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16. गृहस्थ के कर्म

गृहस्थ के कर्म

गृहस्थाश्रम के षट्कर्म

देव-पितर अतिथि का पूजन में षट्कर्म करने के लिए पाणिग्रहण की विधि कही गई है अब गृहस्थाश्रम के षट्कर्म इस प्रकार हैं।

पाराशर स्मृति में कहा है, “स्नान करके संध्या करनी, स्वाध्याय गायत्री आदि मन्त्रों का जाप करना, अग्निहोत्र करना, देवताओं का पूजन करना, पक्व अन्न की विराट परमात्मा के नाम से अग्नि में आहुति देना, धन आदि संग्रह से रहित और जिसके आने की तिथि का ज्ञान न हो ऐसे अतिथि का वाणी, जल, अन्न आदि से सत्कार करना, ये षट्कर्म गृहस्थी, को प्रतिदिन करने हैं।

मनुस्मृति में पांच हिंसा

मनुस्मृति में कहा है कि गृहस्थी से प्रतिदिन ५ हिंसा रोज होती है जिससे गृहस्थी संसार रूपी कारागृह में बांधा जाता है। ५ हिंसा ये हैं- (१) रसोई बनाने का चूल्हा (२) आटा पीसने की चक्की (३) धान कूटने का ऊखल (४) जल का घट रखने की जगह (५) झाडू इन पाँचों में अवश्य ही जीव हिंसा होती है।

पांच यज्ञ

इन ५ हिंसा को दूर करने के लिए मनुजी ने ५ यज्ञ कहे हैं- (१) नित्य यथाशक्ति वेद पाठ रूपी स्वाध्याय करना ब्राह्म यज्ञ है। २) नित्य पितरों का तर्पन करना पितृ यज्ञ है (३) नित्य अग्रिहोत्र करना देव यज्ञ है (४) कुछ भोजन रूप वाली नित्य पक्षियों के निमित्त गृह के ऊपर की छत पर फेंकना यह भूत यज्ञ है (५) यथा शक्ति श्रद्धाभक्ति पूर्वक वाणी, आसन, अन्न, जल, वस्त्र आदि से अतिथि का नित्य पूजन करना यह नर यज्ञ हैं। ये ५ यज्ञ नित्य करने से, गृहस्थी के पाँच पापों का नाश करने वाले हैं।

परमात्मा रूप

स्कन्ध पुराण में कहा है कि संसार की उत्पत्ति, स्थिति, लय के अर्थ महान ईश्वर परमात्मा रूप एक ही मूर्ति ब्रह्मा, शिव, विष्णु तीन मूर्ति भाव को प्राप्त होती है।

कर्त्ता, धर्त्ता, भर्त्ता, हर्त्ता

त्रिपुरोपनिषद् में कहा है कि सर्व जगत् का कर्त्ता, धर्त्ता, भर्त्ता, हर्त्ता, परमात्मा ही विश्वरूप को प्राप्त होता है।

विष्णु भगवान और महादेव

देवी भागवत में विष्णु भगवान ने लक्ष्मी से कहा कि हे विशालाक्षि। जो पुरुष मेरे भक्त होकर महादेव के साथ द्वैष व निन्दा करते हैं वे पुरुष निश्चित ही नरकों में जाते हैं। यह मैं सत्य ही कहता हूँ।

पद्म पुराण में कहा हैं कि जो विष्णु का भक्त वैष्णव पुरुष महादेव की निन्दा करता है वो विष्णु लोक को प्राप्त नहीं होता किन्तु महान घोर नरक को प्राप्त होता हैं।

और भी पद्म पुराण में कहा हैं कि जो पुरुष दूसरे की निन्दा, चुगली करता है और दूसरे के प्रति धिक्कार शब्द कहता है वो पुरुष अपने पुण्य को देकर उसके पाप का भागी होता है।

वर श्राप का फल

पाराशर स्मृति में कहा है कि पुरुष दूसरे को दुःख देकर श्राप का भागी होता है। सतयुग में तत्काल ही वर श्राप का फल हो जाता था तथा त्रेता युग में दस दिनों के बाद से होता था, द्वापर युग में एक मास के बाद में होता था और कलियुग में एक वर्ष से बाद में होता है। चारों युगों में वर श्राप अवश्य ही होता है।

 

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