93. जडभरत और सौवीरनरेशका संवाद

जडभरत और सौवीरनरेशका संवाद

राजा की मनोवृत्तियों का भ्रम

राजा बोले- भगवन् ! आपने जो परमार्थमय वचन कहे हैं उन्हें सुनकर मेरी मनोवृत्तियाँ भ्रान्त – सी हो गयी हैं ॥ आपने सम्पूर्ण जीवोंमें व्याप्त जिस असंग विज्ञानका दिग्दर्शन कराया है वह प्रकृतिसे परे ब्रह्म ही है [ इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है ] । परंतु आपने जो कहा कि मैं शिबिकाको वहन नहीं कर रहा हूँ , शिबिका मेरे ऊपर नहीं है , जिसने इसे उठा रखा है वह शरीर मुझसे अत्यन्त पृथक् है। जीवोंकी प्रवृत्ति गुणों ( सत्त्व , रज , तम ) -की प्रेरणासे होती है और गुण कर्मोंसे प्रेरित होकर प्रवृत्त होते हैं – इसमें मेरा कर्तृत्व कैसे माना जा सकता है ? हे परमार्थज्ञ ! यह बात मेरे कानोंमें पड़ते ही मेरा मन परमार्थका जिज्ञासु होकर बड़ा उतावला हो रहा है ॥

श्रेय और परमार्थ की जिज्ञासा

 मैं तो पहले ही महाभाग कपिल मुनिसे यह पूछनेके लिये कि बताइये ‘ संसारमें मनुष्योंका श्रेय किसमें है ‘ उनके पास जानेको तत्पर हुआ हूँ ॥ किन्तु बीचहीमें , आपने जो वाक्य कहे हैं उन्हें सुनकर मेरा चित्त परमार्थ- श्रवण करनेके लिये आपकी ओर झुक गया है ॥  ये कपिल मुनि सर्वभूत भगवान् विष्णुके ही अंश हैं । इन्होंने संसारका मोह दूर करनेके लिये ही पृथिवीपर अवतार लिया है ॥ किन्तु आप जो इस प्रकार भाषण कर रहे हैं उससे मुझे निश्चय होता है कि वे ही भगवान् कपिलदेव मेरे हितकी कामनासे यहाँ आपके रूपमें प्रकट हो गये हैं ॥

अतः  हमारा जो परम श्रेय हो वह आप मुझ विनीतसे कहिये।  आप सम्पूर्ण विज्ञान – तरंगोंके मानो समुद्र ही हैं ॥ ब्राह्मण बोले-  तुम श्रेय पूछना चाहते हो या परमार्थ ? क्योंकि हे भूपते ! श्रेय तो सब अपारमार्थिक ही हैं ॥ जो पुरुष देवताओंकी आराधना करके धन , सम्पत्ति , पुत्र और राज्यादिकी इच्छा करता है उसके लिये तो वे ही परम श्रेय हैं ॥ जिसका फल स्वर्गलोककी प्राप्ति है वह यज्ञात्मक कर्म भी श्रेय है; किन्तु प्रधान श्रेय तो उसके फलकी इच्छा न करनेमें ही है ॥

अतः  योगयुक्त पुरुषोंको प्रकृति आदिसे अतीत उस आत्माका ही ध्यान करना चाहिये , क्योंकि उस परमात्माका संयोगरूप श्रेय ही वास्तविक श्रेय है ॥ इस प्रकार श्रेय तो सैकड़ों – हजारों प्रकारके अनेकों हैं , किंतु ये सब परमार्थ नहीं हैं । अब जो परमार्थ है सो सुनो ॥ यदि धन ही परमार्थ है तो धर्मके लिये उसका त्याग क्यों किया जाता है ? तथा इच्छित भोगोंकी प्राप्तिके लिये उसका व्यय क्यों किया जाता है ? [ अतः वह परमार्थ नहीं है ] ॥

हे नरेश्वर ! यदि पुत्रको परमार्थ कहा जाय तो वह तो अन्य ( अपने पिता ) – का परमार्थभूत है , तथा उसका पिता भी दूसरेका पुत्र होनेके कारण उस ( अपने पिता ) का परमार्थ होगा ॥ अतः इस चराचर जगत्‌में पिताका कार्यरूप पुत्र भी परमार्थ नहीं है । क्योंकि फिर तो सभी कारणोंके कार्य परमार्थ हो जायेंगे ॥ यदि संसारमें राज्यादिकी प्राप्तिको परमार्थ कहा जाय तो ये कभी रहते हैं और कभी नहीं रहते । अतः परमार्थ भी आगमापायी हो जायगा । [ इसलिये राज्यादि भी परमार्थ नहीं हो सकते ] ॥ यदि ऋक् , यजुः और सामरूप वेदत्रयीसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञकर्मको परमार्थ मानते हो तो उसके विषयमें मेरा ऐसा विचार है ॥

विशेष ज्ञान और परमार्थ

हे नृप ! जो वस्तु कारणरूपा मृत्तिकाका कार्य होती है वह कारणकी अनुगामिनी होनेसे मृत्तिकारूप ही जानी और कुशा जाती है ॥ अतः जो क्रिया समिध , घृत आदि नाशवान् द्रव्योंसे सम्पन्न होती है वह भी नाशवान् ही होगी ॥ किन्तु परमार्थको तो प्राज्ञ पुरुष अविनाशी बतलाते हैं और नाशवान् द्रव्योंसे निष्पन्न होनेके कारण कर्म [ अथवा उनसे निष्पन्न होनेवाले स्वर्गादि ] नाशवान् ही हैं— इसमें सन्देह नहीं ॥ यदि फलाशासे रहित निष्कामकर्मको परमार्थ मानते हो तो वह तो मुक्तिरूप फलका साधन होनेसे साधन ही है , परमार्थ नहीं ॥

यदि देहादिसे आत्माका पार्थक्य विचारकर उसके ध्यान करनेको परमार्थ कहा जाय तो वह तो अनात्मासे आत्माका भेद करनेवाला है और परमार्थमें भेद है नहीं [ अतः वह भी परमार्थ नहीं हो सकता ] ॥ यदि परमात्मा और जीवात्माके संयोगको परमार्थ कहें तो ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या है , क्योंकि अन्य द्रव्यसे अन्य द्रव्यकी एकता कभी नहीं हो सकती ॥ श्रवण अतः हे राजन् ! निःसन्देह ये सब श्रेय ही हैं , [ परमार्थ नहीं ] अब जो परमार्थ है वह मैं संक्षेपसे सुनाता हूँ ॥

आत्मा एक , व्यापक , सम , शुद्ध , निर्गुण और प्रकृतिसे परे है ; वह जन्म – वृद्धि आदिसे रहित , सर्वव्यापी और अव्यय है ॥ हे राजन् ! वह परम ज्ञानमय है , असत् नाम और जाति आदिसे उस सर्वव्यापकका संयोग न कभी हुआ , न है और न होगा ॥

‘ वह , अपने और अन्य प्राणियोंके शरीरमें विद्यमान रहते हुए भी , एक ही है ‘ — इस प्रकारका जो विशेष ज्ञान है वही परमार्थ है; द्वैत भावनावाले पुरुष तो अपरमार्थदर्शी हैं ॥ जिस प्रकार अभिन्न भावसे व्याप्त एक ही वायुके बाँसुरीके छिद्रोंके भेदसे षड्ज आदि भेद होते हैं उसी प्रकार [ शरीरादि उपाधियोंके कारण ] एक ही परमात्माके [ देवता – मनुष्यादि ] अनेक भेद प्रतीत होते हैं॥ एकरूप आत्माके जो नाना भेद हैं वे बाह्य देहादिकी कर्मप्रवृत्तिके कारण ही हुए  हैं । देवादि शरीरोंके भेदका निराकरण हो जानेपर वह नहीं रहता । उसकी स्थिति तो अविद्याके आवरणतक ही है ॥

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