4. दुर्जनों के लक्षण

दुर्जनों के लक्षण

(माघ. सर्ग – 16- श्लो. 23-29)

परितप्यत एव नोत्तमः परितप्तोऽप्यपर सुसंवृत्तिः ।

परवृद्धिभिराहितव्यथः स्फुटनिर्भिन्नदुराशयोऽधमः ||1||

सहजान्धद्दशः स्वदुर्नये परदोषेक्षणे दिव्यचक्षुषः ।

स्वगुणोच्चगिरो मुनिव्रताः परवर्णग्रहणेष्वसाधवः ||2||

द्वितीय अध्याय में साधु महिमा और साधु लक्षण कहे, अब दुर्जनों के लक्षण इस तृतीय अध्याय में कहते हैं :-

माघ में कहा है कि संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं। उत्तम 1, मध्यम 2, अधम 3, इनमें से उत्तम पुरुष तो दूसरों की वृद्धि, पूजा और यश को देखकर आनन्द मानते हैं। तपायमान नहीं होते और मध्यम पुरुष दूसरों की पूजा यशको देखकर तपायमान तो होते हैं परन्तु मुख से नहीं कहते कि इसकी वृद्धि, यश और पूजा क्यों होती हैं ? और अधम पुरुष दूसरों की वृद्धि पूजा और यश को देखकर व्यथा से युक्त हुए दुःख से विदीर्ण हृदय होते हैं और मुख से कटु शब्द बोलते हैं ।।1।।

माघ में दुर्जन के लक्षण कहे हैं कि जो अपने दुराचरण दुष्ठता और अन्यायों को देखने में स्वभाव से अन्धे होते हैं और दूसरों के दोष देखने में इन्द्र के समान हजार नेत्रों वाले होते हैं, अपने गुणों को ऊँचे शब्दों में सुनाते हैं और दूसरे श्रेष्ठ पुरुषों के शुभ गुणों के कथन करने के समय मौन व्रत को धारण कर लेते हैं, ये असाधु दुर्जन पुरुषों के लक्षण हैं ।।2।।

इसी के अन्तर्गत एक गाथा आती है वो निरूपण करते हैं- एक समय राजा युद्धिष्ठिर के यज्ञ के सभा मण्डप में सर्व राजसमाज के एकत्रित होने पर धर्मपुत्र हाथ जोड़कर भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य आदि से प्रार्थना करते हैं- कि हे भगवन् ! इस राजसमाज में सभापति बनाने के लिए मैं किसका पूजन करूँ।

तब भीष्म आदि ने श्रीकृष्णचन्द्रजी की पूजा करने को कहा यह सुनकर धर्मपुत्र सात्यकि आदि सर्व राजसमाज बहुत आनन्दित हुआ। किन्तु आसुरी वृत्तिवाले शिशुपाल ने श्रीकृष्णचन्द्रजी का पूजन न सहन करते हुए कहा, हे राजसमाज ! यह भीष्मपितामह वृद्ध हो गये हैं इनकी बुद्धि ठिकाने नहीं है। क्यों कि पूजन उसका किया जाता है जो (1) अवस्था में वृद्ध हो (2) जातिवृद्ध हो (3) अभिषिक्त राजा हो (4) विद्यावृद्ध हो तथा (5) ब्रह्मचारी हो। यह कृष्ण ग्वाला इन पांच गुणों में से एक के भी योग्य नहीं है।

अस्तु, पूजन करने के योग्य को न पूजकर इस दुराचारी का पूजन कैसे हो सकता है। हम राजाओं के साथ में सम्बन्ध होने से इनका कुछ मान होने लगा है। और राजगद्दी तो इनको यदु के शाप के कारण नहीं होती और व्यभिचारियों में अग्रगण्य हैं। और कंस को मारने से माता के वंश का घातक होने से इनकी पूजा कैसे हो सकती है।

यह सुन भीष्मपितामह ने कहा कि हे शिशुपाल ! जो तुमने कहा कि इस कृष्ण की पूजा कैसे हो सकती है यह तो ठीक कहा क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्रजी त्रिलोकी के नाथ, देवताओं से पूजनीय को हम तुच्छ विभूतिवाले तथा तुच्छ बुद्धिवाले कैसे पूज सकते हैं मूर्खता से तुमने जो निन्दाकरी है, उसका उत्तर यह है मेरे हाथ में धनुष है इसके बल से श्रीकृष्णजी की पूजा कराने वाला मैं हूँ जो विरोध करने वाला हो वो मेरे इस बाण का ग्रास होने के लिए मेरे आगे आवे। ऐसी बात सुनकर शिशुपाल क्रुद्ध हो उठकर चला गया।

कुछ उसके अनुयायी भी चले गये और कुछ लज्जा से बैठे ही रहे तब शिशुपाल बाहर मैदान में आकर युद्ध के लिए दूत को समझाकर सभा में भेजते भये। दूत ने सभा में जाकर कहा मैं शिशुपाल का दूत हूँ यदि आपकी आज्ञा हो तो राजा का पत्र मैं सुनाऊँ। धर्म पुत्र ने कहा सुनाओ। तब दूत ने सुनाया कि शिशुपाल कहते हैं भीष्म बुद्धिहीन हैं। युधिष्ठिर धर्मपुत्र नहीं अधर्मपुत्र है क्योंकि गौओं को चराने वाला बलहीन, धूर्त, पुत्रभाव से दूध पिलाने वाली पूतना का घातक बाहर से काला है और भीतर से भी काला होने से इसका नाम कृष्ण है।

इस दुराचारी व्यभिचारी का पूजन करने वाला युधिष्ठिर भी दुराचारी है। इन सर्व को युद्ध करने में मैं बाणों की वर्षा से शिक्षा देऊँगा।’ इससे आदि लेकर बहुत से निन्दासूचक शब्द सुनकर सात्यकि ने कहा हे दूत ! तुमने अपने राजा शिशुपाल की नीचता पूरी रीति से सभा में आकर प्रकट कर दी और निर्दोष कृष्णचन्द्रजी में दोष लगाने से अपनी भी महाअधमता कह दी। पश्चात् श्री कृष्णचन्द्रजी ने सौ अपराध पूरे होने पर शिशुपाल को चक्र से मार डाला।

धर्म पुत्र ने श्रीकृष्णचन्द्रजी भगवान् का विधिपूर्वक पूजन कर आनन्दपूर्वक यज्ञ को किया ।।2।।

(गर्गसंहिता खण्ड 10-अ. 61 श्लो. 40 )

सरोगता साधुजनेषु वैरं परोपतापो द्विजवेदनिन्दा |

अत्यंतकोपः कटुकाच वाणी नरस्य चिह्नं नरकागतस्य ||3||

(भारत सार. पर्व, 5 अ. 54 – श्लो. 34 )

तुष्यन्ति भोजने विप्रा, मयूरा घनगर्जने ।

साधवः परकल्याणैः खलाः परविपत्तिभिः ||4||

गर्ग संहिता में कहा है कि सरोग होना, साधु महात्माओं से बैर करना और दूसरे को कष्ट देना, ब्राह्मणों और वेदों की निन्दा करना अत्यन्त क्रोधी होना, दोष रहित पुरुष को दुःख कारक कटु शब्द बोलना इतने चिह्न नरक से आये हुए दुर्जन पुरुषों के हैं ।।3।।

भारत सार में कहा है कि ब्राह्मण दूध पाक आदि भोजन से तुष्ट हो जाते हैं। मोर मेघ की गर्जना से तुष्ट होते हैं। और अद्वैत चिन्तक साधु महात्मा संसार से मुक्त कराने वाले कल्याणकारी साधनों में लगे हुए पुरुषों को देखकर तुष्ट होते हैं परन्तु दुर्जन-खल पुरुष दूसरे को विपत्ति में देखकर तुष्ट होते हैं ।।4।।

(देवी भा. स्कंध 1- अ. 5- श्लो. 20)

निद्राभंग: कथाछेदो दम्पत्योः प्रीतिभेदनम् ।

शिशु मातृभेदश्चैव ब्रह्महत्यासमं स्मृतम् ||5||

(गरुड़. पु. काण्ड – 1 – अ. 12- श्लो. 15)

दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्यालंकृतोऽपि सन् ।

मणिना भूषितः सर्प किमसौ न भयंकर ||6||

(गरुड़. पु. काण्ड-1 – अ. 14- श्लो. 1)

नमन्ति फलिनो वृक्षा नमन्ति गुणिनो जनाः ।

शुष्कवृक्षाश्च मूर्खाश्च भिद्यन्ते न नमन्ति च ||7||

देवी भागवत में कहा है कि निन्द्रा का भंग करना कथा में विघ्न करना और पुरुष स्त्री के आनन्द में विघ्न करना बालक को बहकाकर माता से भिन्न करना ये ब्रह्म हत्या के समान है ||5||

गरुड़ पुराण में विद्या से भूषित दुर्जन का भी त्याग कहा है जैसे मणि से भूषित सर्प का भयंकर होने से त्याग किया जाता है ||6||

गरुड़ पुराण में कहा है कि फलों को पाकर जैसे वृक्ष नीचे झुक जाते हैं ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुष शुभ गुणों को पाकर विनय नम्र भाव को प्राप्त होते हैं और जैसे शुष्क वृक्ष नीचा करने पर टूट तो जाता है पर नमता नहीं है वैसे ही दुर्जन मूर्ख-पुरुष मर जाता है परन्तु नम्र भाव को नहीं प्राप्त होता है ||7||

(भा. स्कंध 7 – अ. 4- श्लो. 27)

यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु ।

धर्मे मयि च विद्वेष : स वा आशु विनश्यति ||8||

(यो. प्र. – 6- स. 116 – श्लो. 66 )

तुल्यवर्णछदः कुष्णः संहतैः किल कोकिलैः ।

कैन विज्ञायते काकः स्वयं यदि न भाषते ||9||

भागवत् में भगवान् कहते हैं कि जब देवताओं में, वेदों में, गौओं में, ब्राह्मणों में, साधु महात्माओं में, वेद के विधान किये हुए सनातन धर्म में और (मेरे) सर्व के ईश्वर में जो पुरुष द्वेष करता है वह शीघ्र ही नाश होता है।।8।।

 

वशिष्ठजी कहते हैं कि हे रामजी ! जैसे कोकिलों के समूह में समानकाले रंग वाला तथा समान पंखों वाला बैठा हुआ जो काक उसको कौन जान सकता है कि यह कौआ है जब तक वह मुँह से न बोले ऐसे ही दुर्जन, मूर्ख पुरुष को समान हाथ पैर वाले सज्जन पुरुषों में बैठे हुए को कौन जान सकता है, कि यह दुर्जन है, जब तक वह न बोले अर्थात् दुर्जन पुरुष बोलने से ही जाना जाता है।।9।।

(शंकर दिग्. सर्ग-1 श्लो. 65 )

मलिनैश्चेन्न संगस्ते नीचैः काककुलैः पिक।

श्रुतिदूषकनिर्हादैः श्लाघनीयस्तदा भवेत् ||10||

कुमारिल भट्ट सुधन्वा राजा की सभा में बैठे हुए वेदों का प्रचार करने के निमित्त से

राजा को नास्तिकों के पंजे में से निकालकर वैदिक धर्म में आरूढ़ करने के लिए और अद्वैत प्रतिपादक वेद से विरुद्ध धर्मियों को नीचा दिखाने के लिए कोकिला के शब्द के बहाने से कहते हैं –

हे पिक ! विष्टा भक्षण करने वाले तथा नीच कुल वाले कौओं के सम्बन्ध से तुम्हारा मधुर शब्द भी शोभा नहीं पाता है जैसे वेदों को दोष लगाने वाले दया रहित वेद के निन्दक घातक भेद रूप मल भक्षण करने वाले नास्तिकों के संग से कल्याण रूप मोक्ष का रास्ता दिखाने वाले वेद शोभा नहीं पाते हैं, क्योंकि नास्तिक कहते हैं कि वेद धूर्त पुरुषों के बनाये हुए हैं ।।10।।

(अध्यात्मरामा काण्ड-2-सर्ग – 2 – श्लो. 83)

अतः संगःपरित्याज्यो दुष्टानां सर्वदैव हि।

दुःसंगी च्यवते स्वार्थाद्यथेयं राजकन्यका ।।11।।

(भा. स्कंध 4 अ. 22 – श्लो. 34 )

न कुर्यात्कहिचित्संगं तमस्तीव्रं तितीरिषुः ।

धर्मार्थकाममोक्षाणां यदत्यंतविधातकम् ।।12।।

अध्यात्म रामायण में महादेवजी उमा से कहते हैं कि दुर्जन पुरुष का संग करने से पुरुष अपना स्वार्थ जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष है इन चारों से पतित हो जाता। जैसे राजकन्या कैकयी दुष्ट कुब्जा के संग से पति सेवा रूप धर्म, राजावश में होने से राजलक्ष्मी सम्बन्धी

 

सुख रूपी अर्थ और पुत्र पति सम्बन्धी सुख रूपी काम और परब्रह्म परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी की प्रसन्नता से ज्ञान द्वारा मोक्ष इन चारों से पतित हो गई इस कारण से दुष्टजनों का संग सर्वदा ही त्याज्य है।।11।।

दुर्जन के संग से भयभीत होकर श्रीराम चरणानुरागी विभीषण, पूर्ण ब्रह्म आनन्दकन्द श्री रामचन्द्रजी से कहते हैं:

‘बरू भल वास नर्क कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ विधाता।।’

भागवत में कथा है- एक समय सन्तकुमारादि ब्रह्मा के पुत्र वीतराग आत्मवेत्ता भी पृथुराजा के शुभ गुणों से आकर्षित हुए राजा के पास आये। पृथुराजा ने दण्डवत्- नमस्कार पूर्वक सत्कार कर शुभ आसनों पर बिठाकर वीतराग ब्रह्मा के पुत्रों से हाथ जोड़कर पूछा भो ! ब्रह्मविद् वरिष्ठो । हमारे संसारियों के आनन्द कुशल का क्या कोई मार्ग भी है क्योंकि आत्मानन्द स्वरूप आप महात्माओं की आनन्द कुशलता का तो प्रश्न ही नहीं हो सकता इस कारण से आप मेरे को हमारे कल्याण कुशल का मार्ग बतलाओ ।

तब सनत्कुमारजी ने कहा हे राजन् ! अज्ञान रूप संसार समुद्र जो शब्द स्पर्शादि तरंगों और शोक मोहादिना नाकुओं से युक्त है उसको तरने की इच्छा वाला पुरुष धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अत्यन्त घातक जो दुर्जन पुरुषों का संग है उसको कभी न करे। जैसे कोयलों का संग कभी हो वो अवश्य ही काला करने वाला होता है तैसे ही दुर्जन पुरुष का संग पाप जनक और दुराचरण में प्रवर्तक होने से काला करने वाला है ।।12।।

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Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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