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35. गोपों द्वारा भगवान्‌ का प्रभाव वर्णन तथा भगवान्‌ का गोपियों के साथ रासलीला करना

गोपों

गोवर्धन पर्वत धारण करने पर गोपों की प्रशंसा

 इन्द्रके चले जानेपर लीलाविहारी श्रीकृष्णचन्द्र को बिना प्रयास ही गोवर्धन- पर्वत धारण करते देख गोपगण उनसे प्रीतिपूर्वक बोले- ॥  हे भगवन्। हे महाभाग आपने गिरिराज को धारण कर हमारी और गौओंकी इस महान् भयसे रक्षा की है॥  हे तात । कहाँ आपकी यह अनुपम बाललीला कहाँ निन्दित गोपजाति और कहाँ ये दिव्य कर्म ? यह सब क्या है, कृपया हमें बतलाइये ॥  आपने यमुनाजलमें कालियनागका दमन किया, धेनुकासुरको मारा और फिर यह गोवर्धनपर्वत धारण किया आपके इन अदभुत कर्मोंसे हमारे चित्तमें बड़ी शंका हो रही है ॥

हे अमितविक्रम हम भगवान् हरिके चरणोंकी शपथ करके आपसे सच-सच कहते हैं कि आपके ऐसे बल-वीर्यको देखकर हम आपको मनुष्य नहीं मान सकते ॥  हे केशव स्त्री और बालकोंके सहित सभी ब्रजवासियोंकी आपपर अत्यन्त प्रीति है। आपका यह कर्म तो देवताओंके लिये भी दुष्कर है  ॥ हे कृष्ण! आपकी यह बाल्यावस्था, विचित्र बल-वीर्य और हम जैसे नीच पुरुषोंमें जन्म लेना हे अमेयात्मन्! ये सब बातें विचार करनेपर हमें शंकामें डाल देती हैं॥  आप देवता हों, दानव हों, यक्ष हों अथवा गन्धर्व हो इन बातोंका विचार करनेसे हमें क्या प्रयोजन है? हमारे तो आप बन्धु ही हैं, अतः आपको नमस्कार है ॥

गोपगणों का आभार व्यक्त करना

 गोपगणके ऐसा कहनेपर महामति कृष्णचन्द्र कुछ देरतक चुप रहे और फिर कुछ प्रणयजन्य कोपपूर्वक इस प्रकार कहने लगे ॥ 

श्रीभगवान्ने कहा- हे गोपगण! यदि आपलोगों को मेरे सम्बन्धसे किसी प्रकारकी लज्जा न हो तो मैं आपलोगोंसे प्रशंसनीय हूँ इस बातका विचार करनेकी भी क्या आवश्यकता है? ॥  यदि मुझमें आपकी प्रीति है और यदि मैं आपकी प्रशंसाका पात्र हूँ तो आपलोग मुझमें बान्धव बुद्धि ही करें ।। 

मैं न देव हूँ, न गन्धर्व हूँ, न यक्ष हूँ और न दानव हूँ। मैं तो आपके बान्धवरूपसे ही उत्पन्न हुआ हूँ; आपलोगोंको इस विषयमें और कुछ विचार न करना चाहिये ॥ 

रासलीला का प्रारंभ

श्रीहरिके प्रणयकोपयुक्त होकर कहे हुए इन वाक्यों को सुनकर वे समस्त गोपगण चुपचाप वन को चले गये ॥ तब श्रीकृष्णचन्द्र ने निर्मल आकाश, शरच्चन्द्रकी चन्द्रिका और दिशाओंको सुरभित करने वाली विकसित कुमुदिनी तथा वन-खण्डी को मुखर मधुकरों से मनोहर देखकर गोपियोंके साथ रमण करने की इच्छा की ॥  उस समय बलरामजीके बिना ही श्रीमुरलीमनोहर स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाला अत्यन्त मधुर, अस्फुट एवं मृदुल पद ऊँचे और धीमे स्वरसे गाने लगे ॥ उनकी उस सुरम्य गीतध्वनि को सुनकर गोपियाँ अपने-अपने घरों को छोड़कर तत्काल जहाँ श्रीमधुसूदन थे वहाँ चली आयीं ॥

रासलीला का वर्णन

वहाँ आकर कोई गोपी तो उनके स्वर-में-स्वर मिलाकर धीरे-धीरे गाने लगी और कोई मन-ही-मन उन्हींका स्मरण करने लगी ॥  कोई ‘हे कृष्ण, हे कृष्ण’ ऐसा कहती हुई लज्जावश संकुचित हो गयी और कोई प्रेमोन्मादिनी होकर तुरन्त उनके पास जा खड़ी हुई ॥  कोई गोपी बाहर गुरुजनों को देखकर अपने घरमें ही रहकर आँख मूँदकर तन्मयभाव से श्रीगोविन्द का ध्यान करने लगी ॥ 

तथा कोई गोपकुमारी जगत्के कारण परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णचन्द्रका चिन्तन करते- करते [मूर्च्छावस्थायें] प्राणापानके रुक जानेसे मुक्त हो गयी, क्योंकि भगवद्ध्यानके विमल आह्लाद से उसकी समस्त पुण्यराशि क्षीण हो गयी और भगवान्की अप्राप्ति के महान् दुःखसे उसके समस्त पाप लीन हो गये थे ॥  गोपियोंसे घिरे हुए रासारम्भरूप रस के लिये उत्कण्ठित श्रीगोविन्दने उस शरच्चन्द्रसुशोभिता रात्रिको [रास करके] सम्मानित किया ॥ 

उस समय भगवान् कृष्ण के अन्यत्र चले जानेपर कृष्णचेष्टा के अधीन हुईं गोपियाँ यूथ बनाकर वृन्दावनके अन्दर विचरने लगीं ॥  कृष्ण में निबद्धचित्त हुई वे ब्रजांगनाएँ परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लग-[उसमेंसे एक गोपी कहती थी- ] “मैं ही कृष्ण हूँ; देखो, कैसी सुन्दर चालसे चलता हूँ; तनिक मेरी गति तो देखो।” दूसरी कहती-“कृष्ण तो मैं हूँ, अहा! मेरा गाना तो सुनो ॥ कोई अन्य गोपी भुजाएँ ठोंककर बोल उठती-” अरे दृष्ट कालिये।

मैं कृष्ण हूँ. तनिक ठहर तो जा” ऐसा कहकर वह कृष्णके सारे चरित्रका लीलापूर्वक अनुकरण करने लगती ॥ कोई और गोपी कहने लगती” अरे गोपगण। मैंने गोवर्धन धारण कर लिया है. तुम वर्षासे मत डरो, निश्शंक होकर इसके नीचे आकर  बैठ जाओ” ॥  कोई दूसरी गोपी कृष्णलीलाओंका अनुकरण करती हुई बोलने लगती-“मैंने धेनुकासुरको मार दिया है, अब यहाँ गौएँ स्वच्छन्द होकर विचरें” ॥ 

इस प्रकार समस्त गोपियाँ श्रीकृष्णचन्द्र की नाना प्रकारकी चेष्टाओं में व्यग्र होकर साथ-साथ अति सुरम्य वृन्दावनके अन्दर विचरने लगीं ॥  खिले हुए कमल- जैसे नेत्रोंवाली एक सुन्दरी गोपांगना सर्वांग पुलकित हो पृथिवीकी ओर देखकर कहने लगी- ॥  अरी आली! ये लीलाललितगामी कृष्णचन्द्रके ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल आदिकी रेखाओंसे सुशोभित पदचिह्न तो देखो ॥  और देखो, उनके साथ कोई पुण्यवती मदमाती युवती भी आ गयी है, उसके ये घने छोटे-छोटे और पतले चरणचिह्न दिखायी दे रहे हैं ॥  यहाँ निश्चय ही दामोदरने ऊँचे होकर पुष्पचयन किये हैं; इसी कारण यहाँ उन महात्माके चरणोंके केवल अग्रभाग ही अंकित हुए हैं ॥ 

यहाँ बैठकर उन्होंने निश्चय ही किसी बड़भागिनीका पुष्पोंसे शृंगार किया है; अवश्य ही उसने अपने पूर्वजन्ममें सर्वात्मा श्रीविष्णुभगवान्‌की उपासना की होगी ॥  और यह देखो, पुष्पबन्धनके सम्मानसे गर्विता होकर उसके मान करनेपर श्रीनन्दनन्दन उसे छोड़कर इस मार्गसे चले गये हैं॥  अरी सखियो ! देखो, यहाँ कोई नितम्बभारके कारण मन्दगामिनी गोपी कृष्णचन्द्रके पीछे-पीछे गयी है। वह अपने गन्तव्य स्थानको तीव्रगतिसे गयी है, इसीसे उसके चरणचिह्नोंके अग्रभाग कुछ नीचे दिखायी देते हैं ॥  यहाँ वह सखी उनके हाथमें अपना पाणिपल्लव देकर चली है, इसीसे उसके चरणचिह्न पराधीन से दिखलायी देते हैं॥  देखो, यहाँसे उस मन्दगामिनीके निराश होकर लौटनेके चरणचिह्न दीख रहे हैं, मालूम होता है उस धूर्तने [उसकी अन्य आन्तरिक अभिलाषाओंको पूर्ण किये बिना ही ] केवल कर स्पर्श करके उसका अपमान किया है ॥ 

यहाँ कृष्णने अवश्य उस गोपीसे कहा है ‘[तू यहीं बैठ] मैं शीघ्र ही जाता हूँ [इस वनमें रहनेवाले राक्षसको मारकर ] पुनः तेरे पास लौट आऊँगा। इसीलिये यहाँ उनके चरणोंके चिह्न शीघ्र गतिके- से दीख रहे हैं ‘ ॥  यहाँसे कृष्णचन्द्र गहन वनमें चले गये हैं, इसीसे उनके चरण-चिह्न दिखलायी नहीं देते; अब सब लौट चलो; इस स्थानपर चन्द्रमा की किरणें नहीं पहुँच सकतीं ॥ 

तदनन्तर वे गोपियाँ कृष्ण-दर्शनसे निराश होकर लौट आयीं और यमुनातट पर आकर उनके चरितोंको गाने लगीं ॥ तब गोपियोंने प्रसन्नमुखारविन्द त्रिभुवनरक्षक लीलाविहारी श्रीकृष्णचन्द्रको वहाँ आते देखा ॥  उस समय कोई गोपी तो श्रीगोविन्द को आते देखकर अति हर्षित हो केवल ‘कृष्ण ! कृष्ण !! कृष्ण !!!’ इतना ही कहती रह गयी और कुछ न बोल सकी ॥  कोई [प्रणयकोपवश] अपनी भ्रूभंगीसे ललाट सिकोड़कर श्रीहरिको देखते हुए अपने नेत्ररूप भ्रमरोंद्वारा उनके मुखकमलका मकरन्द पान करने लगी ॥  कोई गोपी गोविन्दको देख नेत्र मूँदकर उन्हींके रूपका ध्यान करती हुई योगारूढ-सी भासित होने लगी ॥ 

तब श्रीमाधव किसीसे प्रिय भाषण करके, किसीकी ओर भ्रूभंगी से देखकर और किसीका हाथ पकड़कर उन्हें मनाने लगे ॥  फिर उदारचरित श्रीहरिने उन प्रसन्नचित्त गोपियोंके साथ रासमण्डल बनाकर किया ॥ 

किन्तु उस समय कोई भी गोपी कृष्णचन्द्र की सन्निधि को न छोड़ना चाहती थी; इसलिये एक ही स्थानपर स्थिर रहनेके कारण रासोचित मण्डल न बन सका ।  तब उन गोपियोंमें से एक-एकका हाथ पकड़कर श्रीहरिने रासमण्डलकी रचना की। उस समय उनके करस्पर्शसे प्रत्येक गोपी की आँखें आनन्द से मुँद जाती थीं ॥ 

तदनन्तर रासक्रीडा आरम्भ हुई। उसमें गोपियोंके चंचल कंकणों की झनकार होने लगी और फिर क्रमश: शरद्वर्णन-सम्बन्धी गीत होने लगे ॥  उस समय कृष्णचन्द्र चन्द्रमा, चन्द्रिका और कुमुदवन-सम्बन्धी गान करने लगे; किन्तु गोपियोंने तो बारम्बार केवल कृष्णनामका ही गान किया ॥  फिर एक गोपीने नृत्य करते-करते थककर चंचल कंकणकी झनकारसे युक्त अपनी बाहुलता श्रीमधुसूदन के गलेमें डाल दी ॥

किसी निपुण गोपीने भगवान्‌ के गानकी प्रशंसा करने के बहाने भुजा फैलाकर श्रीमधुसूदनको आलिंगन करके चूम लिया ॥  श्रीहरिकी भुजाएँ गोपियोंके कपोलोंका चुम्बन पाकर उन (कपोलों) में पुलकावलिरूप धान्यकी उत्पत्तिके लिये स्वेदरूप जलके मेघ बन गयीं ॥ 

रासलीला का प्रभाव

कृष्णचन्द्र जितने उच्चस्वर से रासोचित गान गाते थे उससे दूने शब्दसे गोपियाँ “धन्य कृष्ण ! धन्य कृष्ण !!” की ही ध्वनि लगा रही थीं ॥  भगवान्‌के आगे जानेपर गोपियाँ उनके पीछे जातीं और लौटनेपर सामने चलतीं, इस प्रकार वे अनुलोम और प्रतिलोम- गतिसे श्रीहरिका साथ देती थीं ॥  श्रीमधुसूदन भी गोपियोंके साथ इस प्रकार रासक्रीडा कर रहे थे कि उनके बिना एक क्षण भी गोपियोंको करोड़ों वर्षोंके समान बीतता था ॥ 

वे रास-रसिक गोपांगनाएँ पति, माता-पिता और भ्राता आदिके रोकनेपर भी रात्रिमें श्रीश्यामसुन्दर के साथ विहार करती थीं ॥ शत्रुहन्ता अमेयात्मा श्रीमधुसूदन भी अपनी किशोरावस्था का मान करते हुए रात्रिके समय उनके साथ रमण करते थे ॥  वे सर्वव्यापी ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्र गोपियोंमें, उनके पतियोंमें तथा समस्त प्राणियोंमें आत्मस्वरूपसे वायुके समान व्याप्त थे ॥ जिस प्रकार आकाश, अग्नि, पृथिवी, जल, वायु और आत्मा समस्त प्राणियोंमें व्याप्त हैं उसी प्रकार वे भी सब पदार्थोंमें व्यापक हैं ॥ 

 

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