ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः ।
अमृतं यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कथं क्रियते |१|
अर्थ – अज्ञानमिति यद्यपि आत्मज्ञान अहंकार और मद को नष्ट करता है, यदि किसी मूर्ख को उस से भी शांति न मिले तो उसके लिए कोई वैद्य नहीं, क्योंकि जिस को अमृत भी विष के समान लगे तो उसकी कोई चिकित्सा नहीं हो सकती॥
आहारो मैथुनं निद्रास्वाध्यायेषु प्रवर्तनम् ।
चत्वारि खलु कर्माणि सन्ध्याकालेषु वर्जयेत् |२|
अर्थ – अहार इति-भोजन, मैथुन, निद्रा और वेदादि का पढ़ना, यह चारों काम संध्या समय नहीं करने चाहिये ।
आलसी मन्दबुद्धिश्च सुखी च व्याधिपीडितः ।
निद्रालुः कामुकश्चैव षडेते शास्त्रवर्जिताः । ३।
अर्थ- आलस इति-आलसी, मन्द बुद्धि, सुखी, रोगी. निद्रालु और कामी, यह छः पुरुष विद्या प्राप्त नहीं कर सकते ॥
नश्यति विपुलमतेरपि बुद्धि पुरुषस्य मन्दविभवस्य।
घृत लवण तेल तंडुल तक्रौंधन चितया सततम् |४|
अर्थ – नश्यतीति – सदैव घी, तेल, लवण, चावल, छाछ और लकड़ियों की चिता से एक बुद्धिमान पुरुष की बुद्धि निर्धनता के कारण नष्ट हो जाती हैं ॥
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणा किं करिष्यति |५|
अर्थ-यस्येति– जिस पुरुष को अपनी बुद्धि भी नहीं उस के लिए शास्त्र क्या कर सकते हैं, जैसे अन्धे पुरुष के लिए दर्पण कुछ नहीं कर सकता ।
अष्टमी च गुरु हन्ति शिष्य हन्ति चतुर्दशी ।
पंचदश्युभय’ हन्ति प्रतिपत्सु न चिन्तयेत | ६ |
अर्थ – अष्टमीति अष्टमी तिथि को पढ़ने से गुरु, चतुर्दशी में पढ़ने से शिष्य और एकम में पढ़ने से दोनों गुरू शिष्य का नाश हो जाता है ॥
आचार्यपुस्तक सहाय निवास रागो,
वाह्यश्च पाँच पठनं परिवर्धयन्ति ।
आरोग्य बुद्धि विनयाद्य मशास्त्र रागाः।
पंचांतराः पठन सिद्धिकरा भवन्ति ॥७॥
अर्थ- आचार्य, पुस्तक, किसी अन्य पुरुष की सहायता निवास और प्रेम यह पांच विद्या पढ़ने में बाहिर के सहायक है, आरोग्यता, बुद्धि, नम्रता, उद्यम और विद्या में श्रद्धा यह पांच विद्या पढ़ने में भीतर के सहायक हैं ।
गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा ।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थ नैव कारणम ॥८॥
अर्थ- गुरु इति-विद्या पढ़ने में यह तीन ही हेतु हैं, गुरु सेवा, अन्य विद्या, वा बहुत सा धन इन तीनों के अतिरिक्त चतुर्थ कोई कारण नहीं है ॥
विद्या का महिमा
विद्या शिल्पमनालस्यं पाण्डित्य मितं संग्रहः ।
अचोरहरणीयाश्च पंचैते निधयो क्षया। | ६|
अर्थ–विद्य ेति–विद्या कारीगरी, उद्यम, चतुराई मित्र मेल यह पांच निधि (दौलत ) न किसी से चुराये जाते हैं। और न इन का नाश हो सकता है॥
विद्या नाम नरस्य रूपमतुलं, प्रच्छन्नगुप्तं धनं ।
विद्या भोगकरौ यशस्सुखकरी, विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धु जनो विदेशगमने विद्या परं दैवत ।
विद्या राजसु पूजिता न ततु धनं, विद्याविहीनः पशुः ।।१०॥
अर्थ-विद्यति विद्या ही पुरुष का सुन्दर स्वरूप, और यही उसका गुप्त धन, वही सुख भोग देने वाली, और वही विद्या गुरुओं की भी गुरु और वही विद्या परदेश में बन्धु के समान और वही विद्या अद्वितीय देवता है । राजाओं से उसकी ही पूजा की जाती है उसके संमुख धन कुछ भी चीज नहीं है। इसलिए विद्या के बिना पुरुष पशु के समान है ॥
आहार निद्रा भय मैथुनानि।
सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञान’ नराणामधिको विशेषो।
ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः |११|
अर्थ- आहार इति खाना, सोना, डरना और मैथुन – यह चार भाव पुरुषों में हैं वैसे ही पशुओं में भी हैं, परन्तु पशुओं में केवल आत्म ज्ञान की ही विशेषता है । इस लिये ज्ञान के बिना तो पुरुष पशु के ही तुल्य है ।।
येषां न विद्या न तपो न दान,
न चापि शीलं न गुणो न धर्मः ।
मृत्यु लोके भुवि भार भूता।
तेमनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ॥१२॥
अर्थ – येषां जिन पुरुषों में न विद्या है, न तप है, न दान है, न सुन्दर स्वभाव है, न गुण और न धर्म है, वह इस संसार में पृथ्वी के भार स्वरूप होते हुए मनुष्य रूप में पशु ही समझने चाहियें ॥
स्वरे शिरो जने मांसं त्वचं च ब्रह्मचारिणे ।
श्रृंगं हि योगिने दद्यान्मृगः स्त्रीषुच लोचनम् ।१३।
अर्थ – स्वर इति — प्रत्येक पुरुष को चाहिए कि वह मृग जैसा उदार बने जैसे मृग देखो ! अपने मस्तक को गीत के ऊपर प्रसन्न होकर न्यौछावर कर देता है, और अपने मांस को पुरुषों को जो शूरवीर हो, और चर्म ब्रह्मचारियों को, सींग योगिजनों के लिए और अपने नेत्र स्त्रियों को उपहार स्वरूप में दे देता है ।।
गुणान्दोपानशास्त्रज्ञः कथं विभजते जनः ।
किमन्धस्याधिकारोस्ति रूप भेदोपलब्धिपु |१४|
अर्थ- गुणानिति – मूखं जन गुण और दोष की परीक्षा क्या कर सकता जैसे अंधा पुरुष रूप की पहिचान क्या कर सकता है ॥
स्वगृहे पूज्यते मूर्ख स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते ।१५।
अर्थ- स्वगृह इति– मूर्ख अपने घर में, स्वामी अपने गांव में और राजा अपने देश में ही पूज्य होता है परन्तु विद्वान् की पूजा तो सर्वत्र ही की जाती है ।।
अप्येकाक्षर दातारं यो गुरु नाभिमन्यते ।
श्वानयोनिशतंगत्वा चाण्डालेष्वनुजायते ।१६।
अर्थ – अपीति-जो पुरुष एक अक्षर भी पढ़ाने वाले को गुरु नहीं मानता, वह नीच सैकड़ों दफा श्वान योनि को पा कर अन्त में चाण्डाल होता है ||
रूपयौवनसंपन्ना विशालकुलसंभवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥१७॥
अर्थ-रूपमिति सुन्दर रूप भी हो, जवानी भी हो, उत्तम कुल में यद्यपि जन्म भी हो परन्तु तो भी विद्या के बिना सब निष्फल है । जैसे केसू फूल स्वरूप में उत्तम होते हुए भी निर्गन्ध होने से आदरणीय नहीं है ॥
यद्यपि भवति विरूपो वस्त्रालंकारवेषपरिहीनः ।
सज्जनसभाप्रविष्टो राजतिविद्याधिकः पुरुषः ॥१८॥
अर्थ – यद्यपीति एक विद्वान यद्यपि कुरूप और वस्त्रा- लंकारादि से होन भी हो तो भी सज्जनों की सभा में विद्या के प्रताप से उत्तम ही दिखलाई देता है ॥
अनधीत्य शब्दशास्त्रं योऽन्यच्छास्त्रं समीहते वक्तम् ।
सोऽहे पदानि गणयति निशि तमसि जले चिरगतस्य ।।१९॥
अर्थ-जो मूर्ख व्याकरण के बिना शास्त्रों को पढ़ता है वह मानों रात्रि के अन्धकार में जल में चलते हुए सांप के पावों को गिनता है ।।
अनभ्यासे विष ं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम् ।
विष’ गोष्टीदरिद्रस्य वृद्धस्य तरुणी विषम ॥२०॥
अर्थ – अनभ्यासइति बिना अभ्यास के शास्त्र, अजीर्णा- वस्था में भोजन, दरिद्र की संगति और वृद्ध को युवती स्त्री विष समान है ॥
मातेव रक्षति पितेव हितं करोति कांतेव चाभि- रमययभिहंति शोकम् ।
विद्या करोति निखिलं खलु बंधुकार्य सौख्यं च कीर्तिमतुलां गुरुतां च लोके ।।२१॥
अर्थ- मतिवेति-संसार में विद्या माता की तरह रक्षा और पिता की तरह प्रेम, स्त्री के समान सुख देती हुई शोकोंको दूर करती कीर्ति को देती और अतीव सुख देने वाली तथा सच्चे मित्र और बंधुवों की तरह स्नेह करती है ॥
सहस्रगुणिता विया शतशः परिकीर्तिता ।
आगच्छत्येवजिह्वाग्रेळे स्थानंनिम्नमिवोदकम् ॥२२॥
अर्थ- सहस्र गुणितेति विद्या सो बेर अभ्यास की गई हजार गुणा बढ़ जाती है और जिह्वा के अग्रभाग पर ही विराजमान रहती है जैसे गड़हे में जल खड़ा रहता है ॥
मदोपशमनं शास्त्रं खलानां कुरुते मदम ।
चक्षु संस्कारकं तेज उलुकानामिवान्धताम ॥२३॥
अर्थ-मदोपशनमिति यद्यपि शास्त्र अभिमान को दूर कर देते हैं परन्तु मूर्ख के लिए वह भो अहंकार दाई हो जाते है क्योंकि यदि मूर्ख शास्त्र पढ़ ले तो अभिमानी हो जाता है जैसे सूर्य प्रभा सब संसार को तेज देते हुए भी उल्लू कोअंधकार ही देती है ॥
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हाराश्च चन्द्रप्रभा ।
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नाकुचिता मूर्द्धजाः ।
वाण्येकासमलंकारोतिपुरुषंया संस्कृताधार्यतेक्षी ।
यंतेऽखिलभूषणानि सततं वाग्भूषणां चा क्षहम ॥२४॥
अर्थ -केयूरइति-पुरुष की शोभा सुन्दर सुन्दर कड़े और हारों से और स्नान, पूष्य, लेपन, वा संवारे हुए केशों से नहीं हो सकती किन्तु मीठी बाणी ही पुरुष का भूषण है और जितने अलंकार हैं सब विनाशी है परन्तु बाणी ही सदा रहने वाला भूषण है ॥