11. गृहस्थाश्रम के षट् कर्म

गृहस्थाश्रम के षट् कर्म

(पाराशर स्मृ. अ. 1-श्लो. 39)

संध्या स्नानं जपो होमो देवतानां च पूजनम् ।

आतिथ्यं वैश्वदेवं च षट् कर्माणि दिने दिने ।।1।।

(दोहा)

उठ के प्रातः काल में करो संध्या स्नान |

गायत्री आदि मंत्र जपो देव पूजा सह ध्यान ||1||

अग्निहोत्र वैश्वदेव पक्क अन्न से होम |

तृप्त करके अतिथि को खावो अन्न समसोम ||2||

पूर्व नवमें अध्याय में देव पितर अतिथि आदि का पूजन ये षट्कर्म करने के लिए पाणि ग्रहण की विधि कही, अब दशमें अध्याय में गृहस्थाश्रम के षट् कर्म कहते हैं।

पाराशर स्मृति में कहा है कि स्नान करके संध्या करनी 1 स्वाध्याय – गायत्री आदि मंत्रों का जप करना 2 अग्निहोत्र करना 3 देवताओं का पूजन करना 4 पक्के अन्न की विराट् परमात्मा के नाम से अग्नि में आहुति देना रूप वैश्वदेव कर्म करना 5 धन आदि संग्रह से रहित और अनि में तिथि का ज्ञान न हो ऐसे अतिथि का वाणी, अन्न, जल आदि से सत्कार करना 6 यह षट्कर्म गृहस्थी को प्रतिदिवस करने के हैं ।।1।।

(मनुस्मृ. अ. 3-श्लो. 68-70)

पंच सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः ।

कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ||2||

अध्ययनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।

होमो देवो बलिमोंतो नृयज्ञोऽतिथि पूजनम् ||3||

मनुस्मृति में कहा है कि पाँच हिंसा गृहस्थी के रोज होती है। जिससे गृहस्थी संसार रूप कारागृह में बँधा जाता है। वे बन्धन के हेतु पाँच हिंसा यह हैं। रसोई बनाने का चूल्हा 1 आटा पीसने की चक्की 2 झाडू 3 धान कूटने का ऊखल 4 जल का घट रखने की जगह 5 इन पाँचों में अवश्य ही जीव हिंसा होती है ||2||

इन पाँच हिंसा से जन्य पाप को दूर करने वाले पांच यज्ञ मनुजी ने कहे हैं। नित्य यथा शक्ति वेदपाठ रूप स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञ है । नित्य-पितरों का तर्पण करना पितृयज्ञ है। 2. नित्य अग्निहोत्र करना देवयज्ञ है 3 और कुछेक भोजन रूप बलि नित्य पक्षियों के निमित्त गृह के ऊपर की छत पर फेंकना यह भूतयज्ञ है 4 यथा शक्ति श्रद्धा-भक्तिपूर्वक वाणी, आसन, अन्न, जल, वस्र आदि से अतिथि का नित्य पूजन करना यह नरयज्ञ है 5 यह पाँच यज्ञ नित्य के होने वाले गृहस्थी के पाँच पापों को नाश करने वाले हैं ||3||

(यजुसं. अ. 3- म. 1)

अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्ये: स्वाहा ||4||

यजुर्वेद में कहा गया है कि ‘अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा’ इस मंत्र से सायंकाल में सूर्य अस्त होने पर अग्निहोत्र करना ‘सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।’ इस मन्त्र से प्रातः काल में सूर्य के उदय होने पर अग्निहोत्र करना । मन्त्र का अर्थ यह है :- अग्नि ज्योति प्रकाशमान परमात्मा रूप है ज्योति अग्निदेव रूप है ऐसे देव के प्रति मेरी यह दी हुई आहुति स्वीकार हो सूर्य ज्योति रूप है ज्योति सूर्यदेव रूप है ऐसे देव के प्रति मेरी यह दी हुई आहुति स्वीकार करो ||5||

(शर्भो मं. 26-गीता. अ. 4 – श्लो. 24)

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||5||

शरभोपनिषद् की श्रुति को भगवान् कृष्णचन्द्रजी अद्वैतवादी ने गीता में कहा है कि एक अद्वैत ब्रह्मबुद्धि से करे हुए कर्म कल्याण के हेतु हैं। अस्तु जो द्वैतवादी भेदबुद्धि से कर्म करना रूप शिला को गले में बांधते हैं उनको संसार सागर में डूबना ही पड़ेगा। यदि इससे बचना हो तो कृष्णचन्द्र परमानन्द के उपदेश रूपी जहाज की शरण लें वह यह है कि अग्निहोत्र आदि कर्म करने में विद्वान जिस खुवा आदि द्वारा हविः अग्नि में अर्पण करते हैं।

उसको ब्रह्म जाने, जिस अग्नि में हविः दी जाती है उसको भी ब्रह्म जाने, जो हवनकर्ता है सो भी ब्रह्म है, जो हवन रूप क्रिया है सो भी ब्रह्म है और उस क्रिया से प्रापणीय जो फल है। सो भी ब्रह्म है क्योंकि करण, कर्म, क्रिया, कर्ता, फल यह पाँच कर्म के स्वरूप हैं। इन पाँचों को एक अद्वैत ब्रह्मरूप जानकर जो कर्म किया जाता है सो ब्रह्मकर्म रूप समाधि कहा है।

तिस ब्रह्मकर्म समाधि स विद्वान पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होता है। इस प्रकार से कर्मों में अकर्म देखना रूप एक अद्वैत ब्रह्मबुद्धि से कर्मकर्ता विद्वान् पुरुष को शास्रों ने अकर्ता ही कहा है। अस्तु द्वैतवादियों को कष्टकार, अद्वैतवादियों को सुखकारक एक अद्वैत स्वरूप ब्रह्म से भिन्न श्री कृष्ण चन्द्रजी ने किसी भी वस्तु की सत्ता न रखी है ||5||

(प्राणाग्रिहोत्रो खण्ड. 1-मं. 6)

प्राणाय स्वाहा । अपानाय स्वाहा । व्यानाय स्वाहा ।

उदानाय स्वाहा | समानाय स्वाहा ||6||

प्राणाग्रिहोत्रोपनिषद् में कहा है कि भोजन से पहिले आचमन करें उस आचमन में प्राणदेव के नीचे के वस्त्र की बुद्धि करें फिर अनुक्रम से एक-एक मंत्र पढ़ता हुआ एक- एक ग्रास रूप आहुति मुख में डालता जाये। पाँच आहुति पूरी कर पश्चात् आचमन करे उस आचमन में प्राणदेव के ऊपर के वस्त्र की बुद्धि करे। ऐसा प्राणाग्निहोत्री पुरुष को रोज करना कर्त्तव्य है ||6||

(देवीभा. स्कंध 9-अ. 36 श्लो. 14)

कुण्डानि यमदूतैश्च रक्षितानि सदा शुभे ।

न हि पश्यन्ति स्वप्ने च पंचदेवार्चका नराः ||7||

देवी भागवत में भगवान् लक्ष्मी से कहते हैं हे शुभे ! यमलोक में नाना नरककुण्ड यमदूतों से रक्षित हैं, तिन कष्टकारी नरककुण्डों को सनातन पाँच देवताओं के पूजने वाले पुरुष स्वप्न में भी नहीं देख सकते हैं ।।7।।

(ब्रह्मपु. अ. 90-श्लो. 61-62)

सौराश्च शैवा गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः ।

मामेव प्राप्नुवन्तीह वर्षापः सागरं यथा ।।8।।

एकोऽहं पंचधा जातः क्रीडया नामभिः किल ।

देवदत्तो यथा कश्चित्पुत्राद्याह्वाननामभिः ।।9।।

ब्रह्म पुराण में सर्वव्यापी विष्णु भगवान् ने कहा है कि गणेश 1 सूर्य 2 शिव 3 विष्णु 4 देवी 5 इन पांच सनातन देवों के पूजने वाले पुरुष मेरे को ही प्राप्त हो जाते हैं जैसे इस लोक मे समुद्र का जल मेघों द्वारा वर्षा हुआ नदियों द्वारा पुनः समुद्र को ही प्राप्त हो जाता है ||8||

एक अद्वैत स्वरूप मैं ही सर्व का देव अक्रिय अविनाशी अपनी माया रूप लीला करके पाँच देवताओं के नाम रूप को प्राप्त होता हूँ। जैसे एक देवदत्त नाम वाला पुरुष किसी का पुत्र है, किसी का पिता है, किसी का साला है किसी का ससुर, जमाई, भर्ता आदि नाम से नाना संज्ञा को प्राप्त होता है। वैसे ही एकही श्रीकृष्णचन्द्रजी कंस चाणूर आदि को भयानक यम के समान दिखते थे और सर्व मथुरावासियों को परमानन्द स्वरूप देख पड़ते थे ॥ 9॥

(स्कंद पु. खण्ड. 5-खं. 3-अ. 14- श्लो. 6)

एक मूर्तिखिधा जाता ब्राह्मी शैवी च वैष्णवी।

सृष्टिसंहाररक्षार्थं भवेदेवं महेश्वरः ||10||

स्कन्द पुराण में कहा है कि संसार की उत्पत्ति स्थिति लय के अर्थ महान् ईश्वर परमात्मा रूप एक ही मूर्ति ब्रह्मा, शिव, विष्णु तीन मूर्ति रूप को प्राप्त होती है ।।10।।

(त्रिपुरो. मं. 15)

शर्वः सर्वस्य जगतो विधाता धर्ता हर्ता विश्वरूपत्वमेति ।।11।।

 

त्रिपुरोपनिषद् में कहा है कि सर्व जगत का कर्त्ता, धर्ता, भर्त्ता, हर्ता परमात्मा ही विश्वरूप को प्राप्त होता है।।11।।

(शिवपु. संहिता 7 – अ. 7- श्लो. 10)

क्वचिद्ब्रह्मा क्वचिद्विष्णुः क्वचिद्रुदः प्रशस्यते ।

नानेन तेषामाधिख्यमैश्वर्यं चातिरिच्यते ।।12।।

शिवपुराण में महादेवजी ने कहा है कि कहीं पर ब्रह्मा पूजनीय कहा है, कहीं विष्णु, कहीं रुद्र । ऐसे एक पूजनीय की प्रशंसा करने से तिन दूसरों को पूज्यता व ऐश्वर्य की न्यूनता अधिकता नहीं होती है क्योंकि अपने-अपने स्थान में पूजनीय की प्रशंसा में शास्त्र का तात्पर्य है किसी की निन्दा करने में शास्त्र का तात्पर्य नहीं है और जहाँ कहीं निन्दा का प्रकरण आवे तहां पर भी पूजनीय की प्रशंसा करने का ही तात्पर्य जानना ||12||

(कूर्मपु. अ. 27 – श्लो. 15)

यो मां समर्च्चयेन्नित्यमेकान्तं भावमाश्रितः ।

विनिन्दन्देवमीशानं स याति नरकायुतम् ||13||

जो पुरुष निन्दा का पूजनीय की प्रशंसा करने में तात्पर्य न जानकर केवल द्वेष से निन्दा ही करता है उसके लिए कूर्म पुराण में कृष्णचन्द्रजी ने कहा है कि जो पुरुष मेरे को अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति से पूजता है और सर्व के ईश्वर महादेव की निन्दा करता है सो पुरुष दस हजार वर्षों तक नरको में वास करता है।।13।।

(देवी भा. स्कंध 6-अ. 18 – श्लो. 47 )

नरकं यान्ति ते नूनं ये द्विषन्ति महेश्वरम् ।

भक्ता मम विशालाक्षि सत्यमेतद्ब्रवीम्यहम् ।।14।।

देवी भागवत में विष्णु भगवान् ने लक्ष्मी से कहा है कि हे विशालाक्षि ! जो पुरुष मेरे भक्त होकर महादेव के साथ द्वेष वा निन्दा करते हैं वे पुरुष निश्चित ही नरकों में जाते हैं यह मैं सत्य ही कहता हूँ ।।14।।

(पद्मपु. खण्ड. 1 – अ. 31 – श्लो. 153 )

वैष्णवः पुरुषो वैश्य शिवनिन्दां करोति यः ।

न विन्देद्वैष्णवं लोकं स याति नरकं महत् ।।15।।

(पद्मपु. खण्ड. 6 – अ. 114 – श्लो. 17 )

परस्य निन्दां पैशून्यं धिक्कारं च करोति यः । तत्कृतं पातकं प्राप्य स्वपुण्यं प्रददाति सः ।।16।।

पद्म पुराण में कहा है कि जो विष्णु का भक्त वैष्णव पुरुष महादेव की निन्दा करता है। वो विष्णुलोक को प्राप्त नहीं होता है किन्तु महान् घोर नरक को प्राप्त होता है।।15।।

और भी पद्मपुराण में कहा है कि जो पुरुष दूसरे को निंदा- चुगली करता है और दूसरे के प्रति धिक्कार शब्द कहता है वो पुरुष अपने पुण्य को देकर उसके पाप का भागी होता ||17||

 

(पराशर स्मृ. अ. 1-श्लो. 27 )

कृते तात्क्षणिकः शापस्त्रेतायां दशभिर्दिनैः ।

द्वापरे चैकमासेन कलौ संवत्सरेण तु ।।17।।

पाराशर स्मृति में कहा है पुरुष दूसरे को दुःख देकर शाप का भागी होता है। सत्युग में तत्काल ही वर शाप का फल हो जाता था तथा त्रेता युग में दस दिनों के बाद होता था । द्वापर युग में एक मास के बाद में होता था और कलियुग में एक वर्ष के बाद होता है। चारों युगों में वर शाप अवश्य ही होता है ।।17।।

(भा. स्कंध 4-अ- 4- श्लो. 13)

नाश्चर्यमेतद्यदसत्सु सर्वदा महद्विनिन्दा कुणपात्मवादिषु । से

यं महापुरूष पादपासुभिर्निरस्ततेजःसु तदेव शोभनम् ।।18।।

भागवत में कहा है कि सतीने महादेव की निन्दा करने वाले दक्ष से कहा है कि दुर्जन पुरुषों में और शवरूप देह को आत्मा कहने वालों में यदि महान् पुरुषों की सर्वदा निन्दा करी जाती है तो यह कोई आश्चर्य नहीं परन्तु महान् पुरुषों के चरण सेवकों से निरस्त तेज हुओं में ईर्षा वाले पुरुषों में जो महान् पुरुषों की निन्दा करने का स्वभाव है सो तिनकी नीचता का भूषण है ।।18।।

(रुद्र हृदयो. मं. 6-7)

ये नमस्यन्ति गोविन्दं ते नमस्यन्ति शंकरम् ।

येऽर्चयन्ति हरिं भक्त्या तेऽर्चयन्ति वृषध्वजम् ।।19।।

ये द्विषन्ति विरूपाक्षं ते द्विषन्ति जनार्दनम् ।

ये रुद्रं नाभिजानन्ति ते न जानन्ति केशवम् || 20 ||

रुद्र हृदयोपनिषद् में कहा है कि जो पुरुष गोविन्द को नमस्कार करते हैं वे सुखकारी शंकर को ही नमस्कार करते हैं और जो पुरुष पापहारी हरिका भक्ति से पूजन करते हैं वे वृषभध्वज शंकर का ही पूजन करते हैं ।।19।।

जो पुरुष विरूपाक्ष शिवजी से द्वेष करते हैं वे पुरुष जनार्दन विष्णु से ही द्वेष करते हैं। और जो पुरुष रूप शिव को नहीं जानते हैं वे विष्णु केशव को कभी नहीं जान सकते ||20||

(अथर्व. कां. 18-अनु. 4- सू. 4-मं. 65 )

यथा यमाय हर्म्यमवपन पञ्चमानवाः ।

एवावमापि हम्य यथा मे भूरयोसतः ।। 21 ।।

(निरुक्त अ. 3-श्लो. 8 यास्कः)

निषादपंचमाश्चत्वारो वर्णाः पंच मानवाः ।। 22।।

अथर्ववेद में देव मन्दिर बनाना कहा है। जैसे पूर्व सर्व के नियन्ता परमात्मा के लिए मनुजी को प्रजा, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषाद यह पाँच देव मन्दिर बनाकर पूजा करते थे ऐसे ही उत्तर कल्पवर्ती हम लोग भी सर्व के नियमन करने वाले यम रूप परमात्मा के पूजन के लिए मन्दिर बनाते हैं। जिसके पूजन से हमारी सुखसंवर्धक बहुतसी विभूतियां होवे ।।21।।

निरुक्त में यास्क मुनिने कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र यह चार वर्ण और पांचवा निषाद इनका नाम पंचमानवा है ।।22।।

(लिखितस्मृ. श्लो. 4-5)

वापी कूपतडागानि देवतायतनानि च ।

पतितान्युद्धरेद्यस्तु सपूर्तफलमश्नुते ||23||

अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानां चैव पालनम् ।

आतिथ्यं वैश्वदेवं च इष्टमित्यभिधीयते ||24||

लिखित स्मृति में कहा है कि वापी, कूप, तालाब, बगीचा आदि धर्म के लिए बनाने देवमन्दिर बनाना और देवमन्दिर आदि का जीर्णोद्धार कराने वाला पुरुष पूर्त-कर्म के फल को भोगता है ||23||

अग्निहोत्र करना, चित्त एकाग्र करना, प्रिय सत्यभाषण करना, प्रतिदिवस वेद का स्वाध्याय करना, वैश्वदेव कर्म करना, अतिथिपूजन करना इनका नाम शास्त्रों में इष्टकर्म कहा है ||24||

(यजुसं अ. 32-मं. 3)

न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ||25||

यजुर्वेद का यह मन्त्र पढ़कर देव मन्दिर में देवप्रतिमा स्थापना करी जाती है। अर्थ यह हैं कि :- हे विभु शुद्ध बुद्ध अक्रिय अविनाशी परमात्मन् आपका नाम प्रसिद्ध महान् यश कल्याणकारी है। तिस आपके समान इस संसार में महान् यश कल्याणकारी और कोई नहीं है। इस कारण से आप परमात्मा के नाम से श्रुति-स्मृति – पुराण-विहित प्रतिमा को देव मन्दिर में स्थापन कर यथाशक्ति पूजन नमस्कार आदि करके आप परमात्मा से हम अपना यश कल्याण चाहते हैं ||25||

(गोपालोत्तरतापिन्यु. मं. 3)

योऽर्चयेत्प्रतिमायां च स मे प्रियतरो भुवि ।।26।।

एह्यश्मानमातिष्ठाश्मा भवतु ते तनुः ।

कृण्वन्तु विश्वेदेवा आयुष्टे शरदः शतम् ।।27।।

(अथर्व. काण्ड. 2-अनु. 3-सू. 13-मं. 4)

गोपालोत्तर तापिनि उपनिषद् में भगवान् ने कहा है कि जो पुरुष मेरी प्रतिमा का पूजन करता है वो संसार में मेरे को अति प्रिय है ||26||

अथर्ववेद में कहा है हे भगवन् ! आप हम मन्द बुद्धि वालों के कल्याण के लिए इस पाषाण की मूर्ति में आकार स्थिर होवें । चिरकाल स्थायी पाषाण यह आपका शरीर हो । हमारे कल्याण के लिए सर्व देवता आपके पाषाण रूप शरीर की दिव्य सौ वर्ष की आयु करे ||27||

(जैमन्यश्वमेघ अ. 11 – श्लो.. 124 )

द्वे रूपे वासुदेवस्य चलं चाचलमेव च ।

चलं संन्यासिनां रूपमचलं प्रतिमादकिम ।।28।।

जैमिनि अश्वमेघ में कहा है कि वासुदेव परमात्मा के दो रूप हैं एक चल दूसरा अचल चल रूप तो वीतराग – महात्मा है और अचल रूप प्रतिमादिक है ।।28।।

( अद्भुतरामा. सर्ग. 2- श्लो. 39-40-41 ) भवेयं त्वत्परो नित्यं वाङ्मनः काय कर्मभिः ।

पालयिष्यामि पृथिवीं कृत्वा वै वैष्णवं जगत् 112911 गृहे गृहे हरिस्तस्थौ वेदघोषो गृहे गृहे | नामघोषो हरेश्चैव यज्ञघोषस्तथैव 113011 रोगहीना नित्यं सर्वोपद्रववर्जिताः || अम्बरीषो महातेजाः पालयामास मेदिनीम् ॥13111 च प्रजा

अद्भुत रामायण में कहा है कि विष्णु भगवान् ने भक्ति से तुष्ट होकर अम्बरीष को कहा वर माँगो तब अम्बरीष ने कहा भो भगवन् ! यदि आप वर देना चाहते हो तो यह वर दो :- एक तो मैं मन वाणी शरीर की क्रिया से आप विष्णु की परमात्मा के परायण होकर सर्व जगत् की विष्णु का भक्त करके मैं पृथ्वी का पालन करूँ ।।2911

और मेरी प्रजा के घर-घर में हरि की मूर्ति स्थापित हो और घर-घर में वेद की पठन- पाठन रूप घोषणा श्रवण करने में आवे। घर-घर में हरि के नाम की और यज्ञ करने की घोषणा हो, सर्व प्राणी हरिपरायण ही देखने में आवें। यह वर यदि आप नहीं देवो तो मैं पापिष्ठ प्रजा कर नरककारी शासन करना नहीं चाहता हूँ ।।3011

तब विष्णु भगवान् के वर प्रदान करने पर अम्बरीष राजा महातेजस्वी रोग हीन सर्व उपद्रवों से रहित नित्य धर्मपरायण प्रजा को कृपादृष्टि से देखते हुए पृथ्वी का पालन किया ||31||

(महाभा. पर्व. 7-अ. 202 – श्लो. 130 )

तिम्रो देवीर्यदा चैव भजते भुवनेश्वरः ।

द्यामपः पृथिवी चैव त्र्यम्बकश्च ततः स्मृतः ||32||

महाभारत में कहा है कि जिस काल में त्रिभुवन के ईश्वर परमात्मा, देवलोक अन्तरिक्षलोक और भूलोक रूप तीन देवियों को आलम्बन करते हैं। इस कारण से महादेव को त्र्यम्बक कहा है ||32||

(त्रिपुरतापिन्यु. मं. 4)

त्रयाणां पुराणाम्बकं स्वामिनं तस्मादुच्यते त्र्यम्बकमिति ||33||

त्रिपुरतापनी उपनिषद् में कहा है कि तीन पुर वाले त्रिपुर दैत्य को मारकर तीन पुरों के अम्बक नाम स्वामी होने से महादेव को त्र्यम्बक कहा जाता है। अथवा तीन लोक रूपपुरों का स्वामी नियन्ता होने से महादेव को त्र्यम्बक कहा है ||33||

(यजुसं. अ. 3- मं. 60)

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ||34||

यजुर्वेद में कहा है कि सुखकारी, सुगन्ध के पुष्टिकारक विभूति के वर्धन त्र्यम्बक महादेव का हम लोग पूजन करते हैं। सो शिव भगवान् बेल से पकी काकड़ी के समान हमारे को मृत्यु के बन्धनों से मुक्त करे अनर्थ की निवृत्ति, परमानन्द की प्राप्ति रूपी मोक्ष से उपराम न करें ||34||

(भस्मजाबालो. अ. 2-मं.)

 

विश्वेश्वरं लिंगं तत्र रुद्रसूक्तैरभिषिच्य तदेव स्नपन-

पयस्त्रिः पीत्वा महापातकेभ्यो मुच्यते ||35||

भस्मजाबालोपनिषद् में कहा है कि काशीजी में विश्वनाथ नाम के लिंग का रुद्रसूक्तों से अभिषेक कर तिस विश्वनाथ के अभिषेक रूप स्नान के जल को तीन बार पीकर पुरुष महापातकों से मुक्त हो जाता है ||35||

(ब्रह्मवै खण्ड. 3-अ. 38 – श्लो. 17)

शतयज्ञेन या लब्धा दीक्षितेन त्वया पुरा ।

सा श्रीर्गताधुना कोपात्कृष्णनिर्माल्यवर्जनात् ।।36।।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि दुर्वासा ऋषि ने विष्णु भगवान् से प्राप्त हुआ फूल इन्द्र को दिया, इन्द्र ने अच्छा न जानकर हस्ती के मस्तक पर रख दिया। तिस हस्ती का शिर गणेशजी को प्राप्त होकर पूजनीय हुआ और इन्द्र स्वर्ग की लक्ष्मी से भ्रष्ट हो गया। तब ब्रह्माने इन्द्र से कहा कि हे इन्द्र ! जो तुमने पूर्वकाल में सौ यज्ञ की दीक्षा से स्वर्गलक्ष्मी प्राप्त करी थी सो आज श्री कृष्णचन्द्र परमानन्द के निर्माल्य का तिरस्कार करने से कुपित होकर तुम्हारे पास से चली गई ! अहो ! ईश्वरों की अवज्ञा करने से देवता भी गतश्री हो जाते हैं तो पुरुषों की तो क्या ही कथा है ||36||

(ब्रह्मवै खण्ड 4- अ. 37- श्लो. 29-30-31-32)

यतो न दत्तं नैवेद्यं विष्णोर्मह्यं त्वयाधुना ।

अतो मत्तो गृहाणैतत्फलमेव महेश्वर || 37 ||

अद्य प्रभृति ये लोका नैवेद्यं भुञ्जते तव ।

ते जन्मैकं सारमेया भविष्यन्त्येव भारते ||39||

अपूर्वं तव नैवेद्यं जन्ममृत्युजरापहम् ।

कृतं दुष्टं यतस्तस्मात् पश्य देहं त्यजामि च || 39 ||

लिंगोपरि च यद्दतं तदेवाग्राह्यमीश्वर ।

सुपवित्रं भवेत्तत् यद्धिष्णोर्नैबेद्यमिश्रितम् ||40||

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि किसी काल में महादेव के शिष्य सनत्कुमार भोजन करते हुए विष्णुजी के पास गये। विष्णुजी ने सनत्कुमार को कुछ लड्डू दिये सनत्कुमार ने कुछ तो खा लिये और कुछ महादेवजी को जाकर दिये। महादेव विष्णु का नैवेद्य जानकर सब खा गये। तब पार्वती ने कहा हे महेश्वर ! जिस कारण से विष्णु का पवित्र नैवेद्य आज मेरे को नहीं दिया है इस कारण से इस अन्याय का यह फल मेरे से ग्रहण करो ||37||

आज से जो पुरुष आपका नैवेद्य खावेंगे वे पुरुष इस भारतवर्ष में श्वान का एक जन्म पावेंगे। ऐसा क्रोध से पार्वती ने कह दिया। जब पार्वती का क्रोध शान्त हुआ तब विचारा कि अहो ! मैंने क्या पाप कर्म कर लिया। तब देह त्याग ही इसका प्रायश्चित् मानकर पार्वती ने कहा हे प्राणनाथ ! आपका अपूर्व नैवेद्य पुरुषों के जन्म-मृत्यु-जरा के नाशकारी को मैंने मूर्खता से दूषित कर दिया है। इस हेतु से मैं देह को त्यागती हूँ आप देखें।

यह सुनकर महादेव ने कहा हे पार्वती घात न कर। इसकी व्यवस्था करना उचित है। ऐसा मानकर पार्वती ने व्यवस्था करी कि ज्योतिर्लिंगों को छोड़कर दूसरे लिंगों के ऊपर जो द्रव्य चढ़ाया जाय सो हे देव ! अग्राह्य है। सो भी विष्णु के नैवेद्य के साथ मिला हुआ अति पवित्र हो जाता है और अनन्य शिव भक्त को तो दोष ही नहीं ||38||39||40||

(शिव पु. संहिता. 1 -अ. 22-श्लो. 4)

दृष्ट्वापि शिवनैवेद्यं यान्ति पापानि दूरतः ।

भुक्ते तु शिवनैवेद्य पुण्यान्यायान्ति कोटिशः ।। 41।।

शिव पुराण में कहा है कि शिव नैवेद्य के देखने से ही पुरूष के सर्व पाप दूर चले जाते हैं और शिव नैवेद्य को खाने पर महान् पुण्यों की प्राप्ति होती है ।।41।।

(देवीभां. स्कघ. 9-अ. 34 – श्लो. 37 )

शिवनैवेद्यके चैव हरिनैवेद्यके तथा ।

करोति भेदबुद्धि यो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः ।।42।।

देवीभागवत में कहा है कि शिव के नैवेद्य में और हरि विष्णु के नैवेद्य में जो पुरुष भेद बुद्धि करता है। वो पुरुष ब्रह्म हत्या के पाप को प्राप्त होता है। सर्व शास्त्र भेदबुद्धि वाले पुरुष को दुर्गति से बिना और कोई स्थान ही नहीं बतलाते हैं ।।42।।

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