जनक आदियों का वैराग्य

जनक आदियों का वैराग्य

क्व धनानि महीपानां ब्रह्मणः क्व जगन्तिवा ।

प्राक्तनानि प्रयातापि केयं विश्वस्तता मम ||1||

योगवासिष्ठ में कहा है कि राजा जनक ऋषभदेव के नव पुत्र ब्रह्मनिष्ठ वीतरागियों को देखकर और राजलक्ष्मी तथा सर्व प्रपञ्च को नाशवान् जानकर कहते हैं कि अहो खेद है। हमारे पूर्वज बल पराक्रम वाले महीपालों के एकत्र करे हुए धन कहाँ चले गये और ब्रह्मा के हजारों ही प्रपंच रचे हुए वे कहाँ नष्ट हो गये। जब प्राचीन ब्रह्मा के रचे हुए जगत् नष्ट हो गये तो अल्प काल रहने वाले पदार्थों का और मेरे शरीर का स्थिर रहने का क्या ही विश्वास है ।। 1 ।।

कष्टात्कष्टतरं प्राप्तो दुःखाद्दुःखतरं गतः ।

अद्यापि न विरक्तोऽस्मि हा धिङ्मामधमाशयम् ||2||

अब मैं वृद्धावस्था रूप महान् कष्ट से भी कष्ट को प्राप्त हो गया हूँ और पदार्थों की तृष्णा से महान् दुःख से भी दुःख को प्राप्त हो गया हूँ। अहो आश्चर्य है जिन भोग पदार्थों को जन्म से लेकर अब तक भोग रहे हैं तिन भोग पदार्थों से मेरी कब तृप्ति होगी। अहो मैं मृत्यु की भगिनी जरावस्था के मुख का ग्रास होकर आज भी मैं भोग पदार्थों से विरक्त न हुआ। हा ! धिक्कार है ऐसे मेरे को नीच अधम आशय वाले को बार-बार धिक्कार है ।।2।।

व्यासादधिक एवाहं व्यासशिष्योऽसि तत्सुतः ।

भोगेच्छातानवेनेह मत्तोप्यत्यधिको भवान् ||3||

योगवासिष्ठ में कहा है कि वेदव्यासजी के वाक्यों से जब शुकदेव को निश्चित बोध न हुआ तब व्यासजी ने शुकदेव को जनक राजा के पास शिक्षा के लिये भेजा। पिता की आज्ञा से जाकर आत्म ब्रह्मस्वरूप अद्वैत तत्वज्ञान के जिज्ञासु शुकदेव सात दिन जनक राजा के द्वार पर खड़े रहे। सात दिन अन्त: पुर में रानियों से सेवा कराई।

पश्चात् जब जनक ने शुकदेव में इन्द्रियों का किसी प्रकार का विकार न देखा तब जनक ने शुकदेव का विधि से सत्कार पूजनकर कहा हे शुकदेव आपके पिता व्यासजी से मैं अधिक विचारशील हूँ क्योंकि आप व्यास के पुत्र हो और शिष्य हो, व्यासजी ने आपको शिक्षा देने में कोई त्रुटि नहीं रखी तो भी आपके संशय दूर न होने पर आपको मेरे पास अपने से अधिक जानकर भेजा है। परन्तु भोगों में रागवान् मेरे से भी आप इस संसार में भोगों की इच्छा से रहित होने से अधिक महान हो और शिक्षा जो आपके पिता व्यासजी ने कही है वो ही निश्चय करने पर कैवल्य मोक्षकारी है ||3||

अशक्तिरापदस्तृष्णा मूकता मूढबुद्धिता ।

तालोलता दैन्यं सर्वं बाल्ये प्रवर्तते ।।4।।

विश्वामित्रजी विषयों से विरक्त श्रीरामचन्द्र कौशलचन्द्र परमानन्द से सभा में बुलाकर पूछते हैं कि हे रामचन्द्र आपको क्या रोग है ? जो दिन प्रतिदिन इतने कुश होते जाते हो। श्रीरामचन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा हे भवसागर तारक पूज्यपाद ! मैं विचार करने पर इस संसार में किसी भी अवस्था में सुख नहीं देखता हूँ।

क्योंकि बाल अवस्था में मच्छर कीट आदि को दूर करने में अशक्त रूप आपदा है, खान-पान की इच्छा होती है परन्तु मुख से बोल नहीं सकता है, मूढबुद्धि होने से किसी को हाथ के सहारे से नहीं जना सकता है और जो वस्तु देखने में आती है उसी को हाथ में लेकर मुख में डालने की इच्छा रखता है। इस प्रकार चञ्चलता, दीनता आदि बाल अवस्था में नाना ही आपदाएँ प्राप्त होती है ।।4।।

यदा यदा परां कोटिमध्यारोहति यौवनम् ।

वल्गन्ति सज्वराः कामास्तदा नाशाय केवलम् ||5||

युवावस्था में भी दुखी रूप रोगों की कोई सीमा नहीं है। जिस काल में पुरुष पूर्ण यौवन अवस्था की सीमा पर आरूढ़ हो जाता है उस काल में प्राणघातनी व्याघ्र के समान स्त्री पुत्र धन राज्य आदि पदार्थों की न प्राप्ति होना रूप ज्वरों के सहित विशाल कामनाएँ केवल पुरुष के नाश करने के लिये ही गर्जना करती हैं। ऐसे युवाऽवस्था रूपी अन्धारी ने शुभ मार्ग देखने से मेरी आखें बन्द कर दी हैं। ऐसी अवस्था में अचल पर्वतों के समान आप जैसे महान् पुरुषों का आसरा लेकर बचना हो सकता है और कोई दूसरा मार्ग बचने का नहीं दीख पड़ता है। इस मेरे असीम रोग के दूर करने वाले वैद्य आप ही हो ||5||

दासाः पुत्राः स्त्रियश्चैव बान्धवाः सुहृदस्तथा ।

हसन्त्युन्मत्तकमिव नरं वार्धककंपितम् ||6||

महोपनिषद् में कहा है कि वृद्ध अवस्था के आजाने पर वृद्ध पुरुष को तेज-बल से हीन हुए कम्पितगात को देखकर दास वर्ग तथा पुत्र, स्त्रियाँ, बान्धव और सुहृद्जन ऐसे हास करते हैं जैसे उन्मत्त पुरुषों का लड़के-लड़कियाँ हास करते हैं ।।6।।

बलिभिर्मुखमाक्रान्तपलितैरङ्कितं शिरः ।

गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते ।।7।।

भर्तृहरि वैराग्यशतक में कहा है कि वृद्धावस्था के प्राप्त होने पर मुख की कान्ति नष्ट हो जाति है और श्वेत केशों से शिर चित्र विचित्र हो जाता है, शरीर के सर्वअंग और इन्द्रिय शक्ति से हीन शिथिल हो जाते हैं। नेत्रों से पूरा दिखता नहीं, कानों से पूरा सुनाता नहीं है। जैसे हिमालय से सर्व नदीयाँ चलकर समुद्र में स्थिर होती हैं, तैसे ही सब रोग वृद्धावस्था में आकर स्थिर होते हैं। शरीर की सर्व शक्ति नष्ट होने पर भी एक तृष्णा वृद्ध शरीर में यौवन अवस्था को प्राप्त होती है। तृष्णा रूप पिशाचिनी के दूर करने का मंत्र वैराग्यपूर्वक आत्मविचार है ||7||

एवं स्वभरणाकल्पं तत्कलत्रादयस्तथा ।

नाद्रियन्ते यथा पूर्व कीनाशा इव गोजरम् ।।8।।

भागवत में कपिलदेवजी अपनी माता से कहते हैं कि हे मातः ! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार वृद्ध शरीर में सर्व इन्द्रियों के शिथिल हो जाने पर अपने शरीर के पालन-पोषण करने की भी शक्ति न होने पर पुरुष को तिस के पुत्र स्त्री आदि जैसे पूर्व काल में धन कमाने पर आदर सत्कार करते थे तैसे फेर वृद्ध होने पर आदर सत्कार नहीं करते हैं। कृषि करने वाले हल में बहते बैल की जैसी सेवा करते हैं वैसी हारे हुए अशक्त बूढ़े बैल की सेवा नहीं करते ||8||

बाल्यमल्पदिनैरेव यौवन श्रीस्ततो जरा ।

देहेऽपि नैकरूपत्वं कास्था बाह्येषु वस्तुषु ||9||

योगवासिष्ठ में कहा है कि थोड़े से दिनों के बीतने से बाल्य अवस्था की शोभा नष्ट हो जाती है तिससे पश्चात् अल्प दिनों में ही युवावस्था की शोभा को जरावस्था ग्रास कर लेती है। अहो कष्ट है यदि अति समीपवर्ती देह में भी एक रूपता स्थिर नहीं रहती है तो बाह्य धन पुत्र स्त्री आदि तथा अन्य पदार्थों में तो स्थिरता अथवा एकरूपता रहने की क्या ही आस्था कर सकते हैं ||9||

अज्ञानोपहतो बाल्ये यौवने वनिताहतः ।

शेषे कलत्रचिन्तार्तः किं करोति नराधमः ||10||

महोपनिषद् में कहा है कि बाल अवस्था में तो प्राणी मूर्खता रूप अज्ञान से हतबुद्धि रहता है और युवावस्था में स्त्री के हाव भावों से हतबुद्धि रहता है और शेष आयु में पुत्र स्त्री आदि के पालन की चिन्ता से दुखी रहता है। विद्वान पुरुषों के संग से बिना कहो ऐसी दशा में अधम पुरुष क्या कर सकता है। ऐसी दशा में तो ‘सतां संगो हि भेषजम्’ ।।10।।

दुःखं स्वर्गात्प्रपाते बहुविधनरके गर्भवासेऽति दुःखं निःस्वातन्त्र्याशनाया ग्रहगदरुदितैः शैशवे दुःखमेव ।।

तारुण्ये मर्षलोभव्यसनपरिभवोद्वेगदारिद्य दुःखं बार्द्धक्ये शोकमोहेन्द्रयविलयगदैर्दुःखमन्तेऽतिदुःखम् ।।11।।

स्वाराज्य-सिद्धि में कहा है कि स्वर्गवासी पुरुषों को स्वर्ग से पतन होने का दुःख रहता है और नरक में तो दु का कोई अन्त ही नहीं है। माता के गर्भ में वास करने काल में जठराग्नि से अति दुःख होता है और बाल्यावस्था में खान-पान के लिये भी स्वतन्त्र न होकर नवग्रहों की पीड़ा से और मच्छरकीटादियों की पीड़ा से रुदन करके शिशु अवस्था में महान दुःख होता है। युवावस्था में काम, क्रोध, लोभ-व्यसन तिरस्कार, चित्त में उद्वेग तथा दारिद्र्य आदि नाना दुःख प्राप्त होते हैं। वृद्धावस्था में शोक, मोह, तृष्णा इन्द्रियों की शक्तिहीनता और नाना प्रकार के रोगों से अन्तिम अवस्था में अति दुःख होता है ।।11।।

इथे यः कर्म बद्धो भ्रमति परवशः प्राणभृज्जन्म संघैर्दुःखस्यान्तं न वेत्ति स्मरति न च जनित्रातमज्ञानयोगात् ।।

तं सर्वानर्थमूलप्रशमनविधिना स्वात्मराज्येभिषेक्तुं तात्पर्येण प्रवृत्ताः श्रुतिशिखरगिरः सूत्रभाष्यादयश्च ।।12।।

इस प्रकार से जो प्राणधारी पुरुष कर्मों से बद्ध परवश हुआ जन्मों के समूहों द्वारा संसार चक्र में भ्रमण करता हुआ दुःखों के अन्त को नहीं जान सकता है और अज्ञान के कारण से असंख्यातों जन्मों के संघात को नहीं स्मरण करता है। उस पुरुष के लिये सर्व अनर्थ का मूल जो अज्ञान तिसका जिस विधि से नाश हो जाय और जीवब्रह्म की एकता रूप अद्वैत परमानन्द प्रकाश रूप स्वात्म-राज्य में स्थिति रूप अभिषेक करने के तात्पर्य से उपनिषद् रूप वेदान्त और उत्तरमीमांसा रूप ब्रह्मसूत्र और शारीरिक भाष्य आदि शास्त्र प्रवृत किये गये हैं।।12।।

प्राप्यं संप्राप्यते येन भूयो येन न शोच्यते ।

पराया निर्वृतेः स्थानं यत्तज्जीवितमुच्यते ||13||

महोपनिषद् में कहा है कि निदाघ मुनि ऋभु मुनि के पुत्र बालावस्था में पिता की आज्ञा से सर्व तीर्थ यात्रा करके शुद्ध चित्त होकर ऋभु पिता से आकर कहते है है पित: इस संसार में निस्सार धन, पुत्र, स्त्री आदि पदार्थों के सम्बन्ध से अब मैं जीवन पूरा करना अच्छा नहीं मानता हूं । अब तो जिस साधन से प्राप्त होने योग्य तत्व वस्तु की प्राप्ति होती है और पुनः जिसके प्राप्त होने पर नर पुरुष शोक नहीं करता है और जो महान् परमानन्द का अपुनरावृत्ति अद्वैत स्वरूप स्थान है। तिस की प्राप्ति होने पर जो पुरुष का जीवन है सोई जीवन सफल कहा जाता है।

ऐसे जीवन से बिना अन्य पशु-पक्षियों के समान जीवन पूरा करने को मैं अब अच्छा नहीं मानता हूँ। जिसके स्त्री है तिस को ही सर्व भोगों की इच्छा होती है और जिस पुरुष ने स्त्री को त्याग दिया है तिस ने सर्व जगत् को त्याग दिया। तब ऋभु ने कहा आत्मस्वरूप ब्रह्म अद्वैत से परे और कुछ पुरुष को जानने योग्य वस्तु नहीं है ||13||

येषां निमेषणोन्मेषौ जगतः प्रलयोदयौ ।

तादृशाः पुरुषा यान्ति माद्दशां गणनैव का ।।14।।

परब्रह्म से भिन्न जिन ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि के नेत्रों के खोलने और बन्द करने से प्रपञ्च की उत्पत्ति, पालन, संहार आदि होते हैं तिन महान् पुरुषों को भी काल पाकर नाश को प्राप्त होना पड़ता है। तब मेरे जैसों की तो अल्प आयु अल्प शक्ति वालों की गणना ही क्या है ||14||

मृतानां पृष्ठतः कश्चिद्गतो नैवेह दृश्यते ।

भार्या सुतो धनं वापि एवमाहुर्मनीषिणः ।।15।।

पद्मपुराण में लक्ष्मणजी श्री रामचन्द्रजी से कहते हैं। हे रामजी ! मृत हुए प्राणियों के पीछे जाता हुआ इस संसार का पुत्र, स्त्री, धन आदि कुछ भी नहीं देखा जाता है और शास्त्रों के ज्ञाता बुद्धिमान् ऋषि मुनि ऐसा कहते हैं कि अपने-अपने कर्मभोग के अनुसार प्राणी संयोग-वियोग को प्राप्त होते हैं। ऐसे ही पिता दशरथ हम सर्व को यहाँ छोड़कर आप अकेले ही परलोक को पधार गये हैं ।।15।।

येन प्राप्तेन लोकेऽस्मिन्न प्राप्यमवशिष्यते ।

तत्कृतं सुकृतं मन्ये शेषं कर्म विषूचिका ।।16।।

योगवासिष्ठ में वसिष्ठजी से भगीरथ ने कहा है भो भगवन् ! इस लोक में जिस कल्याण रूप वस्तु के प्राप्त होने से फिर संसार में पुनः प्राप्त करने के योग्य वस्तु कोई शेष न रहे तिस कृत करने को ही मैं शुभ कृत मानता हूँ। और जिस कर्म के करने से कर्त्तव्य की समाप्ति नहीं होती है ऐसे शेष कर्म को पुनः पुनः सूई के समान चुभने वाले को विषूचिका रोग रूप हैजे की बीमारी मानता हूँ ।।16।।

प्रावृषीव लता तुम्बी तृष्णैका दीर्घतां गता ।

शैलनद्या रय इव संप्रयात्येव यौवनम् ||17||

योगवसिष्ठ में चूड़ाला ने विचारकर कहा है अहो कष्ट है युवा अवस्था आने पर जैसे वर्षाऋतु में तुम्बी की लता एक रात्रि में बहुतसी बढ़ जाती है ऐसे ही मेरी तृष्णा बढ़ती जाती है। और पर्वतों की नदियों का पूर जैसे शीघ्र ही चढ़कर नाशता को प्राप्त हो जाता है, ऐसे हो यौवन शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।।17।।

श्रुत्वाध्यात्मविदां वक्त्राच्छास्त्रार्थास्तारणक्षमान् ।

इत्थं विचारयामास स्वमात्मानमहर्निशम् ।।18।।

ऐसा विचारकर चूडाला ने अध्यात्मविद्या को विद्वान् पुरुषों के मुख से संसार से तारक वेदान्तशास्त्रों के अर्थों को सुनकर स्वात्मा का ब्रह्मरूप से ऐसा दिनरात अभ्यास करती रही जिससे संशय-विपर्यय-रहित आत्मस्वरूप ब्रह्म का अपरोक्ष ज्ञान हो जाय ।।18।।

आत्मन्येव हि तिष्ठामि ह्यासनोद्यानसग्रसु ।

न भोघेषु न लज्जासु तेनाहं श्रीमती स्थिता ।।19।।

तब ब्रह्मज्ञान से प्रसन्न मुख प्रकाशवती चूड़ाला रानी को देखकर शिखिरध्वज राजा ने कहा हे प्यारी ! तुम्हारा ऐसा प्रसन्न प्रकाशमान मुख किस आनन्द से हुआ है। चूड़ाला ने कहा हे प्राणनाथ ! आसन पर स्थित हुई वा वन में स्थित हुई अथवा गृह में स्थित भी सर्वदा मैं ब्रह्मस्वरूप आत्मानन्द में ही स्थित रहती हूँ। संसार के भोग विषयों में और लज्जा आदि में चित्त की स्थिति न कर केवल आत्मानन्द में सदा एकरस चित्त की स्थिरता के कारण से मैं सदा प्रसन्नमुख प्रकाशवाली हुई स्थित हूँ। ऐसी आत्मज्ञान की शोभा को देखकर राजा की जिज्ञासा होने पर चूड़ाला ने राजा को भी आत्मज्ञानी बना दिया ऐसी स्त्रियाँ ही पति की अर्धाङ्गी कही जाती हैं ।।19।।

यावन्तो विषयाः प्रेष्ठास्त्रिलोक्यामजितेन्द्रियम् ।

न शक्नुवन्ति ते सर्वे प्रतिपूरयितुं नृप ||20||

भागवत में शुकदेवजी परीक्षित् से कहते हैं, हे राजन् यावत् तीन लोक में जो मोहकारी प्रिय विषयभोग रूप पदार्थ हैं वे सर्व विषयपदार्थ अजितेन्द्रय पुरुष को पूर्णरूप से तृप्त करने को समर्थ नहीं हो सकते हैं ||20||

संतोषादनुत्तमसुखलाभ: ||21||

और योग दर्शन में कहा है कि संसार में जितेन्द्रिय पुरुष को संतोष से बढ़कर और कोई दूसरा उत्तम सुख का लाभ नहीं है संतोष ही परम सुखकारी है ।।21।।

संतोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम् ।

कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ||22||

पद्मपुराण में कहा है कि संतोष रूप अमृत से तृप्त हुए शान्तचित वाले पुरुषों को जो संसार में सुख है सो सुख धन के लोभी पुरुषों को धन की इच्छा से दशों दिशाओं में इधर उधर भागते हुओं को कहाँ से हो सकता है। अर्थात् संतोष से हीन पुरुष को किसी भी लोक में सुख नहीं है ||22||

स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला ।

मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः ||23||

भर्तृराजा से किसी राजा ने कहा कि आपने राज्य को त्यागकर भिक्षुरूप दरिद्र को क्यों धारण करा है । भर्तृने कहा मैंने तो दरिद्र रूप राज्य को त्याग कर संतोषरूप परम धन को इस भिक्षु वृत्ति से प्राप्त करा है। दरिद्री संसार में सोई है जिसको पदार्थों की विशाल तृष्णा है और मन के सर्व ओर से सन्तुष्ट होने पर पुरुष को कोई भी फिर संसार में धनवान् और दरिद्री देखने में नहीं आता है ।। 23।।

यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् ।

तृष्णाक्षय सुखस्यैतत्कलां नार्हति षोडशीम् ||24||

लिंग पुराण में कहा है कि पुरुषों को इस लोक में पुत्र स्त्री आदि चक्रवर्ती राज्य का जो काम सुख है और स्वर्ग में जो देवताओं का महान् दिव्य सुख है सो सर्व सुख तृष्णा रहित पुरुष के सुख के सोलहवें हिस्से के भी समान नहीं है ||24||

संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम् ग्रस्तं कालाहिनात्मानं कोऽन्यस्त्रातुमधीश्वरः ||25||

भागवत में पिंगला नाम गणिका ने निस्सार संसार के विषयों से उपराम होकर कहा अहो कष्ट हैं संसार रूप कूप में पतित हुए प्राणी को और शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध आदि विषयों द्वारा नष्ट हुए बुद्धिनेत्र वाले को और कालरूप महासर्प से ग्रसे हुए को ऐसी कष्ट दशा में अपने को अपने आपसे बिना अन्य कौन रक्षा करने को समर्थ है ||25||

आशाहि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् ।

यथा संच्छिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिंगला ||26||

ऐसे विचारों से सर्व पदार्थों की आशा से रहित होकर सुख से सोती हुई पिंगला को देखकर दत्तात्रेयजी ने कहा है कि आशा ही संसार में महान् दुःख है और निराशा होना ही परम सुख है। जैसे पिंगला गनिका सर्व उपपति आदि की आशा को छेदन करके सुखपूर्वक सोती है इसी प्रकार से आशा रूप पिशाचिनों से रहित हुआ ही पुरुष जीवनमुक्ति का सुख ले सकता है। इस प्रकार से दत्तात्रेयजी ने शुभ शिक्षा के लाभ से गणिका को भी गुरु माना है ||26||

MEGHA PATIDAR
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Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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