दान का लक्षण
(मत्स्यपु-अ. 145-श्लो. 15)
यद्यदिष्टतमं द्रव्यं न्यायेनैवागतञ्च यत् ।
तत्तद्गुणव देयमित्येतद्दानलक्षणम् ||1||
(पद्यपु. खण्ड. 5-अ. 25 – श्लो. 150 )
इमे दारासुता गावो यच्चान्यद्विद्यते वसु ।
त्रैलोक्यराज्यमखिलं विप्रस्यास्य प्रदीयताम् ||2||
अब द्वादश अध्याय में दान का निरूपण करते हैं:-
मत्स्यपुराण में दान का लक्षण कहा है कि जो द्रव्य अपने को सुख प्रिय है और न्याय रूप धर्म से प्राप्त करा है सो द्रव्य शुभ गुण सम्पन्न विद्वान् के प्रति देना उचित है यह दान का लक्षण है ।।1।।
पद्मपुराण में कहा है कि वामन भगवान् को इन्द्र ने साथ ले जाकर बलि से कहा कि हे असुरराज ! इस ब्राह्मण को भजन करने के लिए इनके पाद के माप से तीन पाद पृथ्वी आप दें। बलि ने कहा हे इन्द्र मेरे अहोभाग्य हैं जो आप ब्राह्मण के लिए मेरे से मांगने आये हो। यह मेरी स्त्री, पुत्र गौएं यावत् मेरा धन है और तीन लोक का अखिल राज्य इस विप्र के लिए आप दें ।।2।।
देहीत्यवदच्छुक्रो विष्णुरेष मा सनातनः ।
( स्कन्ध पु. खण्ड. 7-खं. 2 – अ. 18 – श्लो. 24)
हृष्टो ब्रूते बलिः शुक्रं पात्रं च किमतः परम् ||3||
(भा. स्कन्ध. 8-अ. 22 – श्लो. 24)
ब्रह्मन् यमनुगृह्ममि तद्वित्तं विधुनोम्यहम्।
यन्मदः पुरुषस्तब्धो लोकं मां चावमन्यते ।।4।।
स्कन्द पुराण में कहा है कि बलि के सर्वस्व दान करने के वचन सुनकर शुक्राचार्य ने कहा हे बलि । यह सनातन विष्णु हैं तुम्हारे को छलने के लिए वामन रूप ब्राह्मण बनकर आये हैं। इसको माखी के पंख जितनी भी जमीन नहीं देनी बलि ने हर्षित होकर शुक्राचार्य से कहा कि यदि यह सनातन विष्णु है तो इनसे परे मेरे को दान का पात्र कौन मिलेगा। इनको तो अवश्य ही सर्वस्व दान देऊँगा।।3।।
जब बलि ने वामन को देने के लिए संकल्प का जल लिया उसी काल में महान रूप होकर वामन ने सर्वलोक दो पाद में मापकर तीसरे पद के लिए बलि को बाँध लिया। तब स्वर्ग से आकर प्रह्लाद ने कहा भो भगवन् ! आपने ऐसी बांधकर दान लेने की कृपा बलि के सिवाय और किसी पर नहीं करी है। ब्रह्मा ने विष्णु (वामन रूप) से कहा आप ऐसा क्यों करते हैं। तब वामन भगवान् ने कहा हे ब्रह्मन् ।
जिस प्राणी पर मैं कृपा करता हूँ तिसका सर्व धन प्रथम हर लेता हूँ क्योंकि जिस धन के मद से पुरुष श्रद्धा-भक्ति, नम्र भाव से हीन होकर लोगों का और मेरा अपमान करता है ऐसे धन का हरण ही उस भक्त के लिए कल्याणकारी है। यह भागवत में कहा है ||4||
(भविष्यत् पु. पर्व. 4-अ. 139 श्लो. 4)
कार्तिक कृष्णपक्षस्य पञ्चदश्यां निशागमे ।
यथेष्ट चेष्टा दैत्यानां राज्यं तेषां महीतले ||5||
ऐसा कहकर वामन भगवान् ने बलि से पूछा कि जो आपकी इच्छा है सो मांगे तब बलि ने कहा :-
सदा आप विष्णु के दर्शन होवें और कुछ दिन मृत्यु लोक का राज्य हो। वामन विष्णु ने कहा हे बलि ! कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की पंचदशी (अमावस्या) को रात्रि के आने पर तीन दिन दैत्यों का पृथ्वी पर राज्य होगा। जिन घरों में दीपक न जले तिन घरों में जैसी तुम्हारी इच्छा हो तैसी चेष्टा करनी। अमावस्या के दिन स्वर्गलक्ष्मी इन्द्र को मिली है इससे उस दिन में लक्ष्मी की पूजा होती है यह भविष्यत् पुराण में कहा है ||5||
(स्कन्द पु. खण्ड 2- खं. 4- अ. 9- श्लो. 57 )
बलिराज्यं समासाद्य यैर्न दीपावलिः कृता ।
तेषांगृहे कथं दीपः प्रज्वलिष्यति केशव ||6||
(गर्गसं. खं. 6-अ. 11 – श्लो. 35)
अन्नदानसमं दानं न भूतं न भविष्यति ।
देवर्षिपितृभूतानां तृप्तिरनेन जायते ||7||
स्कन्द पुराण में दीपप्रदान की प्रवृत्ति के लिए दानबीर बलि ने कहा हे केशव बलि के राज्य में प्राप्त होकर जिन पुरुषों ने दीप प्रदान रूप दीपावली न की उनके गृहों में दीपक कैसे जल सकता है। इस भय से बलि ने दीपावली का प्रवर्तन किया है ।।6।।
गर्ग संहिता में कहा है कि अन्नदान के समान दान न पूर्व हुआ न अब है न आगे होगा क्योंकि देवताओं की, ऋषियों की, पितरों की, पुरुषों की सर्व की तृप्ति अन्न से ही होती है ।।7।।
(छान्दो. अ. 6- खण्ड 6-मं. 5)
अन्नमयं हि सोम्यं मनः ||8||
(छान्दो. अ. 1-खण्ड 9-मं. 2)
स हेभ्यं कुल्माषान्स्वादन्तं विभिक्षे ||9||
छान्दोग्योपनिषद् में श्वेतकेतु ने पिता उद्दालक से पूछा कि मन किससे बनता है यह मेरे को प्रत्यक्ष दिखाओ। जब उद्दालक ने श्वेतकेतु को पन्द्रह दिन अन्न न खिलाकर कहा वेद पढ़कर अर्थ सुनाओ। जब श्वेतकेतु से पाठ अर्थ दोनों न हुए तब पिता ने कहा हे पुत्र ! अन्न से ही मन बनता है।।8।। कुरूदेश में पाषाणों की वर्षा से अकाल पड़ने पर अन्न न मिलने से उपस्थित ब्राह्मण अपनी स्त्री के साथ परदेश को चल दिये, मार्ग में एक हस्ति शाला में जाकर कीटदूषित मार्षो (एक प्रकार के अन्न) को खाते हुए हस्तिपालक से मांगते भये और उन्हीं झूठे बासी माषों को दूसरे दिन खाकर यज्ञ में जाते भये आपत्ति काल में मर्यादा करना दुर्घट है ||9||
(महाभा पर्व 12-अ. 141 श्लो. 71)
अगस्तेनासुरो जन्यो वातापिः क्षुधितेन वै ।
अहमापद्गतः क्षुत्तो भक्षयिष्ये श्वजाघनीम् ।।10।।
महाभारत में कहा है कि किसी काल में बारहवर्ष के अकाल पड़ने पर अन्न न मिलने से सुधापीड़ित विश्वामित्र स्वपच के गृह में रात्रि को श्वान के मांस को चुराने को गये।
स्वपच ने कहा कौन है, तब सत्य वक्ता ऋषि ने कहा कि मैं विश्वामित्र हैं, श्वान मांस को चुराने आया हूँ।
स्वपच ने कहा आप धर्म के नेता ऋषि हैं आपको इस अनित्य शरीर के लिए श्वान मांस चुराकर खाना उचित नहीं है। विश्वामित्र ने कहा हे श्वपच ! आप ठीक ही कहते हो, परन्तु चार पुरुषार्थों के लिए कारण रूप मनुष्य देह की येनकेन प्रकार से भी रक्षा करनी चाहिए। क्षुधा से पीड़ित अगस्त्य ऋषि ने वातापि असुर को भक्षण करा है। मैं भी सुधा से व्याकुलता रूप आपत्ति को प्राप्त हुआ श्वान की लात के मांस को भक्षणा कर क्षुधा दूर करना चाहता हूँ।
आप कृपा कर श्वान की लात का मांस मेरे को दें तब कष्ट से श्वपच ने दी। विश्वामित्रने ले जाकर वन में उसको पकाकर देवताओं को आहूति देने का विचार किया। तब उसी काल में इन्द्र ने भूमि को वर्षा से शोभित कर दिया और धर्मात्मा दशरथ ने भी आगे को ऐसा दुर्भिक्ष का कष्ट न होने के लिए तप कर विष्णु से कलियुग में बारहवर्ष का दुर्भिक्ष काल न होना मांगा ||10||
(शिवपु. संहिता. 5-अ. 11 – श्लो. 23)
नास्ति क्षुधासमं दुःखं नास्ति रोगः क्षुधासमः ।
नास्त्यरोगसमं सौख्यं नास्ति क्रोधसमं रिपुः ||11||
शिवपुराण में कहा है कि क्षुधा के समान और कोई दुःख नहीं है। क्षुधा के समान कोई रोग नहीं है। मुक्ति से बिना क्षुधा रोग से कोई नहीं छूट सकता है। आरोग्य के समान कोई सुख नहीं है और क्रोध के समान कोई संसार में शत्रु नहीं है। क्षुधा से पीड़ित पुरुष को ही विशेष कर राग, क्रोध आदि होते हैं ।।12।।
( पाराशर स्मृ. अ. 1- श्लो. 32 )
कृते त्वस्थिगताः प्राणस्त्रेतायां मांसमाश्रिताः ।
द्वापरे रुधिरं चैव कली त्वन्नादिषु स्थिता ||12||
पाराशर स्मृति में कहा है कि सतयुग में अस्थियों में प्राण रहते थे, त्रेतायुग में माँस में प्राण रहते थे। द्वापर युग में रुधिर में प्राण रहते थे और कलियुग में अब अन्न आदि की पेट में स्थिति होने पर प्राणों की स्थिति रहती है ||12||
(मनुस्मृ. अ. 1 – श्लो. 86)
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते ।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ।।13।।
मनुस्मृति में कहा है कि सत्युग में चित्त की एकाग्रता रूप तप ही करना कल्याणकारी था । त्रेतायुग में आत्मा का ब्रह्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान ही कल्याणकारी था। द्वापरयुग में यज्ञ ही शुभकारी था । कलियुग में एक दान करना ही कल्याणकारी कहा है। अन्य युग के धर्म अन्य युगों में कष्टसाध्य हैं ।।13।।
(पाराशर स्मृ. अ. 1-श्लो. 28-29)
अभिगम्य कृते दानं त्रेतास्वाहूय दीयते ।
द्वापरे याचमानाय सेवया दीयते कलौ ।।14।।
अभिगम्योत्तमं दानमाहूयैव तु मध्यमम् ।
अधमं याचमानाय सेवादानं तु निष्फलम् ।।15।।
पाराशर स्मृति में कहा है कि सतयुग में दान जिसको देना होता था तिसको स्वयं श्रद्धा से जाकर दिया करते थे। त्रेतायुग में कुछ श्रद्धा कम होने से गृह में बुलाकर दान दिया करते थे। द्वापर में और भी श्रद्धा कम होने से याचना करने पर दान दिया जाता था और कलियुग में तो सेवा कराकर दान दिया जाता है।।14।।
किसी भी युग में दान दिया जावे तो स्वयं जाकर देना चाहिए सो सतयुगी उत्तम दान कहा जाता है। गृह में बुलाकर जो दान दिया जाता है सो मध्यम कहा है और याचना करने पर जो दान दिया जाता है सो अधम कहा है। सेवा कराकर जो दान दिया जाता है उस कपट दान का सेवा से बिना कोई फल नहीं है ।।15।।
(श्रीजाबालदर्शनो. खण्ड 2 मं. 7)
न्यायार्जितधनं श्रान्ते श्रद्धया वैदिके जने ।
अन्यद्वा यत्प्रदीयेत तद्दानं प्रोच्यते मया ||16||
श्री जाबालदर्शनोपनिषद् में कहा है कि न्याय से उपार्जित धन में से जो श्रद्धाभक्ति से थकित हुए वेदशाम्राधीत सदाचाराभ्यासी वैदिक पुरुष को दिया जाता है और धन के अतिरिक्त जो कुछ भी विद्वान् को दिया जाता है उसका नाम दान कहा जाता है ।।16।।
(पद्मपु खण्ड 6-अ. 128 श्लो. 115 )
शुक्लद्रव्येण यद्दानं दीयते श्रद्धयाऽन्वितम् ।
स्वल्पेनापि महत्पुण्यं तस्य संख्या न विद्यते ।।17।।
पद्मपुराण में कहा है कि न्याय धर्म से उपार्जित शुद्ध द्रव्य में से श्रद्धा-भक्ति-सहित जो अल्प भी दान दिया जाता है तिसका महान पुण्य होता है। जिसकी और गणना न कर सके ||17||
(ब्रह्मवै खण्ड. 24. 20- श्लो. 190)
सर्व गंगासमं तोयं सर्वे व्याससमा द्विजाः ।
ग्रहणे सूर्यशशिनोश्चात्रैव समता तयोः ||18||
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि सूर्य चन्द्रमा के ग्रहण में स्पर्शकाल से लेकर मोक्षकाल पर्यन्त स्नान-दान करने के लिए सर्व जल गंगा के समान है और सर्व ब्राह्मण वेद व्यास के समान हैं। इस सूर्य-चन्द्र के ग्रहणकाल में ही अन्य जल गंगा के सम है और अन्य ब्राह्मण व्यास के समान हैं। ग्रहण से आगे पीछे नहीं इस हेतु से ग्रहणकाल में स्नान-दान अवश्य ही करना चाहिये ।।18।।
(बृ.अ. 5-ब्रा. 2-मं. 3)
एषा देवी वागनुवदति स्तनयित्नुर्ददद इति दाम्पत दत्त दयध्वमिति ||19||
बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है कि वह परमात्मा देव द द द इस मेघ की गर्जना रूप वाणी से देव असुर मनुष्य इन तीनों को शिक्षा देते हैं। एक द से देवताओं को कहते हैं कि तुम विषयों में राग वाले हो इस कारण से इन्द्रियों का दमन करो। दूसरे द से असुरों को कहते हैं तुम हिंसक की दया करने से तुम्हारा कल्याण होगा। तीसरे द से मनुष्यों को कहा है कि तुम्हारा स्वभाव अधिक लोभी है। तुम्हारा दान करने से कल्याण होगा। ऐसे परमात्मा सर्व के हितकारी उपदेश की सर्वदा घोषणा करते हैं। बुद्धि के शत्रु यदि न सुनें तो संसार के गधे बने रहें ||19||
(मनु, अ. 4- श्लो. 228)
यत्किचिदपि दातव्यं याचितेनानसूयया ।
उत्पत्स्यते हि तत्पात्रं यत्तारयति सर्वतः ||20||
सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते ।
वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम् ।।21।।
येन येन तु भावेन यद्यद्दानं प्रयच्छति ।
तत्तत्तेनैव भावेन प्राप्नोति प्रतिपूजितः ।। 22।।
मनुस्मृति में कहा है कि गृहस्थी को यथाशक्ति जो कुछ भी याचक के प्रति रोज बिना निन्दा से दान देना उचित है। जैसे रोज पक्षियों को चोगा डालने वालों को कभी हंस के भी दर्शन हो जाते हैं वैसे ही नियम से दान देने वाले को कभी ऐसे सत्पात्र परमहंस महात्मा प्राप्त हो जाते हैं जो सर्व दुखों से तार देते हैं ।।20।।
जल, अन्न, गौ, भूमि, वस्त्र, तिल, सुवर्ण, घृत इन सर्व दानों में जीव ब्रह्म की एकता रूप अद्वैतबोधक ब्रह्मविद्या का दान करना श्रेष्ठ कहा है, ऐसी ब्रह्मविद्यावाले सत्पात्रों को जल, अन्न आदि का दान देना भी श्रेष्ठ है ।। 21।।
सर्वदान शुभ भाव से दिये हुए फलीभूत होते हैं जैसे कोई दो भ्राता थे। ज्येष्ट भ्राता ने छोटे भ्राता को निर्बुद्धि जान कर कुछ न देकर अलग कर दिया। तब छोटे भाई ने विचार कर अपनी स्री से कहा पुण्य कर्म के बिना कोई सहायक नहीं होता है यदि मेरा साथ करना चाहती हो तो सर्व प्रकार से शुद्धिपूर्वक अपने भोजन में से थोड़ा-थोड़ा निकालकर सत्कारपूर्वक अतिथि को देकर पीछे खाना होगा; स्त्री ने कहा मैं सर्वप्रकार से आपकी आज्ञा पालूंगी।
इस प्रकार ऐसे शुभ कर्म से लोगों में उनका यश सुनकर बड़े भाई ने अपनी स्री से कहा कि हमारे छोटे भाई का अल्प दान से महान् यश हो रहा है। हमको भी दान करना चाहिए। तब अपना भी यश होगा
॥ दोहा।।
चौका पात्र वस्त्र पुनि सोध करो स्नान ।
केश कीट कंकरादि से अन्न सोधे दे ध्यान ।
तब श्रद्धा और चोकाशुद्धि (1) पात्रशुद्धि (2) वस्त्रशुद्धि (3) शरीरशुद्धि (4) अन्नशुद्धि (5) इन पाँच प्रकार की शुद्धि आदि से हीन दान देने लगे। तब काल पाकर मृत्यु होने से छोटा भाई स्री सहित शुद्ध दान तथा शुभ भाव के प्रभाव से राजा-रानी हुए और बड़ा भाई अशुद्ध दान अशुभ भाव के प्रभाव से स्त्री सहित हस्ती हस्तिनी हुए। मनुजी ने कहा है कि जो पुरुष शुद्ध भाव से पूजा पूर्वक दान देता है सो शुद्ध फल को पूजा पूर्वक प्राप्त होता है और जो पुरुष अशुद्ध भाव से तिरस्कारपूर्वक दान देता है सो अशुद्ध फल को तिरस्कार पूर्वक प्राप्त होता है ||22||
(गीता. 31. 17-get. 20)
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतम् ||23||
(पद्मपु. खण्ड. 6-अ. 57 – श्लो. 8)
यदीश्वरस्य प्रीत्यर्थं ब्रह्मवित्सु प्रदीयते ।
चेतसा धर्मयुक्तेन दानं तद्विमलं शिवम् ||24||
(पद्मपु. खण्ड. 6-अ. 250 – श्लो. 219 )
ते धन्याः कर्मभूमौ ये न्यायमार्गोर्जितं धनम् ।
सत्पात्रेभ्यः प्रयच्छन्ति कुर्वन्ति चात्मनो हितम् ||25||
गीता में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा है कि जो दान देना ही है ऐसा निश्चय करके दिया जाता है और जिससे प्रति उपकार रूप काम न लिया जाय और जिस देश काल में वेद पठित सत्पात्र को अवश्य ही अभिलाषित हो तिसको दान देना सो दान सात्विकी कहा है और जो दान प्रत्युपकार के लिए दिया जाता है सो कलियुगी दान है ||23||
पद्मपुराण में कहा है कि जो दान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए धर्मयुक्त शुद्ध चित्त से ब्रह्मवेत्ताओं को दिया जाता है सो दान शुद्ध कल्याणकारी कहा है ||24||
पद्मपुराण में कहा है कि इस भारतवर्ष कर्मभूमि में वे पुरुष ही धन्यवाद के योग्य हैं जो पुरुष न्याय धर्म के मार्ग से उपार्जित धन को विद्वान् सत्पात्रों का दान देते हैं। वे पुरुष ही संसार में अपना हित रूप कल्याण करते हैं। दूसरे तो अपने हित के शत्रु ही हैं ||25||
(छान्दो. अ. 4-खण्ड 1-मं. 1)
जानश्रुतिर्ह पौत्रायणः श्रद्धादेयो बहुदायी बहुपाक्य आस ||26||
छान्दोग्योपनिषद् में जानश्रुति राजा के पुत्र का पुत्र होने से जानश्रुति पौत्रायण कहा जाता है । सो राजा श्रद्धा-भक्ति से बहुत दान करता था। जहाँ-तहाँ अपने राज्य में पाकशालाओं में बहुत सा अन्न बनवाकर स्वयं जाकर देखता था कि मेरा अन्न अतिथियों को सत्कार से खिलाया जाता है या नहीं। ऐसे जानश्रुति राजा के अन्नदान से संतुष्ट हुए ऋषि देवता हंसों का रूप धर कर राजा को ज्ञानमार्ग में प्रवर्त कराने के लिए रात्रि को राजमन्दिर के ऊपर पड़े हुए जानश्रुति को सुनाते हुए आपस में कहते हैं भो भल्लाक्ष हंस ।
यहाँ न चलें क्योंकि यहाँ ज्ञानश्रुति धर्मात्मा राजा सोते हैं। भल्लाक्ष ने कहा क्या ये रैक्च ऋषि हैं। जिसके अपमान से पाप होगा। तब दूसरे हंस ने पूछा रैक्व कैसे हैं। भल्लाक्ष ने कहा कि सर्व सुख जिस ब्रह्मानन्द के अन्तर हैं ऐसे ब्रह्मानन्दी रैक्व ऋषि हैं। तब जानश्रुति राजा ने कर्मचारियों द्वारा रैक्वऋषि को खोजकर बहुत सी भेंट देकर रैक्व से ज्ञान प्राप्त करा है ||26||
( व्यासस्मृ. अ. 4- श्लो. 24)
अदाता पुरुषस्त्यागी धनं संत्यज्य गच्छति ।
दातारं कृपणं मन्ये मृतोप्यर्थं न मुंचति ।।27।।
व्यास स्मृति में कहा है कि किसी ने व्यासजी से पूछा कि त्यागी और कृपण किसे कहते हैं ? व्यासजी ने कहा कि जो पुरुष दान न करे सो त्यागी है क्योंकि मरकर धन को यहीं त्यागकर साथ में एक पैसा भी नहीं ले जाता है और दान करने वाले पुरुष को हम कृपण मानते हैं क्योंकि संग्रह किये हुए सर्व धन को दान कर मरता हुआ भी साथ ले जाता है पीछे किसी के लिए एक पैसा भी नहीं छोड़ता इस हेतु से कृपण हैं ।।27।।
( स्कन्ध पु. खण्ड. 12-अ. 2- श्लो. 69 )
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चाऽतपस्विनम् ।
उभावम्भसि मोक्तव्यौ कण्ठे बद्धवा महाशिलाम् ||28||
(ब्रह्मवै. उत्तरार्ध खण्ड, 4-अं. 75 – श्लो. 31 )
स्वदत्तं परदत्तं वा ब्रह्मवितं हरेत्तु यः ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमि : ।।29।।
स्कन्द पुराण में कहा है कि धनवान् होकर दान न करने वाले को और निर्धन होकर तप न करने वाले को इन दोनों के गले में महान् शिला बांधकर खारे जल में छोड़कर डुबाने में कोई दोष नहीं है ।।28।।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि जो द्रव्य ब्राह्मणों को स्वयं दान करा है अथवा पिता आदि से दान करा हुआ है उस ब्राह्मण धन को जो पुरुष हरणकरता है वो साठ हजार वर्ष पर्यन्त विष्ठा में कीट होकर जन्मता है, अस्तु दान देकर लेना निषेध कहा है ||29||
(नारदीय पूर्वार्ध. अ. 36 – श्लो. 12-13)
असतामुपभोगाय दुर्जनानां विभूतयः
पिचुमन्दः फलाढ्योपि काकैरेवोपभुज्यते ||30||
अहो सदुपभोगाय सज्जनानां विभूतयः|
कल्पवृक्षफलं सर्वममरैरेव भुज्यते ||31||
नारद पुराण में कहा है कि जैसे नीम वृक्ष बहुत से फलों से युक्त होने पर भी उसके फल नीच जाति वाले काक पक्षियों द्वारा ही खाये जाते हैं, तैसे ही दुर्जन पुरुषों के पास बहुत- सी विभूतियाँ होने पर भी वो सब नीच दुर्जन पुरुषों के खानपान के भोग के लिए होती हैं ||30||
परन्तु अहोभाग्य पुण्यपरायण सज्जन पुरुषों की विभूतियाँ सदाचारी विद्वान् सज्जन पुरुषों द्वारा खानपान रूप से भोगी जाती है। जैसे देवताओं के कल्पवृक्ष आदि के सर्व फल देवताओं करके ही खानपान रूप से भोगे जाते हैं। और जैसे ऊसर भूमि में बोया हुआ बीज फलीभूत नहीं होता है तैसे ही दुर्जन को दिया दान फलीभूत नहीं होता है शुभ भूमि के समान विद्वान् सदाचारी को दान दिया हुआ ही फलीभूत होता है ||3||4-
( महाभा. पर्व 5-अ. 123 – श्लो. 14)
अनेकक्रतु दानौधैर्यत्त्वयोपार्जितं फलम् |
तदनेनैव दोषेण क्षीणं येनासि पातितः ||32||
(रघु. सर्ग, 4- श्लो. 86)
सविश्वजितमाजहे यज्ञं सर्वस्वदक्षिणम् ।
आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव ||33||
महाभारत में कहा है कि नहुष राजा ने इन्द्र पद को प्राप्त होकर इन्द्राणी को भोगना चाहा तब ऋषियों ने कहा- हे राजन् । आपने क्या पुण्य करे हैं। नहुष ने अहंकार कर कहा मैंने बहुत यज्ञ करे हैं, बहुत दक्षिणा दी है, मेरे दान की कोई संख्या नहीं कर सकता है।
ऐसे पुण्यों के कथन से स्वर्ग से पतित होते नहुष ने ब्रह्मा से कहा हे राजन् अनेक क्रतु यज्ञों के दानसमूह से जो आपने इन्द्रपद रूप फल को सम्पादन करा था, सो आज अहंकारपूर्वक पुण्यकथन के दोष से क्षीण हो गया है। इस हेतु से आप स्वर्ग से पतन करे जाते हैं ||32||
रघुवंश में कहा है कि रघुराजा ने दिग्विजय कर विश्वजित नाम यज्ञ आरम्भ किया जिस यज्ञ में सर्वस्व की दक्षिणा दी जाती है जैसे मेघ कृषि की पुष्टि के अर्थ जलों का त्याग करने के लिये ही जलों का ग्रहण करते हैं, तैसे ही श्रेष्ठ पुरुषों का धन संग्रह करना दान करने के लिए ही होता है ||33||
(रघु. सर्ग. 5-श्लो. 2-31)
स मृन्मये वीतहिरण्यमयत्वात्पात्रे निधायार्घ्यमनर्घशीलः ।
श्रुतप्रकाशं यशसा प्रकाशः प्रत्युज्जगामातिथिमातिथेयः ||34||
जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ द्वावप्यभूतामभिनन्द्यसत्त्वौ ।
गुरुप्रदेयाधिकनिः स्पृहोऽर्थी नृपोऽर्थी कामादधिकप्रदश्च ||35||
दानवीर धर्मात्मा रघु राजा ने भोजन करने के पात्र तक सर्वस्व दक्षिणा में दान कर दिये ऐसी दशा में उसी काल में वरतन्तु ऋषि के शिष्य कौत्स, विद्या पढ़कर गुरु से दक्षिणा लेने की प्रार्थना की। गुरु ने कहा हे, शिष्य मैं तुम्हारी सेवा से ही तुष्ठ हूँ। शिष्य के पुनः पुनः आग्रह करने पर गुरु ने कहा अच्छा चौदह भार सुवर्ण के लाओ- यह सुनकर कौत्स नामक शिष्य दानवीर रघु राजा के पास आये। तब अमोलक गुणबान् दान के यश से प्रकाशमान, अतिथि पूजनशीलरघुराजा विद्या के प्रभाव से प्रकाशमान कौत्स अतिथि के पूजन करने को सुवर्ण के पात्र न होने पर मृतिका के पात्र में अर्घ्य पाद्य पूजन की सामग्री रखकर शीघ्र ही उठकर आये ||34||
तब कौत्स ब्रह्मचारी ने विचारा कि जो मृतिका के पात्र से अतिथिपूजा करता है तिससे तो एक पैसा भी माँगना उचित नहीं है। ऐसा जानकर निराश हो चल दिया। रघु राजा ने कहा भो विप्रवर ! आज मेरा कौन सा पाप उदय हुआ है जो अप्रसन्न मुख निराश होकर सेवा की आज्ञा न कर मेरे पास से जा रहे हो। कौत्स ने कहा हे राजन् आपके पुण्य की सीमा नहीं और मुझ गुरु दक्षिणा रूप चौदह भार सुवर्ण के ऋणी के पाप की सीमा नहीं है। इस हेतु से जाता हूँ। तब रघु राजा ने विचार कर कौत्स को तीन दिन तक अग्नि गृह में रहने की प्रार्थना करी, कौत्स ने स्वीकार कर लिया।
रघु राजा ने विचारा एक बार राजाओं को जीतकर पुनः आक्रमण करना उचित नहीं, अब तो कुबेर को जीतकर चौदह भार-सुवर्ण के कौत्स को दान देकर ही अन्न जल ग्रहण करूंगा। ऐसा संकल्प कर दिग्विजयी रथ में बैठने पर उसी काल में कुबेर ने दानवीर रघु राजा से अपनी हार जान कर हीरे, लाल, मोतियों की वर्षा कर रघु के गृहकोश को पूर्ण कर दिया। तब कर्मचारियों ने रघु से कहा कि हे महाराजा ! आपका कोश गृह अमोलकर हीरों की वर्षा से पूर्ण हो गया है जो आप कहो सो करें।
रघु ने कहा कि निर्धन राजा के दास भी हंसी करने लग जाते हैं। तब फिर कर्मचारियों ने हाथ जोड़कर कहा, हे महाराज ! आप चलकर देखे। तब रघु ने जाकर धन से परिपूर्ण (धनगृह) कोश को देखकर कौत्स ब्रह्मचारी को बुलाकर हाथ जोड़कर कहा भो भगवन् ! यह सर्व आपका धन है इसको कृपाकर आप ले जायें। कौत्स ने कहा हे राजन् ! गुरु को प्रदेय जो चौदह भार सुवर्ण के हों सो आप तुला से तोलकर देवें। उससे अधिक एक पैसा भी नहीं लेऊँगा।
रघुराज ने कहा कि मैं इस द्रव्य में से एक पैसा भी नहीं रखूंगा। सर्व ही देऊँगा। ऐसे गुरु को प्रदेय धन से अधिक न ग्रहण करने वाले निस्पृही याचक (कौत्स ब्रह्मचारी) और याचक की कामना से अधिक देने वाले दाता राजा रघु दोनों प्राणी- हर्ष जनक धर्म में निष्ठावाले तिस अयोध्यापुरी के निवासी लोगों को आनन्द से पूर्ण करने वाले हुए और सर्व धन को लेकर वरतन्तु ऋषि के पास गये।
वरतन्तु ऋषि ने कहा मैंने तो हंसी से कहा था धन की इच्छा से नहीं कहा। तब वरतन्तु ऋषि ने कौत्स शिष्य की और रघुराजा की धन दिये बिना अन्नजल नहीं ग्रहण करेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर यथायोग्य यज्ञ-दान में धन को खर्च करा। ऐसे दानवीरों के और वीतरागों के आनन्ददायक संवाद हैं ||35||
(अथर्व. काण्ड. 3-अनु. 6-सृ. 29.मं. 70 )
क इदं कस्मा आदात् । कामः कामायादात् ||36||
अथर्ववेद में कहा है कि जो दान लेने वाला इस मंत्र को पढ़कर लेता है। उसको प्रतिगृह का दोष न लगेगा। अर्थ यह है :- ब्रह्मा ही ब्रह्मा के लिए देता है। ब्रह्मा ही ब्रह्मा से लेता है ||36||
(पद्मपु. खण्ड, 6-अ. 111 – श्लो. 46)
कन्यां गते सवितरि यान्यहानि तु षोडश ।
क्रतुभिस्तानि तुल्यानि देवो नारायणोऽब्रवीत् ||36||
पद्मपुराण में कहा है कि सूर्य के कन्या राशि में आने पर षोडश दिन दान करने के लिए यज्ञकाल के समान नारायणदेव ने कहे हैं, यह दिन अवश्य ही पितृश्राद्ध करने के हैं ||37||
(अथर्व. काण्ड. 18-अनु. 4-सू. 4- मं. 78-79-80)
स्वधा पितृभ्यः पृथिवीषद्भ्यः || 38 ||
स्वधा पितृभ्यो अन्तरिक्षसद्भ्यः ||39||
स्वधा पितृभ्यो दिविषद्द्भ्यः ||40||
18- अथर्ववेद में कहा है कि इन मंत्रों से पितरों के लिए हवि देने के मंत्रों का अर्थ यह है : जो हमारे पितर कर्मवश से पृथ्वी पर स्थित हैं। तिन पितरों के लिए यह स्वधा रूप हविष हमारी दी हुई स्वीकार हो ||38||
अन्तरिक्ष लोक में स्थित पितरों के लिए यह स्वधा रूप हविष हमारी दी हुई स्वीकार ||39||
देवलोक में स्थित पितरों के लिए यह स्वधा रूप हविष हमारी दी हुई स्वीकार हो ||40||
(ऋग् मण्डल. 10-सू. 15-मं. 14 )
ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धामध्येदिवः स्वधया मादयन्ते ||41||
(अथर्व, काण्ड. 18-अनु. 2-सूं. 2-मं. 34 )
ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिताः ।
सर्वास्तानग्न आवह पितृन् हविषे अत्तवे ||42||
ऋग्वेद में कहा है कि जो पितर अग्निसंस्कारों से दग्ध किये गये हैं जो अग्नि से दग्ध नहीं करे गये हैं, जो देवलोक में स्वधा अमृतपान से आनन्दित हो रहे हैं- वे पितर हमारे कल्याण के लिये हमारी दी हुई हवि को खायें ।।41।।
अथर्ववेद में कहा है कि जो पितर भूमि में दबाये गये हैं और जो जल में प्रवाह करे गये हैं जो अग्नि संस्कार से दग्ध करे गये हैं और जो पुण्य कर्म से देवलोक में प्राप्त हो गये हैं तिन हमारे सर्वपितरों को हमारी दी हुई यह स्वधा रूप हवि के खाने के लिए हे अग्निदेव आप कृपा करके बुलायें जिन पितरों की प्रसन्नता से हमारे लोगों का कल्याण होवे 114211
(वायु पु. उत्तरार्ध. अ. 21 – श्लो. 89-98)
सर्वत्र वर्तमानास्ते पिण्डाः प्रीणन्ति वै पितृन् ।
यदाहारो भवेज्जन्तुराहारः सोऽस्य जायते ||43||
यथा गोष्ठे प्रनष्टां वैवत्सो विन्दति मातरम् ।
तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठति ||44||
वायुपुराण में कहा है कि मंत्रों से प्रवर्तमान हुए वे पिण्ड सर्व स्थानों में सर्व योनियों में पितरों को जाकर तृप्त करते हैं, जिस आहार वाला प्राणी होता है उसको सोई प्राप्त हो जाता है ||43||
जैसे हजारों गौओं के समूह में से छिपी हुई अपनी माता गौ को बछड़ा खोजकर प्राप्त हो जाता है, तैसे ही विधिपूर्वक मंत्रों से दिये हुए पिण्डों को लेकर मंत्र जिस स्थान में, जिस योनि में जन्तु स्थित हैं, तहाँ ही तिस प्राणी को खोजकर पिण्डों को प्राप्त कर देता है। पितृश्राद्ध में तीन विद्वान् ब्राह्मणों का ग्रहण करे “देव कार्य में यथा शक्ति बहुत से ब्राह्मणों को ग्रहण करे” ||44||