तीर्थ व्रतों का कथन
ये तीर्थानि प्रचरन्ति ।।1।।
पूर्व बारहवें अध्याय में दान कथन करा है। अब दान सम्बन्धी तीर्थ व्रतों का त्रयोदश अध्याय में कथन करते हैं।
यजुर्वेद में कहा है कि जो महादेव के स्वरूप गण दुष्टों से तीर्थों की रक्षा करते हुए तीर्थों में विचरते हैं उनको हमारा नमस्कार है ।।1।।
तीर्थानां च प्रभावेन सतां सङ्गाद् द्विजोत्तमा: ।
नाशयेत्पापिनां पापं दहेदग्निरिवेन्धनम् ।।2।।
पद्मपुराण में व्यासजी ने कहा कि हे द्विजोत्तमों! तीर्थों के प्रभाव से अद्वैत चिन्तक महात्माओं का संग होने से पापी पुरुषों के पाप ऐसे नाश हो जाते हैं जैसे अग्नि के संग से काष्ठ दग्ध हो जाता है ||2||
इमे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचतां परुष्ण्या ||3||
ऋग्वेद में कहा है कि पुरुष अपने पापों के नाश की इच्छा वाला तीर्थों की स्तुति करता हुआ ऐसा कहे, हे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि आप परुष्णी नदी के साथ मिलकर मेरे करे हुए स्तवन को स्वीकार करें यह मेरी प्रार्थना है ||3||
गङ्गा कनखले पुण्या कुरुक्षेत्रे सरस्वती ।
ग्रामे वा यदि वाऽरण्ये पुण्या सर्वत्र नर्मदा ॥4॥
स्कन्द पुराण में कहा है कि गंगा कनखल में पुण्य रूप है। सरस्वती कुरुक्षेत्र में पुण्य ‘रूप है। और नर्मदा ग्राम में वा वन में सर्व स्थानों में पुण्य रूप है ।।41.
गृहाद्दशगुणं कूपं कूपाद्दशगुणं तटम् ।
तटाद्दशगुणं नद्यां गङ्गासंख्या न विद्यते ||5||
अत्रि स्मृति में कहा है कि घर में स्नान करने से कूप पर स्नान करना दश गुण पुण्य रूप है। कूप से दश गुणा तड़ाग में तड़ाग से दश गुणा नदी का स्नान पुण्य रूप है और गङ्गा के स्नान के पुण्य की तो कोई संख्या ही नहीं है ।।5।।
तिस्रः कोट्योऽर्धकोटीच तीर्थानि भुवनत्रये ।
तानि स्नातुं समायांति गङ्गायां सिंहगे गुरौ ||6||
ब्रह्मपुराण में कहा है कि तीनों लोकों में साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं वे साढ़े तीन करोड़ तीर्थ सिंह राशि पर बृहस्पति के आने पर त्र्यम्बकेश्वर स्थान में दक्षिण गंगा गौतमी में स्नान करने को आते हैं उस काल में श्रद्धापूर्वक स्नान करने से पुरुषों के बारह वर्षों के पाप नाश होते हैं ।1611
(केदार खण्ड. अ. 109 श्लो. 13)
विशेषतस्तु मेषार्कसंक्रमेतीव पुण्यदे ।
तत्रापि कुम्भराशिस्थे वाक्पतौ सुखन्दिते ||7||
केदारखंड में महादेव ने कहा है कि हे देवताओं से वन्दनीये पार्वति गंगाद्वार पुण्यरूप ब्रह्मकुण्ड में विशेषकर सूर्य के अति पुण्यरूप मेष राशि पर तिस में भी कुम्भ राशि पर बृहस्पति के आने पर स्नान करने से महानपुण्य की प्राप्ति होती है ।।7।।
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शं यो रभिस्रवंतु नः ||8||
ऋग्वेद में कहा है कि इस मंत्र को पढ़कर स्नान करने से महान् पुण्य की प्राप्ति होती है मंत्र का अर्थ यह है- हे जल देवता हमारे लिये सुखरूप हुए अभीष्ट फल देवें और पीने के लिये यह जल हमारे को सुखवर्धक होवें, दुःखों को दूरकर सुखरूप से हमारे को जल देवता सिंचन करें ॥18॥
निशायां चैव न स्नायात्सन्ध्यान्यां ग्रहणं बिना ।
उष्णोदकेन न स्नानं रात्रौ शुद्धिर्न जायते ।।
भानुसंदर्शानाच्छुद्धिर्विहिता सर्वकर्मसु ||9||
स्कन्दपुराण में कहा है कि रात्रि में और संध्या में ग्रहण से बिना स्नान न करें। उष्ण जल से भी रोग बिना स्नान न करें। रात्रि में स्नान करने से शुद्धि नहीं होती है सूर्य के दर्शन से ही सर्व कार्यों के करने में शास्त्रों में शुद्धि विधान करी है ॥9॥
अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची हावन्तिका । पुरी द्वारावती ज्ञेया सप्तैता मोक्षदायका ।।10।।
गरुड़ पुराण में कहा है कि 1 अयोध्यापुरी 2 मथुरापुरी 3 हरिद्वार (मायापुरी) 4 काशीपुरी 5 शिव विष्णु दोनों की काञ्चीपुरी 6 अवन्तिकापुरी 7 द्वारकापुरी यह सात पुरियाँ स्नानदान कर्ता के विचार पूर्वक निवास करने वाले पुरुषों को मोक्ष देने वाली जानना तथा नाम लेने मात्र से पुण्य के देने वाली है ||10||
मुण्डनं चोपवासश्च सर्वतीर्थेष्वयं विधिः ।
वर्जयित्वा कुरुक्षेत्रं विशालां विरजां गयाम् ।।11।।
वायु पुराण में कहा है कि कुरूक्षेत्र, बद्रीविशाल, बिरजा नदी, गया इन चारों को छोड़कर और सर्व तीर्थों में मुण्डन कराने का और उपवास करने का शास्त्रों ने विधान करा है ।।11।।
यत्किंचित्क्रियते पापं सर्व केशेषु तिष्ठति ।
सर्वान्केशान्समुद्धृत्य छेदयेदंगुलीद्वयम् ।।12।।
पाराशर स्मृति में कहा है कि जो कुछ भी पुरुष पाप करता है वे सर्व पाप केशों में स्थिति रहते हैं, जिन केशधारी प्राणियों ने मुण्डन नहीं कराना है उनको भी तीर्थों में जाकर सर्व केशों को उठाकर ऊपर से दो अंगुल काटने चाहिये ।।12।।
यद्वै केशश्मश्रुश्च वपते नखानि च निकृन्तते तदेव मेध्यो भवति ।।13।।
शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि जो पुरुष केश और मूंछ का मुण्डन करता है और नखों को काटता है वह पुरुष शुभ कर्म करने के लिये पवित्र होता है ।।13।।
कृष्णजन्माष्टमीं रामनवमीं पुण्यदां पराम् ।
शिवरात्रीं तथा चैकादशीं वारं रवेस्तथा ||14||
पञ्च पर्वाणि पुण्यानि ये न कुर्वन्ति मानवाः ।
लभन्ते ब्रह्महत्यां ते चाण्डालाधिकपापिनः ।।15।।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि 1 श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 2 अतिपुण्य रूप श्री रामनवमी 3 शिवरात्रि 4 एकादशी 5 रविवार इन पाञ्च पुण्यरूप पर्वो में जो पुरुष व्रत नहीं करते हैं वे ब्रह्महत्या को प्राप्त होते हैं और चाण्डाल से भी अधिक पापी कहे हैं। रविवार को यदि सर्व व्रत न हो सकें तो सप्तमी में रविवार होने पर अवश्य ही व्रत कर्त्तव्य है और एकादशियां भी सर्व न हो सके तो निर्जला, देवशयनी, देवउत्थानी यह तीन तो अवश्य कर्तव्य हैं ||14||15||
अष्टमी बुधवारेण रोहिणीसहिता यदि ।
सोमेनैव भवेद्राजन्किं व्रतकोटिभिस्तदा ।।16।।
पद्मपुराण में कहा है कि रोहिणी नक्षत्र के सहित कृष्ण जन्मअष्टमी बुधवार के सहित हो अथवा सोमवार के सहित हो तब हे राजन् । करोड़ों व्रतों के करने से भी क्या है इस एक कृष्ण जन्मअष्टमी के व्रत से ही महान पुण्य की प्राप्ति होती है ।।16।।
माघमासस्य कृष्णयां चतुर्दश्यां सुरेश्वर ।
अहं यास्यामि भूपृष्ठे रात्री नैव दिवा कलौ ।।17।।
स्कन्दपुराण में कहा है कि इन्द्र आदि देवताओं ने महादेव से प्रार्थना करी कि हे भगवन् इस कलियुग के आने पर पुरुषों ने देव सम्बन्धी धर्म-कर्म छोड़ दिये हैं। अस्तु अब आप ऐसी कृपा करें जिससे देवताओं को धर्म-कर्म का भाग मिले। तब महादेव ने कहा कि, हे सुरेश ! मैं माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में भूलोक में जाऊंगा कलियुग में दिन में जाना नहीं चाहता हूँ उस रात्रि में जो व्रत कर जागरणपूर्वक पूजा पाठ करेंगे उस धर्म-कर्म से सर्वदेवता एक वर्ष पर्यन्त तृप्त होवेंगे। स्कन्दपुराण की रीति से अमावस्या को मास पूरा होता है इसी से शिवरात्रि माघ में मानी है ||17||
यथाकथञ्चिपिण्डानां चत्वारिंशच्छतद्वयम् ।
मासेनैवोपभुञ्जीत चान्द्रायणमथा परम् ||18।।
याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि जैसे कैसे भी पुरुष दो सौ चालीस ग्रास खाकर एक मास व्यतीत करे, इस व्रत का नाम चान्द्रायण व्रत है। मास भर में आठ ग्रास रोज खाने पर दो सौ चालीस होते हैं दूसरा एक एक ग्रास घटाना और बढ़ाना रूप है इसमें भी दो सौ चालीस ही ग्रास होते हैं। ग्रास का माप बड़े ऑवले के समान कहा है।।18।।
षण्मूहूर्ते व्यतीते च रात्रावेव महानिशा ।
लभते ब्रह्महत्यां च तत्र भुक्त्या च नारद ।।19।।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि षट् मुहूर्त रात्रि व्यतीत होने पर (साढ़े दस बजे के बाद) रात्रि का नाम महानिशा है। इस महानिशा में कृष्ण जन्मअष्टमी को छोड़कर अन्न, जल, फल, फूल आदि को खाने से हे नारद! वो पुरुष ब्रह्महत्या को प्राप्त होता है और एक सूर्य में दो बार भोजन करना भी निषेध कहा है। इस हेतु से संध्याकाल के पश्चात् और साढ़े दस बजे से प्रथम भोजन कर लेना चाहिये ।।19।।
ते अज्येष्ठा जपेन्मन्त्रं दश विष्णवालये सकृत ।
दिवा द्विर्भोजनं भुक्त्वा किल्विषाच्चैव सर्वदा ||
सौनक कृत ऋग्विधान में कहा है कि जो एक सूर्य में दो समय भोजन करता है वह विष्णु मन्दिर में ‘अज्येष्टा’ इस मंत्र का दस बार पाठ करे।
(गर्गसं. खण्ड. 4- अ. 8 श्लो. 32 )
दशमी पंचपंचाशद्धटिका चेत्प्रद्दश्यते ।
तर्हि चैकादशी त्याज्या द्वादशी समुपोशयेत् ||20||
गर्ग संहिता में कहा है कि दशमी यदि पचपन घटिका देखने में आये तब दशमी विद्धा एकादशी होने से त्याज्य है। द्वादशी में व्रत करना उचित है ।।20।।
पंच पंच उषः कालः सप्त पंचारुणोदयः ।
अष्ट पंच भवेत्प्रातः शेषः सूर्योदयः स्मृतः ।।21।।
देवी भागवत में कहा है कि पंचावन घटिका से लेकर उषाकाल होता है सत्तावन घटिका से लेकर अरुणोदय काल होता है। अठावन घटिका पर्यन्त प्रातः काल होता है अठावन घटिका से लेकर सूर्य उदय काल होता है ।।21।।
हरिहरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृतः |
अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ||22||
नारदीय पुराण में कहा है कि जैसे इच्छा न होने पर भी स्पर्श करने पर अग्नि दग्ध कर देता है तैसे ही हरि का नाम दुष्टचित्त से भी लिया हुआ पापों को हरण कर देता है और यदि शुभचित्त से लिया जाय तो महान् फलदायक होता है ।। 22।।