65. जह्नु का गंगापान तथा जमदग्नि और विश्वामित्र की उत्पत्ति

जह्नु की कथा

राजा पुरूरवा के परम बुद्धिमान् आयु , अमावसु , विश्वावसु , श्रुतायु , शतायु और अयुतायु नामक छः पुत्र हुए ॥ अमावसु के भीम , भीम के कांचन , कांचनके सुहोत्र और सुहोत्र के जह्नु नामक पुत्र हुआ जिसने अपनी सम्पूर्ण यज्ञशाला को गंगाजल से आप्लावित देख क्रोध से रक्त नयन हो भगवान् यज्ञपुरुष को परम समाधि के द्वारा अपने में स्थापित कर सम्पूर्ण गंगाजी को पी लिया था ॥  तब देवर्षियों ने इन्हें प्रसन्न किया और गंगाजी को इनकी पुत्री रूप से पाकर ले गये ॥  जनु के सुमन्तु नामक पुत्र हुआ ॥ 

सुमन्तु के वंशज

सुमन्तु के अजक , अजक के बलाकाश्व , बलाकाश्वके कुश और कुश के कुशाम्ब , कुशनाभ , अधूर्त्तरजा और वसु नामक चार पुत्र हुए ॥ 

कुशाम्ब और गाधि की कथा

उनमें से कुशाम्ब ने इस इच्छा से कि मेरे इन्द्र के समान पुत्र हो , तपस्या की ॥  उसके उग्र तप को देखकर ‘ बल में कोई अन्य मेरे समान न हो जाय ‘ इस भय से इन्द्र स्वयं ही इनका पुत्र हो गया ॥  वह गाधि नामक पुत्र कौशिक कहलाया ॥  गाधि ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ॥ 

सत्यवती और ऋचीक की कथा

उसे भृगुपुत्र ऋचीकने वरण किया ॥  गाधि ने अति क्रोधी और अति वृद्ध ब्राह्मणको कन्या न देनेकी  ऋचीक से कन्या के मूल्य में जो चन्द्रमा के समान कान्तिमान् और पवनके तुल्य वेगवान् हों , ऐसे एक सहस्र श्यामकर्ण घोड़े माँगे ॥  किन्तु महर्षि ऋचीक ने अश्वतीर्थ से उत्पन्न हुए वैसे एक सहस्र घोड़े उन्हें वरुणसे लेकर दे दिये ॥ तब ऋचीक ने उस कन्या से विवाह किया ॥ [ तदुपरान्त एक समय ] उन्होंने सन्तान की कामना से सत्यवती के लिये चरु ( यज्ञीय खीर ) तैयार किया ॥ 

उसीके द्वारा प्रसन्न किये जाने  पर एक क्षत्रियश्रेष्ठ पुत्रकी उत्पत्ति के लिये एक और चरु उसकी माताके लिये भी बनाया ॥  और ‘ यह चरु तुम्हारे लिये है तथा यह तुम्हारी माताके लिये- इनका तुम यथोचित उपयोग करना ‘ – ऐसा कहकर वे वन को चले गये ॥ उनका उपयोग करते समय सत्यवती की माताने उससे कहा – ॥

  ” बेटी ! सभी लोग अपने ही लिये सबसे अधिक गुणवान् पुत्र चाहते हैं , अपनी पत्नी के भाई के गुणों में किसी की भी विशेष रुचि नहीं होती ॥  अतः  तू अपना चरु तो मुझे दे दे और मेरा तू ले ले ; क्योंकि मेरे पुत्रको तो सम्पूर्ण भूमण्डल का पालन करना होगा और ब्राह्मणकुमार को तो बल , वीर्य तथा सम्पत्ति आदि से लेना ही क्या है । ” ऐसा कहनेपर सत्यवतीने अपना चरु माताको दे दिया ॥ 

वन से लौटने पर ऋषिने सत्यवती को देखकर कहा ” अरी पापिनि ! तूने ऐसा क्या अकार्य किया है जिससे तेरा शरीर ऐसा भयानक प्रतीत होता है ॥ अवश्य ही तूने अपनी माता के लिये तैयार किये चरुका उपयोग किया है , सो ठीक नहीं है ॥  मैंने उसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य , पराक्रम , शूरता और बलकी सम्पत्तिका आरोपण किया था तथा तेरेमें शान्ति , ज्ञान , तितिक्षा आदि सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित गुणों का समावेश किया था ॥

उनका विपरीत उपयोग करनेसे तेरे अति भयानक अस्त्र – शस्त्रधारी पालन – कर्म में तत्पर क्षत्रिय के समान आचरणवाला पुत्र होगा और उसके शान्ति प्रिय ब्राह्मणाचार युक्त पुत्र होगा । ”  यह सुनते ही सत्यवती ने उनके चरण पकड़ लिये और प्रणाम करके कहा- ॥ भगवन् ! अज्ञानसे ही मैंने ऐसा किया है , अतः प्रसन्न होइये और ऐसा कीजिये । जिससे मेरा पुत्र ऐसा न हो , भले ही पौत्र ऐसा हो जाय ! ” इसपर मुनि ने कहा — ‘ ऐसा ही हो । ‘ ॥ 

विश्वामित्र के वंशज

तदनन्तर उसने जमदग्नि को जन्म दिया और उसकी माता ने विश्वामित्र को उत्पन्न किया तथा सत्यवती कौशिकी नाम की नदी हो गयी ॥  जमदग्निने इक्ष्वाकुकुलोद्भव रेणु की कन्या रेणुका से विवाह किया ॥  उससे जमदग्नि के सम्पूर्ण क्षत्रियोंका ध्वंस करने वाले भगवान् परशुरामजी उत्पन्न हुए जो सकल लोक – गुरु भगवान् नारायणके अंश थे ॥ देवताओंने विश्वामित्रजी को भृगुवंशीय शुन : शेप पुत्र रूप से दिया था । उसके पीछे उनके देवरात नामक एक पुत्र हुआ और फिर मधुच्छन्द , धनञ्जय , कृतदेव , अष्टक , कच्छप एवं हारीतक नामक और भी पुत्र हुए ॥  उनसे ऋषिवंशों में विवाह ने योग्य बहुत – से कौशिक गोत्रीय पुत्र – पौत्रादि हुए ॥ 

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