Advertisements

धर्म की परिभाषा और महत्व

पूर्व मीमांसा में जैमिनी ने कहा है कि वेदों ने जो विधान किया हो और दुःख के सम्बन्ध से रहित सुख रूप जिसका फल हो उसका नाम धर्म है।

वैशेषिक दर्शन में कणाद् ऋषि ने कहा है कि जिससे स्वर्ग आदि संसारी सुख की प्राप्ति रूपी सिद्धि होवे और अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा ज्ञानपूर्वक मोक्ष होवे उसका नाम धर्म है।

धर्म के लक्षण और सिद्धांत

नारद परिब्राजकोपनिषद् में कहा है कि (१) कष्ट में धार्मिक धैर्य को न छोड़ना, (२) कटु भाषण आदि से क्षमा को न त्यागना, (३) इन्द्रियों का दमन करना, (४) मन इन्द्रियों को वश में करना, (५) चोरी न करना, (६) जलमृत्तिका से बाह्य शुद्धि और विचार आहार आदि से अन्तर की शुद्धि करना, (७) शास्त्र विधा को प्राप्त करना, (८) आत्म स्वभाव ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त करना, (९) जैसा देखा और सुना है, वैसा ही सत्य भाषण करना, (१०) बलहीनों पर क्रोध न करना, यह दस धर्म के लक्षण है।

वृहद् नारायणोपनिषद् में कहा है कि पुरुष धर्म करके ही पापों का नाश कर सकता है क्योंकि धर्म में ही सर्व चराचर स्थित हुआ है, इस कारण से धर्म को सर्व शास्त्र- परम उत्कृष्ट कहते हैं, ऐसा सर्व का अधिष्ठान पर ब्रह्म अद्वैत स्वरूप ही है-जिस आत्म स्वरूप अद्वैत ब्रह्म के साक्षात् के बिना अज्ञान रूप सर्व पापों का नाश नहीं हो। सकता, ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं और सर्व शास्त्री का भी यही सिद्धान्त है।

Advertisements

मनुष्य जन्म और धर्म

ब्रह्मपुराण में कहा है कि असंख्यात लक्ष चौरासी योनियों में किसी पुण्य प्रभाव से दुर्लभ मनुष्य शरीर को पाकर जो कल्याणकारी धर्म को नहीं करता है वो पुरुष इस संसार में धर्म रूपी धन के हाथ न आने पर वंचित ही रहा और उसकी दुर्लभ मनुष्य देह मृत्यु से ठगी गयी।

भागवत् में कहा है कि इस संसार में चार पुरुषार्थों का साधन- मनुष्य जन्म दुर्लभ है। वो भी क्षण भंगुर है स्थिर रहने वाला नहीं। परम भक्त प्रह्लाद बालकों से कहते हैं कि अपनी आयु क्षण-क्षण में क्षीण होती नहीं जानते हैं- प्रह्लाद कहते हैं कि बुद्धिमान वो ही है जो विष्णु स्मरण आदि भागवत् सम्बन्धी धर्मों को कुमार अवस्था में ही कर लेता है। क्योंकि क्षणभंगुर शरीर में धर्म करने को युवां आदि अवस्थाओं की आशा करने वाला मूर्ख है।

मृत्यु और धर्म

मनुजी ने कहा है कि मरे हुये प्राणी के शरीर को श्मशान भूमि में बन्धु वर्ग काष्ठ व ढेले के समान त्याग कर विमुख होकर घर को चले जाते हैं। मरे हुए के साथ में केवल एक धर्म ही साथ जाता है और कोई साथ नहीं जाता है।

नारद पुराण में कहा है कि सर्व कामना पूर्ण करने वाला धर्म ही एक काम धेनु है। सुखकारी इन्द्रवन के समान सन्तोष ही एक नन्दन वन है। पुरुष की महाकष्टकारी तृष्णा ही वैतरणी नदी है। जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैतबोधक विधा ही मोक्ष देने वाली कही है।

धन, बल और धर्म

महाभारत में कहा है कि जिस प्राप्त धन से न तो दान करा, न ही अपने सम्बन्धियों को दिया और न ही आप खाया उसको एकत्रित करने से पुरुष ने क्या किया ? यहाँ पर धिक्कार है और आगे के लिये नरक को प्राप्त किया। जिस बल से बाहर के हानिकारक चोर आदि और अन्तर के हानिकारक महाशत्रु काम, क्रोध, मोह, लोभ, अज्ञान आदि का नाश नहीं किया तो उस बल से बलहीन प्राणियों को दुःख देकर केवल नरक ही प्राप्त किया है।

उस शास्त्र श्रवण से क्या किया ? जिससे धर्म का आचरण नहीं किया और उल्टा लोगों को वचन कर नरक ही प्राप्त किया है। मनुष्य देह पाकर यदि इन्द्रिय और मन को वश में नहीं किया तो फिर लक्ष चौरासी योनिचक्र को ही प्राप्त किया है। जिसमें कोई शुभकारी कार्य नहीं होता है।

धर्म का महत्व और यमराज की शिक्षा

जो पुरुष इस अनित्य शरीर व गरुड़ पुराण में यमराज नारकी प्राणियों को दण्ड देते हये शिक्षा और अनित्य नाशवान धन आदि को नित्य अद्वैत ब्रह्म आत्म स्वरूप सर्व के अधिष्ठान रूपी धर्म को ज्ञान के साधन संग्रह पूर्व की सम्पादन करता है वो ही पुरुष संसार में बुद्धिमान है। ऐसा हम मानते हैं और जो ऐसे सर्व के धारक धर्म को प्राप्त नहीं करता है। वो पुरुष मेरे पुरुष यानि यमराज के वशीभूत होता है।

धर्म के लाभ और हानि

पद्म पुराण में कहा है कि जो पुरुष बाल, युवा, वृद्ध आदि सर्व अवस्थाओं में सर्व काल में मन, वाणी, शरीर से दूसरे को पीड़ा नहीं करते हैं। ये पुरुष यमलोक में कभी भी नहीं जाते हैं। वे लोग स्व ब्रह्मलोक आदि को प्राप्त करते हैं।

महाभारत में कहा है कि जो पुरुष मन, वाणी, शरीर, बुद्धि से पापकयों को नहीं करते हैं। वे पुरुष ही तीनों संसार में तप करते हैं। और जो पुरुष दूसरों को दुःख देते हुये अपने देह का शोषण करते हैं। वो तप नहीं माना जाता है।

भागवत में कहा है कि उस पुरुष का ही संसार में शुभ जीवन है जिसके जीवन से पालित हुये बन्धुजन, मित्रवर्ग, और शास्त्र अधीन ब्राह्मण सुख से जीवन बिताते हैं, उसका ही जीवन सफल है और जो पुरुष अपने लिए ही पदार्थ सम्पादन कर जीवन पुरा करता है। वो पुरुष जीवित नहीं माना जाता है।

कूर्म पुराण में कहा है कि जो पुरुष आपका कल्याण चाहता है कि सर्व प्राण धारियों में किसी को भी मन, वाणी, काया से हनन न करें, कभी झूठ नहीं बोले और दुःखकारी अप्रिय कठोर भाषण नहीं करें और किसी भी वस्तु की चोरी नहीं करें, ऐसा पुरुष अवश्य ही शुभ गति को प्राप्त होता है।

पद्म पुराण में कहा है कि किसी को पुत्र, पशु, बान्धवों सहित में पहुँचाना हो तो उस पुरुष को देव मन्दिर का पुजारी व स्वामी नरक कर दे अथवा गौशाला का साधु ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों के अन्न क्षेत्र का व मठ का स्वामी (मेनेजर) कर दें। क्योंकि बुद्धिमान तो ऐसे अधिकार लेते नहीं हैं और दूसरे लेकर कुछ न कुछ काटकर अथवा कहीं चूक हो जाने पर सीधे नरक को जाते हैं। कहीं नहीं चुकते हैं।

पद्मपुराण में कहा है कि प्रजा से करे हुए पुण्य-पापों का छटा-हिस्सा राजा को मिलता है। ऐसे ही शिष्य से गुरु, स्त्री से पति, पुत्र से पिता को भी छटा भाग पुण्य-पाप का मिलता है।

संसार में बंधुता और मैत्री

गरुड़ पुराण में कहा है कि जो अपना आत्मा रूप विष्णु सुखकारी को भूलकर संसार में बान्धने वालों को अपना बन्धु मानता है सो मूर्ख है क्योंकि संसार में न कोई किसी का मित्र है न कोई किसी का शत्रु है। पुरुष के पुण्य और शुभ मैत्री आदि गुणों के कारण से सर्व प्राणी मित्र हो जाते हैं और पुरुष के पाप, कटु भाषण, हिंसा आदि अशुभ गुणों से सर्वप्राणी शत्रु हो जाते हैं।

महाभारत में कहा है कि इस संसार में धनी पुरुषों को अपने बन्धु न होने पर भी लोग अपने बन्धु मानते हैं और दरिद्र पुरुषों को अपने बन्धु होने पर भी लोग अपने बन्धु नहीं मानते हैं और उल्टा उन्हें नाश करना चाहते हैं।

 

Advertisements
MEGHA PATIDAR
MEGHA PATIDAR

Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

Articles: 391
error: Content is protected !!