कहे चतुर्थे ज्ञान हित, उत्तम श्राठ श्लोक । शोक रुकहि इस लोक के, अंतहु मुक्ति सलोक ॥
द्रष्टिपूत ं न्यसेत्पाद ं वस्त्रपूत ं पिवेज्जलम् ।
सत्यपूतं वदेद्वाक्य मनःपूतं समाचरेत् |१|
अर्थ – दृष्टिपूतमिति पुरुष को उचित है कि वह भूमि पर देख कर पाओं को रखे तथा जल वस्त्र में छान कर पोवे, वाक्य सत्य बोले, और मन की शुद्धि से सब से व्यवहार करे ॥
अद्भिः शुद्धयन्ति वस्त्राणि मनः सत्येन शुद्धयति ।
अहिंसया च भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति ॥२॥
अर्थ — अद्भिरीति-वस्त्र जल से, मन सत्य से, बुद्धि ज्ञान से और आत्मा जीवों पर दया करने से शुद्ध होता है
जलेन जनित पंक जलेन परिशुद्धयति ।
चित्तेन जायते पाप चित्तेन परिशुद्धयति | ३ |
अर्थ – जलेनेति-जल से उत्पन्न कीचड़ जल से ही फिर शुद्ध होता है, वैसे ही मन से उत्पन्न पाप मन शुद्धी से ही शुद्ध होता है ।
जनस्नानं वृतस्नानं मंत्रस्नानं तथैव च ।
जलस्नानंगृहस्थानां वृतमंत्री तपस्विनाम् ॥४॥
अर्थ – जलस्नानमिति-स्नान तीन प्रकार का होता है-
[1] जल स्नान, [2] व्रत स्नान और [3] मंत्र स्नान, इन में से जल स्नान गृहस्थियों के लिए व्रत और मंत्र यह दोनों तपस्वी के लिए कहे गए हैं।
चितमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानैर्न शुद्धयति ।
शतशोषि जलधौतमद्यभांडमिवाऽशुचि |५|
अर्थ-चित्तमिति-मन का पाप तीर्थ स्नान से शुद्ध नहीं। होता, जैसे सैकड़ो वार धोया हुआ भी मद्य [ शराब] का पात्र शुद्ध नहीं हो सकता।
सत्यं तीर्थ’ तपस्तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः ।
सर्वजीवदया तीर्थमेतत्तीर्थस्य लक्षणम् ॥६॥
अर्थ–सत्यमिति सत्य बोलना, तप तपना, इन्द्रियों को वश में रखना और जीवों पर दया करना यह तीर्थ के लक्षण हैं ।
ऐश्वर्यस्यविभूषणं सुजनताशौर्यस्य वाकू संयमोज्ञाने- स्योपशमः श्रुतस्यविनयोवित्तस्यपातेव्ययः अक्रोध- स्तपसः क्षमा प्रभंतोर्धर्मस्यनिर्व्याजतासर्वेषामपि सर्व काल सुभग ं शीलं वरं भूषणम ॥७॥
अर्थ – ऐश्वर्य्यस्येति-संसार में ऐश्वर्य का भूषण सज्जनता, शूरवीरता का थोड़ा बोलना, ज्ञान का शांति, पंडित का नम्रता, धन का पात्र को देना, तप का शांति, धनि का क्षमा और धर्म का भूषण निष्कपटता है परन्तु उत्तम स्वभाव तो सभी का भूषण है।
सारं संक्षणम प्रभोर्विमृदुता सिद्धस्य यूनां धृति दुर्वाचां सहनं च शास्त्रविहितं स्वस्याः स्तुतेर्वै भयम् सत्कार्य करणं दयावितरणं दीने प्रदीने तथा शत्रोः खेदप्रसाहनं हि कुरुते नो सह्यते चान्यकम ॥८॥
अर्थ-सारमिति-स्वामी का सार क्षमा सिद्ध पुरुषों सार स्वभाव कोमलता, युवाजनों का सार धैर्य है । परन्तु श्रेष्ठों का तो यही स्वभाव है कि सहन शीलता, अपनी प्रशंसा से भय, शास्त्रोक्त को करना, दोनों पर दया करना और उत्तम 2 काम करते हुए शत्रु के दुःख सहन कर लेना परन्तु किसी अन्य दीन पुरुष का कष्ट नहीं सहते अर्थात जैसे भी हो सके दूसरे के दुख को दूर करना ही योग्य समझते हैं ।