118. चातुर्वर्ण्य – व्यवस्था , पृथिवी – विभाग और अन्नादिकी उत्पत्तिका वर्णन

चातुर्वर्ण्य – व्यवस्था , पृथिवी – विभाग और अन्नादिकी उत्पत्तिका वर्णन

ब्रह्माजी द्वारा प्रजाओं की उत्पत्ति

जगत् – रचनाकी इच्छासे युक्त सत्यसंकल्प श्रीब्रह्माजीके मुखसे पहले सत्त्वप्रधान प्रजा उत्पन्न हुई । तदनन्तर उनके वक्षःस्थलसे रजःप्रधान तथा जंघाओंसे रज और तमविशिष्ट सृष्टि हुई । चरणोंसे ब्रह्माजीने एक और प्रकारकी प्रजा उत्पन्न की , वह तमः प्रधान थी । ये ही सब चारों वर्ण हुए । ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र ये चारों क्रमशः ब्रह्माजीके मुख , वक्षःस्थल , जानु और चरणोंसे उत्पन्न हुए ।

चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की रचना

ब्रह्माजीने यज्ञानुष्ठानके लिये ही यज्ञके उत्तम साधनरूप इस सम्पूर्ण चातुर्वर्ण्यकी रचना की थी।  यज्ञसे तृप्त होकर देवगण जल बरसाकर प्रजाको तृप्त करते हैं ; अतः यज्ञ सर्वथा कल्याणका हेतु है । जो मनुष्य सदा स्वधर्मपरायण , सदाचारी , सज्जन और सुमार्गगामी होते हैं उन्हींसे यज्ञका यथावत् अनुष्ठान हो सकता है । [ यज्ञके द्वारा ] मनुष्य इस मनुष्य – शरीरसे ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते हैं ; तथा और भी जिस स्थानकी उन्हें इच्छा हो उसीको जा सकते हैं ।

 प्रजा की स्थिति और उसकी समस्याएँ

 ब्रह्माजीद्वारा रची हुई वह चातुर्वर्ण्य विभागमें स्थित प्रजा अति श्रद्धायुक्त आचरणवाली , स्वेच्छानुसार रहनेवाली , सम्पूर्ण बाधाओंसे रहित , शुद्ध अन्तःकरणवाली , सत्कुलोत्पन्न और पुण्य कर्मोंके अनुष्ठानसे परम पवित्र थी । उसका चित्त शुद्ध होनेके कारण उसमें निरन्तर शुद्धस्वरूप श्रीहरिके विराजमान रहनेसे उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था जिससे वे भगवान्के उस ‘ विष्णु ‘ नामक परम पदको देख पाते थे । फिर ( त्रेतायुगके आरम्भमें ) , हमने तुमसे भगवान्के जिस काल नामक अंशका पहले वर्णन किया है , वह अति अल्प ( सुखवाले ) तुच्छ और घोर ( दु:खमय ) सारवाले पापको प्रजामें प्रवृत्त कर देते हैं।

 उससे प्रजामें पुरुषार्थका विघातक तथा अज्ञान और लोभको उत्पन्न करनेवाला रागादिरूप अधर्मका बीज उत्पन्न जाता है । तभीसे उसे वह विष्णु – पद – प्राप्ति रूप स्वाभाविक सिद्धि और रसोल्लास आदि अन्य अष्ट सिद्धियाँ ‘ नहीं मिलतीं । उन समस्त सिद्धियोंके क्षीण हो जाने और पापके बढ़ जानेसे फिर सम्पूर्ण प्रजा द्वन्द्व , ह्रास और दुःखसे आतुर हो गयी । तब उसने मरुभूमि , पर्वत और जल आदिके स्वाभाविक तथा कृत्रिम दुर्ग और पुर तथा खर्वट ‘ आदि स्थापित किये । उन पुर आदिकोंमें शीत और घाम आदि बाधाओंसे बचनेके लिये उसने यथायोग्य घर बनाये ।

कृषि और औषधियों की रचना

इस प्रकार शीतोष्णादिसे बचनेका उपाय करके उस प्रजाने जीविकाके साधनरूप कृषि तथा कला – कौशल आदिकी रचना की । धान , जौ , गेहूँ , छोटे धान्य , तिल , काँगनी , ज्वार , कोदो , छोटी मटर , उड़द , मूँग , मसूर , बड़ी मटर , कुलथी , राई , चना और सन – ये सत्रह ग्राम्य ओषधियोंकी जातियाँ हैं । ग्राम्य और वन्य दोनों प्रकारकी मिलाकर कुल चौदह ओषधियाँ याज्ञिक हैं । उनके नाम ये हैं धान , जौ , उड़द , गेहूँ , छोटे धान्य , तिल , काँगनी और कुलथी – से आठ तथा श्यामाक (समां)नीबार , वनतिल , गवेधु , वेणुयव और मर्कट ( मक्का ) । ये चौदह ग्राम्य और वन्य ओषधियाँ यज्ञानुष्ठानकी सामग्री हैं और यज्ञ इनकी उत्पत्तिका प्रधान हेतु है ।

यज्ञ का अनुष्ठान और उसका महत्व

यज्ञोंके सहित ये ओषधियाँ प्रजाकी वृद्धिका परम कारण हैं इसलिये इहलोक – परलोकके ज्ञाता पुरुष यज्ञका अनुष्ठान किया करते हैं । नित्यप्रति किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्योंका परम उपकारक और उनके पापोंको शान्त करनेवाला है । जिनके चित्तमें कालकी गतिसे पापका बीज बढ़ता है उन्हीं लोगोंका चित्त यज्ञमें प्रवृत्त नहीं होता । उन यज्ञके विरोधियोंने वैदिक मत , वेद और यज्ञादि कर्म – सभीकी निन्दा की है । वे लोग दुरात्मा , दुराचारी , कुटिलमति , वेद – विनिन्दक और प्रवृत्तिमार्गका उच्छेद करनेवाले ही थे ।

वर्ण, आश्रम, और उनके स्थान

इस प्रकार कृषि आदि जीविकाके साधनोंके निश्चित हो जानेपर प्रजापति ब्रह्माजीने प्रजाकी रचना कर उनके स्थान और गुणोंके अनुसार मर्यादा , वर्ण और आश्रमोंके धर्म तथा अपने धर्मका भली प्रकार पालन करनेवाले समस्त वर्णोंके लोक आदिकी स्थापना की । कर्मनिष्ठ ब्राह्मणोंका स्थान पितृलोक है , युद्ध – क्षेत्रसे कभी न हटनेवाले क्षत्रियोंका इन्द्रलोक है । तथा अपने धर्मका पालन करनेवाले वैश्योंका वायुलोक और सेवाधर्मपरायण शूद्रोंका गन्धर्वलोक है ।

योगियों का स्थान

अट्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता मुनि हैं ; उनका जो स्थान बताया गया है वही गुरुकुलवासी ब्रह्मचारियोंका स्थान है । इसी प्रकार वनवासी वानप्रस्थोंका स्थान सप्तर्षिलोक , गृहस्थोंका पितृलोक और संन्यासियोंका ब्रह्मलोक है तथा आत्मानुभवसे तृप्त योगियोंका स्थान अमरपद ( मोक्ष ) है । जो निरन्तर एकान्तसेवी और ब्रह्मचिन्तनमें मग्न रहनेवाले योगिजन हैं उनका जो परमस्थान है उसे पण्डितजन ही देख पाते हैं । चन्द्र और सूर्य आदि ग्रह भी अपने – अपने लोकोंमें जाकर फिर लौट आते हैं , किन्तु द्वादशाक्षर मन्त्र ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) का चिन्तन करनेवाले अभीतक मोक्षपदसे नहीं लौटे ।

पाप और अधर्म के परिणाम

तामिस्र , अन्धतामिस्र , महारौरव , रौरव , असिपत्रवन , घोर , कालसूत्र और अवीचिक आदि जो नरक हैं , वे वेदोंकी निन्दा और यज्ञोंका उच्छेद करनेवाले तथा स्वधर्म – विमुख पुरुषोंके स्थान कहे गये हैं ।

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