जो कोई पतित एवं पुत्रहीन पुरुष हों उनकी तृप्तिके लिये पृथिवीमें बलिभाग रखे ॥ फिर गो – दोहनकालपर्यन्त अथवा इच्छानुसार इससे भी कुछ अधिक देर अतिथि ग्रहण करनेके लिये घरके आँगनमें रहे ॥

अतिथि सत्कार

यदि अतिथि आ जाय तो उसका स्वागतादिसे तथा आसन देकर और चरण धोकर सत्कार करे ॥ फिर श्रद्धापूर्वक भोजन कराकर मधुर वाणीसे प्रश्नोत्तर करके तथा उसके जानेके समय पीछे पीछे जाकर उसको प्रसन्न करे ॥ जिसके कुल और नामका कोई पता न हो तथा अन्य देशसे आया हो उसी अतिथिका सत्कार करे , अपने ही गाँव में रहनेवाले पुरुष की अतिथिरूप से पूजा करनी उचित नहीं है ॥ जिसके पास कोई सामग्री न हो , जिससे कोई सम्बन्ध न हो , जिसके कुल – शीलका कोई पता न हो और जो भोजन करना चाहता हो उस अतिथिका सत्कार किये बिना भोजन करनेसे मनुष्य अधोगतिको प्राप्त होता है ॥

गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि आये हुए अतिथिके अध्ययन , गोत्र , आचरण और कुल आदिके विषयमें कुछ भी न पूछकर हिरण्यगर्भ – बुद्धिसे उसकी पूजा करे ॥ हे नृप ! अतिथि सत्कारके अनन्तर अपने ही देशके एक और पांचयज्ञिक ब्राह्मणको जिसके आचार और कुल आदिका ज्ञान हो पितृगणके लिये भोजन करावे ॥ हे भूपाल ! [ मनुष्ययज्ञकी विधिसे ‘ मनुष्येभ्यो हन्त ‘ इत्यादि मन्त्रोच्चारणपूर्वक ] पहले ही निकालकर अलग रखे हुए हन्तकार नामक अन्नसे उस श्रोत्रिय ब्राह्मणको भोजन करावे ॥ इस प्रकार [ देवता , अतिथि और ब्राह्मणको ] ये तीन भिक्षाएँ देकर , यदि सामर्थ्य हो तो परिव्राजक और ब्रह्मचारियोंको भी बिना लौटाये हुए इच्छानुसार भिक्षा दे ॥

तीन पहले तथा भिक्षुगण – ये चारों अतिथि कहलाते हैं । हे राजन् ! इन मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता चारोंका पूजन करनेसे है ॥ जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता है उसे वह अपने पाप देकर उसके शुभकर्मोंको ले जाता है ॥ हे नरेश्वर ! धाता , प्रजापति , इन्द्र , अग्नि , वसुगण और अर्यमा- ये समस्त देवगण अतिथिमें प्रविष्ट होकर अन्न भोजन करते हैं ॥ अतः मनुष्यको अतिथि – पूजाके लिये निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये । जो पुरुष अतिथिके बिना भोजन करता है वह तो केवल पाप ही भोग करता है ॥ तदनन्तर गृहस्थ पुरुष पितृगृहमें रहनेवाली विवाहिता कन्या , दुखिया और गर्भिणी स्त्री तथा वृद्ध और बालकोंको संस्कृत अन्नसे भोजन कराकर अन्तमें स्वयं भोजन करे ॥

इन सबको भोजन कराये बिना जो स्वयं भोजन कर लेता है वह पापमय भोजन करता है और अन्त में मरकर नरक में श्लेष्मभोजी कीट होता है ॥ जो व्यक्ति स्नान किये बिना भोजन करता है वह मल भक्षण करता है , जप किये बिना भोजन करनेवाला रक्त और पूय पान करता है , संस्कारहीन अन्न खानेवाला मूत्र पान करता है . तथा जो बालक- वृद्ध आदिसे पहले आहार करता है वह विष्ठाहारी है । इसी प्रकार बिना होम किये भोजन करनेवाला मानो कीड़ोंको खाता है और बिना दान किये खानेवाला विष – भोजी है ॥

अतः हे राजेन्द्र ! गृहस्थको जिस प्रकार भोजन करना चाहिये – जिस प्रकार भोजन करनेसे पुरुषको पाप बन्धन नहीं होता तथा इहलोकमें अत्यन्त आरोग्य , बल , बुद्धिकी प्राप्ति और अरिष्टोंकी शान्ति होती है और जो शत्रुपक्षका ह्रास करनेवाली है- वह भोजनविधि सुनो ॥ गृहस्थको चाहिये कि स्नान करनेके अनन्तर यथाविधि देव , ऋषि और पितृगणका तर्पण करके हाथमें उत्तम रत्न धारण किये पवित्रतापूर्वक भोजन करे ॥

हे नृप ! जप तथा अग्निहोत्रके अनन्तर शुद्ध वस्त्र धारण कर अतिथि , ब्राह्मण , गुरुजन और अपने आश्रित ( बालक एवं वृद्धों ) को भोजन करा सुन्दर सुगन्धयुक्त उत्तम पुष्पमाला तथा एक ही वस्त्र धारण किये हाथ पाँव और मुँह धोकर प्रीतिपूर्वक भोजन करे । हे राजन् ! भोजनके समय इधर – उधर न देखे । मनुष्यको चाहिये कि पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके , अन्यमना न होकर उत्तम और पथ्य अन्नको प्रोक्षणके लिये रखे हुए मन्त्रपूत जलसे छिड़क कर भोजन करे ॥

जीवन के अन्य नियम

जो अन्न दुराचारी व्यक्तिका लाया हुआ हो , घृणाजनक हो अथवा बलिवैश्वदेव आदि संस्कारशून्य हो उसको ग्रहण न करे । हे द्विज ! गृहस्थ पुरुष अपने खाद्यमेंसे कुछ अंश अपने शिष्य तथा अन्य भूखे – प्यासोंको देकर उत्तम और शुद्ध पात्रमें शान्तचित्तसे भोजन करे ॥ हे नरेश्वर ! किसी बेत आदिके आसन ( कुर्सी आदि ) -पर रखे हुए पात्रमें , अयोग्य स्थानमें , असमय ( सन्ध्या आदि काल ) में अथवा अत्यन्त संकुचित स्थानमें कभी भोजन न करे । मनुष्यको चाहिये कि [ परोसे हुए भोजनका ] अग्र भाग अग्निको देकर भोजन करे ॥ हे नृप ! जो अन्न मन्त्रपूत और प्रशस्त हो तथा जो बासी न हो उसीको भोजन करे ।

परंतु फल , मूल और सूखी शाखाओंको तथा बिना पकाये हुए लेह्य ( चटनी ) आदि और गुड़के पदार्थों के लिये ऐसा नियम नहीं है । हे नरेश्वर सारहीन पदार्थको कभी न खाय ॥ पृथिवीपते । विवेकी पुरुष मधु , जल , दही , घी और सतूके सिवा और किसी पदार्थको पूरा न खाय ॥ भोजन एकाग्रचित्त होकर करे तथा प्रथम मधुररस , फिर लवण और अम्ल ( खट्टा ) रस तथा अन्तमें कटु और तीखे पदार्थोंको खाय ॥ जो पुरुष पहले द्रव पदार्थोंको बीचमें कठिन वस्तुओंको तथा अन्तमें फिर द्रव पदार्थोंको ही खाता है वह कभी बल तथा आरोग्यसे हीन नहीं होता ॥ इस प्रकार वाणीका संयम करके अनिषिद्ध अन्न भोजन करे । अन्नकी निन्दा न करे ।

प्रथम पाँच ग्रास अत्यन्त मौन होकर ग्रहण करे , उनसे पंचप्राणोंकी तृप्ति होती है ॥ भोजनके अनन्तर भली प्रकार आचमन करे और फिर पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके हाथको उनके मूलदेशतक धोकर विधिपूर्वक आचमन करे ॥ तदनन्तर स्वस्थ और शान्त – चित्तसे आसनपर बैठकर अपने इष्टदेवोंका चिन्तन करे ॥ [ और इस प्रकार कहे- ] ” [ प्राणरूप ] पवनसे प्रज्वलित हुआ जठराग्नि आकाशके द्वारा अवकाशयुक्त अन्नका परिपाक करे और [ फिर अन्नरससे ] मेरे शरीरके पार्थिव धातुओंको पुष्ट करे जिससे मुझे सुख प्राप्त हो ॥ यह अन्न मेरे शरीरस्थ पृथिवी , जल , अग्नि और वायुका बल बढ़ानेवाला हो और इन चारों तत्त्वोंके रूपमें परिणत हुआ यह अन्न ही मुझे निरन्तर सुख देनेवाला हो ॥

यह अन्न मेरे प्राण , अपान , समान , उदान और व्यानकी पुष्टि करे तथा मुझे भी निर्बाध सुखकी प्राप्ति हो ॥ मेरे खाये हुए सम्पूर्ण अन्नका अगस्ति नामक अग्नि और बडवानल परिपाक करें , मुझे उसके परिणामसे होनेवाला सुख प्रदान करें और उससे मेरे शरीरको आरोग्यता प्राप्त हो ॥ ‘ देह और इन्द्रियादिके अधिष्ठाता एकमात्र भगवान् विष्णु ही प्रधान हैं- इस सत्यके बलसे मेरा खाया हुआ समस्त अन्न परिपक्व होकर मुझे आरोग्यता प्रदान करे ॥ भोजन करनेवाला , भोज्य अन्न और उसका परिपाक- ये सब विष्णु ही है’- इस सत्य भावनाके बलसे मेरा खाया हुआ यह अन्न पच जाय ” ॥ ऐसा कहकर अपने उदरपर हाथ फेरे और सावधान होकर अधिक श्रम उत्पन्न न करनेवाले कार्योंमें लग जाय ॥

सच्छास्त्रों का अवलोकन आदि सन्मार्गके विनोदोंसे शेष दिनको व्यतीत करे और फिर सायंकालके समय सावधानतापूर्वक सन्ध्योपासन करे । हे राजन् ! बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि सायंकालके समय सूर्यके रहते हुए और प्रातःकाल तारागणके चमकते हुए ही भली प्रकार आचमनादि करके विधिपूर्वक सन्ध्योपासन करे ॥ हे पार्थिव ! सूतक ( पुत्र जन्मादिसे होनेवाली अशुचिता ) , अशौच ( मृत्युसे होनेवाली अशुचिता ) , उन्माद , रोग और भय आदि कोई बाधा न हो तो प्रतिदिन ही सन्ध्योपासन करना चाहिये ॥

जो पुरुष रुग्णावस्थाको छोड़कर और कभी सूर्यके उदय अथवा अस्तके समय सोता है वह प्रायश्चित्तका भागी होता है ॥ अतः हे महीपते ! गृहस्थ पुरुष सूर्योदयसे पूर्व ही उठकर प्रातःसन्ध्या करे और सायंकालमें भी तत्कालीन सन्ध्यावन्दन करे ; सोवे नहीं ॥ हे नृप ! जो पुरुष प्रातः अथवा सायंकालीन सन्ध्योपासन नहीं करते वे दुरात्मा अन्धतामिस्र नरकमें पड़ते हैं ॥ तदनन्तर हे पृथिवीपते ! सायंकालके समय सिद्ध  किये हुए अन्नसे गृहपत्नी मन्त्रहीन बलिवैश्वदेव करे ; उस समय भी उसी प्रकार श्वपच आदिके लिये अन्नदान किया जाता है ॥

बुद्धिमान् पुरुष उस समय आये हुए अतिथिका भी सामर्थ्यानुसार सत्कार करे । हे राजन् ! प्रथम पाँव धुलाने , आसन देने और स्वागतसूचक विनम्र वचन कहनेसे तथा फिर भोजन कराने और शयन करानेसे अतिथिका सत्कार किया जाता है ॥ हे नृप ! दिनके समय अतिथिके लौट जानेसे जितना पाप लगता है उससे आठगुना पाप सूर्यास्तके समय लौटनेसे होता है ॥ अतः हे राजेन्द्र ! सूर्यास्तके समय आये हुए अतिथिका गृहस्थ पुरुष अपनी सामर्थ्यानुसार अवश्य सत्कार करे क्योंकि उसका पूजन करनेसे ही समस्त देवताओंका पूजन हो जाता है ॥

मनुष्यको चाहिये कि अपनी शक्तिके अनुसार उसे भोजनके लिये अन्न , शाक या जल देकर तथा सोनेके लिये शय्या या घास – फूसका बिछौना अथवा पृथिवी ही देकर उसका सत्कार करे ॥ के समय सिद्ध अन्नदान हे नृप ! तदनन्तर गृहस्थ पुरुष सायंकालका भोजन करके तथा हाथ – पाँव धोकर छिद्रादिहीन काष्ठमय शय्यापर लेट जाय ॥ जो काफी बड़ी न हो , टूटी हुई हो , ऊँची – नीची हो , मलिन हो अथवा जिसमें जीव हों या जिसपर कुछ बिछा हुआ न हो उस शय्यापर न सोवे ॥

हे नृप ! सोनेके समय सदा पूर्व अथवा दक्षिणकी ओर सिर रखना चाहिये । इनके विपरीत दिशाओंकी ओर सिर रखनेसे रोगोंकी उत्पत्ति होती है ॥ हे पृथ्वीपते ! ऋतुकालमें अपनी ही स्त्रीसे संग करना उचित है । पुल्लिंग नक्षत्रमें युग्म और उनमें भी पीछेकी रात्रियोंमें शुभ समयमें स्त्रीप्रसंग करे ॥ किन्तु यदि स्त्री अप्रसन्ना रोगिणी , रजस्वला , निरभिलाषिणो , कोधिता , दुःखिनी अथवा गर्भिणी हो तो उसका संग न करे ॥ जो सीधे स्वभावकी न हो , पराभिलाषिणी अथवा निरभिलाषिणी हो , क्षुधार्ता हो , अधिक भोजन किये हुए हो अथवा परस्त्री हो उसके पास न जाय और यदि अपनेमें ये दोष हों तो भी स्त्रीगमन न करे ॥

पुरुषको उचित है । कि स्नान करनेके अनन्तर माला और गन्ध धारण कर काम और अनुरागयुक्त होकर स्त्रीगमन करे । जिस समय अति भोजन किया हो अथवा क्षुधित हो उस समय उसमें प्रवृत्त हो ॥ चतुर्दशी , अष्टमी , अमावास्या , पूर्णिमा और सूर्यकी संक्रान्ति- ये सब पर्वदिन हैं ॥ इन पर्वदिनोंमें तैल , स्त्री अथवा मांसका भोग करनेवाला पुरुष मरनेपर विष्ठा और मूत्रसे भरे नरकमें पड़ता है ॥ संयमी और बुद्धिमान् पुरुषोंको इन समस्त पर्वदिनोंमें सच्छास्त्रावलोकन , देवोपासना , यज्ञानुष्ठान , ध्यान और जप आदिमें लगे रहना चाहिये ॥ गौ छाग आदि अन्य योनियोंसे , अयोनियोंसे , औषध प्रयोगसे अथवा ब्राह्मण , देवता और गुरुके आश्रमों में कभी मैथुन न करे ॥

हे पृथिवीपते ! चैत्यवृक्षके नीचे , आँगनमें , तीर्थमें , पशुशालामें , चौराहेपर , श्मशानमें , उपवनमें अथवा जलमें भी मैथुन करना उचित नहीं है॥ हे राजन् ! पूर्वोक्त समस्त पर्वदिनोंमें प्रातःकाल और सायंकालमें तथा मल – मूत्रके वेगके समय बुद्धिमान् पुरुष मैथुनमें प्रवृत्त न हो ॥ हे नृप ! पर्वदिनोंमें स्त्रीगमन करनेसे धनकी हानि होती है ; दिनमें करनेसे पाप होता है , पृथिवीपर करनेसे रोग होते हैं और जलाशयमें स्त्रीप्रसंग करनेसे अमंगल होता है ॥ परस्त्रीसे तो वाणीसे क्या , मनसे भी प्रसंग न करे , क्योंकि उनसे मैथुन करनेवालोंको अस्थि – बन्धन भी नहीं होता [ अर्थात् उन्हें अस्थिशून्य कीटादि होना पड़ता है ] ॥

पर स्त्री की आसक्ति पुरुष को इहलोक और परलोक दोनों जगह भय देनेवाली है ; इहलोकमें उसकी आयु क्षीण हो जाती है और मरने पर वह नरकमें जाता है ॥ ऐसा जानकर बुद्धिमान् पुरुष उपरोक्त दोषों से रहित अपनी स्त्री से ही ऋतुकाल में प्रसंग करे तथा उसकी विशेष अभिलाषा हो तो बिना ऋतुकाल के भी गमन करे ॥

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