माघ ने कहा है कि संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं। उत्तम, मध्यम और अधम। उत्तम पुरुष तो दूसरों की वृद्धि, पूज्य और यश को देखकर आनन्दीत होते हैं, तपायमान नहीं होते हैं, और मध्यम पुरुष दूसरों की पूजा और यश को देखकर तपायमान तो होते हैं, परन्तु मुख से नहीं कहते हैं, और अधम पुरुष दूसरों की वृद्धि, पूजा और यश को देखकर व्यथा से युक्त हुए दुःख से विदीर्ण हृदय होते हैं, और मुख से कटु शब्द बोलते हैं।

माघ ने दुर्जन के लक्षण कहे हैं कि जो अपने दुराचरण दुष्टता और अन्यायों को देखने में स्वभाव से अन्धे होते हैं और दूसरों के दोष देखने में इन्द्र के समान हजार नेत्रों वाले होते हैं। अपने गुणों को ऊँचे शब्दों में सुनाते हैं और दूसरे श्रेष्ठ पुरुषों के शुभ गुणों के कथन करने के समय मौन व्रत को धारण कर लेते हैं। ये असाधु दुर्जन पुरुषों के लक्षण है।

गर्ग संहिता में कहा है कि सरोग होना, साधु महात्माओं से बैर करना और दूसरों को कष्ट देना, ब्राह्मणों और वेदों की निन्दा करना अत्यन्त क्रोधी होना, दोष रहित पुरुष को दुःखकारक कटु शब्द बोलना इतने चिन्ह नरक से आये हुए दुर्जन पुरुषों के हैं।

भारत सार में कहा है कि ब्राह्मण दूधपाकधारी भोजन सेतुष्ट हो जाते हैं। मोर मेघ की गर्जना से तुष्ट हो जाते हैं और अद्वैत चिन्तक साधु महात्मा संसार से मुक्त कराने वाले कल्याणकारी साधनों में लगे हुए पुरुषों को देखकर तुष्ट होते हैं। परन्तु दुर्जन खल पुरुष दूसरे को विपत्ति में देख कर तुष्ट होते हैं।

देवी भागवत् में कहा है कि निन्द्रा का भंग करना, कथा में विघ्न करना और पुरुष स्त्री के आनन्द में विघ्न करना, बालक को बहलाकर माता से भिन्न करना ये ब्रह्म हत्या के समान है।

गरुड़ पुराण में विद्या से भूषित दुर्जन का भी त्याग कहा है कि जैसे मणि से भूषित सर्प का भयंकर होने से त्याग किया जाता है।

गरुड़ पुराण में कहा है कि फलों को पाकर जैसे वृक्ष नीचे झुक जाते हैं, ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुष शुभ गुणों को पाकर विनय नम्र भाव को प्राप्त होते हैं और जैसे शुष्क वृक्ष नीचा करने पर टूट तो जाता है पर नमता नहीं है वैसे ही दुर्जन मूर्ख पुरुष मर जाता है। परन्तु नम्र भाव को नहीं प्राप्त होता है।

भागवत् में भगवान कहते हैं कि जब देवताओं में, वेदों में, गौओं में, ब्राह्मणों में, साधु महात्माओं में वेद के विधान करते हुए सनातन धर्म में और (मेरे) सर्व के ईश्वर में, जो पुरुष द्वेष करता है। वह शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है।

वशिष्ठजी कहते हैं कि हे रामजी ! जैसे कोकिला के समूह में समान काले रंग वाला तथा समान पंखों वाला बैठा हुआ जो काक उसको कौन जान सकता है कि यह कौआ है, जब तक वह मुँह से न बोले ऐसे ही दुर्जन मूर्ख पुरुष को समान हाथ पैर वाले सज्जन पुरुषों में बैठे हुए को कौन जान सकता है कि यह दुर्जन है जब तक वह न बोले अर्थात् दुर्जन पुरुष बोलने से ही जाना जाता है।

अध्यात्म रामायण में महादेवजी उमा से कहते हैं कि दुर्जन पुरुष का संग करने से पुरुष अपना स्वार्थ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है इन चारों से पतित हो जाता है। जैसे राजकन्या कैकयी दुष्ट कुब्जा के संग से पति सेवा रूपी धर्म, राजवंश में होने से राजलक्ष्मी सम्बन्धी सुख रूपी अर्थ और पुत्र पति सम्बन्धी सुख रूपी काम और परब्रह्म परमात्मा श्री रामचन्द्रजी की प्रसन्नता से ज्ञान द्वारा मोक्ष इन चारों से पतित हो गई, इस कारण से दुष्टजनों का संग सर्वदा ही त्याज्य है।

भागवत् में सनत्कुमारजी ने राजन से कहा कि हे राजन् ! अज्ञान रूपी संसार समुद्र जो शब्द स्पर्शादि तरंगों और शोक मोहादि से युक्त है, उसको तरने की इच्छा वाला पुरुष धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अत्यन्त घातक जो दुर्जन पुरुषों का संग है उसको कभी न करें। जैसे कोयले का संग कभी भी हो, वो अवश्य ही काला करने वाला होता है वैसे ही दुर्जन पुरुष का संग पाप जनक और दुराचरण में प्रवर्तक होने से काला करने वाला है।

MEGHA PATIDAR
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Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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