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दशामाता व्रत विधि:
यह व्रत घर की दशा के लिए किया जाता है। यह व्रत चैत्र मास के प्रारंभ की दशमी को किया जाता है। सुहागन औरतें इस दिन ब्राह्मण से डोरा लेकर छोड़ती है। एक समय भोजन करती हैं और पीपल की पूजा कर, राजा नल और दमयंती की कहानी सुनती हैं।
कथा:
राजा नल और दमयंती रानी थी। दमयंती रानी ने दशामाता का डोरा लिया और गले में बाँध लिया। जब राजा आया और उसने अपनी रानी से पूछा कि “रानी! यह पीले में सफेद आपने क्यों बाँध रखा है?” तब रानी ने उत्तर दिया कि- “महाराज यह तो दशामाता का डोरा है।” राजा ने दशामाता के डोरे को रानी के गले से तोड़कर फेंक दिया। जिससे दशामाता क्रोधित हो गई और राजा को स्वप्न में आकर कहा कि- “राजा तेरी दशा जा रही है और अवदशा आ रही है।” राजा ने स्वप्न में ही पूछा कि- “मेरे को कैसे मालूम होगा?”
तब दशामाता ने कहा कि- “राजा जब तेरी इच्छा खली खाने की और रानी की चने खाने की होगी, वही तेरी अवदशा का प्रारंभ है।”जब दशामाता का दिन आया, राजा अपने दरबार में बैठा हुआ था। उसी समय राजा नल को खली खाने की इच्छा हुई। राजा ने कहा- “कोई है क्या?” तब सेवक बोले- “एक कहें तो इक्कीस हाजिर हैं महाराज।”
तब राजा ने कहा कि- “कोई भी जाकर खली लेकर आओ।” राजा ने खली खाई। उसी समय से सेवक, घोड़े, हाथी आदि सभी चीजें पत्थर की हो गईं। राजा का राज्य पूर्ण नष्ट हो गया। इधर महल में रानी दमयंती को चने खाने की इच्छा हुई। रानी ने भी दासी से चने मँगवाकर खाए।
इस तरह दशामाता के कोप से राजा-रानी भूखों मरने लगे। राजा और रानी ने विचार किया कि- “हम यहाँ मेहनत-मजदूरी करेंगे, तो अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए देश की चोरी और परदेश की भीख करके हमको यहाँ से चले जाना चाहिए।”
राजा-रानी अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर निकल पड़े। आगे चलते- चलते रास्ते में लाखा बनजारे की बालद मिली। राजा ने अपने दोनों पुत्रों को अमानत के तौर पर रखने के लिए लाखा बनजारे को सौंप दिए और राजा-रानी आगे चल दिए। रास्ते में राजा के मित्र का गाँव आया, राजा ने रानी से कहा- “चलो हमारे मित्र के यहाँ चलते हैं।” मित्र के घर जाने पर मित्र ने राजा-रानी की खूब आवभगत, सत्कार किया और पकवान बनाकर भोजन कराया।
मित्र ने अपने शयन कक्ष में राजा-रानी को सुलाया। उसी कमरे में मित्र की पत्नी का सवा करोड़ का हार एक लकड़ी की खूँटी पर टंगा हुआ था और वह खूँटी मोर के आकार की थी। मध्यरात्रि को अचानक रानी की आँख खुली, तो उसने देखा कि मोर के आकार वाली खूँटी राजा के मित्र की पत्नी का हार मुँह में निगल रही है। रानी ने तुरंत राजा को जगाकर दिखाया। यह देख राजा-रानी रात्रि को ही वहाँ से निकल पड़े। यह सभी दशामाता के अपमान का कारण था।
प्रातः मित्र की पत्नी ने अपने पति से बोला कि – “आपके मित्र मेरा सवा करोड़ का हार चुराकर रात्रि को ही भाग गए हैं।” मित्र ने अपनी पत्नी से कहा कि- “मेरा मित्र ऐसा नहीं कर सकता कि वो हार चुराकर ले जाए।”
आगे जाने पर राजा-रानी एक माली के बगीचे में पहुँचे। इन दोनों के वहाँ जाते ही अच्छी फूलवारी मुरझा गई और द्रोब सूख गई। मालन बोली- “ऐसा जाने कौन अपशकुनिया आया कि जिससे पूरा बगीचा ही सूख गया।” राजा-रानी वहाँ से भी रात लेकर भागे।
आगे एक कुम्हार के घर गए। उस कुम्हार के यहाँ चाक पर सोने के कलश उतरते थे, जब राजा-रानी की नजर पड़ी, तो टूटे-फूटे मिट्टी के कलश उतरने लगे। यह देख वही बात कुम्हार ने भी कही जो मालन ने कही थी। वहाँ से भी राजा-रानी को रात को ही भागना पड़ा।
आगे राजा-रानी एक गऊली के यहाँ पहुँचे। उस गऊली की गाय सवा घड़ा दूध रोजाना देती थी, लेकिन राजा-रानी की नजर पड़ते ही गाय ने दूध देना बंद कर दिया। तब गऊली ने भी वही बात कही, जो मालन ने कही थी।
आगे चलते हुए राजा अपनी बहिन के गाँव में पहुँचे। गाँव के बाहर रुककर राजा ने अपनी बहिन की दासियों के साथ खबर भेजी कि आपके भाई आए हैं।
राजा की बहिन ने अपनी दासी से पूछा कि “मेरा भाई कैसी दशा में है।” दासी ने कहा कि “दोनों बहुत बुरी दशा में हैं।” यह सुन राजा की बहिन एक थाली में रोटी व कांदे रखकर अपने भाई व भाभी से मिलने गई। भाई ने तो अपने हिस्से की रोटी को कांदे के साथ खा लिया, लेकिन भाभी ने अपने हिस्से की रोटी और कांदा उसी जगह गड्डा करके धरती में भण्डार दिया। आगे जाने पर जब एक गाँव में राजा-रानी पहुँचे, तो वहाँ का नगर सेठ पूरे गाँव को भोजन करा रहा था। राजा ने रानी से कहा कि- “यदि तुम नदी से मछलियाँ पकड़कर भूनो, तब तक मैं भी भोजन की एक पत्तल ले आता हूँ।”
रानी ने मछली पकड़ी और उनको भूना, लेकिन भाग्य और दशामाता के कोप से पानी में लहर आई और भूनी हुई सारी मछलियाँ जीवित होकर पानी में चली गई। उधर, जब राजा भोजन की पत्तल लेकर आ रहा था कि अचानक एक चील ने झपट्टा मारा और पत्तल लेकर उड़ गई। चील के झपट्टा मारने से एक चावल का दाना राजा की मूंछ पर चिपक गया। राजा को खाली हाथ और मूंछ पर चावल चिपका हुआ देख रानी के मन में आया कि- “राजा भोजन खुद खा गया” और रानी को खाली बैठी देख राजा मन में सोचने लगा कि- “रानी सभी मछलियाँ खुद खा गई।” लेकिन किसी ने भी किसी को कुछ नहीं कहा और आगे चल पड़े।
चलते-चलते दोनों रानी के मायके जा पहुँचे। दोनों ने अपना भेष और नाम बदलकर नौकरी के लिए याचना की। तब राजा को घोड़े की घुड़साल में और रानी को वहाँ की महारानी का श्रृंगार करने की नौकरी मिल गई। राजा-रानी दोनों नौकरी करते रहे। जब एक साल हुआ और फिर दशामाता का व्रत आया, तब रानी राजा से बोली- “आज की कमाई से भोजन बनाने का सामान ले आना, आज हम लोग अलग भोजन बनाएँगे। राजमहल में आज हम भोजन नहीं करेंगे।”
राजा भोजन का सभी सामान ले आया, तब रानी ने भोजन बनाया और दशामाता की पूजन की तैयारी की। जब रानी दमयंती महल की रानियों के साथ मिलकर दशामाता का पूजन कर पीपल की परिक्रमा सबके साथ कर रही थी, तभी दमयंती के पैर से कंकू के पैर बन रहे थे, यह देख अन्य रानियाँ अपने पैर होना बताने लगी, लेकिन दमयंती की माता ने कहा कि- “सभी रुको। हम एक-एक करके परिक्रमा लगाएँगे, तभी पता लगेगा कि ये कंकू के पैर किसके हैं।” एक-एक ने जब परिक्रमा की, तो यह पाया गया कि कंकू के पैर दासी दमड़ी (दमयंती) के बन रहे हैं। पूजन के बाद राजा-रानी ने मिलकर बगीचे में ही भोजन किया। राजा भोजन करने के पश्चात् कुछ देर के लिए वहीं जमीन पर सो गया। तब राजा को स्वप्न में पुनः दशामाता ने आकर कहा कि “राजा तेरी अवदशा (बुरी दशा) चली गई और दशा (अच्छी दशा) वापस आ गई है।”
राजा रानी ने महल में जाकर अपना हिसाब करने को कहा। उसी समय दमपंती ने भी अपनी माँ से कहा कि- “मैं ही आपकी दमयंती हूँ।” तब माता ने कहा- “बेटी! यह बात पहले ही बता देना था।” तब दमयंती ने कहा- “माँ, उस समय हमारी अवदशा थी और अब वापस हमारी अच्छी दशा आ गई है। इसलिए हम अपने नगर को जावेंगे।”
पिता ने बहुत सारा धन और लाव-लश्कर देकर अपनी पुत्री व दामाद को विदा किया। रास्ते में वही जगह आई, जहाँ रानी ने मछलियों को भूना था और राजा के हाथ से चील पत्तल ले गई थी। दोनों ने देखा कि भूनी हुई मछलियाँ पानी से बाहर आ रही हैं और वही चील भोजन की पत्तल लेकर सामने आ रही है।
तब रानी बोली- “महाराज! आपने मन में सोचा होगा कि रानी सभी मछलियाँ खा गई हैं।” तब राजा ने कहा कि- “रानी तुमने भी तो यही सोचा होगा कि राजा भोजन की पत्तल अकेले खा गए।”
चलते-चलते राजा जब अपनी बहिन के गाँव में पहुँचे और दासी के साथ अपनी बहिन को खबर भेजी, तो राजा की बहिन ने दासी से पूछा कि- “मेरे भाई और भाभी किस दशा में हैं।” तब दासी ने कहा कि- “बहुत अच्छी दशा में हैं।” यह सुन राजा की बहिन मोतियों का थाल सजाकर अपने भाई- भाभी से मिलने गई।
तभी दमयंती रानी ने धरती से प्रार्थना की और कहा- “माँ, आज मेरी अमानत मुझे वापस दे दो।” यह कहकर रानी ने उस जगह को खोदा, जहाँ उसने रोटी और कॉदा जमीन में भण्डार दिया था। खोदने पर रोटी तो सोने की और काँदा चाँदी का हो गया था। यह दोनों चीजें राजा की बहिन की थाली में डाल दी और आगे चलने की तैयारी करने लगे। राजा की बहिन के घर नहीं गए।
वहाँ से चलकर राजा गऊली के यहाँ पहुँचे तो गाय पर राजा-रानी की नजर पड़ते ही गाय ने सवा घड़ा दूध देना शुरू कर दिया। तब गऊली बोला-“आपके पुण्य प्रताप से मेरी गाय ने सवा घड़ा दूध वापस दिया है। पहले ने जाने कौन अपशकुनिया आया था, तो मेरी गाय ने सवा घड़ा दूध देना बंद कर दिया था।” तब राजा बोले- “भाई पहले भी हम लोग आए थे, तब दशामाता के कोप से हमारी अवदशा थी, अब दशामाता की कृया से हमारे दिन फिरे हैं।”
गऊली के यहाँ से चलकर राजा अपने मित्र के घर पहुँचे। मित्र ने राजा- रानी का पहले की तरह ही सम्मान किया और वही कमरा रात्रि विश्राम के लिए दिया, जिसमें राजा-रानी पहले ठहरे थे।
राजा-रानी को तो मोरनी खूँटी के हार निगल जाने की चिंता थी। इसलिए नींद कहाँ से आती। ठीक आधी रात को वही लकड़ी की मोरनी खूँटी हार वापस उगलने लगी, तो राजा ने अपने मित्र को और रानी ने मित्र की पत्नी को जगाकर दिखाया “आपका हार इस लकड़ी की मोरनी ने निगल लिया था। आप लोगों ने सोचा होगा कि हम लोग आपका हार लेकर चले गए।” प्रातः नित्यकर्म से निपटकर राजा-रानी अपने लश्कर के साथ उसी माली के बगीचे में पहुँचे। राजा-रानी की नजर पड़ते ही पूरा बगीचा फिर से हरा हो गया।
तब माली ने कहा- “आपके ही पुण्य प्रताप से मेरा बगीचा फिर से हरा- भरा हुआ है। पहले न जाने कौन आया था कि पूरा बगीचा ही सूख गया था।” तब राजा ने माली से कहा- “भाई पहले भी हम लोग आए थे। दशामाता के कोप से हमारी अवदशा होने से बगीचा सूखा था। अब हमारे दिन फिरे हैं।” वहाँ से चलकर राजा-रानी कुम्हार के यहाँ पहुँचे। दोनों की चाक पर नजर पड़ते ही वापस सोने के कलश उतरने लगे, तो कुम्हार ने भी पुण्य प्रताप का बखान किया और राजा ने भी अपनी दशा का विवरण सुनाया।
सभी दूर से निवृत्त होकर राजा-रानी लाखा बनजारे के यहाँ अपने दोनों पुत्रों को लेने पहुँचे, लेकिन बनजारन ने इंकार करते हुए दोनों पुत्रों को देने से मना कर दिया और कहने लगी कि “ये दोनों तो मेरे पुत्र हैं” और रानी कह रही थी कि- “ये दोनों मेरे पुत्र हैं।” रानी और बनजारन का पुत्र के लिए विवाद सुनकर गाँव के कुछ लोग भी वहाँ जमा हो गए। दोनों का विवाद नहीं सुलझने पर गाँव वालों ने दोनों को समझाते हुए एक युक्ति बताई। दोनों ने उस युक्ति को स्वीकार कर लिया। गाँव वालों की युक्ति के अनुसार रानी और बनजारन को सूर्य के सामने मुख करके खड़ा होना था और अपने सामने दोनों जों को खड़ा करना था। जिसके भी आँचल से दूध की धार निकलकर दोनों ह। राजकुमारों की मूंछ पर गिरेगी, पुत्र उसी के माने जायेंगे।
रानी और बनजारन ने ऐसा ही किया और दोनों सूर्य के सामने मुख करवे खड़ी हो गईं और राजकुमारों को भी सामने खड़ा कर लिया। यह युक्ति अपनने पर रानी दमयंती के आँचल से दूध की धार निकलकर राजकुमारों की मूहों पर गिरी। इस प्रकार सत्य की विजय हुई।
राजा-रानी दोनों राजकुमारों को लेकर अपने नगर की तरफ चल दिए। नगरवासियों ने दूर से लश्कर को देखकर समझा कि कोई डाकू नगर लूटने आ रहा है। पास आने पर नगरवासियों की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। जब – उन्होंने अपने राजा-रानी को देखा। तुरंत टूटे-फूटे ढोल लेकर नगरवासी – राजा-रानी की अगवानी करने हेतु चल पड़े।
राज-रानी की नजर पड़ते ही टूटे-फूटे ढोल और पाषाण बने घोड़े, हाथी सभी अच्छे (पूर्वानुसार) हो गए। राजा ने अपने राज्य में दशामाता का एक विशाल मंदिर बनवाया और नगरवासियों में दशामाता की महिमा बढ़ाई।
हे दशामाता, जैसे पहले राजा-रानी को कष्ट सहना पड़ा, ऐसा कष्ट किसी को भी न हो और बाद में जैसे राजा-रानी को फले, वैसे ही आपका व्रत करने वाले को सभी को फले। यही आपके चरणों में नम्र निवेदन है।
FAQ‘s
दशामाता व्रत कब मनाना चाहिए?
दशामाता व्रत चैत्र मास के प्रारंभ की दशमी तिथि को मनाया जाता है। यह तिथि आमतौर पर मार्च या अप्रैल के महीने में पड़ती है।
दशामाता व्रत किसके लिए किया जाता है?
यह व्रत विशेष रूप से सुहागन स्त्रियों द्वारा किया जाता है। इसका उद्देश्य घर की स्थिति सुधारना और परिवार की सुख-समृद्धि सुनिश्चित करना है।
दशामाता व्रत का महत्व क्या है?
दशामाता व्रत का महत्व घर की दशा को सुधारने और परिवार में सुख-शांति बनाए रखने के लिए है। इसे करने से घर की समस्याओं का समाधान और खुशहाली प्राप्त होती है।
दशामाता व्रत की विधि क्या है?
इस व्रत में महिलाएं ब्राह्मण से डोरा लेकर उसे गले में बांधती हैं। एक समय भोजन करती हैं, पीपल के पेड़ की पूजा करती हैं और राजा नल और दमयंती की कथा सुनती हैं। इस दिन विशेष रूप से पीपल की पूजा महत्वपूर्ण होती है।
दशामाता व्रत के दौरान क्या विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं?
इस व्रत के दौरान महिलाएं विशेष रूप से एक समय भोजन करती हैं और पीपल के पेड़ की पूजा करती हैं। साथ ही, राजा नल और दमयंती की कथा सुननी होती है।
दशामाता व्रत के दौरान क्या सावधानियाँ रखनी चाहिए?
दशामाता व्रत के दौरान विशेष सावधानी यह रखनी चाहिए कि व्रति को दिनभर उपवास रखना होता है और पूजा विधि के अनुसार सभी अनुष्ठान सही तरीके से किए जाएं।
दशामाता व्रत की कथा क्या है?
दशामाता व्रत की कथा के अनुसार, राजा नल और रानी दमयंती ने दशामाता का डोरा गले में बांध रखा था। जब राजा ने इस डोरे को तोड़ दिया, तो दशामाता क्रोधित हो गई और राजा की दशा खराब हो गई। कथा में राजा और रानी की कठिनाइयों और दशामाता की कृपा से उनकी स्थिति सुधरने की कहानी वर्णित है।
दशामाता व्रत का पालन किस प्रकार किया जाता है?
दशामाता व्रत का पालन करने के लिए महिलाएं ब्राह्मण से डोरा लेकर उसे गले में बांधती हैं, एक समय भोजन करती हैं, पीपल के पेड़ की पूजा करती हैं और राजा नल और दमयंती की कथा सुनती हैं।
दशामाता व्रत की कथा के अनुसार राजा और रानी की स्थिति में क्या बदलाव आया?
कथा के अनुसार, राजा और रानी की दशा खराब हो गई थी, लेकिन दशामाता की पूजा और उपासना से उनकी स्थिति फिर से सुधरी और उनका राज्य खुशहाल हो गया।
दशामाता व्रत के अंत में राजा और रानी ने क्या किया?
व्रत के अंत में राजा और रानी ने अपने नगर लौटकर वहां दशामाता का एक विशाल मंदिर बनवाया और नगरवासियों के साथ दशामाता की महिमा का प्रचार किया।
क्या दशामाता व्रत का पालन केवल महिलाओं द्वारा ही किया जाता है?
हां, दशामाता व्रत विशेष रूप से महिलाओं द्वारा किया जाता है। यह व्रत घर की दशा सुधारने और परिवार की सुख-समृद्धि के लिए किया जाता है।
क्या दशामाता व्रत के दौरान भोजन का कोई विशेष नियम है?
दशामाता व्रत के दौरान महिलाएं एक समय भोजन करती हैं और दिनभर उपवास करती हैं। भोजन में विशेष रूप से संयम रखा जाता है और व्रत के दौरान विशेष ध्यान देना पड़ता है।